वह पांच और छह जून 1984 की रात थी। मेजर जनरल के एस बराड़ की कमांड में
सेना ने स्वर्ण मंदिर में छिपे जनरैल सिंह भिंडरावाले और सैंकड़ों अन्य
आतंकवादियों के खिलाफ आपरेशन ब्लू स्टार शुरू किया। छह जून की सुबह आपरेशन
पूरा कर लिया गया। बारह घंटे की कार्रवाई में सेना के सौ जवान शहीद हो गये
जबकि तीन सौ से ज्यादा आतंकवादी और नागरिक मारे गये। मरने वालों में जरनैल
सिंह भिंडरावाला भी था। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का सिखों के सबसे पवित्र
धर्मस्थल में सैनिक कार्रवाई करने का निर्णय असाधारण था। उन्हें अहसास था
कि इसका अंजाम क्या हो सकता है। काफी सोच-विचारकर सैन्य कार्रवाई का जिम्मा
सिख मेजर जनरल के एस बराड़ को सौंपा गया, जो उस समय पंजाब नहीं, उत्तर
प्रदेश के मेरठ में 90 इनफैंट्री डिवीजन को कमांड कर रहे थे। उन्हें अचानक
चंडीगढ़ बुलाया गया और हालात की गंभीरता समझाते हुए तुरंत अमृतसर पहुंचने
को कहा गया। बराड़ ने उन हालातों का जिक्र अपनी पुस्तक आपरेशन ब्लू स्टार-द
ट्र स्टोरी में किया है, जिनके चलते स्वर्ण मंदिर-अकाल तख्त और हरिमंदिर
साहिब में छिपे आतंकवादियों का खात्मा करने के लिए भारत सरकार को अचानक
सैनिक कार्रवाई का अफसोसनाक निर्णय लेना पड़ा।
उनका कहना है कि यदि आपरेशन नहीं किया जाता तो दो-चार दिन बाद ही खालिस्तान का एेलान होने वाला था। पाकिस्तान ने पंजाब में वैसे ही हालात पैदा कर दिए थे, जैसे 1971 में बांग्लादेश के निर्माण के समय बन गए थे। वैसे भी, आठवें दशक के अकालियों के आनंदपुर साहिब के प्रस्तावों को देखें तो पता चलता है कि अलगाववादी और चरमपंथी पंजाब की अकाली राजनीति को किस हद तक प्रभावित कर रहे थे। यह बहस का विषय हो सकता है कि भिंडरावाले को किसने पैदा किया। स्वर्ण मंदिर में आतंकवादियों को किसने घुसपैठ होने दी और सैन्य कार्रवाई के अलावा क्या उस समय कोई और विकल्प नहीं रह गया था? सैन्य कार्रवाई में चूकि भारी गोलाबारी हुई और जब देखा गया कि आतंकवादियों की तैयारी कुछ ज्यादा ही है तो टैंकों को भी स्वर्ण मंदिर परिसर में भेजने का फैसला लिया गया, इसलिए हरिमंदिर साहिब, अकाल तख्त और स्वर्ण मंदिर को भारी क्षति पहुंची। नतीजतन देश-विदेश में बसे सिखों की भावनाएं बुरी तरह आहत हुईं। कट्टरपंथियों ने इसे ज्यादा ही तूल दिया। नतीजतन छह महीने के भीतर देश को अपनी लोकप्रिय प्रधानमंत्री से हाथ धोना पड़ा।
निसंदेह इंदिरा गांधी भारत की सबसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री थीं। हालांकि एेसे लोगों की कमी नहीं है, जो उन्हें लोकतंत्र की सबसे बड़ी दुश्मन की संज्ञा देते हैं क्योंकि 1975 में इलाहाबाद हाईकोर्ट से अपने खिलाफ निर्णय आने पर उन्होंने देश पर इमरजंसी थोप दी थी। सिखों में भी एक वर्ग एेसा था, जो धर्मस्थल में आतंकवादियों द्वारा आड़ लेने और वहां से खून-खराबे के षड़यंत्रों को संचालित करने को गलत मानता था, लेकिन किसी को भी इसका अहसास नहीं था कि बात खालिस्तान की घोषणा की तैयारियों तक पहुंच जाएगी। जाहिर है, इंदिरा गांधी के सामने सैनिक कार्रवाई के सिवाय कोई और चारा नहीं रह गया था। आपरेशन ब्लू स्टार के कमांडर बराड़ को निर्देश दिए गए थे कि खून खराबा कम से कम हो और जो निर्दोष लोग भीतर फंसे हुए हैं, उन्हें बाहर निकलने का पूरा मौका दिया जाए। आतंकवादियों तक खबर पहुंच चुकी थी कि सेना मोर्चा संभाल चुकी है, लिहाजा उन्होंने श्रधालुओं को बाहर नहीं निकलने दिया। उन्हें ढाल बनाकर सेना पर फायरिंग खोल दी।
किसी भी सेना के लिए इससे बुरा कुछ नहीं होता कि उसे अपने ही देश के नागरिकों पर गोली चलानी पड़े। अमृतसर में उसे यही करना पड़ा। मेजर जनरल कुलदीप सिंह बराड़ ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि अगर देश के नागरिक दुश्मन देश के हाथों में खेलने लगें और कानून-व्यवस्था के लिए बड़ी चुनौती बन जाएं तो एेसी कार्रवाई करना मजबूरी हो जाती है। स्वर्ण मंदिर में सैनिक कार्रवाई के बाद क्या हुआ, यह अब पूरी दुनिया को पता है। सिखों के सबसे पवित्र स्थल अकाल तख्त के क्षतिग्रस्त होने की सूचना जैसे-जैसे देश भर में फैली, वैसे-वैसे सेना की कई बटालियनों में सिख सैनिकों ने बगावत कर दी। जिन रेजीमैंट्स में बगावत हुई, उनमें रांची, मुंबई, रामगढ़ और रामपुर भी शामिल थी। करीब छह हजार सैनिक हथियारों सहित अमृतसर के लिए भाग खड़े हुए। उन्हें नियंत्रित करने के लिए भी सैन्य कार्रवाई करनी पड़ी। बहुत से सैनिक मारे गये। सैंकड़ों को गिरफ्तार कर लिया गया। कोर्ट मार्शल में उन्हें सजा हुई। बाद में उनमें से बहुतों को फिर से सेना में देश की सेवा का अवसर भी मिला।
भारतीय सेना के सिख सैनिक विद्रोहियों को तो काबू में कर लिया गया लेकिन खुफिया तंत्र उस षड़यंत्र को सूंघने और समझने में पूरी तरह नाकाम रहा, जो उसकी नाक के ठीक नीचे दिल्ली में ही रचा जा रहा था। स्वर्ण मंदिर में सैन्य कार्रवाई के बाद भी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सुरक्षा गारद से सिख सुरक्षाकर्मियों को नहीं हटाना भारी भूल साबित हुई। सेना में सिखों के विद्रोह से प्रधानमंत्री के सुरक्षा तंत्र और अधिकारियों के कान खड़े होने चाहिए थे, लेकिन वे सोते रहे और आपरेशन ब्लू स्टार के करीब साढ़े छह महीने के भीतर उन्हीं के सिख सुरक्षाकर्मियों ने प्रधानमंत्री को उनके सरकारी निवास में ही गोलियों से छलनी कर दिया। इंदिरा गांधी पर गोलियां बरसाने वाले सब इंस्पेक्टर बेअंत सिंह चंडीगढ़ के पास स्थित मलोया गांव का मूल निवासी था, जबकि सतवंत सिंह गुरदासपुर का रहने वाला था। बेअंत को अन्य सुरक्षाकर्मियों ने मौके पर ही मार डाला जबकि सतवंत को गंभीर अवस्था में अस्पताल भेजा गया। उसे बचा लिया गया। बेअंत सिंह की पत्नी विमल खालसा और सतवंत से हुई पूछताछ के बाद पूरे षड़यंत्र का खुलासा हुआ। पूर्ति एवं निपटान निदेशालय में कार्यरत केहर सिंह को गिरफ्तार किया गया, जो बेअंत सिंह का मामा था। उसी ने बेअंत और सतवंत को अमृत चखाने के बाद प्रधानमंत्री की हत्या के लिए तैयार किया था। दिल्ली पुलिस के सब इंस्पेक्टर बलबीर सिंह को भी गिरफ्तार किया गया। उसकी ड्यूटी भी उन दिनों प्रधानमंत्री निवास पर ही थी। निचली अदालत और हाईकोर्ट ने इन तीनों को फांसी की सजा सुनाई लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने बलबीर सिंह को बेकसूर मानते हुए बाइज्जत बरी किया। केहर सिंह और सतवंत सिंह को 1989 में तिहाड़ जेल में फांसी दे दी गयी।
आपरेशन ब्लू स्टार के बाद सिखों के दिलों में कांग्रेस और केन्द्र की सरकार के खिलाफ जो दरार बढ़ी, वह इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली, कानपुर और देश के अन्य हिस्सों में सिखों के खिलाफ भड़के भीषण दंगों के बाद और भी गहरी हो गयी। करीब तीन हजार बेकसूर सिखों को मौत के घाट उतार दिया गया। कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं पर यह आरोप लगे कि सिखों के गले में जलते टायर डालने वाली हिंसक और बेकाबू भीड़ का वे नेतृत्व कर रहे थे। आपरेशन ब्लू स्टार, इंदिरा गांधी की हत्या और तीन हजार सिखों के कत्लेआम को पच्चीस साल पूरे हो रहे हैं। पच्चीस साल बहुत बड़ा काल होता है, लेकिन आज भी उन परिवारों के जख्म हरे हैं, जिनके परिजनों को बेवजह मार डाला गया था। कुछ मुट्ठी भर सिरफिरों की सनक की सजा पूरी कौम को कैसे दी जा सकती है?
उनका कहना है कि यदि आपरेशन नहीं किया जाता तो दो-चार दिन बाद ही खालिस्तान का एेलान होने वाला था। पाकिस्तान ने पंजाब में वैसे ही हालात पैदा कर दिए थे, जैसे 1971 में बांग्लादेश के निर्माण के समय बन गए थे। वैसे भी, आठवें दशक के अकालियों के आनंदपुर साहिब के प्रस्तावों को देखें तो पता चलता है कि अलगाववादी और चरमपंथी पंजाब की अकाली राजनीति को किस हद तक प्रभावित कर रहे थे। यह बहस का विषय हो सकता है कि भिंडरावाले को किसने पैदा किया। स्वर्ण मंदिर में आतंकवादियों को किसने घुसपैठ होने दी और सैन्य कार्रवाई के अलावा क्या उस समय कोई और विकल्प नहीं रह गया था? सैन्य कार्रवाई में चूकि भारी गोलाबारी हुई और जब देखा गया कि आतंकवादियों की तैयारी कुछ ज्यादा ही है तो टैंकों को भी स्वर्ण मंदिर परिसर में भेजने का फैसला लिया गया, इसलिए हरिमंदिर साहिब, अकाल तख्त और स्वर्ण मंदिर को भारी क्षति पहुंची। नतीजतन देश-विदेश में बसे सिखों की भावनाएं बुरी तरह आहत हुईं। कट्टरपंथियों ने इसे ज्यादा ही तूल दिया। नतीजतन छह महीने के भीतर देश को अपनी लोकप्रिय प्रधानमंत्री से हाथ धोना पड़ा।
निसंदेह इंदिरा गांधी भारत की सबसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री थीं। हालांकि एेसे लोगों की कमी नहीं है, जो उन्हें लोकतंत्र की सबसे बड़ी दुश्मन की संज्ञा देते हैं क्योंकि 1975 में इलाहाबाद हाईकोर्ट से अपने खिलाफ निर्णय आने पर उन्होंने देश पर इमरजंसी थोप दी थी। सिखों में भी एक वर्ग एेसा था, जो धर्मस्थल में आतंकवादियों द्वारा आड़ लेने और वहां से खून-खराबे के षड़यंत्रों को संचालित करने को गलत मानता था, लेकिन किसी को भी इसका अहसास नहीं था कि बात खालिस्तान की घोषणा की तैयारियों तक पहुंच जाएगी। जाहिर है, इंदिरा गांधी के सामने सैनिक कार्रवाई के सिवाय कोई और चारा नहीं रह गया था। आपरेशन ब्लू स्टार के कमांडर बराड़ को निर्देश दिए गए थे कि खून खराबा कम से कम हो और जो निर्दोष लोग भीतर फंसे हुए हैं, उन्हें बाहर निकलने का पूरा मौका दिया जाए। आतंकवादियों तक खबर पहुंच चुकी थी कि सेना मोर्चा संभाल चुकी है, लिहाजा उन्होंने श्रधालुओं को बाहर नहीं निकलने दिया। उन्हें ढाल बनाकर सेना पर फायरिंग खोल दी।
किसी भी सेना के लिए इससे बुरा कुछ नहीं होता कि उसे अपने ही देश के नागरिकों पर गोली चलानी पड़े। अमृतसर में उसे यही करना पड़ा। मेजर जनरल कुलदीप सिंह बराड़ ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि अगर देश के नागरिक दुश्मन देश के हाथों में खेलने लगें और कानून-व्यवस्था के लिए बड़ी चुनौती बन जाएं तो एेसी कार्रवाई करना मजबूरी हो जाती है। स्वर्ण मंदिर में सैनिक कार्रवाई के बाद क्या हुआ, यह अब पूरी दुनिया को पता है। सिखों के सबसे पवित्र स्थल अकाल तख्त के क्षतिग्रस्त होने की सूचना जैसे-जैसे देश भर में फैली, वैसे-वैसे सेना की कई बटालियनों में सिख सैनिकों ने बगावत कर दी। जिन रेजीमैंट्स में बगावत हुई, उनमें रांची, मुंबई, रामगढ़ और रामपुर भी शामिल थी। करीब छह हजार सैनिक हथियारों सहित अमृतसर के लिए भाग खड़े हुए। उन्हें नियंत्रित करने के लिए भी सैन्य कार्रवाई करनी पड़ी। बहुत से सैनिक मारे गये। सैंकड़ों को गिरफ्तार कर लिया गया। कोर्ट मार्शल में उन्हें सजा हुई। बाद में उनमें से बहुतों को फिर से सेना में देश की सेवा का अवसर भी मिला।
भारतीय सेना के सिख सैनिक विद्रोहियों को तो काबू में कर लिया गया लेकिन खुफिया तंत्र उस षड़यंत्र को सूंघने और समझने में पूरी तरह नाकाम रहा, जो उसकी नाक के ठीक नीचे दिल्ली में ही रचा जा रहा था। स्वर्ण मंदिर में सैन्य कार्रवाई के बाद भी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सुरक्षा गारद से सिख सुरक्षाकर्मियों को नहीं हटाना भारी भूल साबित हुई। सेना में सिखों के विद्रोह से प्रधानमंत्री के सुरक्षा तंत्र और अधिकारियों के कान खड़े होने चाहिए थे, लेकिन वे सोते रहे और आपरेशन ब्लू स्टार के करीब साढ़े छह महीने के भीतर उन्हीं के सिख सुरक्षाकर्मियों ने प्रधानमंत्री को उनके सरकारी निवास में ही गोलियों से छलनी कर दिया। इंदिरा गांधी पर गोलियां बरसाने वाले सब इंस्पेक्टर बेअंत सिंह चंडीगढ़ के पास स्थित मलोया गांव का मूल निवासी था, जबकि सतवंत सिंह गुरदासपुर का रहने वाला था। बेअंत को अन्य सुरक्षाकर्मियों ने मौके पर ही मार डाला जबकि सतवंत को गंभीर अवस्था में अस्पताल भेजा गया। उसे बचा लिया गया। बेअंत सिंह की पत्नी विमल खालसा और सतवंत से हुई पूछताछ के बाद पूरे षड़यंत्र का खुलासा हुआ। पूर्ति एवं निपटान निदेशालय में कार्यरत केहर सिंह को गिरफ्तार किया गया, जो बेअंत सिंह का मामा था। उसी ने बेअंत और सतवंत को अमृत चखाने के बाद प्रधानमंत्री की हत्या के लिए तैयार किया था। दिल्ली पुलिस के सब इंस्पेक्टर बलबीर सिंह को भी गिरफ्तार किया गया। उसकी ड्यूटी भी उन दिनों प्रधानमंत्री निवास पर ही थी। निचली अदालत और हाईकोर्ट ने इन तीनों को फांसी की सजा सुनाई लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने बलबीर सिंह को बेकसूर मानते हुए बाइज्जत बरी किया। केहर सिंह और सतवंत सिंह को 1989 में तिहाड़ जेल में फांसी दे दी गयी।
आपरेशन ब्लू स्टार के बाद सिखों के दिलों में कांग्रेस और केन्द्र की सरकार के खिलाफ जो दरार बढ़ी, वह इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली, कानपुर और देश के अन्य हिस्सों में सिखों के खिलाफ भड़के भीषण दंगों के बाद और भी गहरी हो गयी। करीब तीन हजार बेकसूर सिखों को मौत के घाट उतार दिया गया। कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं पर यह आरोप लगे कि सिखों के गले में जलते टायर डालने वाली हिंसक और बेकाबू भीड़ का वे नेतृत्व कर रहे थे। आपरेशन ब्लू स्टार, इंदिरा गांधी की हत्या और तीन हजार सिखों के कत्लेआम को पच्चीस साल पूरे हो रहे हैं। पच्चीस साल बहुत बड़ा काल होता है, लेकिन आज भी उन परिवारों के जख्म हरे हैं, जिनके परिजनों को बेवजह मार डाला गया था। कुछ मुट्ठी भर सिरफिरों की सनक की सजा पूरी कौम को कैसे दी जा सकती है?
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