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Tuesday, May 22, 2012

आईपीएल विवाद के बीच देश की आर्थिक हालत…..

एकबार फिरसे सोच लो आप किसे अहमियत देंगे आप?
खान–आई.पी.एल.-क्रिकेटर-क्रिकेट या फिर अपना भारत देश ? 
बिकाऊ और कोंग्रेसकी दलाल मीडिया देश के लोगो को अहम मुद्दे से भटका रहे है। सरकारकी नाकामियाबी और देशमे आनेवाले भविष्य के खतरो को छुपा रही है । और नासमज प्रजाजन उसमे बहक भी जाते है !!?
ये देश क्रिकेट दिवानों का
खान के मूर्ख परवानो का
इस देश का यारो क्या कहना
ये ना रहेगा दुनिया का गहना
यहाँ रोज घोटाले होते है
फंसे किसीके बेटे या साले होते है
लूट के सब छुट जाते है
छूटने पर फोड़ते पटाखे है
इस देशवासियों क्या कहना
कभी था ये दुनिया क्या गहना
ये देश सबके बाप की दौलत है
सिर्फ कहने को एक औरत है
बाहर से आके लूटती है
उसकी पार्टी तलवे चाटती है
इस देश मे विकास गुनाहीत है
जो करे उसे खींचती अदालत है
षड्यंत्र यहाँ रचे जाते है
SIT के बाद भी बुलाते है
उस पक्ष का यारो क्या कहना
अंग्रेज़ियत का है ये नमूना
समर्पित :  मरे हुए झमीर वाले कुछ लोगो को  

खोते बुनियादी सवाल
शाहरूख खान और आईपीएल विवाद की मीडिया सुर्खियां उसी समाचार चैनलों की मनोरंजक समझ है जो एक साजिश के तहत पैदा कर दी जाती है ताकि आम आदमी का ध्यान बुनियादी सवालों से अलग हो जाए. आईपीएल विवाद के बीच देश की आर्थिक हालत…..
इसी वर्ष जिस दिन प्रणव मुखर्जी ने सरकार का सालाना बजट पेश किया उसके कुछ घंटों के भीतर यदि सचिन तेंदुलकर ने अपना बहुप्रतीक्षित सौंवा शतक नहीं ठोंक दिया होता तो क्या प्रणव बाबू राष्ट्रपति पद के लिए बहुदलीय समर्थन वाले भावी प्रत्याशी लायक अपनी छवि बचा पाते?
व्यवस्था का ‘पेन किलर’: कालाबाजारियों-सटोरियों-कॉरपोरेट जगत वालों-फिल्मी सितारों और क्रिकेटरों के पंचतत्व से जो आईपीएल तैयार हुआ है वह आम आदमी की दैनिक पीड़ा पर व्यवस्था का ‘पेन किलर’ साबित हो रहा है। इसके सेवन से मर्ज घटने की बजाय बढ़ता ही जाएगा। व्यवस्था के सत्ताधारियों के लिए यह ‘पेन किलर’ रामबाण उपाय है। जनता के कोलाहल को मूल मुद्दे से भटकाने में उन्हें कामयाबी मिल जाती है।
यदि ‘इंडिया टीवी’ द्वारा ‘स्पॉट फिक्सिंग’ का पर्दाफाश नहीं हुआ होता तो आम आदमी यही जानना चाहता कि आखिर 2जी स्पेक्ट्रम के सारे प्रमुख अभियुक्त जमानत पर कैसे रिहा हो गए? ए.राजा को जेल से बाहर आने के लिए कैसी फिक्सिंग हुई? 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में कार्रवाई सिर्फ मोहरों तक क्यों सीमित रह गई? राजा की खुली लूट को संरक्षण देने वाले हाथों तक जांच की आंच क्यों नहीं पहुंची?
मीडिया को मसाला: टाटा, अंबानी, रूईया को किस कारण गिरफ्तारी से बख्शा गया? राडिया गेट का क्या हो गया? राडिया गेट का पर्दाफाश करने वाले पत्रकार की दुर्घटना में रहस्यमयी मौत के लिए कौन जिम्मेदार है? कार्तिक चिदंबरम और रॉबर्ट वड्रा के कॉरपोरेट डील की ओर मीडिया का कैमरा घूमे उसके पहले रेखा और सचिन तेंदुलकर के राज्यसभा नामांकन का मसाला मीडिया को परोस दिया जाता है। पर्दे के पीछे से जारी सियाचिन सौदे का जब पर्दाफाश होने लगता है तो शाहरूख खान का परिवार वानखेडे स्टेडियम की सीमारेखा पार कर सहज परोसे जाने योग्या मसाला मीडिया को उपलब्ध करा देता है
महंगी होगी बिजली: सरकार इसी तरह 2014 तक निष्क्रिय पड़ी रही तो जिस अंदाज में ऊर्जा क्षेत्र की बदहाली है, जिस तरह विद्युत निर्माण और वितरण लगातार नीचे सरक रहा है उसके चलते आज विद्युतीकृत 40 फीसदी इलाके 2014 तक अंधेरे में डूब सकते हैं। चेन्नई जैसा महानगर इस गर्मी में प्रतिदिन 8 घंटे की बिजली की कटौती की मार झेल रहा है। ऊर्जा विशेषज्ञ दावा करते हैं मध्य 2013 तक यह स्थिति मुंबई और दिल्ली की भी हो सकती है
2014 तक संभव है कि हम ईरान से तेल आयात बंद कर चुके हों। जब एक डॉलर का मूल्य 90 रूपए होगा तक डीजल, पेट्रोल, केरोसिन और एलपीजी का भाव किस आधार पर स्थिर होगा? साफ संकेत है कि इस सरकार के कार्यकाल के आखिरी वर्ष में बिजली, टेलिफोन अैर परिवहन प्रणाली आम आदमी की पहुंच से बाहर हो जाएगा। क्या इसकी चिंता शाहरूख खान करेंगे? क्या ‘माई नेम इज खान’ को पुलिस का व्यापक प्रोटेक्शन मिल जाने से आम मुसलमान का पेट भर जाएगा?
मंदी का दौर: सरकार समर्थकों का तर्क है कि मंदी के दौर में भी सकल राष्ट्रीय उत्पाद में 6 फीसदी की दर से वृद्धि दर्ज हो रही है। क्या इस आंकड़े से संतोष किया जा सकता है? इस साल औद्योगिक उत्पादन के मामले में भारत ग्रीस प्रभावित यूरोप से भी काफी नीचे है। यूरो मुद्रा संकट में है फिर भी वहां का औद्योगिक उत्पादन भारत से बेहतर क्यों? क्या इसका जवाब अर्थवेत्ता डॉ. मनमोहन सिंह देना चाहेंगे?
इन दो वर्षो में तो अंबानी, मित्तल, टाटा, अग्रवाल हर कोई खुद को संकट में बता रहा है। किंगफिशर एयरलाइंस के पास विमानकर्मियों के वेतन का इंतजाम नहीं, पर सिद्धार्थ और विजय माल्या आईपीएल पर खुलकर पैसा बहाते हैं। उनके किंगफिशर कैलेंडर पर कोई संकट नहीं आता। क्या कभी आईपीएल से मुक्त होकर हम-आप बुनियादी सवालों पर भी सोच पाएंगे? खेल की दीवानगी अमेरिकी और यूरोप में भी है। वहां शराब पीकर गाड़ी चलाने पर राष्ट्रपति की बेटी को भी नहीं बख्शा जाता। हमारे भारत में शराबी शाहरूख पुलिस अफसर की कॉलर खींचकर उससे माफी मंगवाने का दर्ज पेश करता है। हम-आप उसके खानवाद पर खीझते हैं। सरकार भी यही चाहती है कि आप खान पर खीझें ताकि मनमोहन पर खीझने की आपको सुधर-बुध न रहे
By: JUGAL PATEL [AWAKEN INDIAN] AWAKENING…OTHERS…!!



Sunday, May 20, 2012

इतिहास के पन्नों में दबे जिन दरिंदे शासको की मैं यहा चर्चा करूंगा उनमें सबसे पहला नाम मंगोलियाई मूल के क्रूर चंगेजखान का आता है। उसके बाद उसी देश का हलाकु खान का नाम आता है जो चंगेजखान की मौत के बाद सक्रिय हुआ। तीसरे नंबर का दरिन्दा रहा तैमूर लंग। चौथा दरिंदा था अहमद शाह अब्दाली। उपरोक्त चारों के बारे में आप अब तक यहां पढ़ चुके हैं।
 
अब है बारी है पांचवें नंबर के दरिंदे शासक रहे नादिरशाह की, जिसने भारत को कई बार बुरी तरह लूटा और आबादी में भीषण नरसंहार और रक्तपात किया। भारत की अतुलनीय संपदा के अलावा कोहिनूर हीरा भी यही दरिंदा लूट कर अरब ले गया। लेकिन उस हीरे में यही शिफत थी की जो भी उसे प्राप्त करता उसी का शासन डांवाडोल हो उठता। 18वीं शताब्दी में अंग्रेजों ने इस हीरे पर कब्जा किया फलतः 20वीं शताब्दी के अन्त तक दुनिया के डूबते सूरज से ब्रिटिश शाही खानदान भी लोप होता गया।


नादिर शाह
नादिर शाह अफ्शार या नादिर कोली बेग (जन्म 6 अगस्त, 1688 मृत्यु 17 जून, 1747) फारस का शाह था। उसने सदियों के बाद क्षेत्र में ईरानी प्रभुता स्थापित की थी। उसने अपना जीवन दासता से आरंभ किया था और अपनी कूटबुद्धि से वह एकदम फारस का शाह ही नहीं बना, बल्कि उसने उस समय ईरानी साम्राज्य के सबल शत्रु उस्मानी साम्राज्य और रूसी साम्राज्य को ईरान, अफगानिस्तान  तथा इराक के  क्षेत्रों से बाहर निकाला।

उसने अफ्शरी वंश की स्थापना की थी और उसका उदय उस समय हुआ जब ईरान में पश्चिम से उस्मानी साम्राज्य (ऑटोमन) का आक्रमण हो रहा था और पूरब से अफगानों ने सफावी राजधानी इस्फहान पर अधिकार कर लिया था। उत्तर से रूस भी फारस में साम्राज्य विस्तार की योजना बना रहा था। इस विकट  परिस्थिति में भी उसने अपनी सेना संगठित की और अपने सैन्य अभियानों की वजह से उसे फारस का नेपोलियन या एशिया का अन्तिम महान सेनानायक जैसी उपाधियों से सम्मानित किया जाता है।

वह भारत विजय के अभियान पर भी निकला था। दिल्ली की सत्ता पर आसीन मुगल बादशाह मुहम्मद शाहआलम को हराने के बाद उसने वहां से अपार संपत्ति अर्जित की जिसमें कोहिनूर हीरा भी शामिल था। इस हीरे की बदौलत वह कुछ समय के लिए दुनिया का सबसे अमीर बादशाह कहलाने लगा। इसके बाद जब वह अपार शक्तिशाली बन गया तो कोहिनूर की फितरत उसे रास नही आई और अचानक उसका स्वास्थ्य भी बिगड़ता गया। लेकिन अपने जीवन के उत्तरार्ध में  वह बहुत निर्दयी और अत्याचारी बन गया था। सन् 1747 में उसकी हत्या के बाद उसका साम्राज्य जल्द ही तितर-बितर हो गया।

गुमनामी से आगाज
नादिर का जन्म खोरासान (उत्तर पूर्वी ईरान) में अफ्शार कजलबस कबीले में एक साधारण परिवार में हुआ था। उसके पिता एक साधारण किसान थे जिनकी मृत्यु नादिर के बाल्यकाल में ही हो गई थी। नादिर के बारे में कहा जाता है कि उसकी मां को उसके साथ उज्बेकों ने दास (गुलाम) बना लिया था। पर नादिर भाग सकने में सफल रहा और वो एक अफ्शार कबीले में शामिल हो गया और कुछ ही दिनों में उसके एक तबके का प्रमुख बन बैठा। जल्द ही वो एक सफल सैनिक के रूप में उभरा और उसने एक स्थानीय प्रधान बाबा अली बेग की दो बेटियों से शादी कर ली।

नादिर एक लम्बा, सजीला और शोख काली आंखों वाला नौजवान था। वह अपने शत्रुओं के प्रति निर्दय था, लेकिन अपने अनुचरों और सैनिकों के प्रति उदार भी। उस इलाके के बेहतरीन लडाकू नौजवान उसके संगठन में भर्ती होने के लिए बेताब रहते थे। वे 14साल पार करते ही नादिर के दल में ���ामिल हो जाते और तनवारबाजी से लेकर घुड़सवारी की युद्धक ट्रेनिंग लेने लगते।

कुछ ही समय में एक स्वेच्छित विशाल फौज नादिर के पास हो गई जो छापामार लड़ाई से लेकर मैदानी लडाई में पारंगत होती गई। उसे घुड़सवारी बहुत पंसद थी और घोड़ों की अव्छी नस्लों को प्राप्त करने का भी बहुत शौक था। उसकी आवाज बहुत गंभीर और असरदार थी और यह स्वर साधन  भी उसकी सफलता की कई वजहों में से एक माना जाता है। वह एक तुर्कमेन था और उसके कबीले ने शाह इस्माइल प्रथम के समय से ही साफवियों की बहुत मदद की थी।

उस समय फारस की गद्दी पर साफवियों का शासन था। लेकिन नादिरशाह का भविष्य शाह के तख्तापलट के कारण नहीं बना जो कि प्रायः कई सफल सेनानायकों के साथ होता है। उसने साफवियों का साथ दिया। उस समय साफवी अपने पतनोन्मुख साम्राज्य में नादिर शाह को पाकर बहुत प्रसन्न हुए।

एक तरफ से उस्मानी साम्राज्य (ऑटोमन तुर्क) तो दूसरी तरफ से अफगानों के विद्रोह ने साफवियों की नाक में दम कर रखा था। इसके अलावा उत्तर से रूसी साम्राज्य भी निगाहें गड़ाए बैठा था। शाह सुल्तान हुसैन के बेटे तहमास (तहमाश्प) को नादिरशाह  का साथ मिला। उसके साथ मिलकर उसने उत्तरी ईरान में मशहद (खोरासान की राजधानी) से अफगानों को भगाकर अपने अधिकार में ले लिया।

उसकी इस सेवा से प्रभावित होकर उसे तहमास कोली खान (तहमास का सेवक या गुलाम-ए-तहमास) की उपाधि मिली। यह एक सम्मान था क्योंकि इससे उसे शाही नाम मिला था। पर नादिर इतने पर मुतमयिन (संतुष्ट) हो जाने वाला सेनानायक नहीं था। उसकी नजर तो इससे भी आगे थी और वह जल्दी ही एक चर्चित शहंशाह और राजाओं का राजा बनना चाहता था ।

नादिरशाह ने इसके कुछ ही समय बाद हेरात के अब्दाली अफगानों को परास्त किया। तहमास के दरबार में अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के बाद उसने 1729 में राजधानी इस्फहान पर कब्जा कर चुके अफगानों पर आक्रमण करने की योजना बनाई। इस समय एक यूनानी व्यापारी और पर्यटक बेसाइल वतात्जेस ने नादिर के सैन्य अभ्यासों को आंखों से देखा था। उसने बयां किया - नादिर अभ्यास क्षेत्र में घुसने के बाद अपने सेनापतियों के अभिवादन की स्वीकृति में अपना सर झुकाता था। उसके बाद वो अपना घोड़ा रोकता था और कुछ देर तक सेना का निरीक्षण एकदम चुप रहकर करता था। वह अभ्यास आरंभ होने की अनुमति देता था। इसके बाद अभ्यास आरंभ होता था - चक्र संयोजन से लेकर व्यूह रचना और घुड़सवारी इत्यादि में  नादिर खुद तीन घंटे तक घोड़े पर अभ्यास करता था और नायाब किस्म के सेनापति और सैनिक अपने बेहतरीन करतब नादिर के नेतृत्व में दिखाते थे और वह उनको उसी समय ईनाम और शाही सम्मान से नवाजा करता था। उसके इस प्रोत्साहन कूटनीति से सैनिको में अटूट जज्बा और मरमिटने का जुनून पैदा होता गया ओर वह इसी अटूट सैन्य शक्ति के बल पर बनता गया अजेय नादिरशाह।

सन 1729 के अन्त तक उसने अफगानों को तीन बार हराया और इस्फहान वापस अपने नियंत्रण में ले लिया। उसने अफगानों को महफूज (सुरक्षित) तरीके से भागने भी दिया। इसके बाद उसने भारी सैन्य अभियान की योजना बनाई। जिसके लिए उसने शाह तहमास को कर वसूलने पर मजबूर किया। उस समय पश्चिम की दिशा से उस्मानी तुर्क (ऑटोमन)प्रभुत्व में थे। अभी तक नादिर के अभियान उत्तरी, केन्द्रीय तथा पूर्वी ईरान, और उससे सटे अफगानिस्तान तक सीमित रहे थे। उसने उस्मानियों को पश्चिम से मार भगाया और उसके तुरंत बाद वह पूरब में हेरात की तरफ बढ़ा जहां पर उसने हेरात पर नियंत्रण कर लिया।

उसकी सैन्य सफलता तहमास से देखी नहीं गई। उसे अपने ही तख्तापलट का डर होने लगा। उसने अपनी सैन्य योग्यता साबित करने के मकसद से उस्मानों के साथ फिर से युद्ध शुरू कर दिया जिसका अन्त उसके लिए शर्मनाक रहा और उसे नादिर द्वा������ जीते हुए कुछ प्रदेश उस्मानों को लौटाने पड़े। नादिर जब हेरात से लौटा तो यह देखकर क्षुब्ध हुआ। उसने जनता से अपना समर्थन मांगा। इसी समय उसने इस्फहान में एक दिन तहमास (तहमास्य) को ज बवह  नशे की हालत में था तो यही समझाया कि वह शासन करने के लिए अयोग्य है और उसके इशारे पर दरबारियों ने तहमास के नन्हें बेटे अब्बास को गद्दी पर बिठा दिया।

उसके राज्याभिषेक के समय नादिर ने घोषणा की कि वह खुद सैनिक कमान को संभालेगा और कन्दहार जो आज का कांधार है, दिल्ली, बुखारा और टर्की इस्ताम्बुल के शासकों को हराएगा। दरबार में उपस्थित लोगों को लगा कि ये आत्मप्रवंचना का चरम के अतिरिक्त कुछ नहीं है। खाली पीली डींगे हां रहा है पर आने वाले समय में उनको पता चला कि नादिर ऐसा नहीं था। उसने अपनी बहादुरी और सैन्यकुशलता के बल पर पश्चिम की दिशा में उस्मानों पर आक्रमण के लिए सेना तैयार की।

पर अपने पहले आक्रमण में उसे पराजय मिली। उस्मानों ने बगदाद की रक्षा के लिए एक भारी सेना भेज दी जिसका नादिर कोई जबाब नहीं दे पाया। लेकिन कुछ महीनों के भीतर उसने सेना फिर से संगठित की। इस बार उसने किरकुक के पास उस्मानियों को हरा दिया। येरावन के पास जून 1735 में उसने रूसियों की मदद से उस्मानियों को एक बार फिर से हरा दिया। इस समझौते के तहत रूसी भी फारसी प्रदेशों से वापस कूच कर गए।

 नादिर शाह ने 1736 में अपने सेनापतियों, प्रान्तपालों तथा कई समर्थकों के समक्ष खुद को शाह यानि राजा  घोषित कर दिया। धार्मिक नीति के तहद ईरान के धार्मिक इतिहास में इस्लामी  शिया और सुन्नियों द्वारा उनपर ढाए जुल्म का बहुत महत्व है। सफवी शिया थे और उनके तहत शिया लोगों को अरबों (सुन्नियों) के जुल्म से छुटकारा मिला था। आज ईरान की जनता शिया है और वहां शुरुआती तीन खलीफाओं को गाली देने की परम्परा थी।

नादिर शाह ने अपनी गद्दी संभालने वक्त ये शर्त रखी कि लोग उन खलीफाओं के प्रति ये अनादर भाव छोड़ देंगे और गाली गलौच के रास्ते छोड देंगे। इससे उसे अपनी संगठन क्षमता बढ़ाने और समाज में भाईचारा कायम करने मे फायदा भी मिला। ईरान में शिया सुन्नी तनाव तब से कम हुआ।  साथ ही ईरान को इस्लाम के दूसरे मजहबी एकता के केन्द्र के रूप में देखा जाने लगा।

नादिर अर्मेनियों के साथ भी उदार धार्मिक संबंध रखता था। उसका शासन यहूदियों को लिए भी एक सुकून का समय था। अपने साम्राज्य के अंदर (फारस में) उसने सुन्नी मजहब को जनता पर लादने की कोई कोशिश नहीं कि लेकिन सम्राज्य के बाहर वो सुन्नी परिवर्तित राज्य के शाह के रूप में जाना जाने लगा। उसकी तुलना उस्मानी साम्राज्य से की जाने लगी जो उस समय इस्लाम का सर्वेसर्वा थे। मक्का उस समय उस्मानियों के ही अधीन था।

भारत पर आक्रमण उसका सबसे क्रूर अभियान रहा। पश्चिम की दिशा में संतुष्ट होने के बाद नादिर शाह ने पूरब की ओर अपना ध्यान केंद्रित किया। सैन्य खर्च का भार जनता पर पड़ा। उसने पूरे अफगानिस्तान सहित कन्दहार पर अधिकार कर लिया। इस बात का बहाना बना कर कि मुगलों ने अफगान भगोड़ों को शरण दे रखी है। उसने मुगल साम्राज्य की ओर कूच किया। काबुल पर कब्ज करने के बाद उसने दिल्ली पर आक्रमण किया। करनाल में मुगल राजा मोहम्मद शाह और नादिर की सेना के बीच लड़ाई हुई। इसमें नादिर की सेना मुगलों के मुकाबले छोटी थी पर अपने बारूदी अस्त्रों के कारण फारसी सेना जीत गई।

उसके मार्च 1739 में दिल्ली पहुँचने पर दिल्ली के सुल्तान मोहम्मद शाह ने यह अफवाह फैली कि नादिर शाह मारा गया। इससे दिल्ली में भगदड़ मच गई और फारसी सेना का कत्ल शुरू हो गया। उसने इसका बदला लेने के लिए दिल्ली में भयानक खूनखराबा किया और एक दिन में कोई 20,000- 22,000 लोग मार दिए। इसके अलावा उसने शाह से भयानक धनराशि भी लूट ली। मोहम्मद शाह ने सिंधु नदी के पश्चिम की सारी भूमि भी नादिरशाह को दान में दे दी।

हीरे जवाहरात का एक जखीरा भी उसे भेंट किया गया जिसमें बदजात और मनहूस कोहिनूर (कूह-ए-नूर), दरियानूर और ताज-ए-मह नामक विख्यात हीरे शामिल थे। इनकी अपनी एक अपनी खूनी कहानी भी आगे चलकर बनी है। उस वक्त दिल्ली के सुलतान मोहम्मदशाह से नादिर को जो सम्पदा मिली वह करीब 70-80 करोड़ रुपयों की थी। यह राशि उस वक्त के तत्कालीन सातवर्षीय विश्चयुद्ध (1756-1763) के तुल्य थी, जिसमें फ्रांस की सरकार ने ऑस्ट्रिया की सरकार को मुआवजा बतौर दिया था।

नादिर ने दिल्ली में साम्राज्य पर कब्जे का लक्ष्य नहीं रखा। उसका उद्देश्य तो अपनी सेना के लिए आवश्यक धनराशि इकठ्ठा करनी थी जो उसे मिल गई थी। कहा जाता है कि दिल्ली से लौटने पर उसके पास इतना धन हो गया था कि अगले तीन वर्षों तक उसने जनता से कर नहीं लिया था।

दिल्ली फतह और लूट के बाद नादिर शाह को लौटने पर पता चला कि उसके बेटे रजाकोली, जिसे कि उसने अपनी अनुपस्थिति में वॉयसराय बना दिया था, ने साफवी शाह राजा तहामास और अब्बास की हत्या कर दी है। इससे उसको भनक मिली कि उसका बेटा रजाकोली उसके खिलाफ भी षडयंत्र रच रहा है और उसे भी मौत के घाट उतारने की फिराक में है।

इसी डर से उसने रजा कोली को वॉयसराय से पदच्युत कर दिया। इसके बाद वह तुर्केमेनीस्तान के अभियान पर गया और उसके बाद दागेस्तान के विद्रोह को दमन करने निकला। पर यहां पर उसे सफलता नहीं मिली। लेज्गों ने खंदक युद्ध नीति अपनाई और रशद के कारवां पर आक्रमण कर नादिर को परेशान कर डाला। जब वो दागेस्तान (1742) में था तो नादिर को खबर मिली कि उसका बेटा रजा कोली अब तत्काल उसको मारने की योजना बना रहा है।

इससे वो क्षुब्ध हुआ और उसने रजा को अंधा कर दिया। रजा ने कहा कि वो निर्दोष है पर नादिर ने उसकी एक न सुनी। लेकिन कुछ ही दिन बाद नादिर को अपनी गलती पर खेद हुआ। इस समय नादिर बीमार हो चला था और अपने बेटे को अंधा करने के कारण बहुत क्षुब्ध था। नादिरशाह ने आदेश दिया कि उन सरदारों के सिर उड़ा दिए जाएं जिन्होंने उसे उसके बेटे रजा कोली की आंखें फोड़ी जाते देखा है।

नादिरशाह ने उन सरदारों की गलती यह ठहराई कि उनमें से किसी ने यह क्यों नहीं कहा कि रजाकोली के बजाये उसकी आंखें फोड़ दी जाएं। दागेस्तान की असफलता भी उसे खाए जा रही थी। धीरे-धीरे वह और अत्याचारी बनता गया। दागेस्तान से खाली हाथ वापस लौटने के बाद उसने अपनी सेना एक बहुत पुराने लक्ष्य पश्चिम के उस्मानी साम्राज्य के लिए फिर से संगठित की। उस समय जब सेना संगठित हुई तो उसकी गिनती थी 3 लाख 75 हजार सैनिक। इतनी बड़ी सेना उस समय शायद ही किसी साम्राज्य के पास हो। ईरान की खुद की सेना इतनी ईरान-इराक युद्ध से पहले फिर कभी नहीं हुई।

सन् 1743 में उसने उस्मानी इराक पर हमला किया। शहरों को छोड़ कर कहीं भी उसे बहुत विरोध का सामना नहीं करना पड़ा। किरकुक पर उसका अधिकार हो गया लेकिन बगदाद और बसरा में उसे सफलता नहीं मिली। मोसूल में उसके महत्वाकांक्षा का अंत हुआ और उसे उस्मानों के साथ समझौता करना पड़ा। नादिर को ये समझ में आया कि उस्मानी उसके नियंत्रण में नहीं आ सकते। इधर नए उस्मानी सैनिक उसके खिलाफ भेजे गए। नादिरशाह के बेटे नसीरुल्लाह ने इनमें से एक को हराया जबकि नादिर ने येरावन के निकट 1745 में एक दूसरे जत्थे को हराया। पर यह उसकी आखिरी बड़ी जीत थी। इसमें उस्मानों ने उसे नजफ पर शासन का अधिकार दिया।

नादिर का अन्त उसकी बीमारियों से घिरा रहा। वह दिन प्रतिदिन बीमार, अत्याचारी और कट्टर होता चला गया था। अपने आखिरी दिनों में उसने जनता पर भारी कर लगाए और यहां तक कि अपने करीबी रिश्तेदारों से भी धन की मांग करने लगा था। उसका सैन्य खर्च काफी बढ़ ग��ा था। उसके भतीजे अलीकोली ने उसके आदेशों को मानने से मना कर दिया। जून 1747 में मशहद के निकट उसके अपने ही अंगरक्षकों ने नादिरशाह हत्या कर डाली। मशहद में नादिर शाह का मकबरा -आज भी  एक पर्यटक स्थल के रूप में कायम है । उसके उत्तराधिकारी के रूप में आदिलशाह ने  कुछ समय तक राज किया बाद में अपनी अयासी और बीमारी के कारण वह भी चन्द बरसों में ही मौत का ग्रास बन गया।

नादिर शाह की उपलब्धियां अधिक दिनों तक टिकी नहीं रह सकीं। उसके मरने के बाद अली कोली अपने को शाह घोषित कर दिया। उसने अपना नाम आदिलशाह रख लिया। नादिर के मरने के बाद सेना तितर बितर हो गई और साम्राज्य को क्षत्रपों ने स्वतंत्र रूप से शासन करना शुरू कर दिया।  और तब अंग्रेजो का और पुर्तगाली शासकों का यूरोपीय प्रभाव भी बढ़ता ही गया।

अपने आखिरी वक्त पर वैसे नादिर को यूरोप में एक विजेता के रूप में ख्याति मिली थी। सन् 1768  में डेनमार्क के क्रिश्चियन सप्तम ने प्रख्यात  भाषा शास्त्री सर विलियमजोन्स को नादिर के एक इतिहासकार मंत्री मिर्जा मैहदी अस्तर अब्दाली द्वारा लिखी उसकी जीवनी को फारसी से फ्रेंच में अनुवाद करने का आदेश दिया। इसी अंग्रेजी अनुवाद के जरिये 1739  में नादिरशाह की भारत विजय के बाद अंग्रेजों को मुगलों की कमजोरी का पता चला और उन्होंने भारत में साम्राज्य विस्तार को एक मौका समझ कर दमखम लगाकर कोशिश की।

अगर नादिरशाह भारत पर आक्रमण नहीं करता तो ब्रिटिश शायद इस तरह से भारत में अधिकार करने के बारे में सोच भी नहीं पाते या इतने बड़े पैमाने पर भारतीय शासन को चुनौती नहीं देते। अंग्रेजी हकूमत के भारत तक विस्तार में नादिरशाह की वह जीवनी का हाथ रहा जिसमें नादिर ने भारत की लचर राजनीति और कमजोर सैन्य शक्ति का बखूबी जिक्र किया था और यहां की सम्पदा खानपान एवं सोना-चांदी की सामाजिक संग्रह शक्ति का भी उस जीवनी में बयान किया गया था ।

(यहां पर मैं इन दरिंदे और लुटेरे राजाओं को महिमामंडित नहीं कर रहा हूं। मेरा मकसद किसी धर्म या सम्प्रदाय विशेष के खिलाफ घृणा फैलाना भी कतई नहीं है। क्योंकि, यह सिर्फ भारत का इतिहास है। ये बातें अब इतिहास के पन्नों से छन-छन कर आ रही है। यहां मेरा मकसद साफ तरीके से आज की पीढ़ी को असलियत से जागरूक करवाना ही है जिसमें सिर्फ वास्तविक जानकारी देने के उद्देश्य से यह लेखमाला प्रस्तुत कर रहा हूं।)

इतिहास के पन्नों में दबे जिन दरिन्दे शासकों की मै ..यहा चर्चा करूंगा उनमें सबसे पहला नाम मंगोलियाई मूल के क्रूर चंगेजखान का आता है। उसके बाद उसी देश का हलाकु खान का नाम आता है जो चंगेजखान की मौत के बाद सक्रिय हुआ। तीसरे नम्बर का दरिन्दा रहा तेमूल लंग। उपरोक्त तीनों के बारे में आप अब तक पढ चुके हैं। अब है बारी चौथे नम्बर के दरिन्दे शासक रहे अहमदशाह अब्दाली की.. जिसने भारत को बुरी तरह लूटा और आबादी में भीषण नरसंहार और रक्तपात किया। पॉचवे नम्बर पर आता है अरब का बादशाह नादिर शाह..। उसकी चर्चा इसके बाद होगी।

अहमदशाह अब्दाली

अफगान शासक.....अहमद शाह अब्दाली यानि जिसे अहमद शाह दुर्रानी भी कहा जाता है, सन 1748 में नादिरशाह की मौत के बाद अफगानिस्तान का शासक और दुर्रानी साम्राज्य का संस्थापक बना। उसने भारत पर सन 1748 से सन 1758 तक कई बार चढ़ाई की और अपने दल बल के साथ रक्तपात और मूल्यवान सम्पदा की  लूटपाट करता रहा। उसने अपना सबसे बड़ा हमला सन 1757 में जनवरी माह में दिल्ली पर किया। उस समय दिल्ली का शासक आलमगीर (द्वितीय) था। वह बहुत ही कमजोर और डरपोक शासक था। उसने अब्दाली से अपमानजनक संधि की जिसमें एक शर्त दिल्ली को लूटने की अनुमति देना था। अहमदशाह एक माह तक दिल्ली में ठहर कर लूटमार करता रहा। वहां की लूट में उसे करोड़ों की संपदा हाथ लगी थी।

अब्दाली द्वारा मथुरा और ब्रज की भीषण लूट बहुत ही क्रूर और बर्बर थी। दिल्ली लूटने के बाद अब्दाली का लालच बढ़ गया। उसने दिल्ली से सटी आसपास के छोटे छोटे राज्य के जाटों की रियासतों को भी लूटने का मन बनाया। ब्रज पर अधिकार करने के लिए उसने जाटों और मराठों के विवाद की स्थिति का पूरी तरह से फायदा उठाया। अहमदशाह अब्दाली पठानों की सेना के साथ दिल्ली से आगरा की ओर चला। अब्दाली की सेना की पहली मुठभेड़ जाटों के साथ बल्लभगढ़ में हुई। वहां जाट सरदार बालूसिंह और सूरजमल के ज्येष्ठ पुत्र जवाहर सिंह ने सेना की एक छोटी टुकड़ी लेकर अब्दाली की विशाल सेना को रोकने की कोशिश की। उन्होंने बड़ी वीरता से युद्ध किया पर उन्हें शत्रु सेना से पराजित होना पड़ा।
अहमद शाह अब्दाली की सेना के आक्रमणकारियों ने तब न केवल बल्लभगढ़ और उसके आस-पास लूटा और व्यापक जन−संहार किया बल्कि उनके घरों खेतो और शत्रुओं को भी गाजर मूली की तरह काट डाला। उसके बाद अहमदशाह ने अपने दो सरदारों के नेतृत्व में 20 हजार पठान सैनिकों को मथुरा लूटने के लिए भेज दिया। उसने उन्हें आदेश दिया− मेरे जांबाज बहादुरो! मथुरा नगर हिन्दुओं का पवित्र स्थान है। उसे पूरी तरह नेस्तनाबूद कर दो। आगरा तक एक भी इमारत खड़ी न दिखाई पड़े। जहां-कहीं पहुंचो, कत्ले आम करो और लूटो। लूट में जिसको जो मिलेगा, वह उसी का होगा। सभी सिपाही लोग काफिरों के सिर काट कर लायें और प्रधान सरदार के खेमे के सामने डालते जाएं। सरकारी खजाने से प्रत्येक सिर के लिए पांच रुपया इनाम दिया जायगा। यह थी अहमदशाह अब्दाली की  क्रूर नीयत और नीति।

दिल्ली,गाजियाबाद.. पलवल, हापुड़ तथा मेरठ को लूटने के बाद सेना का अगला पड़ाव ब्रजभूमि,गोकुल और मथुरा की ओर था। इसके बाद अब्दाली का आदेश लेकर सेना मथुरा की तरफ चल दी। मथुरा से लगभग 8 मील पहले चौमुहां पर जाटों की छोटी सी सेना के साथ उनकी लड़ाई हुई। जाटों ने बहुत बहादुरी से युद्ध किया लेकिन दुश्मनों की संख्या अधिक थी, जिससे उनकी हार हुई। उसके बाद जीत के उन्माद में पठानों ने मथुरा में प्रवेश किया। मथुरा में पठान भरतपुर दरवाजा और महोली की पौर के रास्तों से आए और मार−काट और लूट−पाट करने लगे।

अहमदशाह अब्दाली की नृशंश फौज ने जब दिल्ली के आसपास के देहातों में किसानो के घरों और अन्न भण्डार  की लूट पाट की तो वे अपनी सेना की रसद के लिए।गेहूं, दाल,चावल, आटा, घी, तेल, गुड़, नमक और शाक सब्जी तक बोरों और कट्टों में भर कर ले गए... यही नहीं उन्होंने उनके पशुओं और जानवरों तक को नहीं छोडा, उनके घोडे खच्चर हाथी और भैंसे तथा बैलगाड़ी उस सामान को ढोने के काम आए जो उन्होंने लूटपाट करके एकत्रित की थी। बाकी गाय भैसों सहित भेड़ बकरियों का कत्ल करके उनका फौज ने आहार बना लिए और उनकी खाल तक को बांध कर अफगानिस्तान ले गये ताकि फौजियों के लिए उम्दा जूते बन सकें।

ब्रजभूमि में वहां के सशस्त्र नागा साधु सैनिकों के मुबाबले पर आए परन्तु मुठठी भर साधु क्या कर लेते। बचाव के लिए आए साधुओं के साथ अब्दाली की सेना ने खूब मारकाट की और−वृन्दावन में लूट और मार-काट करने के बाद अब्दाली भी अपनी सेना के साथ मथुरा आ पहुँचा। ब्रज क्षेत्र के तीसरे प्रमुख केन्द्र गोकुल पर भी उसकी नजर थी। वह गोकुल को लूट-कर आगरा जाना चाहता था। उसने मथुरा से यमुना नदी पार कर महावन को लूटा और फिर वह गोकुल की ओर गया। वहां पर सशस्त्र नागा साधुओं के एक बड़े दल ने यवन सेना का जम कर सामना किया। उसी समय अब्दाली की फौज में हैजा फैल गया, जिससे अफगान सैनिक बड़ी संख्या में मरने लगे। इस वजह से अहमदशाह अब्दाली किसी अज्ञात दैवी प्रकोप की दहशत के कारण वापिस लौट गया। मथुरा की लूटपाट के दौरान उसके सलाहकारो ने यही अनुमान लगाया कि यह हिन्दुओं की पवित्र नगरी है और कंस को मारने वाले श्रीकृष्ण इसकी रक्षा करते हैं। 

इस प्रकार नागाओं की वीरता और दैवी मदद से गोकुल लूट-मार से बच गया। गोकुल−महावन से वापसी में अब्दाली ने फिर से वृन्दावन में लूट की। मथुरा−वृन्दावन की लूट में ही अब्दाली को लगभग 12 करोड़ रुपये की धनराशि प्राप्त हुई, जिसे वह तीस हजार घोड़ो, खच्चरों और ऊटों पर लाद कर ले गया। वहां की कितनी ही  जवान,विधवा और अविवाहित स्त्रियों को भी वह जबरन अफगानिस्तान ले गया।
 
आगरा में लूट के बाद अब्दाली की सेना ब्रज में तोड़-फोड़, लूट-पाट और मार-काट करती आगरा पहुंची। उसके सैनिकों ने आगरा में जबर्दस्त लूट-पाट और मार−काट की। यहां उसकी सेना में दोबारा हैजा फैल गया और वह जल्दी ही लौटने की तैयारी  करने लग गया और लूट की धन−दौलत अपने देश अफगानिस्तान ले गया। कई मुसलमान लेखकों ने लिखा है− अब्दाली द्वारा दिल्ली और और मथुरा के बीच ऐसा भारी विध्वंस किया गया था कि आगरा−दिल्ली सड़क पर झोपड़ी भी ऐसी नहीं बची थी, जिसमें एक आदमी भी जीवित रहा हो। अब्दाली की सेना के आवागमन के मार्ग में सभी स्थान ऐसे बर्बाद हुए कि वहां दो सेर अन्न तक मिलना कठिन हो गया था।
इधर महाराष्ट्र में मराठों का प्रभुत्व मुगल-साम्राज्य की अवनति के पश्चात मथुरा पर भी बाद में मराठों का प्रभुत्व स्थापित हुआ और इस नगरी ने सदियों के पश्चात चैन की सांस ली। 1803 ई. में लॉर्ड लेक ने सिंधिया को हराकर मथुरा-आगरा प्रदेश को अपने अधिकार में कर लिया। उसके बाद से भारत की आजादी 1947 तक यह क्षेत्र अंग्रेजी हकूमत के अधीन रहा और इस देश ने काफी उतार चढाव देखे। यह भी एक तथ्य है ऐसे अनेक विदेशी दरिन्दों की लूटपाट और ��रसंहार के बावजूद  मध्य भारत का यह इलाका सदा जीवन्त रहा और अपनी रक्षा और मान मर्यादा के लिए यहां की जनता ने मरते दम तक संघर्ष किया।

क्रमश: अगला दरिन्दा ... नादिर शाह

(यहां पर मैं इन दरिंदे और लुटेरे राजाओं को महिमामंडित नहीं कर रहा हूं। मेरा मकसद किसी धर्म या सम्प्रदाय विशेष के खिलाफ घृणा फैलाना भी कतई नहीं है। क्योंकि, यह सिर्फ भारत का इतिहास है। ये बातें अब इतिहास के पन्नों से छन-छन कर आ रही है। यहां मेरा मकसद साफ तरीके से आज की पीढ़ी को असलियत से जागरूक करवाना ही है जिसमें सिर्फ वास्तविक जानकारी देने के उद्देश्य से यह लेखमाला प्रस्तुत कर रहा हूं।)

Saturday, May 19, 2012

वेज-प्राइस स्पाइरल क्या है?


वेज-प्राइस स्पाइरल क्या है?

आरबीआई ने फाइनेंशल ईयर 2011-12 के मैक्रो इकनॉमिक एंड मॉनिटरी डेवलपमेंट्स रिपोर्ट में सोमवार को कहा कि ग्रामीण और शहरी इलाकों में वेतन और मजदूरी बढ़ना महंगाई दर में तेजी की बड़ी वजह है।

वेज-प्राइस स्पाइरल क्या है?

वेज (सैलरी) में बढ़ोतरी से इंडस्ट्री की इनपुट कॉस्ट बढ़ जाती है। खर्च योग्य इनकम बढ़ने से प्रोडक्ट्स और सर्विसेज की मांग बढ़ जाती है। इसके चलते कीमतें बढ़ती हैं। इससे सैलरी में और बढ़ोतरी की मांग शुरू हो जाती है। ज्यादा सैलरी, ज्यादा प्राइस के इस सायकल को वेज-प्राइस स्पाइरल कहा जाता है।
यह किस तरह होता है?
ऐसे इकनॉमी जिसमें लंबे समय से इनफ्लेशन का स्तर ऊंचा रहा हो, उसमें कीमत में और बढ़ोतरी के आसार ज्यादा होते हैं। अगर लोगों को कीमतों में बढ़ोतरी की आशंका होती है तो उनके सैलरी में अनुमानित इनफ्लेशन रेट से कम बढ़ोतरी को स्वीकार करने की संभावना कम ही होती है। वे कम से कम सैलरी में इतनी बढ़ोतरी चाहते हैं, जो उनके रियल परचेजिंग पावर में कमी की भरपाई कर सके। इनपुट कॉस्ट बढ़ने के चलते भी ऐसा हो सकता है। हाई इनफ्लेशन और इनपुट कॉस्ट बढ़ने पर सरकार मिनिमम सपोर्ट प्राइस बढ़ाने पर मजबूर हो जाती है। इससे फूड प्राइसेज बढ़ने लगते हैं।
स्पाइरल्स रिस्क क्या हैं?
वेज प्राइस स्पाइरल के चलते बढ़ने वाले इनफ्लेशन को कंट्रोल करना मुश्किल हो जाता है। आम तौर पर यह बढ़ोतरी ऐसी इकनॉमी में होती है, जिसमें सप्लाई साइड की दिक्कतें (कम सप्लाई) होती हैं। भारत में इस तरह की स्थिति है। सरप्लस कैपेसिटी वाली इकनॉमी में काफी सप्लाई होने से बढ़ती मांग के चलते इनफ्लेशन नहीं बढ़ता। शॉर्ट टर्म में कैपेसिटी में तेज बढ़ोतरी नहीं की जा सकती, इसलिए स्पाइरल को मैनेज करने के लिए मांग घटाने की जरूरत पड़ती है। कैपेसिटी और डिमांड में संतुलन के लिए ऐसा किया जाता है।

क्या होता है थर्ड पार्टी इंश्योरेंस

क्या होता है थर्ड पार्टी इंश्योरेंस

कुछ समय पहले इंश्योरेंस रेग्युलेटर ने थर्ड पार्टी मोटर इंश्योरेंस प्रीमियम में बढ़ोतरी कर दी। आइए देखें थर्ड पार्टी इंश्योरेंस है क्या:

थर्ड पार्टी इंश्योरेंस कवर एक ऐसा कवर है जो फर्स्ट पार्टी यानी इंश्योर्ड शख्स के द्वारा थर्ड पार्टी को हुए नुकसान के लिए होता है। इसे समझने के लिए पहले फर्स्ट , सेकंड और थर्ड पार्टी को समझना होगा। फर्स्ट पार्टी वह शख्स है , जो अपनी गाड़ी का इंश्योरेंस करा रहा है। सेकंड पार्टी इंश्योरेंस कंपनी होती है , जिससे यह कवर लिया गया है। थर्ड पार्टी कोई तीसरा शख्स है जिसे फर्स्ट पार्टी की वजह से नुकसान पहुंचा। थर्ड पार्टी इंश्योरेंस में इस तीसरे शख्स को होने वाले नुकसान की भरपाई की जाती है यानी अगर आपकी गाड़ी से सड़क पर चल रही दूसरी गाड़ी या किसी शख्स को नुकसान होता है तो थर्ड पार्टी इंश्योरेंस कवर के तहत उस शख्स को हुए नुकसान की भरपाई आपकी इंश्योरेंस कंपनी करेगी। इसके लिए सालाना प्रीमियम की रकम निर्धारित है , जो कार या टूवीलर की क्षमता पर निर्भर करती है। नियम यह है कि बिना थर्ड पार्टी इंश्योरेंस कराए कोई भी गाड़ी सड़क पर नही आ सकती। इसे कराना अनिवार्य है। अपनी गाड़ी को होने वाले नुकसान के लिए (ओन डैमेज इंश्योरेंस) आप इंश्योरेंस करा भी सकते हैं और नहीं भी , लेकिन थर्ड पार्टी कराना अनिवार्य है। सड़क पर दौड़ती तमाम पुरानी गाड़ियों का आमतौर पर सिर्फ थर्ड पार्टी इंश्योरेंस कवर ही होता है।
2012-13 के लिए थर्ड पार्टी इंश्योरेंस का सालाना प्रीमियम
प्राइवेट कार
1000 सीसी तक
75 रुपए
1000 सीसी से 1500 सीसी तक
925 रुपए
1500 सीसी से ज्यादा
2853 रुपए
टूवीलर
75 सीसी तक
350 रुपए
75 सीसी से 150 सीसी तक
357 रुपए
150 सीसी से 350 सीसी तक
355 रुपए

रेडी रेकनर / पोस्ट ऑफिस स्कीम
स्कीम
ब्याज(फीसदी)
टैक्स बचत
मंथली इनकम स्कीम
8.5
कोई नहीं
आरडी
8.4
कोई नहीं
सेविंग अकाउंट
4
कोई नहीं
एनएससी(5 साल)
8.6
80सी
एनएससी(10 साल)
8.9
80सी
टाइम डिपॉजिट
8.2-8.5
80सी
सीनियर सिटिजंस स्कीम
9.3(तिमाही)
80सी
पीपीएफ
8.8
80सी

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માત્ર એક જ ચહેરાથી કેટલા જીવે છે?


માણસના ખોળિયામાં ક્યારેય એક માણસ નથી વસતો હોતો, એકસાથે અનેક માણસ એમાં જીવતા હોય છે અને સમય આવ્યે એનાં અનેક રૂપ પ્રગટ થતાં આપણને જોવા મળે છે. માત્ર રાવણ જ નહીં, સામાન્ય માણસ પણ દસ કે તેથી વધારે માથાંઓ-મહોરાંઓ-ચહેરાઓ ધરાવે છે. માત્ર એક જ ચહેરાથી કેટલા જીવે છે?
અગિયારમી સદીની શરૂઆતમાં જન્મેલા ઉમર ખય્યામની રુબાઈઓનું ભાષાંતર, ફારસીમાંથી દુનિયાની લગભગ બધી જ ભાષાઓમાં થઈ ચૂક્યું છે. અંગ્રેજીમાં થયેલો તેનો એક અનુવાદ આ પ્રમાણે છે.
A religious man said to a whore, ‘you’re drunk, Caught every moment in a different snare.’
she replied, ‘oh shaikh, I am what you say, Are you what you seem?’
(એક ધર્માધિકારીએ એક વારાંગનાને કહ્યું, 'તું તો દરેક પળે કોઈકને ફંદામાં ફસાવવામાં જ રત રહે છે.' વારાંગનાએ જવાબ આપ્યો, 'હે શેખ, તમે જે કહો છો એવી જ હું છું, પરંતુ તમે દેખાવ છો એવા છો ખરા?)
સદીઓ પહેલાં ઉમર ખય્યામે જે વેધક પ્રશ્નો કર્યો છે એ આજે પણ એટલો જ વેધક રહ્યો છે. માણસ જેવો હોય એવો દેખાઈ શકતો નથી. એટલો સરળ એ થઈ શકતો નથી. એનું વ્યક્તિત્વ જેટલું ખુલ્લું હોય છે એના કરતાં અનેક ગણું વધારે ધરબાયેલું હોય છે. માણસ જુદી જગ્યાએ, જુદા સમયે, જુદી વ્યક્તિ સાથે જુદો જ હોય છે. એ ક્યારેય બધી જગ્યાએ, બધા સાથે બધા સમયે એકસરખો હોઈ શકતો નથી. અનેક હત્યાઓ કરનાર ડાકુ પણ પોતાનાં સંતાનોનો તો પ્રેમાળ પિતા જ હોય છે. એક જગ્યાએ એ ક્રૂર હત્યારો છે તો બીજી જગ્યાએ પ્રેમાળ સ્વજન છે.
માણસના ખોળિયામાં ક્યારેય એક માણસ નથી વસતો હોતો, એકસાથે અનેક માણસ એમાં જીવતા હોય છે અને સમય આવ્યે એનાં અનેક રૂપ પ્રગટ થતાં આપણને જોવા મળે છે. માત્ર રાવણ જ નહીં, સામાન્ય માણસ પણ દસ કે તેથી વધારે માથાંઓ-મહોરાંઓ ચહેરાઓ ધરાવે છે. માત્ર એક જ ચહેરાથી કેટલા જીવે છે?
અને માણસ દુનિયામાં જેમ વધુ ને વધુ સત્તા, પૈસા, કીર્તિ મેળવતો થાય છે તેમ તો મનુષ્ય તરીકે એનાં અનેક રૂપો પ્રગટ થવા માંડે છે.
માણસનાં બાહ્ય રૂપ-મહોરાં જેમ જેમ વધતાં જાય તેમ તેમ એ એનો કેદી થતો જાય છે અને સમય જતાં વધુ ને વધુ મજબૂત થતી જતી એની દીવાલો વચ્ચે એ જકડાતો જાય છે. એનાથી છૂટવાનું એના માટે દુષ્કર થતું જાય છે. પોતાની જે સ્થિતિ છે, પોતે જેવો છે એવો ખુલ્લો ન પડી જાય એ માટેના સભાન પ્રયત્નો એના માટે ક્યારેક આત્મઘાતક પણ નિવડે છે.
ઉદાહરણ તરીકે માણસ જ્યારે આર્થિક રીતે નબળો હોય પણ એના ઉપર પૈસાદાર માણસનું મહોરું લાગેલું હોય ત્યારે એણે અનેક વિકટ પરિસ્થિતિનો સામનો કરવો પડે છે. પોતાના મિત્રો, સંબંધીઓ કે સગાંવહાલાંઓ સાથે વહેવાર કે સંબંધ જાળવી રાખવા, પોતાનો મોભો જાળવી રાખવા એ જે જાળું રચે છે એમાં એ પોતે જ ફસાતો જાય છે.
આર્થિક ભીંસને કારણે થતી આત્મહત્યાઓના જે સમાચારો આપણે વાંચીએ, સાંભળીએ છીએ એ આનું જ પરિણામ છે. માણસ પોતાની ખરી પરિસ્થિતિને છુપાવતો ફરે છે અને છેલ્લે, પોતાનો ખરો ચહેરો ખુલ્લો ન પડી જાય એ ડરે અંતિમ પગલું પણ ભરી લે છે.
ખય્યામનો જન્મ ખુરાસાનમાં આવેલા નૈશાપુર ગામમાં થયેલો. ફારસીમાં 'નય'નો અર્થ વાંસ થાય છે. કહેવાય છે કે આ શહેર જ્યાં વસેલું છે ત્યાં પહેલાં વાંસનું જંગલ હતું. ખય્યામ ધર્મ અને તત્ત્વજ્ઞાનના ઊંડા અભ્યાસી હતા. ખગોળશાસ્ત્ર, ગણિતશાસ્ત્ર અને જ્યોતિષ વિદ્યામાં પણ પારંગત હતા અને એ બધાથી વિશેષ તેઓ એક મોટા ગજાના કવિ હતા.
કહે છે કે ઉમર ખય્યામનું મૃત્યુ બહુ શાંતિથી થયું હતું. તે દિવસે સાંજ સુધી તેમણે કાંઈ પણ ખાધું નહોતું. નમાજ પઢી તેમણે સિજદામાં માથું નમાવીને કહ્યું હતું, "ઓ ખુદા મારી શક્તિ મુજબ મેં તને ઓળખવા પ્રયાસ કર્યો. તારા વિશેનું જ્ઞાન મારા ગજા મુજબનું આટલું જ પ્રાપ્ત થઈ શક્યું, મને માફ કર.''
ઈ.સ. ૧૮૫૭માં એડવર્ડ ફિટઝેરાલ્ડે ખય્યામની રુબાઈઓનું ભાષાંતર પહેલી વાર અંગ્રેજીમાં કર્યું એ વખતે એની માત્ર ૨૦૦ નકલો છપાઈ હતી, જેના ઉપર કોઈએ ખાસ ધ્યાન આપ્યું નહોતું. પ્રકાશકે એ પસ્તીના ભાવે વેચવી પડી હતી, પરંતુ એ પછી તો એની અનેક વાર આવૃત્તિઓ થઈ છે અને દુનિયાની અનેક ભાષાઓમાં રુબાઈઓના અનુવાદ થઈ ચૂક્યા છે.
મારો ખ્યાલ છે ત્યાં સુધી ગુજરાતીમાં, મોરબીના હરિલાલ દ્વારકાદાસ સંઘવીએ ઈ.સ. ૧૯૨૭માં રુબાઈઓનો અનુવાદ પ્રગટ કરેલો છે. મૂળ ફારસી ભાષામાંથી ભારે જહેમત લઈને એમણે એ ભાષાંતર કરેલું છે.
શૂન્ય પાલનપુરીએ પણ ખય્યામની રુબાઈઓનું ફારસીમાંથી જ ગુજરાતીમાં ભાષાંતર કરેલું છે અને તેમાં એમણે લખ્યું છે કે, "ગુજરાતીમાં મારા જાણવા પ્રમાણે ઘણા અનુવાદો થાય છે. કેટલાક પ્રગટ થયેલા છે તો કેટલાક અપ્રગટ છે. મારો પ્રયાસ લગભગ ચૌદમો ગણાય.''
હરિલાલ સંઘવીએ ગુજરાતીમાં ઉતારેલ બે રુબાઈઓ જોઈએ. "પ્રભુ, તું તો દયાળુ છો, દયા ઉદાર તારી છે, પ્રભુ તો પાપી જન સૌ એ સ્વર્ગની બહાર શીદને છે? અમારી ભક્તિથી દે તો ન તારી એ કરીમી છે, પ્રભુ ઉદ્વાર પાપીને, કરીમી તો જ તારી છે."
ખય્યામ ઈશ્વરને કહે છે કે, હે ઈશ્વર તું દયાળુ કહેવાય છે. અમારી ભક્તિ અને પુણ્યથી જો તું અમને સ્વર્ગ આપે તો એમાં તારું દયાળુપણું ક્યાં આવ્યું? પાપીજનને તું સ્વર્ગમાં સ્થાન આપે તો જ તું ખરો દયાળુ.
બીજી એક રુબાઈનું ભાષાંતર આ પ્રમાણે છેઃ
ખય્યામ! તારા પાપ માટે દુઃખ તું શીદને ધરે, દુઃખી થવાથી શું વધારે ખોટ હાંસલ છે તને?
પાપો નથી જેણે કર્યાં તેને રહમ પર હક નથી, રહમ છે પાપીજન માટે નકામો ના દુઃખી થાજે
સરળતાથી સમજાય એવી આ રુબાઈ વિષે કોઈ ખાસ વિવરણની જરૂર નથી.
'શૂન્ય' પાલનપુરી લખે છે કે રુબાઈઓનો અનુવાદ રુબાઈ તરીકે નહીં, પણ મુક્તક તરીકે મેં કર્યો છે. મુક્તક અને રુબાઈમાં ફેર ફક્ત છંદનો છે. ભાષાનું લાવણ્ય જાળવી રાખવા મારે ક્યાંક ક્યાંક છૂટ પણ લેવી પડી છે.
તત્ત્વજ્ઞાનથી ભરપૂર એવી કેટલીક રુબાઈઓ શૂન્ય પાલનપુરીના શબ્દોમાં જોઈએઃ
શું કુબેરો? શું સિકંદર? ગર્વ સૌનો તૂટશે
હો ગમે તેવો ખજાનો બે જ દિનમાં ખૂટશે;
કાળની કરડી નજરથી કોઈ બચવાનું નથી,
આજ તો ફૂટી છે પ્યાલી કાલે કૂંજો ફૂટશે.
હું માનું છું કે આ રુબાઈ એટલી સરળ છે કે એના ઉપર પણ કશી ટિપ્પણીની જરૂર નથી.
કુંભાર માટીને ખૂંદીને એને ગુંદીને જુદા જુદા આકાર આપે છે, એ નવું સર્જન કરે છે, પરંતુ અહીં ખય્યામે તત્ત્વજ્ઞાન આપવામાં એનો અદ્ભુત ઉપયોગ કર્યો છે.
કાલ મેં લીલા નિહાળી હાટમાં કુંભારની,
માટી પર ઝડીઓ વરસતી જોઈ અત્યાચારની;
વ્યગ્ર થઈને માટી બોલી, 'ભાઈ કૈં વિવેક રાખ,
મેંય તારી જેમ ચાખી છે મજા સંસારની.
કાલ કૂંજાગરને જોયો બેફિકર અંજામથી,
ચાક પર એને હતું બસ કામ કેવળ કામથી;
રંકના કર મેળવીને રાયના મસ્તક સાથ,
દાંડીઓ ને કાંઠલા ઘડતો હતો આરામથી.
જામ ઘડનારા! કરે છે શું તમે કૈં જ્ઞાન છે?
જેને તું ખૂંદી રહ્યો છે એ તો એક ઈન્સાન છે,
આંગળી અકબરની, માથું કોઈ આલમગીરનું,
ચાક પર શું શું ધર્યું છે, મૂર્ખ તૂજને ભાન છે?
કાળની વણઝાર ચાલી જાય છે, ચાલી જશે,
પ્રાણ થઈ જશે પલાયન ખોળિયું ખાલી થશે;
ખુશ રહે કે જેટલાં મસ્તક જુએ છે તું અહીં;
એક દિવસ એ બધાં કુંભારના ચરણે હશે.

પાસપોર્ટ કઢાવવા અંગે તમામ વિગત


પાસપોર્ટ કઢાવવા અંગે તમામ વિગત આપશો? પરદેશમાં પાસપોર્ટ ખોવાય તો?

પાસપોર્ટ કઢાવવા માટે અમદાવાદ ખાતેની પાસપોર્ટ ઓફિસમાં જઈ વિગતવાર કાર્યવાહી થઈ શકે. બીજો ઉપાય પોસ્ટ ઓફિસમાં કે પોલીસ સ્ટેશનમાં પણ જવાનો છે. પાસપોર્ટ માટેની ફી એક હજાર રૂપિયા છે. પાસપોર્ટ માટેનું ફોર્મ મેળવી વાંચશો તો તેમાં બધી જ વિગતો આપી હશે. તમે જાતે જ આ ફોર્મ ભરી શકો છો. જો તમે એજન્ટ કે બીજા કોઈ વચેટિયાની મદદ લેવા જશો તો રૂપિયાનું ધોવાણ થશે.
પાસપોર્ટ ફોર્મ ભરતી વખતે એકદમ ચીવટ રાખો. કોઈ વિગત ખોટી ભરશો નહીં. અરજી સાથે જ ફી ડ્રાફ્ટ અથવા રોકડેથી ભરી શકાય છે. તમારા બધા દસ્તાવેજો કમ્પ્લિટ હોય અને પોલીસ ક્લિયરન્સ મળી જાય તો દોઢેક મહિનામાં પાસપોર્ટ મળી જતો હોય છે. જેમને વારંવાર પરદેશ જવાનું થતું હોય એમણે ૪૮ પાનાંનો પાસપોર્ટ કઢાવવો જોઈએ.
પાસપોર્ટ આવી જાય એટલે પહેલા તો તપાસી લો કે બધી વિગતો સાચી છે કે કેમ? જો કશું સુધારા કરવા જેવું જણાય તો તુરંત પાસપોર્ટ ઓફિસનો સંપર્ક કરો. પાસપોર્ટ તૈયાર થયા પછી તમારા ઉપરાંત નજીકનાં સગાં-સબંધીઓને પણ તેની એક નકલ આપી રાખો, જેથી ઇમર્જન્સીમાં કામ લાગી શકે. પરદેશમાં ગયા પછી પાસપોર્ટ ગુમ થાય તો મુશ્કેલી ઊભી થઈ શકે. હવે તો પાસપોર્ટ સહિતના દસ્તાવેજો સ્કેન કરી ઈ-મેઇલમાં પણ સેવ કરી રાખવા જોઈએ. જેથી દુનિયાના કોઈ પણ ખૂણેથી જરૂર પડે તો નકલ મેળવી શકાય.
પરદેશમાં જતી વખતે પાસપોર્ટ સામાન સાથે પેક કરવાની ભૂલ ન કરવી. મુસાફરી દરમિયાન પાસપોર્ટ ખિસ્સામાં રાખવો. પાસપોર્ટ ચેક કરવાનો થાય તો તમે પણ ત્યાં જ હાજર રહો. કોઈને પાસપોર્ટ સોંપી આડાઅવળા ન થવું જોઈએ. પાસપોર્ટ એ પરદેશમાં તમારો એકમાત્ર સરકારી સહારો છે. ગુજરાતની રિજનલ પાસપોર્ટ ઓફિસની અહીં આપેલી વેબસાઇટ પરથી પણ જોઈએ એ વિગતો મળી રહેશે. આ રહી વેબસાઇટ
passport.guj.nic.in
હું એન્જિનિયર છું. અંગ્રેજી ભાષા બરાબર આવડતી નથી, પણ સમજી શકું છું. મને કેટલાક એજન્ટો ઓસ્ટ્રેલિયાના વિઝા અપાવી દેવાની લાલચ આપે છે. શું કરવું જોઈએ? - જય ગજ્જર, નડિયાદ
એજન્ટો તમને શીશામાં ઉતારવાની તૈયારી કરી રહ્યા છે, પણ તમે સીધા જ લાલચને વશ થવાને બદલે સલાહ લેવાનું કામ કર્યું એ માટે અભિનંદન. તમને જે લાલચ આપતા હશે એ તમારી પાસેથી પહેલા લાખો રૂપિયા પડાવશે. પછી ભલું હશે તો ઓફિસને તાળું મારીને ગુમ થઈ જશે. જો ઓફિસ ચાલુ રાખશે તો પણ તમને વિઝા અપાવી દેશે તેની કોઈ ગેરન્ટી નથી. તમને શું લાગે છે, ઓસ્ટ્રેલિયા, અમેરિકા, કેનેડા જેવા દેશોની સરકાર શેરીએ શેરીએ ફૂટી નીકળેલા એજન્ટોની સલાહથી વિઝા આપે છે? એજન્ટો કહે એ લોકોને વિઝા આપે છે? બિલકુલ નહીં. પાસપોર્ટ કઢાવવાથી માંડીને વિઝા મેળવવા સુધીની કાર્યવાહીમાં ક્યાંય એજન્ટોનું કામ જ નથી. કોઈ પણ એજ્યુકેટેડ વ્યક્તિ એ કામ જાતે જ કરી શકે છે. તમે એન્જિનિયર છો તો જે દેશમાં જવા માંગતા હો એ દેશની સરકારી ઇમિગ્રેશન વેબસાઇટ પર જઈ તપાસ કરી શકો છો.
એજન્ટો પરદેશ જવા માંગતા લોકો પાસેથી લાખો રૂપિયા ઉઘરાવી ગુમ થવાના અનેક બનાવો નોંધાયા છે. કેટલાક એજન્ટો તો પૈસા પરત નથી આપવા, થાય તે કરી લો એવી ધમકી આપતાં પણ થઈ ગયા છે. માટે બહેતર છે કે એજન્ટની ઝંઝટમાં પડવું જ નહીં.
હું બી.એડ્. થયેલો છું. હાલ ટીચર છું. પરદેશમાં નોકરી મેળવવી છે. - ઇસ્માઇલ શેખ, અમદાવાદ
કેનેડામાં શિક્ષકોની વધારે જરૂરિયાત રહેતી હોય છે. ગણિત-વિજ્ઞાનના શિક્ષકોની તો અમેરિકા સહિતના દેશોમાં મોટી માંગ છે. તમે જાતે જ કેનેડા સરકારની ઇમિગ્રેશન વેબસાઇટ http://www.cic.gc.ca/english પર જઈ તપાસ કરી શકો છો.

સિરક્રીક વિવાદ?


ભારત અને પાકિસ્તાનની બોર્ડર પર આવેલ સિરક્રીક (દરિયાઈ ખાડી) ની એક તરફ આપણું કચ્છ છે તો બીજી તરફ પાકિસ્તાનનો સિંધ પ્રદેશ છે. ૯૬ કિલોમીટરની આ ક્રીકનો વિભાવાદ આઝાદી અને ગલા વખતથી ચાલ્યો આવે છે. સિરક્રીક વિસ્તારમાં ઓઈલ અને ગેસનો જથ્થો હોવાની શક્યતા છે. દરિયા અને નદીનું ખારું-મીઠું પાણી ભેગું થતું હોવાથી આ વિસ્તારમાં કીમતી માછલીઓ પાકે છે. અલબત્ત, વિવાદિત જગ્યા હોવાથી આ ક્રીક સંપૂર્ણપણે પ્રતિબંધિત છે. ભારત અને પાકિસ્તાન વચ્ચે આ વિવાદ ઉકેલવા માટે અનેક મંત્રણાઓ થઈ છે. તા. ૧૪થી તા. ૧૬ મે વચ્ચે નવી દિલ્હીમાં બંને દેશોના પ્રતિનિધિઓ વચ્ચે મંત્રણાઓ થવાની હતી પણ સિયાચીનનો મુદ્દો વચ્ચે નાખી પાકિસ્તાને મંત્રણા મુલતવી રાખી. આખરે શું છે આ સિરક્રીક વિવાદ?
ભારતની આઝાદી ભાગલા લઈને આવી હતી. ૧૯૪૭થી પાકિસ્તાન સાથે અનેક મુદ્દે વિવાદો ચાલતા રહ્યા છે અને યુગો સુધી ચાલતા રહેશે. પાકિસ્તાન આપણાથી જ છૂટું પડેલું આપણું સૌથી નજીકનું પડોશી છે. ભારત અને પાકિસ્તાન વચ્ચે ત્રણ મુદ્દે ચકમક ઝરતી રહે છે. તેમાં એક છે કશ્મીર, બીજું સિયાચીન અને ત્રીજું સિરક્રીક. એમ તો જૂનાગઢ અને હૈદરાબાદ મુદ્દે પણ પાકિસ્તાને ઉહાપા કર્યા છે પણ ત્યાં પાકિસ્તાન કંઈ કરી શકે તેમ નથી. આ બંને શહેર ભારતની ભૂમિ વચ્ચે આવેલાં છે, પણ બાકીના ત્રણેય વિસ્તારો બોર્ડર પર છે અને તેની માલિકી અને કબજાના મામલે બંને દેશ વચ્ચે બંદૂકો અને તોપો ધણધણતી રહે છે.
જો બધું જ નિર્ધારિત સમય મુજબ ચાલ્યું હોત તો તા. ૧૪ મી મેથી આજ દિવસ સુધી નવી દિલ્હીમાં ભારત અને પાકિસ્તાનના પ્રતિનિધિઓ વચ્ચે સિરક્રીક મુદ્દે મંત્રણા ચાલતી હોત.
પાકિસ્તાને છેલ્લી ઘડીએ સિરક્રીક મંત્રણાની બેઠક પાછી ઠેલી દીધી અને કહ્યું કે પહેલાં સિયાચીન મુદ્દે વલણ સ્પષ્ટ થાય પછી સિરક્રીક મુદ્દે વાત કરીશું. જૂનની ૧૧મી તારીખથી બંને દેશો વચ્ચે સિયાચીન મુદ્દે વાતચીત થવાની છે. એ પછી ૨૨મી જૂને સિરક્રીક મુદ્દે મંત્રણા કરવાનું નક્કી થયું છે. જોકે તેનો આધાર સિયાચીનની મંત્રણામાં શું થાય છે તેના ઉપર રહેશે. સિરક્રીકની મંત્રણા મુલતવી રાખવા પાકિસ્તાન ભલે ગમે તે બહાનાં કાઢે પણ વધુ એક વખત તેની દાનત છતી થઈ ગઈ છે.
પાકિસ્તાનની હાલત અત્યારે એવી છે કે ભારત સાથેના સંબંધમાં તે નથી આગળ વધી શકતું કે નથી પાછળ જઈ શકતું. પાકિસ્તાનના રાષ્ટ્રપતિ આસીફ અલી ઝરદારી થોડા સમય અગાઉ અજમેરમાં જિયારતના બહાને ભારત આવી ગયા. એ સમયે તેઓએ બધા મુદ્દે ખુલ્લા દિલે વાતચીત આગળ વધારવાની વાત કરી હતી. ત્યારે એવું લાગતું હતું કે સિરક્રીક મંત્રણાઓ સારી રીતે થશે પણ એવું થયું નહીં.
સિરક્રીક સાથે ગુજરાત સીધી રીતે સંકળાયેલું છે. કચ્છની બોર્ડર જમીન અને જળમાર્ગથી પાકિસ્તાન સાથે જોડાયેલી છે. આ બોર્ડર ભૌગોલિક રીતે એવી છે કે ત્યાં અવરજવર અશક્ય ન હોય તો પણ મુશ્કેલ તો ચોક્કસ છે જ. રણ, ખાડી અને દલદલ આ બોર્ડરને સ્પર્શે છે. કચ્છના જિલ્લામથક ભૂજથી ૧૬૫ કિમી. દૂર જાવ એટલે કોટેશ્વર આવે. કોટેશ્વરથી ૪૦ નોટિકલ માઈલ જાવ એટલે સિરક્રીક આવે. બોર્ડર હોવાથી આ વિસ્તાર પ્રતિબંધિત એરિયા છે. સિરક્રીકની માલિકી અંગે બંને દેશોના દાવાઓ ચાલતા રહ્યા છે.
સિરક્રીક આખરે છે શું? સાવ સરળ ભાષામાં સમજવું હોય તો કહી શકાય કે ભારત અને પાકિસ્તાનની જમીન વચ્ચે આવેલી આ એક દરિયાઈ ખાડી છે. સિરક્રીકની લંબાઈ ૯૬ કિલોમીટર છે. પાકિસ્તાન અને ભારત વચ્ચે ચાલતા આ વિવાદમાં ખાડીની બરાબર વચ્ચેથી ભાગ પાડવાની વાત છે. ખાડીના નકશા ઉપર લાઈન દોરી દેવાની અને અડધી અડધી ખાડી વહેંચી લેવાની. એમ તો આખા વિસ્તારને આંતરરાષ્ટ્રીય દરિયો ગણવાની પણ વાતો થતી આવી છે. બાકી તો બંને દેશ આખેઆખી ક્રીકની માલિકીના દાવા કરે છે. પાકિસ્તાન બોમ્બે ગવર્નમેન્ટ રિઝોલ્યુશન ઓફ ૧૯૧૪નો આધાર આગળ ધરીને સિરક્રીક પર દાવો કરે છે. એ સમયે રાવ મહારાજા ઓફ કચ્છ અને સિંધની સરકાર વચ્ચે સિરક્રીક મામલે એક સમજૂતી થઈ હતી. જોકે એ પછી તો ઘણી ઘટનાઓ બની ગઈ.
સિરક્રીકની એક તરફ આપણું કચ્છ છે તો બીજી તરફ પાકિસ્તાનનો સિંધ પ્રાંત છે. પાકિસ્તાન સિરક્રીકને નેવિગબલ એટલે કે વહાણોની અવરજવર થઈ શકે તેવી ખાડી કહે છે. જ્યારે ભારત સિરક્રીકને નોનનેવિગબલ કહે છે. અત્યારે તો આ વિસ્તારમાં પ્રતિબંધ લાદી દેવાયો છે.
હવે બીજો એક સવાલ. દરિયાઈ ખાડી હોવા છતાં બંને દેશને આ વિસ્તારમાં રસ શું છે? તેનાં અનેક કારણો છે. એક અને સૌથી મોટું કારણ એ છે કે આ વિસ્તારમાં ઓઈલ અને ગેસ મળી આવવાની શક્યતા છે. અલબત્ત, વિવાદના કારણે ત્યાં ખરેખર શું અને કેટલું છે તેનો અભ્યાસ કે તપાસ પણ થઈ શકતી નથી. છતાં આ એક એવી લાલચ છે કે જ્યાંથી આર્થિક ફાયદો થાય. બીજું એક કારણ એ છે કે આ ક્રીક વિસ્તારમાં નદી અને દરિયાના પાણીનું મિલન થાય છે. જે જગ્યાએ ખારા અને મીઠા પાણીનો સંગમ થાય છે ત્યાં કીમતી માછલીઓ પાકે છે. આ માછલીઓ પકડવાની લાલચે ઘણી વાર માછીમારો આ પ્રતિબંધિત વિસ્તારમાં જવા લલચાય છે. ઇન્ડિયન કોસ્ટ ગાર્ડ પાકિસ્તાની માછીમારોની બોટ પકડે છે અને પાકિસ્તાન કોસ્ટ ગાર્ડ ભારતીય માછીમારોની બોટને.
મુંબઈના આતંકવાદી હુમલા પછી આ ક્રીક સુરક્ષાની દૃષ્ટિએ પણ મહત્ત્વની અને જોખમી બની છે. કચ્છ બોર્ડર પર બીએસએફ એટલે કે બોર્ડર સિક્યોરિટી ફોર્સ તહેનાત છે. સામાન્ય રીતે દરિયાઈ સુરક્ષાની જવાબદારી કોસ્ટ ગાર્ડ અથવા તો નેવી હસ્તક હોય છે, પણ કચ્છની વિચિત્ર ભૌગોલિક પરિસ્થિતિને કારણે ભારતમાં સૌપ્રથમ વખત બીએસએફની વોટરવીંગ શરૂ કરવામાં આવી હતી. વોટરવીંગ અહીં સફળ ગઈ પછી દેશના બીજા વિસ્તારોમાં શરૂ કરવામાં આવી હતી.
સિરક્રીક એવો વિસ્તાર છે જ્યાં ભરતીના સમયે જ પેટ્રોલિંગ થઈ શકે છે. ઓટ વખતે દૂર સુધી પાણી અંદર ચાલ્યાં જાય છે અને ઘણા કિનારે દલદલ બની જાય છે. આ પંથકમાં જવાનો પણ ફસાઈ ગયા હોય તેવા કિસ્સાઓ અનેક વખત બન્યા છે. એટલે આ વિસ્તાર પણ ખતરાથી ખાલી નથી.
દરિયાઈ ઉપરાંત હવાઈ માર્ગે પણ બોર્ડર વાયોલેશનની ઘટનાઓ બની છે. ગુજરાતના એક મુખ્યમંત્રી બળવંતરાય મહેતાના વિમાનને પાકિસ્તાની સેનાએ કચ્છ બોર્ડર ઉપર જ ઉડાવી દીધું હતું. ૧૯૯૯માં બનેલી એક ઘટનાએ પણ બંને દેશ વચ્ચે તનાવ ઊભો કરી દીધો હતો. એ દિવસ હતો, ૧૦મી ઓગસ્ટ, ૧૯૯૯નો. કચ્છની બોર્ડર ઉપર ઊડતાં પાકિસ્તાનના નેવલ સર્વેલન્સ પ્લેનને ભારતીય વાયુસેનાના વિમાને ઉડાડી દીધું હતું. પાકિસ્તાનના વિમાનમાં પાકિસ્તાની નેવીના પાંચ ઓફિસરો સહિત ૧૬ લોકો હતા. ભારતના રડારમાં દેખાયું કે આ વિમાન ભારતીય સીમામાં ઘૂસ્યું છે. તરત જ ઇન્ડિયન એરફોર્સનું મીગ-૨૧ જેટ રવાના થયું. એર ટુ એર મિસાઈલ છોડીને પાકિસ્તાનના વિમાનને ઉડાવી દીધું. સોળેસોળ લોકોનાં મોત થયાં. ઇન્ડિયન એરફોર્સનું વિમાન સ્ક્વોર્ડન લીડર પી કે. બુંદેલા લઈને ગયા હતા. પાકિસ્તાનના વિમાનને ઉડાવી દેવાની ઘટના બાદ સ્કવોર્ડન લીડર પી.કે. બુંદેલાને વાયુસેના મેડલ પણ અપાયો હતો.
પોતાનું વિમાન ઉડાવી દેવાતા પાકિસ્તાને બુમરાણ મચાવી હતી અને ઇન્ટરનેશનલ કોર્ટ ઓફ જસ્ટિસમાં પણ ફરિયાદ કરી હતી. આ વિમાનમાં શસ્ત્રો હતાં જ નહીં અને એ પાકિસ્તાનના હવાઈ વિસ્તારમાં જ ઊડતું હતું તેવા દાવા પાકિસ્તાને કર્યા હતા. વિમાનનો ભંગાર પણ પાકિસ્તાનની હદમાં જ પડયો હતો. જોકે ભારતે કોઈ દરકાર કરી ન હતી.
કચ્છમાં રણ માર્ગે ઘૂસણખોરીના કિસ્સાઓ બનતા રહ્યા છે. અનેક પાકિસ્તાનીઓ કચ્છ બોર્ડરે પકડાયા છે. અનેક રીતે કચ્છ બોર્ડર અત્યંત સંવેદનશીલ છે, એટલે જ સિરક્રીકનું મહત્ત્વ વધી જાય છે. ભારત અને પાકિસ્તાન વચ્ચે ભૂતકાળમાં સિરક્રીક મુદ્દે અનેક મંત્રણાઓ થઈ છે પણ કોઈ પરિણામ આવ્યું નથી. આ વખતે કદાચ બેઠક થઈ હોત તો પણ કંઈ પરિણામ આવે એવું લાગતું ન હતું. આ વિવાદ ઉકલે એવા કોઈ અણસાર અત્યારે તો જોવા મળતા નથી. આ વિવાદ દાયકાઓથી ચાલ્યો આવે છે અને કદાચ સદીઓ સુધી ચાલતો રહેવાનો છે. વચ્ચે વચ્ચે છમકલાં અને મંત્રણાઓ થતાં રહેશે. જો કે છમકલાંઓને બદલે મંત્રણાઓ થતી રહે તો પણ કંઈ ખોટું નથી. આ વિવાદના કારણે આ વિસ્તારમાં પાકતી માછલીઓને આરામથી જીવી શકે તેવું અભયારણ્ય મળી ગયું છે.       

भोपाल गैस त्रासदी पर किताब आई है- इंपीचमेन्ट

भोपाल गैस त्रासदी का गिद्धभोज

अभी दिसंबर की वैसी सर्द स्याह रातें नहीं हैं कि भोपाल गैस त्रासदी को रस्मी तौर पर ही सही, याद करें. त्रासदी के पच्चीस साल पूरे होने के बाद मीडिया के लिए भी अब भोपाल गैस त्रासदी कोई मुद्दा नहीं है. सबकुछ शांत हो चुका है. लेकिन शांत दिखते माहौल के बीच भोपाल गैस त्रासदी पर किताब आई है- इंपीचमेन्ट. यह किताब भोपाल त्रासदी के लिए संघर्ष करनेवाली नामी पत्रकार अंजली देशपांडे ने लिखा है. इस किताब में अंजलि जो कुछ बताती हैं उसे जानकर नसों एक बार फिर से नफरत का रिसाव शुरू हो जाता है. वह नफरत जो हमारी व्यवस्था से हमें अक्सर होती है. यह किताब बताती है कि कैसे भोपाल गैस त्रासदी को पिछले पच्चीस सालों में हमारी व्यवस्था और एनजीओवालों ने ऐसा गिद्धभोज बना दिया है जिसमें दावतों का दौर बदस्तूर जारी है. 

भोपाल के पीड़ितों की मदद करने के नाम पर लोगों ने अपने कैरियर बनाए, भोपाल की पीड़ितों के संघर्ष में भाग लेने के लिए विदेशों से सीधे या परोक्ष रूप से धन की वसूली की. भोपाल के गैस पीड़ितों की बीमारियों तकलीफों, उनके अनुभवों, उनकी उम्मीदों, उनकी निराशाओं तक को अंतरराष्ट्रीय मंचों और सेमिनारों में बाकायदा ठेला लगाकर बेचा गया. सरकारी अफसरों, राजनेताओं, वकीलों, एनजीओ वाले लोगों यहाँ तक कि अदालतों ने भी भोपाल के लोगों की मुसीबतों की कीमत पर मालपुआ उड़ाया.
 आज़ादी के बाद इस देश में ऐसी बहुत सारी राजनीतिक जमातें खडी हो गयी थीं जिनके नेता आजादी की लड़ाई के दौर में अंग्रेजों के साथ थे. जवाहरलाल नेहरू के जाने के बाद कुछ चापलूस टाइप कांग्रेसियों ने उनकी बेटी को प्रधानमंत्री बनवा दिया और उसी के बाद देश की राजनीति में सांप्रदायिक ताक़तों को इज्ज़त मिलनी शुरू हो गयी. १९७५ में जब इंदिरा गांधी ने अपने छोटे  बेटे को सरकार और कांग्रेस की सत्ता सौंपने की कोशिश शुरू की तब तक अपने देश की राजनीति में राजनीतिक शुचिता को अलविदा कह दिया गया था. इंदिरा गाँधी ने साफ्ट हिन्दुत्व की राजनीति को बढ़ावा देने का फैसला किया. उनके इस प्रोजेक्ट का ही नतीजा था कि पंजाब में सिखों को अलग थलग करने की कोशिश हुई. उसी दौर में राजनीति में कमीशनखोरी को डंके की चोट पर प्रवेश दे दिया गया. इंदिरा जी के परिवार के ही एक सदस्य को रायबरेली की उस सीट से सांसद चुना गया जिसे उन्होंने खुद खाली किया था. इन महानुभाव ने पहले उनके बड़े छोटे और उसकी अकाल मृत्यु के बाद इंदिरा जी के बड़े बेटे के ज़रिये राजनीतिक फैसलों को व्यापार से जोड़ दिया. हर राजनीतिक फैसले से कमीशन को जोड़ दिया गया. इसी दौर में कुछ निहायत ही गैरराजनीतिक टाइप लोग दिल्ली दरबार के फैसले  लेने लगे. इसी दौर में ६५ करोड़ की दलाली वाला बोफर्स हुआ जो कि बाद के सत्ताधीशों के लिए घूसखोरी का व्याकरण बना. इसी दौर में अपने ही देश में दुनिया का सबसे बड़ा औद्योगिक  हादसा हुआ. अमरीकी कंपनी यूनियन कार्बाइड की भोपाल यूनिट में ज़हरीली गैस लीक हुई जिसके कारण भोपाल शहर में हज़ारों लोग मारे गए और लाखों लोग उसके शिकार हुए. भोपाल गैस काण्ड के बाद अपने देश में अमरीका की तर्ज़ पर एनजीओ वालों ने काम करना शुरू किया और उन्हीं एनजीओ वालों के कारण भोपाल के पीड़ितों को न्याय नहीं मिल सका.
१९८९ में सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में ४७ करोड़ डालर वाला सेटिलमेंट आया था. कुछ बहुत ही ईमानदार लोगों ने उस फैसले को चुनौती दी थी. लेकिन उनको पता भी नहीं चला और दिल्ली में आपरेट करने वाले कुछ अंतरराष्ट्रीय धंधेबाजों ने यूनियन कार्बाइड के खिलाफ चल रहे संघर्ष को को-आप्ट कर लिया. १९८९ में आये इस फैसले और उसके खिलाफ दिल्ली में चल रहे संघर्ष में शामिल कुछ ईमानदार और कुछ बेईमान लोगों के काम के इर्द गिर्द लिखी गयी एक किताब बाज़ार में आई है इंपीचमेन्ट. नामी पत्रकार अंजली देशपांडे ने बहुत ही कुशलता से उस दौर में दिल्ली में सक्रिय कुछ युवतियों की ज़िंदगी के हवाले से उस वक़्त के राजनीतिक के सन्दर्भ का इस्तेमाल करते हुए एक कहानी बयान की है. मूल रूप से भोपाल की त्रासदी के बारे में लिखी गयी यह किताब उपन्यास है लेकिन इसे केवल उपन्यास नहीं कहना चाहिए. जिन लोगों ने उस दौर में भोपाल और उसके नागरिकों के दर्द को दिल्ली के सेमिनार सर्किट में देखा सुना है उनको इस किताब में लिखी गयी बातें एक रिपोर्ताज जैसी लगेगीं. इस किताब के कुछ जुमले ऐसे हैं जो उन लोगों को सार्वकालीन सच्चाई लगेगें जिन्होंने दिल्ली के दरबारों में भोपाल के गैस पीड़ितों के दर्द का सौदा होते देखा है.

इस किताब की ख़ास बात यह है कि हमारे समय की तेज़ तर्रार पत्रकार अंजली देशपांडे ने सच्चाई को बयान करने के लिए कई पात्रों को निमित्त बनाया है. हालांकि किताब का कथानक भोपाल के गैस पीड़ितों के दर्द को पायेदार चुनौती देने की कोशिश के बारे में है लेकिन साथ साथ सरकार, न्यायपालिका, राजनेता, मौक़ापरस्त बुद्दिजीवियों और व्यापारियों को आइना दिखा रही औरतों की अपनी ज़िंदगी की दुविधाओं के ज़रिये मेरे जैसे कन्फ्यूज़ लोगों को औरत की इज्ज़त करने की तमीज  सिखाने का प्रोजेक्ट भी इस किताब में मूल कथानक के समानांतर चलता रहता है. नई दिल्ली के सत्ता के गलियारों के पुरुष वर्चस्ववादी समाज में मौजूद उन लोगों को भी औकातबोध कराने का काम भी इस किताब में बखूबी किया गया है जो औरत की शक्ति को कमतर करके देखते हैं. दिल्ली की भोगवादी संस्कृति में सत्तासीन अफसर की कामवासना का शिकार हो रही औरत भी अपनी पहचान के प्रति सजग रह सकती है और अपने फैसले खुद ले सकती है, यह बात अंजली ने बहुत ही साधारण तरीके से समझा दी है. अक्सर देखा गया है कि औरत के अधिकार की बात करते हुए  वैज्ञानिक समझ वाला पुरुष भी गार्जियन बनने की कोशिश करने लगता है. इस किताब की औरतों को देखा कर लगता है कि उन लोगों की सोच पर भी लगाम लगाने का काम अंजली देशपांडे ने बखूबी किया है .

भोपाल के बाद और पीवी नरसिंह राव के पहले भारतीय राजनीति पूंजीवादी दर्शन की शरण में जाने के लिए जिस तरह की कशमकश  से गुज़र रही थी उसकी भी दस्तक, इम्पीचमेंट नाम की इस अंग्रेज़ी किताब में सुनी जा सकती है. आजएनजी ओ वाले इतने ताक़तवर हो गए हैं कि वे संसद को भी चुनौती देने लगे हैं. लेकिन अस्सी के दशक में वे ऐलानियाँ बाज़ार में आने में डरते थे और परदे के पीछे से काम करते थे. इस कथानक में जो आदमी शुरू से ही भोपाल के पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए सक्रिय है वह दिल्ली में पाए जाने वाले दलाली संस्कृति का ख़ास नमूना है. वह कुछ ईमानदार  लोगों को इकठ्ठा करता है, उनको बुनियादी समर्थन देता है लेकिन आखिर में पता लगता है कि बाकी लोग तो न्याय की लड़ाई लड़ रहे थे लेकिन वह न्याय की लड़ाई लड़ाने के धंधा कर रहा था. आज तो ऐलानियाँ फोर्ड फाउंडेशन से भारी रक़म लेकर एनजीओ वाले संसद को चुनौती देने के लिए चारों तरफ ताल ठोंकते नज़र आ जायेगें लेकिन उन दिनों अमरीकी संस्थाओं से पैसा लेना और उसको स्वीकार करना बिलकुल असंभव था. खासकर अगर उस पैसे का इस्तेमाल  भोपाल जैसी त्रासदी के खिलाफ न्याय लेने के लिए किया जा रहा हो. लेकिन पैसा लिया गया और पवित्र अन्तः करण से लड़ाई लड़ रही औरतों को आखिर में साफ़ लग गया कि आन्दोलन वासत्व में शुरू से  ही सरकारी एजेंटों के हाथ में था और ईमानदारी से न्याय की लड़ाई लड़ रही लडकियां केवल उसी पूंजीवादी लक्ष्य को हासिल करने के लिए औज़ार बनायी गयी थीं. उनके कारण ही सुप्रीम कोर्ट और सरकार की मिलीभगत को दी जा रही चुनौती को विश्वसनीय बनाया जा सका. भोपाल के हादसे से भी बड़ा हादसा दिल्ली के दरबारों में हुआ था जब सत्ता में शामिल सभी लोग मिल कर यूनियन कार्बाइड के कारिंदे बन गए थे. पूरी किताब पढ़ जाने के बाद यह बात बहुत ही साफ़ तरीके से सामने आ जाती है.
स्थापित सत्ता किस तरह ईमानदार लोगों का शोषण करती है उसको भी समझा जा सकता है. दिल्ली में कुछ लोग ऐसे हैं जो हर सेमिनार में मिल जाते हैं. वे अपने आप को सम्मानित व्यक्ति कहलवाते हैं. हर तरह के अन्याय के खिलाफ बयान देते है और बाद में अन्यायी से मिल जाते हैं. १९८९ में सुप्रीम कोर्ट  की निगरानी में हुए सेटिलमेंट के बाद यह लोग भी सक्रिय हो गए थे और उनके खोखलेपन को भी समझने का मौक़ा यह किताब देती है .किसी भी न्याय की लड़ाई में किस तरह से अवसरवादियों की यह प्रजाति घुस लेती है, उसका भी अंदाज़ १९८९ की इन घटनाओं से साफ़ लग जाता है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले से निराश दिल्ली में सक्रिय न्याय की योद्धा औरतों ने जब उन जजों के इम्पीचमेंट यानी महाभियोग की बात की तो उसको खारिज करवाने के लिए स्थापित  सत्ता ने जो  तर्क दिए वह भी पूंजीवादी संस्कृति में मौजूद दलाली के जीनोम को रेखांकित कर देती है उन तर्कों को काट  पाना आसान नहीं है .किताब के एक चरित्र हैं कानून के शिक्षक, प्रोफ़ेसर थापर. वे सवाल पूछते हैं कि  किस पर महाभियोग चलेगा उन नेताओं और अफसरों पर जिनको कार्बाइड ने भारी रक़म दी? क्या आपको मालूम है कितने नेताओं की पत्नियां न्यूयार्क में खरीदारी करने गयी थीं और उनका सारा भुगतान कार्बाइड ने किया था? क्या आप उन सभी अफसरों पर महाभियोग चलायेगें  जो भोपाल की कार्बाइड फैक्टरी में जांच करने गए थे और लौट कर बताया कि सब कुछ ठीक है या उन डाक्टरों पर जिन्होंने सिद्धांत बघारा कि भोपाल में गैस से कोई  नहीं मरा था, बल्कि मरने वाले वे लोग हैं जो बीमार थे या वैसे भी मरने वाले थे. या उन अर्थशास्त्रियों पर  अभियोग चलायेगें जो कहते हैं कि कार्बाइड जैसे उद्योगों की हमें बहुत ज़रुरत है क्योंकि उसी से तरक्की होती है. भोपाल हादसे के बाद उस सहारा पर मौत की छाया पड़ गयी थी लेकिन जिस तरह से दिल्ली के गिद्धों ने उस हादसे को अपनी आमदनी का साधन बनाया वह अंजली देशपांडे की किताब में बहुत ही शानदार तरीके से सामने आया है.

Friday, May 18, 2012


क्या है करंसी वायदा का कारोबार

नई दिल्लीः नैशनल स्टॉक एक्सचेंज (एनएसई) में शुक्रवार को मुद्रा (करंसी) का वायदा कारोबार शुरू हो गया। वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने इसकी शुरुआत की। 300 सदस्यों और 11 बैंकों ने कारोबार में भाग लिया।

कारोबार में हरेक अमेरिकी डॉलर की कीमत 44.15 रुपये रही। सूत्रों के अनुसार पहले ही दिन करीब 5000 सौदे हुए। यह कारोबार शुरू होने से बाजार विशेषज्ञ काफी खुश हैं। उनका कहना है कि इससे बाजार नियंत्रित होगा और अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारतीय उत्पादों का कारोबार बढ़ाने में आईटी कंपनियों को मदद मिलेगी।

क्या है वायदा कारोबार

मुद्रा का वायदा कारोबार का मतलब है कारोबारी आज की तारीख में अगले 15 से 90 दिनों तक का सौदा निपटा सकता है। उदाहरण के तौर पर अगर किसी कारोबारी को 90 दिन बाद डॉलर की जरूरत है तो अब उसको 90 दिन का इंतजार नहीं करना होगा। वह इसका पहले ही बंदोबस्त कर सकता है। वह एनएसई में जाकर इसके सदस्यों के जरिए डॉलर खरीद सकता है और उसकी डिलिवरी 90 दिन बाद ले सकता है।

सौदा करते वक्त उसे पूरी राशि देने की जरूरत नहीं है। वह तय मार्जिन मनी जो कुल राशि का 10 से 20 पर्सेन्ट के बीच रहता है, देकर सौदा कर सकता है। 90 दिन बाद बची राशि देकर वह डॉलर की डिलिवरी ले सकता है।

क्या है इससे फायदा

करंसी वायदा कारोबार शुरू होने से कारोबारियों को दो फायदे होंगे। पहला यह कि वे बाजार में डॉलर के मूल्य में उतार-चढ़ाव को देखते हुए उसे खरीद सकेंगे। जब डॉलर का दाम कम स्तर पर हो तो वायदा कारोबार के तहत उसे खरीदने का मौका उनके पास रहेगा, चाहे उनकी जेब में धन कम क्यों न हो।

इसके अलावा वायदा सौदा करने के बाद अगर डॉलर के दाम बढ़ते भी हैं तो उनकी सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा, क्योंकि उन्हें पिछले दाम पर ही डॉलर की डिलिवरी मिलेगी। इससे सरकार को भी फायदा है। डॉलर की डिमांड का भार कम होगा। डॉलर को तर्कसंगत स्तर पर रखने में उसे मदद मिलेगी। ऐसे में आयात व निर्यात के अंतर को कम करने में खास परेशानी नहीं होगी।

आईटी कंपनियां खुश

करंसी वायदा कारोबार शुरू होने से आईटी कंपनियां काफी खुश हैं। इन्फोसिस के प्रेजिडेंट मोहन लाल पाई का कहना है कि डॉलर के मुकाबले रुपये में पिछले दिनों जो मजबूती आई थी, उससे कई आईटी कंपनियों को काफी घाटा हुआ था। आईटी कंपनियां अपना ज्यादातर काम आउटसोर्सिन्ग का करती हैं। इसके तहत वे अमेरिकी कंपनियों से काम लेती हैं जिसका भुगतान उन्हें डॉलर में होता है।

रुपये के मजबूत होने से भारतीय मुद्रा के लिहाज से उनकी आमदनी कम हुई। करंसी वायदा शुरू होने से अब उनके कारोबार पर खास असर नहीं पड़ेगा।

इकॉनमिक्स की भाषा के कुछ शब्द

मुद्रा का विनिमय मूल्य ( Exchange Value of Money ): जब देश की प्रचलित मुद्रा का मूल्य किसी विदेशी मुद्रा के साथ निर्धारित किया जाता है ताकि मुद्रा की अदला-बदली की जा सके तो इस मूल्य को मुद्रा का विनिमय मूल्य कहा जाता है। वह मूल्य दोनों देशों की मुद्राओं की आंतरिक क्रय शक्ति पर निर्भर करता है।

मुद्रास्फीति ( Money Inflation ): मुद्रास्फीति वह स्थिति है जिसमें मुद्रा का आंतरिक मूल्य गिरता है और वस्तुओं के मूल्य बढ़ते हैं। यानी मुद्रा तथा साख की पूर्ति और उसका प्रसार अधिक हो जाता है। इसे मुद्रा प्रसार या मुद्रा का फैलाव भी कहा जाता है।

मुदा अवमूल्यन ( Money Devaluation ): यह कार्य सरकार द्वारा किया जाता है। इस क्रिया से मुद्रा का केवल बाह्य मूल्य कम होता है। जब देशी मुद्रा की विनिमय दर विदेशी मुद्रा के अनुपात में अपेक्षाकृत कम कर दी जाती है, तो इस स्थिति को मुद्रा का अवमूल्यन कहा जाता है।

रेंगती हुई मुद्रास्फीति ( Creeping Inflation ): मुद्रास्फीति का यह नर्म रूप है। यदि अर्थव्यवस्था में मूल्यों में अत्यंत धीमी गति से वृद्धि होती है तो इसे रेंगती हुई स्फीति कहते हैं। अर्थशास्त्री इस श्रेणी में एक फीसदी से तीन फीसदी तक सालाना की वृद्धि को रखते हैं। यह स्फीति अर्थव्यवस्था को जड़ता से बचाती है।

रिकॉर्ड तारीख ( Record List ): बोनस शेयर, राइट शेयर या लाभांश आदि घोषित करने के लिए कंपनी एक ऐसी तारीख की घोषणा करती है जिस तारीख से रजिस्टर बंद हो जाएंगे। इस घोषित तारीख तक कंपनी के रजिस्टर में अंकित प्रतिभूति धारक ही वास्तव में धारक माने जाते हैं। इस तारीख को ही रेकॉर्ड तारीख माना जाता है।

रिफंड ऑर्डर ( Refun Order ): यदि किसी शेयर आवेदन पत्र पर शेयर आवंटन की कार्यवाही नहीं होती तो कंपनी को आवेदन पत्र के साथ संपूर्ण रकम वापस करनी होती है। रकम वापसी के लिए कंपनी जो प्रपत्र भेजती है उसे रिफंड ऑर्डर कहा जाता है। रिफंड ऑर्डर चेक, ड्राफ्ट या बैंकर चेक के रूप में होता है तथा जारीकर्ता बैंक की स्थानीय शाखा में सामान्यत: सममूल्य पर भुनाए जाते हैं।

लाभांश ( Dividend ): विभाजन योग्य लाभों का वह हिस्सा जो शेयरधारकों के बीच वितरित किया जाता है, लाभांश कहा जाता है। यह करयुक्त और करमुक्त दोनों हो सकता है। यह शेयरधारकों की आय है।

लाभांश दर ( Dividend Rate ): कंपनी के एक शेयर पर दी जाने वाली लाभांश की राशि को यदि शेयर के अंकित मूल्य के साथ व्यक्त किया जाए तो इसे लाभांश दर कहा जाता है। इसे अमूमन फीसदी में व्यक्त किया जाता है।

लाभांश प्रतिभूतियां ( Dividend Securities ): जिन प्रतिभूतियों पर प्रतिफल के रूप में निवेशक को लाभांश मिलता है, उन्हें लाभांश वाली प्रतिभूतियां कहा जाता है। जैसे समता शेयर, पूर्वाधिकारी शेयर।

शून्य ब्याज ऋणपत्र ( Zero Rated Deventure ): इस श्रेणी के डिबेंचरों या बॉन्डों पर सीधे ब्याज नहीं दिया जाता, बल्कि इन्हें जारी करते वक्त कटौती मूल्य पर बेचा जाता है और परिपक्व होने पर पूर्ण मूल्य पर शोधित किया जाता है। जारी करने के लिए निर्धारित कटौती मूल्य के अंतर को ही ब्याज मान लिया जाता है।