एक बार फिर सांसद ने संसद के सर्वोच्चता की
दुहाई देकर अपने दामन को बचा लिया है. टीम अन्ना के सदस्य अरविन्द केजरीवाल
के नारे पर उबल पड़ी संसद ने एकमत होकर अपने सर्वोच्चता का अहसास देश को
करा दिया है. अरविन्द केजरीवाल ने क्या कहा जिसके कारण संसद अपनी
सर्वोच्चता की दुहाई दे रही है उसके सही गलत पर बाद में आयेंगे. लेकिन हम
संसद से यह पूछना चाहते हैं कि वह आखिर किससे अपनी सर्वोच्चता की दुहाई दे
रहा है? संसद किससे सर्वोच्च है? क्या संसद जनता से ऊपर है? क्या संसद
न्यायपालिया के ऊपर है? क्या संसद राष्ट्रपति के ऊपर है या फिर संसद
संविधान के भी ऊपर है? यह सर्वोच्चता की दुहाई क्यों दी जा रही है?
भारत में जो संसदीय प्रजातंत्र काम कर रहा है उसमें संसद
सर्वोच्च नहीं हो सकती. हालांकि बड़ी चतुराई से उसने कुछ ऐसे अधिकार अपने
पास रख लिये हैं जिसके कारण वह बार बार सर्वोच्चता की दुहाई देती जरूर है
लेकिन वह सर्वोच्च नहीं है. लोक और तंत्र में सर्वोच्च लोक होता है, तंत्र
नहीं. लोकप्रतिनिधि भला लोक से सर्वोच्च कैसे हो सकता है? अगर आप हमें अपना
प्रतिनिधि नियुक्त करते हैं और मेरे नाम पांच साल की एक पॉवर आफ अटार्नी
लिख देते हैं कि मैं आपके नाम पर सारे फैसले ले सकता हूं तो क्या मैं आपसे
अधिक ताकतवर हो सकता हूं? क्या मुझे यह भूल जाना चाहिए कि मेरी ताकत आपकी
रजामंदी में निहित है? नियमत: ऐसा होना नहीं चाहिए लेकिन भारत में लोकतंत्र
के नाम पर जो स्वांग रचा जाता है उसमें लोकतंत्र का यही स्वरूप बन गया है.भारत में लोकतंत्र लोक नियंत्रित तंत्र की बजाय लोकनियुक्त तंत्र की बनकर रह गया है. लोक की दशा इतनी कमजोर कर दी गई है कि वह अपने ही द्वारा नियुक्त तंत्र से सवाल नहीं पूछ सकती. उसके आचरण पर सवाल नहीं उठा सकती और अगर कोई अरविन्द केजरीवाल ऐसा करता है तो इसके लिए उसे कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है. जैसे इस वक्त अन्ना हजारे और उनकी टीम को किया जा रहा है. जंतर मंतर पर एक दिवसीय अनशन के दौरान अन्ना जी की उपस्थिति मे भाई अरविन्द केजरीवाल तथा मनीष सिसौदिया ने जो कुछ कहा उसके लिये वे बधाई के पात्र है. जंतर मंतर पर हुआ क्या था? अरविन्द केजरीवाल या मनीष सिसौदिया ने तो पूरा मुहावरा भी नहीं कहा था. पूरा मुहावरा तो जनता ने कहा था. तो क्या अब हम भारत के लोग अपने ही द्वारा नियुक्त तंत्र के आचरण की चर्चा नहीं कर सकते.
अरविन्द केजरीवाल या अन्ना हजारे भारतीय सांसद के बारे में जो कुछ कह रहे हैं वह कम है. अरविन्द केजरीवाल न जाने किस डर से इस संसद को लोकतंत्र का मंदिर बताते रहते हैं. असल में तो यह संसद ही चोर है. ऐसा चोर जिसने हमारे अधिकारों को बड़ी चालाकी से अपने पास सुरक्षित रख लिया है. नया कानून बनाने और संविधान में संशोधन के इसके अधिकार इसे अति शक्तिशाली बना देते हैं जिसके कारण यह तंत्र को मनमानी ढंग से संचालित करती है और लोक मूकदर्शक बना रहता है. अन्ना हजारे के आंदोलन से पहली बार ऐसा संभव हो रहा है कि जनता सांसदों को चोर कह रही है. वे जो हैं, उनके बारे में उन्हें बता रही है.
संसदीय लोकतंत्र में संसद कभी सर्वोच्च नहीं हो सकती. केशवानंद भारती बनाम भारत सरकार का फैसला इसका उदाहरण है कि न्यायपालिका जब चाहे संसद को उसकी चौहद्दी में बांध सकती है. इसलिए संसद न्यायपालिका से सर्वोच्च होने का दावा नहीं कर सकती. राष्ट्रपति दोनों सदनों का से ऊपर महामहीम होता है इसलिए संसद राष्ट्रपति से भी सर्वोच्च होने का दावा नहीं कर सकती. क्योंकि संसद को सारे अधिकार संविधान के तहत मिलते हैं इसलिए वह संविधान से ऊपर होने का दावा नहीं कर सकती. आखिर में बचता है लोक. लोक इन समस्त व्यवस्थाओं में सबसे ऊपर होता है लेकिन संसद व्यावहारिक अर्थों में इसी लोक पर मालिकाना हक जताकर खुद के सर्वोच्च होने का दावा करती है. जबकि भारत का एक आम नागरिक पूरी संसद से ऊपर होता है क्योंकि वह संसद को नियुक्त करता है, संसद उसे नियुक्त नहीं करती है.
अन्ना हजारे की टीम के खिलाफ शरद यादव ने जिस तरह भ्रष्टाचार के विरूद्ध प्रारंभ टकराव को संसद के विरूद्ध टकराव बनाने के उद्देश्य से संसद मे भाषण दिया था वह पूरी तरह अमर्यादित था तथा भ्रष्टाचारी राजनेताओ की ढाल के रूप मे था। सांसदो के चेहरे देखकर लगता था कि अधिकांश सांसद शरद जी के कथन के पक्ष मे है। देश की जनता को महसूस हुआ कि ये नेता भले ही अलग अलग दलो के हो, भले ही एक दूसरे को कितना भी चोर डाकू कहकर झगडा करें किन्तु अन्ततोगत्वा हैं सब एक । किसी एक भी चोर पर जनता हमला करेगी तो सब एक जुट हो जावेगे.
जंतर मंतर पर चोर की दाढी मे तिनका शब्द पर जिस तरह पूरी संसद एक जुट हो रही है वह एक शुभ संकेत है। अब धीरे धीरे लोक और तंत्र के बीच धु्रवीकरण होगा। मै पूरी तरह अरविन्द केजरीवाल के आक्षेपो का समर्थन भी करता हूं और दुहराता भी हूं। असल में तो वर्तमान संसदीय लोकतंत्र की प्रणाली ही प्रदूषित है जिसकी आड़ में शरद यादव जैसे तानाशाह खुलेआम संसद मे जनता के विरूद्ध कुछ भी बोलने की हिम्मत करते हो तथा संसदीय लोकतंत्र के नाम पर संसद मे बैठे अपराधियो का अप्रत्यक्ष संरक्षण करते हों। ऐसे माहौल में अरविन्द केजरीवाल को पूरी हिम्मत बनाये रखने की जरूरत है कि वे कुछ भी अन्यथा या गलत नहीं कह रहे हैं। चोर को चोर कहने से अगर संसद की अवमानना हो भी जाती तो इसमें कोई बुराई नहीं है. क्योंकि हम जिस लोकतंत्र में रह रहे हैं वह गुलाम लोकतंत्र है जिसमें संसद जनता को गुलाम बनाकर रखने में ही अपनी सारी शक्ति लगा देती है.
हम जिस संसदीय लोकतंत्र में रह रहे हैं वह जीवित लोगों का संगठन है जो लोकतंत्र के मालिक "लोक" को गुलाम बनाकर रखने के लिए तरह तरह का नाटक करता है. इसी नाटक प्रहसन के लिए एक किताब लिख दी गई है जिसका नाम संविधान है. संविधान का मतलब ही होता है कि वह तंत्र के अधिकतम और लोक के न्यूनतम अधिकारों की रक्षा करे. अगर आज व्यवस्था बिगड़ गयी है तो आखिर क्या कारण है कि संविधान उसे रोक नहीं पाया है? लेकिन तमाशा देखिए कि संसद जब चाहे अपनी सुविधानुसार संविधान में मनमानी बदलाव कर सकता है.
राजनेताओं ने समाज को मतदान का अधिकार सौंपकर अन्य सारे अधिकार अपने पास समेट लिये. राज्य को समाज का मैनेजर होना चाहिए लेकिन वह अभिरक्षक बन बैठा. अभिरक्षक को अंग्रेजी में कस्टोडियन कहा जाता है. संविधान निर्माताओं ने संसद को कस्टोडियन के अधिकार तो दिये ही साथ ही यह भी विशेषाधिकार दे दिया कि संसद जब तक घोषित न करे समाज नाबालिग ही बना रहेगा, समय चाहे जो बीत जाए. आज चौंसठ पैंसठ साल बीत जाने के बाद भी जनता की कस्टोडियन बनी संसद अपने देश की जनता को बालिग घोषित नहीं कर रही है. अब जनता अपने आप ही बालिग महसूस करने लगे और संसद पर सवाल खड़े कर दे तो क्या इसके लिए जनता दोषी है?
इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि तानाशाही की अपेक्षा संसदीय लोकतंत्र ज्यादा बेहतर विकल्प है लेकिन संसदीय लोकतंत्र की अपेक्षा लोक स्वराज्य अर्थात सहभागी लोकतंत्र हमारा अंतिम लक्ष्य होना चाहिए. यह लोकतंत्र जो कि लोक नियंत्रित तंत्र होने की बजाय लोकनियुक्त तंत्र भर होता है इसमें लोक अपने ही बनाये तंत्र के हाथ गुलाम हो जाता है. लोक को अगर अपने द्वारा नियंत्रित तंत्र बनाना है तो उसे वर्तमान संसदीय प्रणाली को खारिज करना होगा, इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है.
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