वेज-प्राइस स्पाइरल क्या है?
आरबीआई ने फाइनेंशल
ईयर 2011-12 के मैक्रो इकनॉमिक एंड मॉनिटरी डेवलपमेंट्स रिपोर्ट में
सोमवार को कहा कि ग्रामीण और शहरी इलाकों में वेतन और मजदूरी बढ़ना महंगाई
दर में तेजी की बड़ी वजह है।
वेज-प्राइस स्पाइरल क्या है?
वेज (सैलरी) में बढ़ोतरी से इंडस्ट्री की इनपुट कॉस्ट बढ़ जाती है। खर्च योग्य इनकम बढ़ने से प्रोडक्ट्स और सर्विसेज की मांग बढ़ जाती है। इसके चलते कीमतें बढ़ती हैं। इससे सैलरी में और बढ़ोतरी की मांग शुरू हो जाती है। ज्यादा सैलरी, ज्यादा प्राइस के इस सायकल को वेज-प्राइस स्पाइरल कहा जाता है।
यह किस तरह होता है?
ऐसे इकनॉमी जिसमें लंबे समय से इनफ्लेशन का स्तर ऊंचा रहा हो, उसमें कीमत में और बढ़ोतरी के आसार ज्यादा होते हैं। अगर लोगों को कीमतों में बढ़ोतरी की आशंका होती है तो उनके सैलरी में अनुमानित इनफ्लेशन रेट से कम बढ़ोतरी को स्वीकार करने की संभावना कम ही होती है। वे कम से कम सैलरी में इतनी बढ़ोतरी चाहते हैं, जो उनके रियल परचेजिंग पावर में कमी की भरपाई कर सके। इनपुट कॉस्ट बढ़ने के चलते भी ऐसा हो सकता है। हाई इनफ्लेशन और इनपुट कॉस्ट बढ़ने पर सरकार मिनिमम सपोर्ट प्राइस बढ़ाने पर मजबूर हो जाती है। इससे फूड प्राइसेज बढ़ने लगते हैं।
स्पाइरल्स रिस्क क्या हैं?
वेज प्राइस स्पाइरल के चलते बढ़ने वाले इनफ्लेशन को कंट्रोल करना मुश्किल हो जाता है। आम तौर पर यह बढ़ोतरी ऐसी इकनॉमी में होती है, जिसमें सप्लाई साइड की दिक्कतें (कम सप्लाई) होती हैं। भारत में इस तरह की स्थिति है। सरप्लस कैपेसिटी वाली इकनॉमी में काफी सप्लाई होने से बढ़ती मांग के चलते इनफ्लेशन नहीं बढ़ता। शॉर्ट टर्म में कैपेसिटी में तेज बढ़ोतरी नहीं की जा सकती, इसलिए स्पाइरल को मैनेज करने के लिए मांग घटाने की जरूरत पड़ती है। कैपेसिटी और डिमांड में संतुलन के लिए ऐसा किया जाता है।
वेज-प्राइस स्पाइरल क्या है?
वेज (सैलरी) में बढ़ोतरी से इंडस्ट्री की इनपुट कॉस्ट बढ़ जाती है। खर्च योग्य इनकम बढ़ने से प्रोडक्ट्स और सर्विसेज की मांग बढ़ जाती है। इसके चलते कीमतें बढ़ती हैं। इससे सैलरी में और बढ़ोतरी की मांग शुरू हो जाती है। ज्यादा सैलरी, ज्यादा प्राइस के इस सायकल को वेज-प्राइस स्पाइरल कहा जाता है।
यह किस तरह होता है?
ऐसे इकनॉमी जिसमें लंबे समय से इनफ्लेशन का स्तर ऊंचा रहा हो, उसमें कीमत में और बढ़ोतरी के आसार ज्यादा होते हैं। अगर लोगों को कीमतों में बढ़ोतरी की आशंका होती है तो उनके सैलरी में अनुमानित इनफ्लेशन रेट से कम बढ़ोतरी को स्वीकार करने की संभावना कम ही होती है। वे कम से कम सैलरी में इतनी बढ़ोतरी चाहते हैं, जो उनके रियल परचेजिंग पावर में कमी की भरपाई कर सके। इनपुट कॉस्ट बढ़ने के चलते भी ऐसा हो सकता है। हाई इनफ्लेशन और इनपुट कॉस्ट बढ़ने पर सरकार मिनिमम सपोर्ट प्राइस बढ़ाने पर मजबूर हो जाती है। इससे फूड प्राइसेज बढ़ने लगते हैं।
स्पाइरल्स रिस्क क्या हैं?
वेज प्राइस स्पाइरल के चलते बढ़ने वाले इनफ्लेशन को कंट्रोल करना मुश्किल हो जाता है। आम तौर पर यह बढ़ोतरी ऐसी इकनॉमी में होती है, जिसमें सप्लाई साइड की दिक्कतें (कम सप्लाई) होती हैं। भारत में इस तरह की स्थिति है। सरप्लस कैपेसिटी वाली इकनॉमी में काफी सप्लाई होने से बढ़ती मांग के चलते इनफ्लेशन नहीं बढ़ता। शॉर्ट टर्म में कैपेसिटी में तेज बढ़ोतरी नहीं की जा सकती, इसलिए स्पाइरल को मैनेज करने के लिए मांग घटाने की जरूरत पड़ती है। कैपेसिटी और डिमांड में संतुलन के लिए ऐसा किया जाता है।
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