ऐसा बताते हैं कि लोकतांत्रिक संसद की शुरुआत इंग्लैण्ड से हुई। इंग्लैण्ड के संसद के शुरुआती दौर में देश के शाही खानदान के लोग, बड़े-बड़े पैसे वाले सदस्य हुआ करते थे। जब अमरीका 1776 में आजाद हुआ ब्रितानी गुलामी से, तो उसने भी लोकतंत्र अपनाया। पर 1861-65 के गृहयुद्ध में अमरीका की लोकतांत्रिक व्यवस्था चरमरा गयी और उद्योगपतियों ने उसका लाभ उठाकर लोकतंत्र पर अपना शिकंजा कस लिया। जो कुछ उस देश में होने जा रहा था, उसे देखकर अपनी मृत्यु से ठीक पहले राष्ट्रपति इब्राहिम लिंकन ने कहा था, ‘‘कारपोरेट सिंहासन पर बैठ गये हैं-नतीजन उच्च स्थानों पर भ्रष्टाचार का युग आयेगा और धन सत्ता लोगों के पूर्वाग्रहों का लाभ उठाकर अपना शासन बढाने की पूरी कोशिश तब तक करेगी जब तक सम्पत्ति कुछ हाथों में न सिमट जाय और लोकतंत्र समाप्त न हो जाय।’’ये जो हमारी विधानसभाओं और लोकसभा में जनप्रतिनिधि बैठे हैं वे तो जन प्रतिनिधि होने के नाम पर वहां हैं तो फिर भला वे धन प्रतिनिधि कैसे बन गये हैं? राज्यसभा तो मानों धनप्रतिनिधियों की ही पनाहगाह बन गई है। जनतंत्र के धनतंत्र में तब्दील होने की यह खामी क्या भारत विशेष में ही दिखाई दे रही है या फिर इस संसदीय लोकतंत्र में ही कोई गंभीर खामी है जिसके कारण हमारे जनप्रतिनिधि धन प्रतिनिधि बनते जा रहे हैं। डॉ बनवारी लाल शर्मा मानते हैं कि खामी जन में नहीं खामी तंत्र में जिसमें धनप्रतिनिधि (कारपोरेट घराने) जनप्रतिनिधियों को भ्रष्ट बनाते हैं और व्यवस्था से मनमाफिक मुनाफा बनाते हैं।
आजाद होने पर भारत ने भी इग्लैण्ड, अमरीका जैसे देशों की तर्ज पर देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था अपनायी, केन्द्र में संसद बनी, प्रदेशों में विधानसभाएं गठित र्हुईं। इनमें वयस्क मताधिकार के आधार पर चुनाव कराकर जनप्रतिनिधि भेजे गये। आजादी की लम्बी लड़ाई का प्रभाव देश में था और कोई 15 साल तक लोकतांत्रिक व्यवस्था कमोवेश ठीक चलती रही। लोगों के बीच से सामान्य लोग भी चुनकर संसद और विधान सभाओं में पहुँचते गये। एकदम शुद्ध प्रतिनिधित्व तो नहीं था, धर्म और जाति तथा पुराने राजघरानों का प्रभाव चुनावों पर दिखायी देता था। आजादी की लड़ाई में अग्रणी राजनैतिक दल कांग्रेस का चुनावों में बोलबाला रहा। पर डॉ. राममनोहर लोहिया की कोशिश से कई प्रदेशों में कई दलों की मिली-जुली सरकारें बनी। जयप्रकाश नारायण के सन् 1974 के आंदोलन ने कांग्रेस को केद्र से भी हटा दिया। उसके बाद गठबंधन की सरकारों का दौर चला जो अब तक कमोवेश चल रहा है।
पिछले 20-25 सालों में संसद और विधानसभाओं के ढांचे में एक बड़ा परिवर्तन हुआ। इग्लैण्ड के शुरुआती पार्लियामेंट की तर्ज पर हमारे देश के प्रतिनिधि भवनों में उद्योगपतियों और कारपोरेटों प्रतिनिधियों तथा करोड़पतियों की संख्या लगातार बढ़ रही है। वर्तमान लोकसभा में कोई आधे से ज्यादा सदस्य करोड़पति हैं और कइयों की सम्पत्ति हजारों करोड़ की है। हाल ही में एक संस्था ने अनुमान लगाया है कि यूपीए सरकार की मुखिया सोनिया गांधी की सम्पत्ति 2 से 19 अरब डॉलर यानी 100 अरब से 950 अरब रुपयों के बीच में है। अभी उत्तर प्रदेश की निवर्तमान मुख्यमंत्री मायावती ने राज्यसभा की सीट का पर्चा दाखिल करते समय अपने हलफनामे में भरकर मंजूर किया है कि उनके पास 111 करोड़ रु. की सम्पत्ति है। उत्तर प्रदेश की नयी सरकार के मंत्रियों की सूची में उनकी सम्पत्ति की जानकारी भी एक दो अखबारों ने दी। हरेक के पास कई कई करोड़ की सम्पत्ति है।
सवाल यह है कि अपने को जन प्रतिनिधि कहलाने वाले इन प्रतिनिधियों के पास करोड़ों की सम्पत्ति आयी कैसे? हो सकता है कुछेक के बड़े उद्योग चल रहे हैं या बड़े-बड़े कृषि फार्म हों। पर बाकी की आमदनी का स्रोत क्या है? मायावाती का ही उदाहरण लें। वे एक साधारण अध्यापिका थीं, कुछ सौ महीने का वेतन पाने वाली उस जमाने में। एमएलए बन गयीं तो 10-15 हजार रुपये का वेतन भत्ता होगा। कोई खेती का बड़ा कारोबार उनके गांव में नही है। हां, बड़े-बड़े पार्क जरूर बनवाये हैं उन्होंने। आम आदमी को उत्सुकता होती है कि घोषित तौर पर उनके पास 111 करोड़ की सम्पत्ति 8-10 साल में कहां से आयी? यही बात सोनिया गांधी की है। पता नहीं उन्हें इटली से कोई पैत्रृक सम्पत्ति मिली है। उनके पति एक पायलट थे, बहुत ज्यादा वेतन तो होता नहीं। उनके परससुर मोती लाल नेहरू तो पैसे वाले थे लेकिन वह सम्पत्ति तो एक दो पीढ़ी में खत्म हो गयी होगी। जवाहरलाल को किताबों की थोड़ी-बहुत रायल्टी जरूर मिलती थी। इन्दिरा गांधी ने तो कभी कमायी की नहीं। फिर कहां से अरबों की सम्पत्ति एक हाथ में इकट्ठी हो गयी ?
कोई कह सकता है, ये लोग बड़े राजनेता है, लोग इन्हें डोनेशन देते हैं। पर वह डोनेशन व्यक्तिगत तो होता नहीं, पार्टी या संगठन के लिए होता है। धर्मगुरुओं की तरह राजगुरुओं पर चढ़ावा तो नहीं चढता और न चढना चाहिए। फिर क्या स्रोत हैं इतनी अपार सम्पत्ति को कमाने के?
हमारे हाथ में यह बात सिद्ध करने के प्रमाण तो नहीं है पर जो कुछ मीडिया में छपता है, टीवी पर दिखता है, उससे यह अंदाज तो लगता है कि इन राजनेताओं को अपार सम्पत्ति का एक स्रोत बड़े-बड़े कारपोरेट हैं। कर्नाटक में कई मंत्री कारपोरेटों के साथ वहां खनिज पदार्थों के अवैध खनन से लाखों करोड़ की सम्पत्ति बटोर रहे थे। देशी-विदेशी कारपोरेट सरकारों से बड़े-बडे ठेके लेने के लिए राजनेताओं को प्रसन्न रखते हैं और यह प्रसन्नता कमाई का बड़ा स्रोत हो सकता है। यह विश्व स्तर पर प्रमाणित हो चुका है कि कारपोरेट और करप्शन (भ्रष्टाचार) एक सिक्के के दो पहलू हैं। जहां अरबों रुपयों की परियोजनाओं हों उसमें 20 फीसदी राजादा (धर्मादा का पर्यायवाची) लेना-देना तो चलता ही है। हनुमानजी पर सवा किलो लडडू का प्रसाद चढाने पर पुजारी पांच लडडू निकालकर घण्टी बजा देता है तो उसमें हर्ज क्या है? यह तो धर्मसंगत है। ऐसे में नेता राजसंगत व्यवहार करे तो बुराई क्या है? यह तो परंपरा का हिस्सा मान लिया गया है।
निचले स्तर के सरकारी कर्मचारियों से पूछने पर कि क्यों घूस लेने का धर्तकर्म कर रहे हो, जवाब मिलता है, ऊपर भी तो पहुंचाना है। हर विभाग का कोटा तय हो जाता है। नियुक्तियों, पोस्टिंग, पदोन्नति, तबादलों की रेट बंधी हुई है। कुछ विभाग कमाऊ विभाग होते है और उनका मंत्री बनने के लिए मार होती है। यह ऊपर पहुंचाने का मसला थोड़ा जटिल है। इससे यह झलकता है कि सारे हिन्दुस्तानी बेईमान, घूसखोर हो गये हैं। हमें ऐसा नही लगता। ऊपर के माने नेता, बड़े मंत्री, मुख्यमंत्री आदि पर इनके ऊपर जो कारपोरेट बैठे है, ये ऊपर से भ्रष्टाचार की वर्षा कर रहे है। यह भ्रष्टाचार छन-छन कर नीचे तक आता है। अर्थशास्त्र की ट्रिकिल डाउन थ्योरी तो फेल हो गयी है पर भ्रष्टाचार में यह थ्योरी बहुत ही प्रभावी ढंग से लागू है।
(डॉ. बनवारी लाल शर्मा आजादी बचाओ आंदोलन के संस्थापक हैं और वर्तमान में कारोपोरेट मीडिया के विरोध में शुरू की गई पीपुल्स न्यूज नेटवर्क नामक एजंसी संचालित करते हैं.)
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