पहले कांग्रेस देश का रास्ता बनाती थी, जिस पर लोग चलते थे, अब देश का रास्ता बाजार बनाते है जिस पर कांग्रेस चलती है। और लोग खुद को सियासी राजनीति में हाशिये पर खड़े पा रहे हैं। ऐसे वक्त में कामराज प्लान के जरीये क्या वाकई कांग्रेस में पुनर्जागरम की स्थिति आ सकती है?
लेकिन यहीं पर सवाल सोनिया गांधी के कांग्रेस का आता है। और यहीं से सवाल तब के कमराज और के एंटोनी को लेकर भी उभरता है और कांग्रेस के पटरी से उतरने की वजह भी सामने आती है। असल में आम लोगों से जुड़े जो राजनीतिक प्रयोग आज मनमोहन सिंह की सरकार कर रही है, वह प्रयोग कामराज ने साठ के दशक में तमिनाडु में कर दिये थे। 14 बरस तक के बच्चों को मुफ्त शिक्षा से लेकर मिड-डे मिल और गरीब बच्चो को उंची पढ़ाई के लिये वजीफा से लेकर गरीबी की रेखा से नीचे के परिवारो को मुफ्त अनाज बांटने का सिलसिला। और कांग्रेस को पटरी पर लाने की अपनी योजना के बाद कामराज तमिलनाडु की सियासत छोड़ कांग्रेस को ठीक करने दिल्ली आ गये। 1964 में कांग्रेस के अध्यक्ष बने और लाल बहादुर शास्त्री के बाद बेहद सफलता से इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री पद पर बैठाने का रास्ता भी बनाया। अब के दौर में सोनिया गांधी ने यही काम मनमोहन सिंह को लेकर किया। वरिष्ठ और खांटी कांग्रेसियों की कतार के बावजूद मनमोहन सिंह को ना सिर्फ प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठाया बल्कि प्रधानमंत्री पद को किसी कंपनी के सीईओ के तर्ज पर बनाने का प्रयास भी किया। कांग्रेस की असल हार यही से शुरु होती है। क्योंकि कामराज के रहते हुये इंदिरा गांधी ने 1967 में देश के विकास और कांग्रेस के चलने के लिये जो पटरी बनायी उसके किसी भी तत्व से उलट आज मनमोहन सरकार की नीतिया चल पड़ी हैं।
इंदिरा गांधी ने राष्ट्रहित की लकीर खींचते हुये जिन आर्थिक नीतियों को देश के सामने रखा उसके अक्स में अगर मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों को रखे तो पहला सवाल यही खड़ा हो सकता है कि कांग्रेस के साथ उसका पारंपरिक वोट बैंक पिछड़े, गरीब,आदिवासी, किसान, अल्पसंख्यक क्यों रहे। ऐसे में विधानसभा चुनावों से लेकर दिल्ली कॉरपोरेशन में हार के बाद कांग्रेस में अगर एंटोनी कमेटी की रिपोर्ट यह कहते हुये सामने आती है कि उम्मीदवारो के गलत चयन और वोट बैंक को लुभाने के लिये आरक्षण से लेकर बटला एनकांउटर तक पर अंतर्विरोध पैदा करती लकीर सिर्फ वोट पाने के लये खिंची गई और इन सबके बीच महंगाई और भ्रष्ट्राचार ने कांग्रेस का बंटाधार कर दिया। तो सवाल सिर्फ कांग्रेस संगठन का नहीं है बल्कि सरकार की नीतियों का बुरा असर किस हद तक आमलोगो पर पड़ा है और कांग्रेस अगर इसके लिये सिर्फ पार्टी संगठन देख रही है तो इससे बुरी त्रासदी कुछ हो नहीं सकती। सोनिया गांधी को समझना होगा कि कामराज योजना के बाद इंदिरा गांधी ने अपनी राजनीतिक पहल भी शुरु की थी और 1967 के दस सूत्री कार्यक्म के साथ सरकार चलाना भी शुरु किया और कांग्रेस भी पैरो पर खड़ी होती गई। क्योंकि इंदिरा का रास्ता समाजिक ढांचे को बरकरार रखते हुये रास्ता आम लोगो के लिये सोचने वाला था। इंदिरा गांधी ने जो लकीर खींची उस दौर में खींची वह मनमोहन सरकार के दरवाजे पर कैसे खुले बाजार में बिक रही है।
जरा नजारा देखें। जिस बैकिंग सेकटर को मनमोहन सिह खोल चुके है उस पर इंदिरा की राय थी कि बैकिंग संस्थान सामाजिक नियंत्रण में रहें। वह आर्थिक विकास में भी मदद दें और सामाजिक जरुरतों के लिये भी धन मुहैया करायें। जिस बीमा क्षेत्र को मनमोहन सरकार विदेशी निवेश से लेकर आम आदमी की जमा पूंजी को आवारा पूंजी बनाना चाहती है। उसको लेकर इंदिरा गांधी की सीधी राय थी कि बीमा कंपनियां तरह सार्वजनिक सेक्टर का हिस्सा हों। इसलिये बीमा क्षेत्र का राष्ट्रीकरण किया गया। गरीब, आम आदमी और कारपोरेट को लेकर जो उडान मनमोहन सरकार भर रही है। इंदिरा गांधी ने उसे ना सिर्फ जमीन पर ऱखा बल्कि देश के बहुसंख्यक लोगों के लिये पहले जीने की जमीन जरुरी है और उसी अनुरुप नीतियां बन सकती हैं, इसके साफ संकेत अपनी नीतियों में दिखाये। जहां उपभोक्ताओ के लिये जरुरी वस्तुओं के आयात-निर्यात तय करने की जिम्मेदारी बाजार के हवाले ना कर राज्यों की एजेंसियों के हवाले की। पीडीएस को लेकर राष्ट्रीय नीति बनायी। एफसीआई और को-ओपरेटिव एंजेसिंयों के जरीये पीडीएस स्कीम चलाने की बात कही। उस दौर में अनाज रखने के गोदामों की जरुरतो को पूरा करने पर जोर दिया। अब जहां सबकुछ कारपोरेट और निजी कंपनियो के हवाले किया जा रहा है। वहीं इंदिरा गांधी ने उपभोक्ता को-ओपरेटिव के जरीये जरुरी बस्तुओं को शहर और ग्रामीण क्षेत्रों में बांटने का जिम्मदारी सौंपी। इंदिरा गांधी को इसका भी अहसास था कि आर्थिक ढांचे को लेकर अगर सामाजिक दवाब ना बनाया गया तो कारपोरेट और निजी कंपनियां अपने आप में सत्ता बन सकती हैं। इसलिये मोनोपोली के खिलाफ सरकारी पहल शुरु की। इतना ही नही जिस तरह मनमोहन सिंह के दौर में सबकुछ पैसे वालो के लिये खोल दिये गये हैं। इंदिरा गांधी ने 45 बरस पहले देश की नब्ज को पकड़ा और शहरी जमीन पर एक सीमीत अधिकार या खरीदने की बात कही। यानी कोई रियल एस्टेट यह ना सोच लें कि वह जितनी चाहे जमीन कब्जे में ले सकता है या फिर राज्य सत्ता किसी अपने प्रिय को ही एक सीमा से ज्यादा जमीन दे दें। यानी मोनोपोली किसी निजी व्यवसायी या कारपोरेट की ना हो इसका खास ध्यान रखते हुये भूमि सुधार कार्यक्रम का सवाल भी तब काग्रेस में यग कहते हुये उठा कि खेती की जमीन को बिलकुल ना छेड़ा जाये। जंगल बिलकुल ना काटे जायें। बंजर और अनुपयोगी जमीन के उपयोग की नीति बनायी जाये। कांग्रेस 45 बरस पहले सरकारी नीति के तहत कहती दिखी कि किसान-मजदूरों के लिये बेसिक इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार करना जरुरी है। सिंचाई को खेती के इन्फ्रास्ट्रकचर के ढांचे में लाना है। पशुधन के लिये नीति बनानी है और खेत की उपज किसान ही बाजार तक पहुंचायें, इसके लिये सडक समेत हर तरह के इन्फ्रस्ट्रक्चर को विकसित करना जरुरी है। लेकिन आर्थिक सुधार की हवा में कैसे यह न्यूनतम जरुरते ही हवा हवाई हो गई यह किसी से छिपा नहीं है। अब तो आलम यह हो चला है कि मिड-डे मिल से लेकर पीडीएस की लूट और आम आदमी की न्यूनतम जिम्मेदारी तक से सरकार मुंह मोड़ रही है।
जाहिर है नीतियों को लेकर जब इतना अंतर काग्रेस के भीतर आ चुका है तब यह सवाल उठने जायज होंगे कि आखिर कांग्रेस संगठन को वह कौन से नेता चाहिये जिससे कांग्रेस सुधर जाये। नेहरु से लेकर राजीव गांधी तक के दौर में काग्रेस संगठन को लेकर सारी मशक्कत सरकार पाने या चुनाव में जीतने को लेकर ही रही। पहली बार सत्ता या सरकार के होते हुये कांग्रेस को संगठन की सुध आ पड़ी है तो इसका एक मतलब तो साफ है सरकार की लकीर या तो कांग्रेस की धारा को छोड़ चुकी है या फिर कांग्रेस के लिये प्राथमिकता 2014 में सत्ता गंवाने के लिये अभी सरकार बचाना है या अभी सरकार को ठीक कर 2014 में सत्ता बरकरार रखना। यह सवाल खासतौर से उन आर्थिक नीतियों के तहत है जिसमें आर्थिक सुधार का पोसटर ब्याय क्षेत्र टेलिकाम में सरकार तय नहीं कर पाती की कॉरपोरेट के कंघे पर सवाल हुआ जाये या देश के राजस्व की कमाई की जाये। एक तरफ सुप्रीम कोर्ट के 122 लाइसेंस रद्द करने के खिलाफ सरकार कारपोरेट के साथ खड़ी भी होती है और ट्राई आक्शन की नयी दर पुरानी दरों की तुलना में दस गुना ज्यादा भी ऐलान करती है। यही हाल इन्फ्रास्ट्रक्चर से लेकर खनन, कोयला, पावर, स्टील, और ग्रामीण विकास तक को लेकर है।
लेकिन याद कीजिये इन्ही कारपोरेट पर इंदिरा गांधी ने कैसे लगाम लगायी थी और यह माना था जब जनता ने कांग्रेस को चुन कर सत्ता दी है तो सरकार की जिम्मेदारी है कि वह जनता का हित देखे। इसलिये इंदिरा ने कारपोरेट लाबी के अनुपयोगी खर्च और उपयोग दोनो पर रोक लगायी थी। राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों को सामाजिक जरुरतो के लिहाज से काम करने की बात कही थी। पिछड़े क्षेत्रो में विकास के लिये राष्ट्रीय शिक्षा और स्वास्थ्य संस्थानों से लेकर ऐसा इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाना था जो अपने आप में स्थानीय अर्थवय्वस्था विकसित कर सकें। इतना ही नही अब तो सरकारी नौ रत्नो को भी बेचा जा रहा है । जबकि इंदिरा गांधी सार्वजनिक क्षेत्रो को ज्यादा अधिकार देने के पक्ष में थी जिससे वह निजी क्षेत्रो को प्रतिस्पर्धा दे सके। और तो और जिन क्षेत्रो में को-ओपरेटिव काम कर रहे है उन क्षेत्रो में कॉरपोरेट ना घुसे इसकी भी व्यवस्था की थी। विदेशी पूंजी को देसी तकनीकी क्षेत्र में भी घुसने की इजाजत नहीं थी। जिससे खेल का मैदान सभी के लिये बराबर और सर्वानुकुल रहे। मुश्किल तो यह है राहुल गांधी के जरीये युवा वोट बैंक की तलाश तो कांग्रेस कर रही है लेकिन सरकार के पास देश के लेन्टेड युवाओं के लिये कोई योजना तक नहीं है। जबकि इंदिरा गांधी ने 1967 में भी कांग्रेस के चुनावी मैनिफेस्टो में युवाओ के लिये राजोगार के रास्ते खोलने के साथ साथ युवाओं को राष्ट्रीय विकास से जोड़ने के लिये स्थायित्व मदद का बात भी कही और सरकार में आने के बाद नीतियों के तहत देसी टैलेंट का उपयोग भी किया, लेकिन मनमोहन सिंह के दौर में टैलेंट का मतलब आवारा पूंजी की पीठ पर सवार होकर बाजार से ज्यादा से ज्यादा माल खरीदना है। तो यह सवाल अब उठेंगे ही कि आखिर कांग्रेस पटरी पर लौटेगी कैसे जब सरकार भी वही है और सरकार की नीतियो को लेकर सवाल भी वहीं करने लगी है।
कांग्रेस 45 बरस पहले सरकारी नीति के तहत कहती दिखी कि किसान-मजदूरों के लिये बेसिक इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार करना जरुरी है। सिंचाई को खेती के इन्फ्रास्ट्रकचर के ढांचे में लाना है। पशुधन के लिये नीति बनानी है और खेत की उपज किसान ही बाजार तक पहुंचायें, इसके लिये सडक समेत हर तरह के इन्फ्रस्ट्रक्चर को विकसित करना जरुरी है। लेकिन आर्थिक सुधार की हवा में कैसे यह न्यूनतम जरुरते ही हवा हवाई हो गई यह किसी से छिपा नहीं है। अब तो आलम यह हो चला है कि मिड-डे मिल से लेकर पीडीएस की लूट और आम आदमी की न्यूनतम जिम्मेदारी तक से सरकार मुंह मोड़ रही है।
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