इतिहास के पन्नों में दबे जिन दरिंदे शासको की
मैं यहा चर्चा करूंगा उनमें सबसे पहला नाम मंगोलियाई मूल के क्रूर
चंगेजखान का आता है। उसके बाद उसी देश का हलाकु खान का नाम आता है जो
चंगेजखान की मौत के बाद सक्रिय हुआ। तीसरे नंबर का दरिन्दा रहा तैमूर लंग।
चौथा दरिंदा था अहमद शाह अब्दाली। उपरोक्त चारों के बारे में आप अब तक यहां
पढ़ चुके हैं।
अब है बारी है पांचवें नंबर के दरिंदे शासक रहे नादिरशाह की, जिसने भारत को कई बार बुरी तरह लूटा और आबादी में भीषण नरसंहार और रक्तपात किया। भारत की अतुलनीय संपदा के अलावा कोहिनूर हीरा भी यही दरिंदा लूट कर अरब ले गया। लेकिन उस हीरे में यही शिफत थी की जो भी उसे प्राप्त करता उसी का शासन डांवाडोल हो उठता। 18वीं शताब्दी में अंग्रेजों ने इस हीरे पर कब्जा किया फलतः 20वीं शताब्दी के अन्त तक दुनिया के डूबते सूरज से ब्रिटिश शाही खानदान भी लोप होता गया।
नादिर शाह
नादिर शाह अफ्शार या नादिर कोली बेग (जन्म 6 अगस्त, 1688 मृत्यु 17 जून, 1747) फारस का शाह था। उसने सदियों के बाद क्षेत्र में ईरानी प्रभुता स्थापित की थी। उसने अपना जीवन दासता से आरंभ किया था और अपनी कूटबुद्धि से वह एकदम फारस का शाह ही नहीं बना, बल्कि उसने उस समय ईरानी साम्राज्य के सबल शत्रु उस्मानी साम्राज्य और रूसी साम्राज्य को ईरान, अफगानिस्तान तथा इराक के क्षेत्रों से बाहर निकाला।
उसने अफ्शरी वंश की स्थापना की थी और उसका उदय उस समय हुआ जब ईरान में पश्चिम से उस्मानी साम्राज्य (ऑटोमन) का आक्रमण हो रहा था और पूरब से अफगानों ने सफावी राजधानी इस्फहान पर अधिकार कर लिया था। उत्तर से रूस भी फारस में साम्राज्य विस्तार की योजना बना रहा था। इस विकट परिस्थिति में भी उसने अपनी सेना संगठित की और अपने सैन्य अभियानों की वजह से उसे फारस का नेपोलियन या एशिया का अन्तिम महान सेनानायक जैसी उपाधियों से सम्मानित किया जाता है।
वह भारत विजय के अभियान पर भी निकला था। दिल्ली की सत्ता पर आसीन मुगल बादशाह मुहम्मद शाहआलम को हराने के बाद उसने वहां से अपार संपत्ति अर्जित की जिसमें कोहिनूर हीरा भी शामिल था। इस हीरे की बदौलत वह कुछ समय के लिए दुनिया का सबसे अमीर बादशाह कहलाने लगा। इसके बाद जब वह अपार शक्तिशाली बन गया तो कोहिनूर की फितरत उसे रास नही आई और अचानक उसका स्वास्थ्य भी बिगड़ता गया। लेकिन अपने जीवन के उत्तरार्ध में वह बहुत निर्दयी और अत्याचारी बन गया था। सन् 1747 में उसकी हत्या के बाद उसका साम्राज्य जल्द ही तितर-बितर हो गया।
गुमनामी से आगाज
नादिर का जन्म खोरासान (उत्तर पूर्वी ईरान) में अफ्शार कजलबस कबीले में एक साधारण परिवार में हुआ था। उसके पिता एक साधारण किसान थे जिनकी मृत्यु नादिर के बाल्यकाल में ही हो गई थी। नादिर के बारे में कहा जाता है कि उसकी मां को उसके साथ उज्बेकों ने दास (गुलाम) बना लिया था। पर नादिर भाग सकने में सफल रहा और वो एक अफ्शार कबीले में शामिल हो गया और कुछ ही दिनों में उसके एक तबके का प्रमुख बन बैठा। जल्द ही वो एक सफल सैनिक के रूप में उभरा और उसने एक स्थानीय प्रधान बाबा अली बेग की दो बेटियों से शादी कर ली।
नादिर एक लम्बा, सजीला और शोख काली आंखों वाला नौजवान था। वह अपने शत्रुओं के प्रति निर्दय था, लेकिन अपने अनुचरों और सैनिकों के प्रति उदार भी। उस इलाके के बेहतरीन लडाकू नौजवान उसके संगठन में भर्ती होने के लिए बेताब रहते थे। वे 14साल पार करते ही नादिर के दल में ���ामिल हो जाते और तनवारबाजी से लेकर घुड़सवारी की युद्धक ट्रेनिंग लेने लगते।
कुछ ही समय में एक स्वेच्छित विशाल फौज नादिर के पास हो गई जो छापामार लड़ाई से लेकर मैदानी लडाई में पारंगत होती गई। उसे घुड़सवारी बहुत पंसद थी और घोड़ों की अव्छी नस्लों को प्राप्त करने का भी बहुत शौक था। उसकी आवाज बहुत गंभीर और असरदार थी और यह स्वर साधन भी उसकी सफलता की कई वजहों में से एक माना जाता है। वह एक तुर्कमेन था और उसके कबीले ने शाह इस्माइल प्रथम के समय से ही साफवियों की बहुत मदद की थी।
उस समय फारस की गद्दी पर साफवियों का शासन था। लेकिन नादिरशाह का भविष्य शाह के तख्तापलट के कारण नहीं बना जो कि प्रायः कई सफल सेनानायकों के साथ होता है। उसने साफवियों का साथ दिया। उस समय साफवी अपने पतनोन्मुख साम्राज्य में नादिर शाह को पाकर बहुत प्रसन्न हुए।
एक तरफ से उस्मानी साम्राज्य (ऑटोमन तुर्क) तो दूसरी तरफ से अफगानों के विद्रोह ने साफवियों की नाक में दम कर रखा था। इसके अलावा उत्तर से रूसी साम्राज्य भी निगाहें गड़ाए बैठा था। शाह सुल्तान हुसैन के बेटे तहमास (तहमाश्प) को नादिरशाह का साथ मिला। उसके साथ मिलकर उसने उत्तरी ईरान में मशहद (खोरासान की राजधानी) से अफगानों को भगाकर अपने अधिकार में ले लिया।
उसकी इस सेवा से प्रभावित होकर उसे तहमास कोली खान (तहमास का सेवक या गुलाम-ए-तहमास) की उपाधि मिली। यह एक सम्मान था क्योंकि इससे उसे शाही नाम मिला था। पर नादिर इतने पर मुतमयिन (संतुष्ट) हो जाने वाला सेनानायक नहीं था। उसकी नजर तो इससे भी आगे थी और वह जल्दी ही एक चर्चित शहंशाह और राजाओं का राजा बनना चाहता था ।
नादिरशाह ने इसके कुछ ही समय बाद हेरात के अब्दाली अफगानों को परास्त किया। तहमास के दरबार में अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के बाद उसने 1729 में राजधानी इस्फहान पर कब्जा कर चुके अफगानों पर आक्रमण करने की योजना बनाई। इस समय एक यूनानी व्यापारी और पर्यटक बेसाइल वतात्जेस ने नादिर के सैन्य अभ्यासों को आंखों से देखा था। उसने बयां किया - नादिर अभ्यास क्षेत्र में घुसने के बाद अपने सेनापतियों के अभिवादन की स्वीकृति में अपना सर झुकाता था। उसके बाद वो अपना घोड़ा रोकता था और कुछ देर तक सेना का निरीक्षण एकदम चुप रहकर करता था। वह अभ्यास आरंभ होने की अनुमति देता था। इसके बाद अभ्यास आरंभ होता था - चक्र संयोजन से लेकर व्यूह रचना और घुड़सवारी इत्यादि में नादिर खुद तीन घंटे तक घोड़े पर अभ्यास करता था और नायाब किस्म के सेनापति और सैनिक अपने बेहतरीन करतब नादिर के नेतृत्व में दिखाते थे और वह उनको उसी समय ईनाम और शाही सम्मान से नवाजा करता था। उसके इस प्रोत्साहन कूटनीति से सैनिको में अटूट जज्बा और मरमिटने का जुनून पैदा होता गया ओर वह इसी अटूट सैन्य शक्ति के बल पर बनता गया अजेय नादिरशाह।
सन 1729 के अन्त तक उसने अफगानों को तीन बार हराया और इस्फहान वापस अपने नियंत्रण में ले लिया। उसने अफगानों को महफूज (सुरक्षित) तरीके से भागने भी दिया। इसके बाद उसने भारी सैन्य अभियान की योजना बनाई। जिसके लिए उसने शाह तहमास को कर वसूलने पर मजबूर किया। उस समय पश्चिम की दिशा से उस्मानी तुर्क (ऑटोमन)प्रभुत्व में थे। अभी तक नादिर के अभियान उत्तरी, केन्द्रीय तथा पूर्वी ईरान, और उससे सटे अफगानिस्तान तक सीमित रहे थे। उसने उस्मानियों को पश्चिम से मार भगाया और उसके तुरंत बाद वह पूरब में हेरात की तरफ बढ़ा जहां पर उसने हेरात पर नियंत्रण कर लिया।
उसकी सैन्य सफलता तहमास से देखी नहीं गई। उसे अपने ही तख्तापलट का डर होने लगा। उसने अपनी सैन्य योग्यता साबित करने के मकसद से उस्मानों के साथ फिर से युद्ध शुरू कर दिया जिसका अन्त उसके लिए शर्मनाक रहा और उसे नादिर द्वा������ जीते हुए कुछ प्रदेश उस्मानों को लौटाने पड़े। नादिर जब हेरात से लौटा तो यह देखकर क्षुब्ध हुआ। उसने जनता से अपना समर्थन मांगा। इसी समय उसने इस्फहान में एक दिन तहमास (तहमास्य) को ज बवह नशे की हालत में था तो यही समझाया कि वह शासन करने के लिए अयोग्य है और उसके इशारे पर दरबारियों ने तहमास के नन्हें बेटे अब्बास को गद्दी पर बिठा दिया।
उसके राज्याभिषेक के समय नादिर ने घोषणा की कि वह खुद सैनिक कमान को संभालेगा और कन्दहार जो आज का कांधार है, दिल्ली, बुखारा और टर्की इस्ताम्बुल के शासकों को हराएगा। दरबार में उपस्थित लोगों को लगा कि ये आत्मप्रवंचना का चरम के अतिरिक्त कुछ नहीं है। खाली पीली डींगे हां रहा है पर आने वाले समय में उनको पता चला कि नादिर ऐसा नहीं था। उसने अपनी बहादुरी और सैन्यकुशलता के बल पर पश्चिम की दिशा में उस्मानों पर आक्रमण के लिए सेना तैयार की।
पर अपने पहले आक्रमण में उसे पराजय मिली। उस्मानों ने बगदाद की रक्षा के लिए एक भारी सेना भेज दी जिसका नादिर कोई जबाब नहीं दे पाया। लेकिन कुछ महीनों के भीतर उसने सेना फिर से संगठित की। इस बार उसने किरकुक के पास उस्मानियों को हरा दिया। येरावन के पास जून 1735 में उसने रूसियों की मदद से उस्मानियों को एक बार फिर से हरा दिया। इस समझौते के तहत रूसी भी फारसी प्रदेशों से वापस कूच कर गए।
नादिर शाह ने 1736 में अपने सेनापतियों, प्रान्तपालों तथा कई समर्थकों के समक्ष खुद को शाह यानि राजा घोषित कर दिया। धार्मिक नीति के तहद ईरान के धार्मिक इतिहास में इस्लामी शिया और सुन्नियों द्वारा उनपर ढाए जुल्म का बहुत महत्व है। सफवी शिया थे और उनके तहत शिया लोगों को अरबों (सुन्नियों) के जुल्म से छुटकारा मिला था। आज ईरान की जनता शिया है और वहां शुरुआती तीन खलीफाओं को गाली देने की परम्परा थी।
नादिर शाह ने अपनी गद्दी संभालने वक्त ये शर्त रखी कि लोग उन खलीफाओं के प्रति ये अनादर भाव छोड़ देंगे और गाली गलौच के रास्ते छोड देंगे। इससे उसे अपनी संगठन क्षमता बढ़ाने और समाज में भाईचारा कायम करने मे फायदा भी मिला। ईरान में शिया सुन्नी तनाव तब से कम हुआ। साथ ही ईरान को इस्लाम के दूसरे मजहबी एकता के केन्द्र के रूप में देखा जाने लगा।
नादिर अर्मेनियों के साथ भी उदार धार्मिक संबंध रखता था। उसका शासन यहूदियों को लिए भी एक सुकून का समय था। अपने साम्राज्य के अंदर (फारस में) उसने सुन्नी मजहब को जनता पर लादने की कोई कोशिश नहीं कि लेकिन सम्राज्य के बाहर वो सुन्नी परिवर्तित राज्य के शाह के रूप में जाना जाने लगा। उसकी तुलना उस्मानी साम्राज्य से की जाने लगी जो उस समय इस्लाम का सर्वेसर्वा थे। मक्का उस समय उस्मानियों के ही अधीन था।
भारत पर आक्रमण उसका सबसे क्रूर अभियान रहा। पश्चिम की दिशा में संतुष्ट होने के बाद नादिर शाह ने पूरब की ओर अपना ध्यान केंद्रित किया। सैन्य खर्च का भार जनता पर पड़ा। उसने पूरे अफगानिस्तान सहित कन्दहार पर अधिकार कर लिया। इस बात का बहाना बना कर कि मुगलों ने अफगान भगोड़ों को शरण दे रखी है। उसने मुगल साम्राज्य की ओर कूच किया। काबुल पर कब्ज करने के बाद उसने दिल्ली पर आक्रमण किया। करनाल में मुगल राजा मोहम्मद शाह और नादिर की सेना के बीच लड़ाई हुई। इसमें नादिर की सेना मुगलों के मुकाबले छोटी थी पर अपने बारूदी अस्त्रों के कारण फारसी सेना जीत गई।
उसके मार्च 1739 में दिल्ली पहुँचने पर दिल्ली के सुल्तान मोहम्मद शाह ने यह अफवाह फैली कि नादिर शाह मारा गया। इससे दिल्ली में भगदड़ मच गई और फारसी सेना का कत्ल शुरू हो गया। उसने इसका बदला लेने के लिए दिल्ली में भयानक खूनखराबा किया और एक दिन में कोई 20,000- 22,000 लोग मार दिए। इसके अलावा उसने शाह से भयानक धनराशि भी लूट ली। मोहम्मद शाह ने सिंधु नदी के पश्चिम की सारी भूमि भी नादिरशाह को दान में दे दी।
हीरे जवाहरात का एक जखीरा भी उसे भेंट किया गया जिसमें बदजात और मनहूस कोहिनूर (कूह-ए-नूर), दरियानूर और ताज-ए-मह नामक विख्यात हीरे शामिल थे। इनकी अपनी एक अपनी खूनी कहानी भी आगे चलकर बनी है। उस वक्त दिल्ली के सुलतान मोहम्मदशाह से नादिर को जो सम्पदा मिली वह करीब 70-80 करोड़ रुपयों की थी। यह राशि उस वक्त के तत्कालीन सातवर्षीय विश्चयुद्ध (1756-1763) के तुल्य थी, जिसमें फ्रांस की सरकार ने ऑस्ट्रिया की सरकार को मुआवजा बतौर दिया था।
नादिर ने दिल्ली में साम्राज्य पर कब्जे का लक्ष्य नहीं रखा। उसका उद्देश्य तो अपनी सेना के लिए आवश्यक धनराशि इकठ्ठा करनी थी जो उसे मिल गई थी। कहा जाता है कि दिल्ली से लौटने पर उसके पास इतना धन हो गया था कि अगले तीन वर्षों तक उसने जनता से कर नहीं लिया था।
दिल्ली फतह और लूट के बाद नादिर शाह को लौटने पर पता चला कि उसके बेटे रजाकोली, जिसे कि उसने अपनी अनुपस्थिति में वॉयसराय बना दिया था, ने साफवी शाह राजा तहामास और अब्बास की हत्या कर दी है। इससे उसको भनक मिली कि उसका बेटा रजाकोली उसके खिलाफ भी षडयंत्र रच रहा है और उसे भी मौत के घाट उतारने की फिराक में है।
इसी डर से उसने रजा कोली को वॉयसराय से पदच्युत कर दिया। इसके बाद वह तुर्केमेनीस्तान के अभियान पर गया और उसके बाद दागेस्तान के विद्रोह को दमन करने निकला। पर यहां पर उसे सफलता नहीं मिली। लेज्गों ने खंदक युद्ध नीति अपनाई और रशद के कारवां पर आक्रमण कर नादिर को परेशान कर डाला। जब वो दागेस्तान (1742) में था तो नादिर को खबर मिली कि उसका बेटा रजा कोली अब तत्काल उसको मारने की योजना बना रहा है।
इससे वो क्षुब्ध हुआ और उसने रजा को अंधा कर दिया। रजा ने कहा कि वो निर्दोष है पर नादिर ने उसकी एक न सुनी। लेकिन कुछ ही दिन बाद नादिर को अपनी गलती पर खेद हुआ। इस समय नादिर बीमार हो चला था और अपने बेटे को अंधा करने के कारण बहुत क्षुब्ध था। नादिरशाह ने आदेश दिया कि उन सरदारों के सिर उड़ा दिए जाएं जिन्होंने उसे उसके बेटे रजा कोली की आंखें फोड़ी जाते देखा है।
नादिरशाह ने उन सरदारों की गलती यह ठहराई कि उनमें से किसी ने यह क्यों नहीं कहा कि रजाकोली के बजाये उसकी आंखें फोड़ दी जाएं। दागेस्तान की असफलता भी उसे खाए जा रही थी। धीरे-धीरे वह और अत्याचारी बनता गया। दागेस्तान से खाली हाथ वापस लौटने के बाद उसने अपनी सेना एक बहुत पुराने लक्ष्य पश्चिम के उस्मानी साम्राज्य के लिए फिर से संगठित की। उस समय जब सेना संगठित हुई तो उसकी गिनती थी 3 लाख 75 हजार सैनिक। इतनी बड़ी सेना उस समय शायद ही किसी साम्राज्य के पास हो। ईरान की खुद की सेना इतनी ईरान-इराक युद्ध से पहले फिर कभी नहीं हुई।
सन् 1743 में उसने उस्मानी इराक पर हमला किया। शहरों को छोड़ कर कहीं भी उसे बहुत विरोध का सामना नहीं करना पड़ा। किरकुक पर उसका अधिकार हो गया लेकिन बगदाद और बसरा में उसे सफलता नहीं मिली। मोसूल में उसके महत्वाकांक्षा का अंत हुआ और उसे उस्मानों के साथ समझौता करना पड़ा। नादिर को ये समझ में आया कि उस्मानी उसके नियंत्रण में नहीं आ सकते। इधर नए उस्मानी सैनिक उसके खिलाफ भेजे गए। नादिरशाह के बेटे नसीरुल्लाह ने इनमें से एक को हराया जबकि नादिर ने येरावन के निकट 1745 में एक दूसरे जत्थे को हराया। पर यह उसकी आखिरी बड़ी जीत थी। इसमें उस्मानों ने उसे नजफ पर शासन का अधिकार दिया।
नादिर का अन्त उसकी बीमारियों से घिरा रहा। वह दिन प्रतिदिन बीमार, अत्याचारी और कट्टर होता चला गया था। अपने आखिरी दिनों में उसने जनता पर भारी कर लगाए और यहां तक कि अपने करीबी रिश्तेदारों से भी धन की मांग करने लगा था। उसका सैन्य खर्च काफी बढ़ ग��ा था। उसके भतीजे अलीकोली ने उसके आदेशों को मानने से मना कर दिया। जून 1747 में मशहद के निकट उसके अपने ही अंगरक्षकों ने नादिरशाह हत्या कर डाली। मशहद में नादिर शाह का मकबरा -आज भी एक पर्यटक स्थल के रूप में कायम है । उसके उत्तराधिकारी के रूप में आदिलशाह ने कुछ समय तक राज किया बाद में अपनी अयासी और बीमारी के कारण वह भी चन्द बरसों में ही मौत का ग्रास बन गया।
नादिर शाह की उपलब्धियां अधिक दिनों तक टिकी नहीं रह सकीं। उसके मरने के बाद अली कोली अपने को शाह घोषित कर दिया। उसने अपना नाम आदिलशाह रख लिया। नादिर के मरने के बाद सेना तितर बितर हो गई और साम्राज्य को क्षत्रपों ने स्वतंत्र रूप से शासन करना शुरू कर दिया। और तब अंग्रेजो का और पुर्तगाली शासकों का यूरोपीय प्रभाव भी बढ़ता ही गया।
अपने आखिरी वक्त पर वैसे नादिर को यूरोप में एक विजेता के रूप में ख्याति मिली थी। सन् 1768 में डेनमार्क के क्रिश्चियन सप्तम ने प्रख्यात भाषा शास्त्री सर विलियमजोन्स को नादिर के एक इतिहासकार मंत्री मिर्जा मैहदी अस्तर अब्दाली द्वारा लिखी उसकी जीवनी को फारसी से फ्रेंच में अनुवाद करने का आदेश दिया। इसी अंग्रेजी अनुवाद के जरिये 1739 में नादिरशाह की भारत विजय के बाद अंग्रेजों को मुगलों की कमजोरी का पता चला और उन्होंने भारत में साम्राज्य विस्तार को एक मौका समझ कर दमखम लगाकर कोशिश की।
अगर नादिरशाह भारत पर आक्रमण नहीं करता तो ब्रिटिश शायद इस तरह से भारत में अधिकार करने के बारे में सोच भी नहीं पाते या इतने बड़े पैमाने पर भारतीय शासन को चुनौती नहीं देते। अंग्रेजी हकूमत के भारत तक विस्तार में नादिरशाह की वह जीवनी का हाथ रहा जिसमें नादिर ने भारत की लचर राजनीति और कमजोर सैन्य शक्ति का बखूबी जिक्र किया था और यहां की सम्पदा खानपान एवं सोना-चांदी की सामाजिक संग्रह शक्ति का भी उस जीवनी में बयान किया गया था ।
(यहां पर मैं इन दरिंदे और लुटेरे राजाओं को महिमामंडित नहीं कर रहा हूं। मेरा मकसद किसी धर्म या सम्प्रदाय विशेष के खिलाफ घृणा फैलाना भी कतई नहीं है। क्योंकि, यह सिर्फ भारत का इतिहास है। ये बातें अब इतिहास के पन्नों से छन-छन कर आ रही है। यहां मेरा मकसद साफ तरीके से आज की पीढ़ी को असलियत से जागरूक करवाना ही है जिसमें सिर्फ वास्तविक जानकारी देने के उद्देश्य से यह लेखमाला प्रस्तुत कर रहा हूं।)
अब है बारी है पांचवें नंबर के दरिंदे शासक रहे नादिरशाह की, जिसने भारत को कई बार बुरी तरह लूटा और आबादी में भीषण नरसंहार और रक्तपात किया। भारत की अतुलनीय संपदा के अलावा कोहिनूर हीरा भी यही दरिंदा लूट कर अरब ले गया। लेकिन उस हीरे में यही शिफत थी की जो भी उसे प्राप्त करता उसी का शासन डांवाडोल हो उठता। 18वीं शताब्दी में अंग्रेजों ने इस हीरे पर कब्जा किया फलतः 20वीं शताब्दी के अन्त तक दुनिया के डूबते सूरज से ब्रिटिश शाही खानदान भी लोप होता गया।
नादिर शाह
नादिर शाह अफ्शार या नादिर कोली बेग (जन्म 6 अगस्त, 1688 मृत्यु 17 जून, 1747) फारस का शाह था। उसने सदियों के बाद क्षेत्र में ईरानी प्रभुता स्थापित की थी। उसने अपना जीवन दासता से आरंभ किया था और अपनी कूटबुद्धि से वह एकदम फारस का शाह ही नहीं बना, बल्कि उसने उस समय ईरानी साम्राज्य के सबल शत्रु उस्मानी साम्राज्य और रूसी साम्राज्य को ईरान, अफगानिस्तान तथा इराक के क्षेत्रों से बाहर निकाला।
उसने अफ्शरी वंश की स्थापना की थी और उसका उदय उस समय हुआ जब ईरान में पश्चिम से उस्मानी साम्राज्य (ऑटोमन) का आक्रमण हो रहा था और पूरब से अफगानों ने सफावी राजधानी इस्फहान पर अधिकार कर लिया था। उत्तर से रूस भी फारस में साम्राज्य विस्तार की योजना बना रहा था। इस विकट परिस्थिति में भी उसने अपनी सेना संगठित की और अपने सैन्य अभियानों की वजह से उसे फारस का नेपोलियन या एशिया का अन्तिम महान सेनानायक जैसी उपाधियों से सम्मानित किया जाता है।
वह भारत विजय के अभियान पर भी निकला था। दिल्ली की सत्ता पर आसीन मुगल बादशाह मुहम्मद शाहआलम को हराने के बाद उसने वहां से अपार संपत्ति अर्जित की जिसमें कोहिनूर हीरा भी शामिल था। इस हीरे की बदौलत वह कुछ समय के लिए दुनिया का सबसे अमीर बादशाह कहलाने लगा। इसके बाद जब वह अपार शक्तिशाली बन गया तो कोहिनूर की फितरत उसे रास नही आई और अचानक उसका स्वास्थ्य भी बिगड़ता गया। लेकिन अपने जीवन के उत्तरार्ध में वह बहुत निर्दयी और अत्याचारी बन गया था। सन् 1747 में उसकी हत्या के बाद उसका साम्राज्य जल्द ही तितर-बितर हो गया।
गुमनामी से आगाज
नादिर का जन्म खोरासान (उत्तर पूर्वी ईरान) में अफ्शार कजलबस कबीले में एक साधारण परिवार में हुआ था। उसके पिता एक साधारण किसान थे जिनकी मृत्यु नादिर के बाल्यकाल में ही हो गई थी। नादिर के बारे में कहा जाता है कि उसकी मां को उसके साथ उज्बेकों ने दास (गुलाम) बना लिया था। पर नादिर भाग सकने में सफल रहा और वो एक अफ्शार कबीले में शामिल हो गया और कुछ ही दिनों में उसके एक तबके का प्रमुख बन बैठा। जल्द ही वो एक सफल सैनिक के रूप में उभरा और उसने एक स्थानीय प्रधान बाबा अली बेग की दो बेटियों से शादी कर ली।
नादिर एक लम्बा, सजीला और शोख काली आंखों वाला नौजवान था। वह अपने शत्रुओं के प्रति निर्दय था, लेकिन अपने अनुचरों और सैनिकों के प्रति उदार भी। उस इलाके के बेहतरीन लडाकू नौजवान उसके संगठन में भर्ती होने के लिए बेताब रहते थे। वे 14साल पार करते ही नादिर के दल में ���ामिल हो जाते और तनवारबाजी से लेकर घुड़सवारी की युद्धक ट्रेनिंग लेने लगते।
कुछ ही समय में एक स्वेच्छित विशाल फौज नादिर के पास हो गई जो छापामार लड़ाई से लेकर मैदानी लडाई में पारंगत होती गई। उसे घुड़सवारी बहुत पंसद थी और घोड़ों की अव्छी नस्लों को प्राप्त करने का भी बहुत शौक था। उसकी आवाज बहुत गंभीर और असरदार थी और यह स्वर साधन भी उसकी सफलता की कई वजहों में से एक माना जाता है। वह एक तुर्कमेन था और उसके कबीले ने शाह इस्माइल प्रथम के समय से ही साफवियों की बहुत मदद की थी।
उस समय फारस की गद्दी पर साफवियों का शासन था। लेकिन नादिरशाह का भविष्य शाह के तख्तापलट के कारण नहीं बना जो कि प्रायः कई सफल सेनानायकों के साथ होता है। उसने साफवियों का साथ दिया। उस समय साफवी अपने पतनोन्मुख साम्राज्य में नादिर शाह को पाकर बहुत प्रसन्न हुए।
एक तरफ से उस्मानी साम्राज्य (ऑटोमन तुर्क) तो दूसरी तरफ से अफगानों के विद्रोह ने साफवियों की नाक में दम कर रखा था। इसके अलावा उत्तर से रूसी साम्राज्य भी निगाहें गड़ाए बैठा था। शाह सुल्तान हुसैन के बेटे तहमास (तहमाश्प) को नादिरशाह का साथ मिला। उसके साथ मिलकर उसने उत्तरी ईरान में मशहद (खोरासान की राजधानी) से अफगानों को भगाकर अपने अधिकार में ले लिया।
उसकी इस सेवा से प्रभावित होकर उसे तहमास कोली खान (तहमास का सेवक या गुलाम-ए-तहमास) की उपाधि मिली। यह एक सम्मान था क्योंकि इससे उसे शाही नाम मिला था। पर नादिर इतने पर मुतमयिन (संतुष्ट) हो जाने वाला सेनानायक नहीं था। उसकी नजर तो इससे भी आगे थी और वह जल्दी ही एक चर्चित शहंशाह और राजाओं का राजा बनना चाहता था ।
नादिरशाह ने इसके कुछ ही समय बाद हेरात के अब्दाली अफगानों को परास्त किया। तहमास के दरबार में अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के बाद उसने 1729 में राजधानी इस्फहान पर कब्जा कर चुके अफगानों पर आक्रमण करने की योजना बनाई। इस समय एक यूनानी व्यापारी और पर्यटक बेसाइल वतात्जेस ने नादिर के सैन्य अभ्यासों को आंखों से देखा था। उसने बयां किया - नादिर अभ्यास क्षेत्र में घुसने के बाद अपने सेनापतियों के अभिवादन की स्वीकृति में अपना सर झुकाता था। उसके बाद वो अपना घोड़ा रोकता था और कुछ देर तक सेना का निरीक्षण एकदम चुप रहकर करता था। वह अभ्यास आरंभ होने की अनुमति देता था। इसके बाद अभ्यास आरंभ होता था - चक्र संयोजन से लेकर व्यूह रचना और घुड़सवारी इत्यादि में नादिर खुद तीन घंटे तक घोड़े पर अभ्यास करता था और नायाब किस्म के सेनापति और सैनिक अपने बेहतरीन करतब नादिर के नेतृत्व में दिखाते थे और वह उनको उसी समय ईनाम और शाही सम्मान से नवाजा करता था। उसके इस प्रोत्साहन कूटनीति से सैनिको में अटूट जज्बा और मरमिटने का जुनून पैदा होता गया ओर वह इसी अटूट सैन्य शक्ति के बल पर बनता गया अजेय नादिरशाह।
सन 1729 के अन्त तक उसने अफगानों को तीन बार हराया और इस्फहान वापस अपने नियंत्रण में ले लिया। उसने अफगानों को महफूज (सुरक्षित) तरीके से भागने भी दिया। इसके बाद उसने भारी सैन्य अभियान की योजना बनाई। जिसके लिए उसने शाह तहमास को कर वसूलने पर मजबूर किया। उस समय पश्चिम की दिशा से उस्मानी तुर्क (ऑटोमन)प्रभुत्व में थे। अभी तक नादिर के अभियान उत्तरी, केन्द्रीय तथा पूर्वी ईरान, और उससे सटे अफगानिस्तान तक सीमित रहे थे। उसने उस्मानियों को पश्चिम से मार भगाया और उसके तुरंत बाद वह पूरब में हेरात की तरफ बढ़ा जहां पर उसने हेरात पर नियंत्रण कर लिया।
उसकी सैन्य सफलता तहमास से देखी नहीं गई। उसे अपने ही तख्तापलट का डर होने लगा। उसने अपनी सैन्य योग्यता साबित करने के मकसद से उस्मानों के साथ फिर से युद्ध शुरू कर दिया जिसका अन्त उसके लिए शर्मनाक रहा और उसे नादिर द्वा������ जीते हुए कुछ प्रदेश उस्मानों को लौटाने पड़े। नादिर जब हेरात से लौटा तो यह देखकर क्षुब्ध हुआ। उसने जनता से अपना समर्थन मांगा। इसी समय उसने इस्फहान में एक दिन तहमास (तहमास्य) को ज बवह नशे की हालत में था तो यही समझाया कि वह शासन करने के लिए अयोग्य है और उसके इशारे पर दरबारियों ने तहमास के नन्हें बेटे अब्बास को गद्दी पर बिठा दिया।
उसके राज्याभिषेक के समय नादिर ने घोषणा की कि वह खुद सैनिक कमान को संभालेगा और कन्दहार जो आज का कांधार है, दिल्ली, बुखारा और टर्की इस्ताम्बुल के शासकों को हराएगा। दरबार में उपस्थित लोगों को लगा कि ये आत्मप्रवंचना का चरम के अतिरिक्त कुछ नहीं है। खाली पीली डींगे हां रहा है पर आने वाले समय में उनको पता चला कि नादिर ऐसा नहीं था। उसने अपनी बहादुरी और सैन्यकुशलता के बल पर पश्चिम की दिशा में उस्मानों पर आक्रमण के लिए सेना तैयार की।
पर अपने पहले आक्रमण में उसे पराजय मिली। उस्मानों ने बगदाद की रक्षा के लिए एक भारी सेना भेज दी जिसका नादिर कोई जबाब नहीं दे पाया। लेकिन कुछ महीनों के भीतर उसने सेना फिर से संगठित की। इस बार उसने किरकुक के पास उस्मानियों को हरा दिया। येरावन के पास जून 1735 में उसने रूसियों की मदद से उस्मानियों को एक बार फिर से हरा दिया। इस समझौते के तहत रूसी भी फारसी प्रदेशों से वापस कूच कर गए।
नादिर शाह ने 1736 में अपने सेनापतियों, प्रान्तपालों तथा कई समर्थकों के समक्ष खुद को शाह यानि राजा घोषित कर दिया। धार्मिक नीति के तहद ईरान के धार्मिक इतिहास में इस्लामी शिया और सुन्नियों द्वारा उनपर ढाए जुल्म का बहुत महत्व है। सफवी शिया थे और उनके तहत शिया लोगों को अरबों (सुन्नियों) के जुल्म से छुटकारा मिला था। आज ईरान की जनता शिया है और वहां शुरुआती तीन खलीफाओं को गाली देने की परम्परा थी।
नादिर शाह ने अपनी गद्दी संभालने वक्त ये शर्त रखी कि लोग उन खलीफाओं के प्रति ये अनादर भाव छोड़ देंगे और गाली गलौच के रास्ते छोड देंगे। इससे उसे अपनी संगठन क्षमता बढ़ाने और समाज में भाईचारा कायम करने मे फायदा भी मिला। ईरान में शिया सुन्नी तनाव तब से कम हुआ। साथ ही ईरान को इस्लाम के दूसरे मजहबी एकता के केन्द्र के रूप में देखा जाने लगा।
नादिर अर्मेनियों के साथ भी उदार धार्मिक संबंध रखता था। उसका शासन यहूदियों को लिए भी एक सुकून का समय था। अपने साम्राज्य के अंदर (फारस में) उसने सुन्नी मजहब को जनता पर लादने की कोई कोशिश नहीं कि लेकिन सम्राज्य के बाहर वो सुन्नी परिवर्तित राज्य के शाह के रूप में जाना जाने लगा। उसकी तुलना उस्मानी साम्राज्य से की जाने लगी जो उस समय इस्लाम का सर्वेसर्वा थे। मक्का उस समय उस्मानियों के ही अधीन था।
भारत पर आक्रमण उसका सबसे क्रूर अभियान रहा। पश्चिम की दिशा में संतुष्ट होने के बाद नादिर शाह ने पूरब की ओर अपना ध्यान केंद्रित किया। सैन्य खर्च का भार जनता पर पड़ा। उसने पूरे अफगानिस्तान सहित कन्दहार पर अधिकार कर लिया। इस बात का बहाना बना कर कि मुगलों ने अफगान भगोड़ों को शरण दे रखी है। उसने मुगल साम्राज्य की ओर कूच किया। काबुल पर कब्ज करने के बाद उसने दिल्ली पर आक्रमण किया। करनाल में मुगल राजा मोहम्मद शाह और नादिर की सेना के बीच लड़ाई हुई। इसमें नादिर की सेना मुगलों के मुकाबले छोटी थी पर अपने बारूदी अस्त्रों के कारण फारसी सेना जीत गई।
उसके मार्च 1739 में दिल्ली पहुँचने पर दिल्ली के सुल्तान मोहम्मद शाह ने यह अफवाह फैली कि नादिर शाह मारा गया। इससे दिल्ली में भगदड़ मच गई और फारसी सेना का कत्ल शुरू हो गया। उसने इसका बदला लेने के लिए दिल्ली में भयानक खूनखराबा किया और एक दिन में कोई 20,000- 22,000 लोग मार दिए। इसके अलावा उसने शाह से भयानक धनराशि भी लूट ली। मोहम्मद शाह ने सिंधु नदी के पश्चिम की सारी भूमि भी नादिरशाह को दान में दे दी।
हीरे जवाहरात का एक जखीरा भी उसे भेंट किया गया जिसमें बदजात और मनहूस कोहिनूर (कूह-ए-नूर), दरियानूर और ताज-ए-मह नामक विख्यात हीरे शामिल थे। इनकी अपनी एक अपनी खूनी कहानी भी आगे चलकर बनी है। उस वक्त दिल्ली के सुलतान मोहम्मदशाह से नादिर को जो सम्पदा मिली वह करीब 70-80 करोड़ रुपयों की थी। यह राशि उस वक्त के तत्कालीन सातवर्षीय विश्चयुद्ध (1756-1763) के तुल्य थी, जिसमें फ्रांस की सरकार ने ऑस्ट्रिया की सरकार को मुआवजा बतौर दिया था।
नादिर ने दिल्ली में साम्राज्य पर कब्जे का लक्ष्य नहीं रखा। उसका उद्देश्य तो अपनी सेना के लिए आवश्यक धनराशि इकठ्ठा करनी थी जो उसे मिल गई थी। कहा जाता है कि दिल्ली से लौटने पर उसके पास इतना धन हो गया था कि अगले तीन वर्षों तक उसने जनता से कर नहीं लिया था।
दिल्ली फतह और लूट के बाद नादिर शाह को लौटने पर पता चला कि उसके बेटे रजाकोली, जिसे कि उसने अपनी अनुपस्थिति में वॉयसराय बना दिया था, ने साफवी शाह राजा तहामास और अब्बास की हत्या कर दी है। इससे उसको भनक मिली कि उसका बेटा रजाकोली उसके खिलाफ भी षडयंत्र रच रहा है और उसे भी मौत के घाट उतारने की फिराक में है।
इसी डर से उसने रजा कोली को वॉयसराय से पदच्युत कर दिया। इसके बाद वह तुर्केमेनीस्तान के अभियान पर गया और उसके बाद दागेस्तान के विद्रोह को दमन करने निकला। पर यहां पर उसे सफलता नहीं मिली। लेज्गों ने खंदक युद्ध नीति अपनाई और रशद के कारवां पर आक्रमण कर नादिर को परेशान कर डाला। जब वो दागेस्तान (1742) में था तो नादिर को खबर मिली कि उसका बेटा रजा कोली अब तत्काल उसको मारने की योजना बना रहा है।
इससे वो क्षुब्ध हुआ और उसने रजा को अंधा कर दिया। रजा ने कहा कि वो निर्दोष है पर नादिर ने उसकी एक न सुनी। लेकिन कुछ ही दिन बाद नादिर को अपनी गलती पर खेद हुआ। इस समय नादिर बीमार हो चला था और अपने बेटे को अंधा करने के कारण बहुत क्षुब्ध था। नादिरशाह ने आदेश दिया कि उन सरदारों के सिर उड़ा दिए जाएं जिन्होंने उसे उसके बेटे रजा कोली की आंखें फोड़ी जाते देखा है।
नादिरशाह ने उन सरदारों की गलती यह ठहराई कि उनमें से किसी ने यह क्यों नहीं कहा कि रजाकोली के बजाये उसकी आंखें फोड़ दी जाएं। दागेस्तान की असफलता भी उसे खाए जा रही थी। धीरे-धीरे वह और अत्याचारी बनता गया। दागेस्तान से खाली हाथ वापस लौटने के बाद उसने अपनी सेना एक बहुत पुराने लक्ष्य पश्चिम के उस्मानी साम्राज्य के लिए फिर से संगठित की। उस समय जब सेना संगठित हुई तो उसकी गिनती थी 3 लाख 75 हजार सैनिक। इतनी बड़ी सेना उस समय शायद ही किसी साम्राज्य के पास हो। ईरान की खुद की सेना इतनी ईरान-इराक युद्ध से पहले फिर कभी नहीं हुई।
सन् 1743 में उसने उस्मानी इराक पर हमला किया। शहरों को छोड़ कर कहीं भी उसे बहुत विरोध का सामना नहीं करना पड़ा। किरकुक पर उसका अधिकार हो गया लेकिन बगदाद और बसरा में उसे सफलता नहीं मिली। मोसूल में उसके महत्वाकांक्षा का अंत हुआ और उसे उस्मानों के साथ समझौता करना पड़ा। नादिर को ये समझ में आया कि उस्मानी उसके नियंत्रण में नहीं आ सकते। इधर नए उस्मानी सैनिक उसके खिलाफ भेजे गए। नादिरशाह के बेटे नसीरुल्लाह ने इनमें से एक को हराया जबकि नादिर ने येरावन के निकट 1745 में एक दूसरे जत्थे को हराया। पर यह उसकी आखिरी बड़ी जीत थी। इसमें उस्मानों ने उसे नजफ पर शासन का अधिकार दिया।
नादिर का अन्त उसकी बीमारियों से घिरा रहा। वह दिन प्रतिदिन बीमार, अत्याचारी और कट्टर होता चला गया था। अपने आखिरी दिनों में उसने जनता पर भारी कर लगाए और यहां तक कि अपने करीबी रिश्तेदारों से भी धन की मांग करने लगा था। उसका सैन्य खर्च काफी बढ़ ग��ा था। उसके भतीजे अलीकोली ने उसके आदेशों को मानने से मना कर दिया। जून 1747 में मशहद के निकट उसके अपने ही अंगरक्षकों ने नादिरशाह हत्या कर डाली। मशहद में नादिर शाह का मकबरा -आज भी एक पर्यटक स्थल के रूप में कायम है । उसके उत्तराधिकारी के रूप में आदिलशाह ने कुछ समय तक राज किया बाद में अपनी अयासी और बीमारी के कारण वह भी चन्द बरसों में ही मौत का ग्रास बन गया।
नादिर शाह की उपलब्धियां अधिक दिनों तक टिकी नहीं रह सकीं। उसके मरने के बाद अली कोली अपने को शाह घोषित कर दिया। उसने अपना नाम आदिलशाह रख लिया। नादिर के मरने के बाद सेना तितर बितर हो गई और साम्राज्य को क्षत्रपों ने स्वतंत्र रूप से शासन करना शुरू कर दिया। और तब अंग्रेजो का और पुर्तगाली शासकों का यूरोपीय प्रभाव भी बढ़ता ही गया।
अपने आखिरी वक्त पर वैसे नादिर को यूरोप में एक विजेता के रूप में ख्याति मिली थी। सन् 1768 में डेनमार्क के क्रिश्चियन सप्तम ने प्रख्यात भाषा शास्त्री सर विलियमजोन्स को नादिर के एक इतिहासकार मंत्री मिर्जा मैहदी अस्तर अब्दाली द्वारा लिखी उसकी जीवनी को फारसी से फ्रेंच में अनुवाद करने का आदेश दिया। इसी अंग्रेजी अनुवाद के जरिये 1739 में नादिरशाह की भारत विजय के बाद अंग्रेजों को मुगलों की कमजोरी का पता चला और उन्होंने भारत में साम्राज्य विस्तार को एक मौका समझ कर दमखम लगाकर कोशिश की।
अगर नादिरशाह भारत पर आक्रमण नहीं करता तो ब्रिटिश शायद इस तरह से भारत में अधिकार करने के बारे में सोच भी नहीं पाते या इतने बड़े पैमाने पर भारतीय शासन को चुनौती नहीं देते। अंग्रेजी हकूमत के भारत तक विस्तार में नादिरशाह की वह जीवनी का हाथ रहा जिसमें नादिर ने भारत की लचर राजनीति और कमजोर सैन्य शक्ति का बखूबी जिक्र किया था और यहां की सम्पदा खानपान एवं सोना-चांदी की सामाजिक संग्रह शक्ति का भी उस जीवनी में बयान किया गया था ।
(यहां पर मैं इन दरिंदे और लुटेरे राजाओं को महिमामंडित नहीं कर रहा हूं। मेरा मकसद किसी धर्म या सम्प्रदाय विशेष के खिलाफ घृणा फैलाना भी कतई नहीं है। क्योंकि, यह सिर्फ भारत का इतिहास है। ये बातें अब इतिहास के पन्नों से छन-छन कर आ रही है। यहां मेरा मकसद साफ तरीके से आज की पीढ़ी को असलियत से जागरूक करवाना ही है जिसमें सिर्फ वास्तविक जानकारी देने के उद्देश्य से यह लेखमाला प्रस्तुत कर रहा हूं।)
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