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Friday, March 30, 2012


हर एक रूह में
समय पर: Sunday, April 10, 2011 प्रस्तुतकर्ता: कैलाश मोहनकार
हर एक रूह में एक ग़म छुपा लगे है मुझे
ये जिंदगी तो कोई बददुआ लगे है मुझे

न जाने वक़्त की रफ़्तार क्या दिखाती है?
कभी कभी तो बडा ख़ौफ़ सा लगे है मुझे

अब एक-आध कदम का हिसाब क्या रखे?
अभी तलक तो वही फ़ासला लगे है मुझ

दबाके आई है सिने में कौन सी आहें
कुछ आज रंग तेरा सांवला लगे है मुझे



जाँ निसार अख़्तर
काश! ऐसा कोई मंज़र होता
समय पर: Friday, April 15, 2011 प्रस्तुतकर्ता: कैलाश मोहनकार
काश ऐसा कोई मंज़र होता
मेरे कांधे पे तेरा सर होता

जमा करता जो मैं आये हुये संग
सर छुपाने के लिये घर होता

इस बुलंदी पे बहुत तनहा हू
काश मैं सबके बराबर होता

उस ने उलझा दिया दुनिया में मुझे
वरना इक और क़लंदर होता
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ताहिर फ़राज़
हर एक रूह में
समय पर: Sunday, April 10, 2011 प्रस्तुतकर्ता: कैलाश मोहनकार
हर एक रूह में एक ग़म छुपा लगे है मुझे
ये जिंदगी तो कोई बददुआ लगे है मुझे

न जाने वक़्त की रफ़्तार क्या दिखाती है?
कभी कभी तो बडा ख़ौफ़ सा लगे है मुझे

अब एक-आध कदम का हिसाब क्या रखे?
अभी तलक तो वही फ़ासला लगे है मुझ

दबाके आई है सिने में कौन सी आहें
कुछ आज रंग तेरा सांवला लगे है मुझे



जाँ निसार अख़्तर
हम उन्हें वो हमें भुला बैठे
समय पर: Sunday, September 25, 2011 प्रस्तुतकर्ता: कैलाश मोहनकार

हम उन्हें वो हमें भुला बैठे
दो गुनहगार ज़हर खा बैठे|

हाल-ऐ-ग़म कह-कह के ग़म बढ़ा बैठे
तीर मारे थे तीर खा बैठे|

आंधियो जाओ अब आराम करो
हम ख़ुद अपना दिया बुझा बैठे|

जी तो हल्का हुआ मगर यारो
रो के हम लुत्फ़-ऐ-गम बढ़ा बैठे|

बेसहारों का हौसला ही क्या
घर में घबराए दर पे आ बैठे|

जब से बिछड़े वो मुस्कुराए न हम
सब ने छेड़ा तो लब हिला बैठे|

उठ के इक बेवफ़ा ने दे दी जान
रह गए सारे बावफ़ा बैठे|

हश्र का दिन है अभी दूर 'ख़ुमार'
आप क्यों जाहिदों में जा बैठे|

ख़ुमार बाराबंकवी
मोहब्बतों में दिखावे की दोस्ती न मिला
समय पर: Tuesday, April 19, 2011 प्रस्तुतकर्ता: कैलाश मोहनकार
मोहब्बतों में दिखावे की दोस्ती न मिला
अगर गले नही मिलता तो हाथ भी न मिला

घरों पे नाम थे, नाम के साथ ओहदे थे
बहुत तलाश किया, कोई आदमी न मिला

तमाम रिश्तों को घर पे छोड आया था
फ़िर उसके बाद मुझे कोई अजनबी न मिला

बहुत अजीब है ये गुरबतों की दूरी भी
वो मेरे साथ रहा और मुझे कभी न मिला

बशीर बद्र

हर तरफ़ अपने को बिखरा पाओगे
समय पर: Thursday, April 21, 2011 प्रस्तुतकर्ता: कैलाश मोहनकार
हर तरफ़ अपने को बिखरा पाओगे,
आईनों को तोड के पछताओगे।

जब बदी के फूल महकेंगे यहाँ,
नेकियों पर अपने तुम शरमाओगे।

सच को पहले लफ़्ज फिर लब देंगे हम,
तुम हमेशा झूठ को झूठलाओगे।

सारी सिमते बेकशिश हो जायेगी,
घूम फिर के फिर यही आ जाओगे।

रूह की दीवार के गिरने के बाद,
बे बदन हो जाओगे, मर जाओगे।

शहरयार।
जब लगे ज़ख़्म तो क़ातिल को दुआ दी जाये
समय पर: Thursday, October 20, 2011 प्रस्तुतकर्ता: कैलाश मोहनकार

जब लगे ज़ख़्म तो क़ातिल को दुआ दी जाये
है यही रस्म तो ये रस्म उठा दी जाये|

तिश्नगी कुछ तो बुझे तिश्नालब-ए-ग़म की
इक नदी दर्द के शहरों में बहा दी जाये|

हम ने इंसानों के दुख दर्द का हल ढूँढ लिया
क्या बुरा है जो ये अफ़वाह उड़ा दी जाये|

हम को गुज़री हुई सदियाँ तो न पहचानेंगी
आने वाले किसी लम्हे को सदा दी जाये|

फूल बन जाती हैं दहके हुए शोलों की लवें
शर्त ये है के उन्हें ख़ूब हवा दी जाये|

कम नहीं नशे में जाड़े की गुलाबी रातें
और अगर तेरी जवानी भी मिला दी जाये|

हम से पूछो ग़ज़ल क्या है ग़ज़ल का फ़न क्या है
चन्द लफ़्ज़ों में कोई आह छुपा दी जाये|

जाँ निसार अख़्तर
उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ
समय पर: Friday, September 30, 2011 प्रस्तुतकर्ता: कैलाश मोहनकार
उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ
ढूँढने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ

मेहरबाँ होके बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
मैं गया वक़्त नहीं हूँ के फिर आ भी न सकूँ

डाल कर ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा
कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी के मिटा भी न सकूँ

ज़ब्त कमबख़्त ने और आ के गला घोंटा है
के उसे हाल सुनाऊँ तो सुना भी न सकूँ

ज़हर मिलता ही नहीं मुझको सितमगर वरना
क्या कसम है तेरे मिलने की के खा भी न सकूँ

उस के पहलू में जो ले जा के सुला दूँ दिल को
नींद ऐसी उसे आए के जगा भी न सकूँ

नक्श-ऐ-पा देख तो लूँ लाख करूँगा सजदे
सर मेरा अर्श नहीं है कि झुका भी न सकूँ

बेवफ़ा लिखते हैं वो अपनी कलम से मुझ को
ये वो किस्मत का लिखा है जो मिटा भी न सकूँ

इस तरह सोये हैं सर रख के मेरे जानों पर
अपनी सोई हुई किस्मत को जगा भी न सकूँ

अमीर मीनाई

शब्दार्थ:
हसरत-इच्छा
ज़ब्त-सहनशीलता
पहलू-गोद

अर्श-आसमान
किसने वादा किया है आने का
समय पर: Saturday, December 04, 2010 प्रस्तुतकर्ता: कैलाश मोहनकार
किसने वादा किया है आने का
हुस्न देखो ग़रीबख़ाने का

रूह को आईना दिखाते हैं
दर-ओ-दीवार मुस्कुराते हैं

आज घर, घर बना है पहली बार
दिल में है ख़ुश सलीक़गी बेदार

जमा समाँ है ऐश-ओ-इश्रत का
ख़ौफ़ दिल में फ़रेब-ए-क़िस्मत का

सोज़-ए-क़ल्ब-ए-कलीम आँखों में
अश्क-ए-उम्मीद-ओ-बीम आँखों में

चश्म-बर-राह-ए-शौक़ के मारे
चाँद के इंतज़ार में तारे

जोश मलीहाबादी

जो भी मिल जाता है घर बार को दे देता हूँ।
समय पर: Tuesday, April 06, 2010 प्रस्तुतकर्ता: कैलाश मोहनकार
जो भी मिल जाता है घर बार को दे देता हूँ।
या किसी और तलबगार को दे देता हूँ।

धूप को दे देता हूँ तन अपना झुलसने के लिये
और साया किसी दीवार को दे देता हूँ।

जो दुआ अपने लिये मांगनी होती है मुझे
वो दुआ भी किसी ग़मख़ार को दे देता हूँ।

मुतमइन अब भी अगर कोई नहीं है, न सही
हक़ तो मैं पहले ही हक़दार को दे देता हूँ।

जब भी लिखता हूँ मैं अफ़साना यही होता है
अपना सब कुछ किसी किरदार को दे देता हूँ।

ख़ुद को कर देता हूँ कागज़ के हवाले अक्सर
अपना चेहरा कभी अख़बार को देता हूँ ।

मेरी दुकान की चीजें नहीं बिकती नज़्मी
इतनी तफ़सील ख़रीदार को दे देता हूँ।

अख़्तर नाज़्मी
आरज़ू थी एक दिन तुझसे मिलूं
समय पर: Wednesday, March 31, 2010 प्रस्तुतकर्ता: कैलाश मोहनकार
आरज़ू थी एक दिन तुझसे मिलूं
मिल गया तो सोचता हूँ क्या कहूँ

घर में गहराती ख़ला है क्या कहूँ
हर तरफ़ दीवार-ओ-दर है क्या करूँ

जिस्म तू भी और मैं भी जिस्म हूँ
किस तरह फिर तेरा पैरहन बनूँ

रास्ता कोई कहीं मिलता नहीं
जिस्म में जन्मों से अपने क़ैद हूँ

थी घुटन पहले भी पर ऐसी न थी
जी में आता है कि खिड़की खोल दूँ

ख़ुदकुशी के सैकड़ों अंदाज़ हैं
आरज़ू का ही न दमन थाम लूँ

साअतें सनअतगरी करने लगीं
हर तरफ़ है याद का गहरा फ़ुसूँ

शीन काफ़ निज़ाम

शब्दार्थ:
साअतें-क्षणों
सनअतगरी-मीनाकारी
फ़ुसूँ-जादू
लेबल: शीन काफ़ निज़ाम

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
समय पर: Thursday, March 25, 2010 प्रस्तुतकर्ता: कैलाश मोहनकार
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी
शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए

दुष्यंत कुमार
वो चांदनी का बदन ख़ुशबुओं का साया है
समय पर: Monday, March 15, 2010 प्रस्तुतकर्ता: कैलाश मोहनकार
वो चांदनी का बदन ख़ुशबुओं का साया है
बहुत अज़ीज़ हमें है मगर पराया है

उतर भी आओ कभी आसमाँ के ज़ीने से
तुम्हें ख़ुदा ने हमारे लिये बनाया है

महक रही है ज़मीं चांदनी के फूलों से
ख़ुदा किसी की मुहब्बत पे मुस्कुराया है

उसे किसी की मुहब्बत का ऐतबार नहीं
उसे ज़माने ने शायद बहुत सताया है

तमाम उम्र मेरा दम उसके धुएँ से घुटा
वो इक चराग़ था मैंने उसे बुझाया है

बशीर बद्र

राक्षस था, न खुदा था पहले
समय पर: Wednesday, August 12, 2009 प्रस्तुतकर्ता: कैलाश मोहनकार
राक्षस था, न खुदा था पहले
आदमी कितना बडा था पहले

आस्मां, खेत, समुंदर सब लाल
खून कागज पे उगा था पहले

मैं वो मक्तूल, जो कातिल ना बना
हाथ मेरा भी उठा था पहले

अब किसी से भी शिकायत न रही
जाने किस किस से गिला था पहले

शहर तो बाद में वीरान हुआ
मेरा घर खाक हुआ था पहले

निदा फ़ाज़ली. जब किसी से
समय पर: Friday, September 29, 2006 प्रस्तुतकर्ता: कैलाश मोहनकार
जब किसी से कोई गिला रखना
सामने अपने आईना रखना

यूं उजालों से वास्ता रखना
शमा के पास ही हवा रखना

घर की तामिर चाहे जैसी हो
इसमें रोने की कुछ जगह रखना

मिलना जुलना जहा ज़रूरी हो
मिलने ज़ुलने का हौसला रखना

निदा फ़ाज़ली.

दुनिया जिसे कहते हैं
समय पर: Sunday, July 16, 2006 प्रस्तुतकर्ता: कैलाश मोहनकार
दुनिया जिसे कहते हैं जादू का ख़िलौना हैं
मिल जाये तो मिट्टी हैं खो जाये तो सोना है

अच्छा सा कोई मौसम तनहा सा कोई आलम
हर वक़्त आये रोना तो बेकार का रोना हैं

बरसात का बादल तो दिवाना हैं क्या जाने
किस राह से बचना हैं किस छत को भिगौना हैं

ग़म हो कि ख़ुशी दोनो कुछ देर के साथी हैं
फिर रास्ता ही रास्ता हैं हंसना हैं रोना हैं
निदा फ़ाज़ली

बदला ना अपने आपको
समय पर: Sunday, July 16, 2006 प्रस्तुतकर्ता: कैलाश मोहनकार
बदला ना अपने आपको जो थे वही रहे
मिलते रहे सभी से मगर अज़नबी रहे

दुनिया ना जीत पाओ तो हारो ना ख़ुद को तुम
थोडी बहुत तो ज़हान में नाराज़गी रहे

अपनी तरहा सभी को किसी की तलाश थी
हम जिसके भी क़रीब रहे दूर ही रहे

गुज़रो जो बाग़ से तो दुआ मांगते चलो
जिसमें खिले है फूल वो डाली हरी रहे
निदा फ़ाज़ली
दर्द अपनाता है पराये कौन
समय पर: Monday, October 05, 2009 प्रस्तुतकर्ता: कैलाश मोहनकार
दर्द अपनाता है पराये कौन
कौन सुनता है और सुनाये कौन

कौन दोहराये वो पुरानी बात
ग़म अभी सोया है जगाये कौन

वो जो अपने है क्या वो अपने है
कौन दुख झेले आज़माये कौन

अब सुकूं है तो भूलने में है
लेकीन उस शख़्स को भुलाये कौन

आज फिर दिल है कुछ उदास उदास
देखिये आज याद आये कौन

जावेद अख़्तर.

हम तो बचपन में भी अकेले थे
समय पर: Tuesday, November 07, 2006 प्रस्तुतकर्ता: कैलाश मोहनकार
हम तो बचपन में भी अकेले थे
सिर्फ़ दिल की गली में खेले थे

एक तरफ़ मोर्चे थे पलकों के
एक तरफ़ आंसूओं के रेले थे

थी सजी हसरतें दूकानों पर
ज़िंदगी के अजीब मेले थे

आज ज़हनों दिल भुखे मरते हैं
उन दिनों फ़ाके भी हम ने झेले हैं

खुदकशी क्या ग़मों हल बनती
मौत के अपने भी सौ झमेले हैं
जावेद अख्तर

તું વૃક્ષનો છાંયો છે, નદીનું જળ છે.
ઊઘડતા આકાશનો ઉજાસ છે:
તું મૈત્રી છે.

તું થાક્યાનો વિસામો છે, રઝળપાટનો આનંદ છે
તું પ્રવાસ છે, સહવાસ છે:
તું મૈત્રી છે.

તું એકની એક વાત છે, દિવસ ને રાત છે
કાયમી સંગાથ છે:
તું મૈત્રી છે.

હું થાકું ત્યારે તારી પાસે આવું છું,
હું છલકાઉં ત્યારે તને ગાઉં છું,
હું તને ચાહું છું :
તું મૈત્રી છે.

તું વિરહમાં પત્ર છે, મિલનમાં છત્ર છે
તું અહીં અને સર્વત્ર છે:
તું મૈત્રી છે.

તું બુદ્ધનું સ્મિત છે, તું મીરાનું ગીત છે
તું પુરાતન તોયે નૂતન અને નિત છે:
તું મૈત્રી છે.

તું સ્થળમાં છે, તું પળમાં છે;
તું સકળમાં છે અને તું અકળ છે:
તું મૈત્રી છે.

- સુરેશ દલાલ
રસ્તો અહીં પડ્યો છે ને તારા ચરણ નથી !

પહેલાં હતું એ આજનું વાતાવરણ નથી;
રસ્તો અહીં પડ્યો છે ને તારા ચરણ નથી !

તેં જે નથી કહી એ બધી વાત યાદ છે;
તેં જે કહી એ વાતનું કોઈ સ્મરણ નથી !

પડદો પડી ગયો છે હવે સૌ પ્રસંગ પર;
કહેતા હતા મને કે કોઈ આવરણ નથી !

હું છું તમારી પાસ : ઉપેક્ષાની રીત આ;
આંખો મીંચાઈ નહીં ને મીઠું જાગરણ નથી !

અહીંયા બધી દિશાએથી પડતો રહ્યો બરફ;
દુનિયામાં માત્ર એકલાં રેતીનાં રણ નથી !

તૂટેલી સર્વ ચીજ કરું એકઠી સદા;
શું કાળ પાસે એકે અખંડિત ક્ષણ નથી !

- સુરેશ દલાલ
હું તો તમને પ્રેમ કરું છું’, કેટલી સરળ વાત..!!

હું તો તમને પ્રેમ કરું છું’, કેટલી સરળ વાત,
એટલી વાતને કહેવા માટે કેટલો વલોપાત.

કહ્યા પછી શું ?’ ની પાછળ
શંકા અને આશા,
શબ્દો વરાળ થઈને ઊડે
ભોંઠી પડે ભાષા.

દિવસ સફેદ પૂણી જેવો : પીંજાઈ જતી રાત,
હું તો તમને પ્રેમ કરું છું’, કેટલી સરળ વાત.

પ્રેમમાં કોઈને પૂછવાનું શું :
આપમેળે સમજાય,
વસંત આવે ત્યારે કોયલ
કેમ રે મૂંગી થાય ?

આનંદની આ અડખેપડખે અવાક્ છે આઘાત,
હું તો તમને પ્રેમ કરું છું’, કેટલી સરળ વાત.

સુરેશ દલાલ ચૂપ રહેવાની વાત કરું છું..!!

આપણી વચ્ચે કાંઈ નથી ને આમ જુઓ તો જોજન છે.
તું કોઈ ખુલાસો આપ નહીં તને મૌનના સોગંદ છે.

સમજું છું એથી તો જોને
ચૂપ રહેવાની વાત કરું છું
ધુમ્મસ જેવા દિવસોની હું
ઘોર અંધારી રાત કરું છું

વાસંતી આ હવા છતાંયે સાવ ઉદાસી મોસમ છે.
આપણી વચ્ચે કાંઈ નથી ને આમ જુઓ તો જોજન છે.

હવે વિસામો લેવાનો પણ
થાક ચડ્યો છે
આપણો આ સંબંધ
આપણને ખૂબ નડ્યો છે.

આમ જુઓ તો ખુલ્લેઆમ છે ને આ જુઓ તો મોઘમ છે.
તું કોઈ ખુલાસો આપ નહીં તને મૌનના સોગંદ છે.

-સુરેશ દલાલ
તું મૈત્રી છે..!!

તું વૃક્ષનો છાંયો છે, નદીનું જળ છે.
ઊઘડતા આકાશનો ઉજાસ છે:
………તું મૈત્રી છે.

તું થાક્યાનો વિસામો છે, રઝળપાટનો આનંદ છે
તું પ્રવાસ છે, સહવાસ છે:
………તું મૈત્રી છે.

તું એકની એક વાત છે, દિવસ ને રાત છે
કાયમી સંગાથ છે:
………તું મૈત્રી છે.

હું થાકું ત્યારે તારી પાસે આવું છું,
હું છલકાઉં ત્યારે તને ગાઉં છું,
હું તને ચાહું છું :
………તું મૈત્રી છે.

તું વિરહમાં પત્ર છે, મિલનમાં છત્ર છે
તું અહીં અને સર્વત્ર છે:
………તું મૈત્રી છે.

તું બુદ્ધનું સ્મિત છે, તું મીરાનું ગીત છે
તું પુરાતન તોયે નૂતન અને નિત છે:
……….તું મૈત્રી છે.

તું સ્થળમાં છે, તું પળમાં છે;
તું સકળમાં છે અને તું અકળ છે:
………….તું મૈત્રી છે.

- સુરેશ દલાલ
મને ડાળખીને પંખીની ભાષા ફૂટી

એક ભૂરા આકાશની આશા ફૂટી
મને ડાળખીને પંખીની ભાષા ફૂટી

ચાંદનીના ખોળામાં સૂરજનો તડકો
ને ફૂલની હથેળીમાં તારો ;
સાગરના સ્કંધ ઉપર પારેવું થઈ
ઘૂઘવે પવન : વણજારો.

જાણે માછલીને જળની પિપાસા ફૂટી
મને ડાળખીને પંખીની ભાષા ફૂટી.

ખીલતી આ કળીઓની કુંવારી કૂખમાં
પોઢ્યાં પતંગિયાનાં ફૂલ ;
આંખો જુએ તેને હૈયું ને હોઠ કહે :
અમને તો બધ્ધું કબૂલ .

મારી સઘળી દિશાને તલાશા ફૂટી
મને ડાળખીને પંખીની ભાષા ફૂટી

- સુરેશ દલાલ
લીલ લપાઈ બેઠી જળને તળિયે

લીલ લપાઈ બેઠી જળને તળિયે ;
સૂર્યકિરણને એમ થયું કે લાવ જઈને મળીએ !

કંપ્યું જળનું રેશમ પોત;
કિરણ તો ઝૂક્યું થઈ કપોત.
વિધવિધ સ્વરની રમણા જંપી નીરવની વાંસળીએ !

હળવે ઊતરે આખું વ્યોમ;
નેણને અણજાણી આ ભોમ.
લખ લખ હીરા ઝળકે ભીનાં તૃણ તણી આંગળીએ !

- સુરેશ દલાલ
મંદિર સાથે પરણી મીરાં, રાજમહલથી છૂટી રે ..

મંદિર સાથે પરણી મીરાં, રાજમહલથી છૂટી રે ;
કૃષ્ણ નામની ચૂડી પહેરી, માધવની અંગૂઠી રે !

આધી રાતે દરશન માટે આંખ ઝરૂખે મૂકી રે ;
મીરાં શબરી જનમજનમની, જનમજનમથી ભૂખી રે !

તુલસીની આ માળા પહેરી મીરાં સદાની સુખી રે ;
શ્યામ શ્યામનો સૂરજ આભે, મીરાં સૂરજમુખી રે !

કાળી રાતનો કંબલ ઓઢી મીરાં જાગે સૂતી રે;
ઘાયલ કી ગત ઘાયલ જાણે, જગની માયા જૂઠી રે !

- સુરેશ દલાલ
તોયે માણસ મને હૈયાસરસો લાગે ..

ક્યારેક સારો લાગે ક્યારેક નરસો લાગે
તોયે માણસ મને હૈયાસરસો લાગે

દરિયો છે એટલે તો ભરતી ને ઓટ છે
સારું ને બૂરું બોલે એવા બે હોઠ છે
એને ઓળખતા વરસોનાં વરસો લાગે
તોયે માણસ મને હૈયાસરસો લાગે

ઘડીક સાચો લાગે ઘડીક બૂઠ્ઠો લાગે
ઘડીક લાગણીભર્યો ઘડીક બુઠ્ઠો લાગે
ક્યારેક રસ્તો લાગે ને ક્યારેક નકશો લાગે
તોયે માણસ મને હૈયાસરસો લાગે

ક્યારેક ભૂલો પડે ને ક્યારેક ભાંગી પડે
ક્યારેક ચપટીક ધૂળની પણ આંધી ચડે
ક્યારેક માણસભૂખ્યો લોહીતરસ્યો લાગે
તોયે માણસ મને હૈયાસરસો લાગે

- સુરેશ દલાલ

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