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Sunday, May 6, 2012

इतिहास के पन्नों में दबे दरिन्दे -जिसने भारत और एशिया को बर्बाद कीया

इतिहास के पन्नों में दबे जिन दरिन्दे शासको की मै  यहाँ पर चर्चा करूंगा उनमें सबसे पहला नाम मंगोलियाई मूल के क्रूर चंगेजखान का नाम आता है। उसके बाद उसी देश के हलाकु खान का नाम आता है . जो चंगेजखान की मौत के बाद सक्रिय हुआ । तीसरे नम्बर का दरिन्दा रहा  तैमूर  लंग और चौथे नम्बर का दरिन्दा शासक रहा अहमदशाह अब्दाली जिसने भारत को बुरी तरह लूटा और भीषण  नरसंहार तथा रक्तपात किया । पॉचवे नम्बर पर आता अरब का बादशाह नादिर शाह। पाठक मुझे क्षमा करें कि यहां मैं इन दरिन्दे और लुटेरे राजाओं को महिमामंडित नहीं कर रहा हूँ। इस लेखमाला का मकसद किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं बल्कि आज की पीढी को जागरूक करना है।

पहला दरिंदा ....चंगेजखान

 चंगेज खान (मंगोलियाई नाम चिंगिस खान, सन् 1162 से 18 अगस्त, 1227) एक मंगोल खान (शासक) था जिसने मंगोल साम्राज्य के विस्तार में अहम भूमिका निभाई । वह अपनी संगठन शक्ति, बर्बरता तथा साम्राज्यविस्तार के लिए कुख्यात रहा । इससे पहले किसी भी यायावर जाति के शासक ने इतनी विस्तृत विजय यात्रा नहीं की थी ।
चंगेज खान का जन्म 1162 के आसपास आधुनिक मंगोलिया के उत्तरी भाग में ओनोन नदी के निकट हुआ था। उसका वास्तविक या प्रारंभिक नाम तेमुजिन (या तेमूचिन) था । उसके पिता का नाम येसूजेई था जो कियात कबीले का मुखिया था । येसूजेई ने तेमुचिन तथा उसकी माँ का अपहरण कर लिया था। लेकिन कुछ दिनों के बाद ही तेमूचिन की मां ने ही कुछ समय बाद येसूजेई की हत्या कर दी । उसके बाद तेमूचिन की माँ ने बालक तेमूजिन तथा उसके सौतले भाइयों-बहनों का लालन पालन बहुत कठिनाई से किया, तेमूचिन का विवाह किया । लेकिन कुछ समय बाद उसकी पत्नी बोरते का भी विवाह के बाद ही अपहण कर लिया गया। अपनी पत्नी को छुडाने के लिए तेमुचिन यानि चंगेजखान को दूसरे कबीलों से कई बार लड़ाइया लड़नी पड़ीं थी । इन विकट परिस्थितियों में भी वह अन्य कबीलों से दोस्त बनाने में सक्षम रहा । नवयुवक बोघूरचू उसका प्रथम मित्र था और वो आजीवन उसका विश्वस्त मित्र बना रहा । उसका सगा भाई जमूका भी उसका एक विश्वसनीय साथी था । तेमुजिन ने अपने पिता के वृद्ध भाई यानि अपने ताऊ तुगरिल उर्फ ओंग खान के साथ पुराने रिश्तों की पुनर्स्थापना की।

हालांकि प्रारंभ में उसका मित्र था, बाद में वो शत्रु बन गया । ११८० तथा ११९० के दशकों में वो ओंग खान का मित्र रहा और उसने इस मित्रता का लाभ जमूका जैसे प्रतिद्वंदियों को हराने के लिए किया। जमूका को हराने के बाद उसमें बहुत आत्मविश्वास आ गया और वो अन्य कबीलों के खिलाफ युद्ध के लिए निकल पड़ा । इनमें उसके पिता के हत्यारे शक्तिशाली तातार कैराईट और खुद ओंग खान शामिल थे। ओंग खान के विरुद्ध उसने 1203 में युद्ध छेड़ा । 1206 इस्वी में तेमुजिन, जमूका और नेमन लोगों को निर्णायक रूप से परास्त करने के बाद स्टेपी क्षेत्र का सबसे प्रभावशाली व्यक्ति बन गया । उसके इस प्रभुत्व को देखते हुए मंगोल कबीलों के सरदारों की एक सभा (कुरिलताई) में मान्यता मिली और उसे चंगेज खान (समुद्री खान) या सार्वभौम शासक की उपाधि देने के साथ महानायक घोषित किया गया ।
Genghis Khan and Toghrul Khan. Illustration from a 15th century Jami' al-tawarikh manuscript
Asia in 1200 AD
कुरिलताई से मान्यता मिलने तक वो मंगोलों की एक सुसंगठित सेना तैयार कर चुका था । उसकी पहली इच्छा चीन पर विजय प्राप्त करने की थी। चीन उस समय तीन भागों में विभक्त था - उत्तर पश्चिमी प्रांत में तिब्बती मूल के सी-लिया लोग, जरचेन लोगों का चीन राजवंश जो उस समय आधुनिक बीजिंग के उत्तर वाले क्षेत्र में शासन कर रहे थे तथा शुंग राजवंश जिसके अंतर्गत दक्षिणी चीन आता था । 1209 में सी लिया लोग परास्त कर दिए गए। 1213 में चीन की महान दीवार का अतिक्रमण हो गया और 1215 में पेकिंग (आज का बीजिंग) नगर को लूट लिया गया । चीनी राजवंश के खिलाफ १२३४ तक लड़ाइयाँ चलीं, पर अपने सैन्य अभियान की भरपूर प्रगति को देख चंगेज खान अपने अनुचरों की देखरेख में युद्ध को छोड़ वापस मातृभूमि को मंगोलिया लौट गया ।

सन् 1218 में कराखिता की पराजय के बाद मंगोल साम्राज्य अमू दरिया, तुरान और ख्वारज्म राज्यों तक विस्तृत हो गया । 1219 से 1221 के बीच कई बड़े राज्यों - ओट्रार, बुखारा, समरकंद, बल्ख, गुरगंज, मर्व, निशापुर और हेरात के राजाओ- ने मंगोल सेना के सामने समर्पण कर दिया । जिन नगरों ने प्रतिशोध किया उनका विध्वंस कर दिया गया और वहॉ की सम्पदा लूट ली और जिसने लूट का विरोध किया उसको निर्दयी सेना ने मौत के घाट उतार दिया। इस दौरान मंगोलों ने बेपनाह बर्बरता का परिचय दिया और लाखों की संख्या में लोगों का वध कर दिया। दुनिया भर में दुर्दान्त चंगेजखान ने भय और हाहाकार का वातावरण बना दिया । भारत सहित संपूर्ण रशिया एशिया और अरब देश चंगेज खान के नाम से ही भयभीत रहने लगे ।

आखिर एक दिन वही हुआ। चंगेज के लश्कर ने भारत की ओर प्रस्थान कर ही लिया । इस दौरान चंगेज खान ने ईरान काबुल कन्धार और अफगानिस्तान सहित गजनी और पेशावर पर अधिकार कर लिया तथा ख्वारिज्म वंश के शासक अलाउद्दीन मुहम्मद को कैस्पियन सागर की ओर खदेड़ दिया जहाँ 1222 में उसकी मृत्यु हो गई । उसका उत्तराधिकारी जलालुद्दीन मंगवर्नी हुआ जो मंगोलों के आक्रमण से भयभीत होकर गजनी चला गया । चंगेज खान ने उसका पीछा किया और सिन्धु नदी के तट पर उसको हरा दिया । जलालुद्दीन सिंधु नदी को पार कर भारत आ गया जहाँ उसने दिल्ली के सुल्तान अल्तमश से सहायता की फरियाद रखी । अल्तमश ने शक्तिशाली चंगेज खान के भय से उसको सहयता देने से इंकार कर दिया ।

 इस समय चंगेज खान ने सिंधु नदी को पार कर उत्तरी भारत और असम के रास्ते मंगोलिया वापस लौटने की सोची । पर असह्य गर्मी, प्राकृतिक आवास की कठिनाइयों तथा उसके शासन नीति विशेषज्ञों फौजी भविष्यवक्ताओं द्वारा मिले अशुभ संकेतों के कारण जलालुद्दीन मंगवर्नी के विरुद्ध एक सैनिक टुकड़ी छोड़ कर वापस आ गया । इस तरह भारत में उसके न आने से तत्काल भारत एक संभावित लूटपाट और वीभत्स उत्पात से बच गया ।

 लेकिन एशिया के उत्तरी भाग और मध्यवर्ती देशों को आतंकित करने वाले चंगेजखान अपने जीवन का अधिकांश भाग युद्धो में ही व्यतीत करता रहा । दुनिया में दरिन्दगी मिसाल कायम करने के बाद सन् 1227 में उसकी मृत्यु हो गई ।

 मंगोलिया का क्रूर आक्रमणकारी चंगेज खान इतिहास का सबसे बड़ा हमलावर था। एक नए अनुसंधान के अनुसार इस क्रूर मंगोल योद्धा ने अपने हमलों में इस कदर लूटपाट की और खूनखराबा किया कि एशिया में चीन, अफगानिस्तान सहित उजबेकिस्तान, तिब्बत और वर्मा आदि देशों की बहुत बड़ी आबादी का सफाया हो गया। वह अपार रत्नों के भण्डार सोने चांदी के सिक्के और हीरे मोती अपने घोडों और खच्चरो पर लाद कर ले गया । उसके आक्रमण के बाद कुछ देशों की उन्नत राजशाही नेस्तनाबूद हो गई और करोडो इन्सानों से आबाद जमीन जंगल में तब्दील हो गई। समझा जाता है कि विभिन्न देशों में उसके हमलों में तकरीबन चार करोड़ लोग मारे गए। उसने अपने विजय अभियान के बाद धरती की 22 फीसदी जमीन पर अपने साम्राज्य का विस्तार कर लिया था। शुक्र है कि वह 65 साल की उम्र में ही मर गया और अन्य मंगोलों की तरह सौ सवा सौ साल तक नहीं जिया अन्यथा और भी अनर्थ होता। उसके मरने के बाद अनेक देशों ने कुछ समय तक राहत की सांस ली।

मंगोलिया में इलखानी साम्राज्य का संस्थापक हलाकू खान या हुलेगु खान (मंगोल नाम Хүлэг хаан, खुलेगु खान फारसी هولاكو خان)  की अनुमानित जन्म तारीख मार्च 1217 ईस्वी थी। उसकी मौत की तारीख 8 फरवरी 1265 ईस्वी बताई जाती है। दीर्घायु न होने का बावजूद हलाकू उत्तरी तथा मध्य एशिया में इतना कहर बरपा गया कि आज भी उसके कारनामों को लिखते हुए इतिहासकार भयत्रस्त हो जाते हैं। चंगेज खां की तरह हलाकू भी एक मंगोल (शासक) था, जिसने ईरान समेत दक्षिण-पश्चिमी एशिया के अन्य बड़े हिस्सों पर क्रूर आक्रमण करके मध्य एशिया में थोड़े समय में ही विजय प्राप्त की और वहां इलखानी साम्राज्य स्थापित किया। यह साम्राज्य मंगोल साम्राज्य का एक भाग था। हलाकू खां के नेतृत्व में मंगोलों ने इस्लाम के सबसे शक्तिशाली केंद्र बगदाद को तबाह कर दिया। ईरान सहित अरब मुल्कों पर कब्जा इस्लाम के उभरने के लगभग फौरन बाद हो चुका था और तबसे वहां के सभी विद्वान अरबी भाषा में ही लिखा करते थे।

बगदाद की ताकत नष्ट होने से ईरान में फारसी भाषा फिर पनपने लगी और उस काल के बाद ईरानी विद्वान और इतिहासकार फारसी में ही लिखा करते थे। इसके फौरन बाद हलाकू ने 3 लाख फौज के साथ भारत पर हमला बोल दिया।  भारत पर हलाकू के आक्रमणों का एक बड़ा असर यह हुआ कि बहुत से ईरानी, अफगान और तुर्क विद्वान, शिल्पकार और अन्य लोग भागकर दिल्ली सल्तनत आकर बस गए और अपने साथ विद्या, वस्तुकला और अन्य ज्ञान लाए।

पारिवारिक इतिहास के अनुसार हलाकू खान मंगोल साम्राज्य के संस्थापक चंगेज खां का पोता और उसके चौथे पुत्र तोलुइ खान का पुत्र था। हलाकू की माता सोरगोगतानी बेकी (तोलुइ खान की पत्नी) ने उसे और उसके भाइयों को बहुत निपुणता से पाला और परवरिश की। उसने परिस्थितियों पर ऐसा नियंत्रण रखा कि हलाकू बचपन में ही एक बडा लड़ाकू और खतरनाक योद्धा बन गया। आगे चलकर वह अपने बलबूते पर मंगोलों का चीन और रूस सहित किर्गीस्तान, उजबेकिस्तान और ईरान अफगानिस्तान तक एक बड़ा साम्राज्य स्थापित कर लिया। हलाकू खां की पत्नी दोकुज खातून एक नेस्टोरियाई ईसाई थी और हलाकू के इलखानी साम्राज्य में बौद्ध और ईसाई धर्म को बढ़ावा दिया जाता था। दोकुज खातून ने बहुत कोशिश की कि हलाकू भी ईसाई बन जाए लेकिन वह मरते दम तक बौद्ध धर्म का अनुयायी ही रहा।


बगदाद का विनाश नवम्बर 1257 ईस्वी हुआ, जब ईराक में हलाकू की 10 लाख मंगोल फौज ने बगदाद की तरफ कूच किया, जहां से खलीफा अपना इस्लामी राज चलाते थे। वहां पहुंचकर उसने अपनी सेना को पूर्वी और पश्चिमी हिस्सों में बांटा जो शहर से गुजरने वाली दजला नदी (टाइग्रिस नदी) के दोनों किनारों पर आक्रमण कर सकें। उसने खलीफाओं से आत्मसमर्पण करने को कहा, लेकिन खलीफाओं ने मना कर दिया। खलीफाओं की सेना ने हलाकू के कुछ योद्धाओं को खदेड़ दिया, लेकिन अगली मुठभेड़ में खलीफा फौज हार गई। मंगोलों ने खलीफा की सेना के पीछे के नदी के बांध को तोड़ दिए जिससे से बहुत से खलीफाई सैनिक डूब गए और बाकियों को मंगोलों ने आसानी से मार डाला।


29 जनवरी 1258 में मंगोलों ने बगदाद पर घेरा डाला और 5 फरवरी तक उसकी सेना शहर की रक्षक दीवार के एक हिस्से पर कब्जा जमा चुकी थी। अब खलीफा ने हथियार डालने की सोची, लेकिन मंगोलों ने बात करने से इनकार कर दिया और 13 फरवरी को बगदाद शहर में घुस आए। उसके बाद एक हफ्ते तक उन्होंने वहां कत्लेआम मचा दिया। बगदाद के नागरिकों और व्यापारियों को लूटा गया। जिन नागरिकों ने भागने की कोशिश की उन्हें भी रोककर मारा गया या उनकी औरतों से बलात्कार किया गया। उस समय बगदाद में एक महान पुस्तकालय था, जिसमें खगोलशास्त्र से लेकर चिकित्साशास्त्र तक हर विषय पर अनगिनत दस्तावेज और किताबें थीं। मंगोलों ने सभी उठाकर नदी में फेंक दिए। जो शरणार्थी बचकर वहां से निकले उन्होंने बाद में बताया कि फेंकी गईं हजारों लाखों किताबों की स्याही से दजला का पानी काला हो गया था। महल, मस्जिदें, हस्पताल और अन्य महान इमारतें जला दी गईं। यहां मरने वालों की संख्या कम-से-कम 1 लाख बताई जाती है।

अरब के खलीफा पर क्या बीती, इस पर दो अलग-अलग वर्णन मिलते हैं। यूरोप से बाद में आने वाले यात्री मार्को पोलो के अनुसार उसे भूखा-प्यासा मारा गया। लेकिन उससे अधिक विश्वसनीय बात यह है कि मंगोल और मुस्लिम स्रोतों के अनुसार उसे एक कालीन में लपेट दिया गया और उसके ऊपर से तब तक घोड़े दौड़ाए गए जब तक उसने दम नहीं तोड़ दिया। अरब देशों पर कब्जा जमाने के बाद सन 1260 में उसने भारत पर आक्रमण की योजना बनाई, लेकिन भारी-भरकम फौज को लम्बे रास्ते तय करने की कठिनाई के कारण और उत्तर भारत के मौसम की मार के चलते वह रास्ते में ही बीमारी का शिकार हो गया और स्वास्थ्य लाभ के लिए वापस मंगोलिया लौट गया । लेकिप यहां पहुंचकर रहस्यमय ढंग से 1265 में उसकी मौत हो गई। अब उसके बाद उसके कबीले यूरोप के कई प्रान्तों में फैल गए लेकिन तिब्बत, कोरिया और चीन उनके पसंदीदा स्थल रहे। 

तैमूर लंग ( लंग अर्थात लंगड़ा) का जन्म 8 अप्रैल, 1336....शहर-ऐ-सब्ज, उज्बेगिस्तान  और मृत्यु 18 फरवरी, 1405.... ओत्रार, कजाख्सितान। दफन- गुम्बजे-आमिर, समरकंद, उज्बेगिस्तान) राजघराना.. तिमुर ...वंश मुगल। एक अकल्पनीय दरिन्दा शासक,  जिसने भारतीय जनता पर कहर बरपाया और दिल्ली के आस-पास के राजाओं को नेस्तनाबूद कर दिया।

तैमूर लंग जिसे तिमुर (तिमुर का अर्थ लोहा) के नाम से भी जाना जाता था चौदहवी शताब्दी का एक शासक था जिसने महान तैमूरी राजवंश की स्थापना की थी। उसका राज्य पश्चिम एशिया से लेकर मध्य एशिया होते हुए भारत तक फैला था। उसकी गणना संसार के महान और निष्ठुर विजेताओं में की जाती है। वह बरलस के तुर्क खानदान में पैदा हुआ था। उसका पिता तुरगाई बरलस तुर्कों का नेता था। भारत के मुगल साम्राज्य का संस्थापक बाबर तैमूलंग का ही वंशज था।

तैमूर लंग का जन्म सन 1336 में ट्रांस आक्सियाना, ट्रांस आमू और सर नदियों के बीच का प्रदेश, मावराउन्नहर, में केश या शहर-ए-सब्ज नामक स्थान में हुआ था। उसके पिता ने इस्लाम कबूल कर लिया था। अतः तैमूर भी इस्लाम का कट्टर अनुयायी हुआ। वह बहुत ही प्रतिभावान और महत्वाकांक्षी व्यक्ति था। महान मंगोल विजेता चंगेज खाँ की तरह वह भी समस्त संसार को अपनी शक्ति से रौंद डालना चाहता था और सिकंदर की तरह विश्वविजय की कामना रखता था। सन् 1369 में समरकंद के मंगोल शासक के मर जाने पर उसने समरकंद की गद्दी पर कब्जा कर लिया और इसके बाद उसने पूरी शक्ति के साथ दिग्विजय का कार्य प्रारंभ कर दिया। चंगेज खाँ की पद्धति पर ही उसने अपनी सैनिक व्यवस्था कायम की और चंगेज की तरह ही उसने क्रूरता और निष्ठुरता के साथ दूर-दूर के देशों पर आक्रमण कर उन्हें तहस नहस किया। 1380 और 1387 के बीच उसने खुरासान, सीस्तान, अफगानिस्तान, फारस, अजरबैजान और कुर्दीस्तान आदि पर आक्रमण कर उन्हें अधीन किया। 1393 में उसने बगदाद से लेकर मेसोपोटामिया पर आधिपत्य स्थापित किया। इन विजयों से उत्साहित होकर अब उसने भारत पर आक्रमण करने का निश्चय किया। उसके सलाहकार अमीर और लडाकू सरदार प्रारंभ में भारत जैसे दूरस्थ देश पर आक्रमण के लिये तैयार नहीं थे, लेकिन जब उसने इस्लाम धर्म के प्रचार के हेतु भारत में प्रचलित मूर्तिपूजा का विध्वंस करना अपना पवित्र ध्येय घोषित किया, तो उसके अमीर और सरदार भारत पर आक्रमण के लिये राजी हो गए।

मूर्तिपूजा का विध्वंस तो आक्रमण का बहाना मात्र था। वस्तुतः वह भारत के स्वर्ण भण्डार और यहां की खनिज सम्पदा से आकृष्ट हुआ। भारत की महान समृद्धि और वैभव के बारे में उसने बहुत कुछ बातें सुन रखी थीं। अतः भारत की दौलत लूटने के लिए ही उसने आक्रमण की योजना बनाई थी। उसे आक्रमण का बहाना ढूँढ़ने की आवश्यकता भी नहीं महसूस हुई। उस समय दिल्ली की तुगलक सल्तनत फिरोजशाह के निर्बल उत्तराधिकारियों के कारण सोचनीय अवस्था में थी। भारत की इस राजनीतिक दुर्बलता  कमजोर स्थिति के कारण  तैमूर लंग को भारत पर आक्रमण करने का स्वयं सुअवसर मिल गया।

1398 के प्रारंभ में तैमूर ने पहले अपने एक पोत पीर मोहम्मद को भारत पर आक्रमण के लिए रवाना किया। उसने मुलतान पर घेरा डाला और छः महीने बाद उस पर अधिकार कर लिया।

अप्रैल 1398 में तैमूर स्वयं एक भारी सेना लेकर समरकंद से भारत के लिए रवाना हुआ और सितंबर में उसने सिंधु, झेलम तथा रावी को पार किया। 13 अक्टूबर को वह मुलतान से 70 मील उत्तर-पूरब में स्थित तुलुंबा नगर पहुँचा। उसने इस नगर को लूटा और वहाँ के बहुत से निवासियों को कत्ल किया तथा बहुतों को गुलाम बनाया। फिर मुलतान और भटनेर पर कब्जा किया। वहाँ हिंदुओं के अनेक मंदिर नष्ट कर डाले। भटनेर से वह आगे बढ़ा और मार्ग के अनेक स्थानों को लूटता-खसोटता और निवासियों को कत्ल तथा कैद करता हुआ दिसंबर के प्रथम सप्ताह के अंत में दिल्ली के निकट पहुँच गया। यहाँ पर उसने एक लाख हिंदू कैदियों को कत्ल करवाया। और उनके सिर को एक मीनार के रूप मे चिन दिया ताकि बाकी शासकों में उसका खौफ कायम हो ।  पानीपत के पास निर्बल और कमजोर  तुगलक सुल्तान महमूद ने 17 दिसंबर को 40,000 पैदल 10,000 अश्वारोही और 120 हाथियों की एक विशाल सेना लेकर तैमूर का मुकाबला किया लेकिन बुरी तरह पराजित हुआ। भयभीत होकर तुगलक सुल्तान महमूद गुजरात की तरफ चला गया और उसका वजीर मल्लू इकबाल भागकर बारन में जा छिपा। यह पानीपत की पहली लडाई का इतिहास रहा जो एक दुर्दान्त आक्रमणकारी के पाले में गया ।

पानीपत की विजय के दूसरे दिन तैमूर ने दिल्ली शहर में प्रवेश किया। पाँच दिनों तक सारा शहर बुरी तरह से लूटा खसोटा गया और उसके अभागे निवासियों को बेभाव कत्ल किया गया और खाली मैदानों में लाशों का ढेर लगा दिया ताकि उनका दाह संस्कार भी नही हो। उसने हिन्दुओं की चोटी और गर्दन ऐसे काटी जैसे कोई कसाई मरे जानवर का मांस काटता है। जो काम के थे या मुस्लिम थे उनको मुखबिर या बंदी बनाया गया। आम लोगों और व्यावसायियों की पीढ़ियों से संचित दिल्ली की दौलत तैमूर लूटकर समरकंद ले गया। अनेक  जवान और बंदी बनाई गई औरतों और शिल्पियों को भी तैमूर अपने साथ ले गया। भारत से जो कारीगर वह अपने साथ ले गया उनसे उसने समरकंद में अनेक इमारतें बनवाईं, जिनमें सबसे प्रसिद्ध उसकी स्वनियोजित मस्जिद है।

तैमूरलंग भारत में केवल लूट के लिये आया था। उसकी इच्छा भारत में रहकर राज्य करने की नहीं थी। अतः 15 दिन दिल्ली में रुकने के बाद वह स्वदेश के लिये रवाना हो गया। 9 जनवरी, 1399 को उसने मेरठ पर चढ़ाई की और पूरे  मेरठ  और आसपास के नगरो को लूटा तथा हजारो बेकसूर निवासियों को कत्ल किया। इसके बाद वह हरिद्वार पहुँचा जहाँ उसने आसपास की हिंदुओं की दो सेनाओं को हराया। शिवालिक पहाड़ियों से होकर वह 16 जनवरी को कांगड़ा पहुँचा और उसपर कब्जा किया। इसके बाद उसने जम्मू पर चढ़ाई की। इन स्थानों को भी लूटा खसोटा गया और वहाँ के असंख्य निवासियों को कत्ल किया गया। इस प्रकार भारत के जीवन, धन और संपत्ति को अपार क्षति पहुँचाने के बाद 19 मार्च, 1399 को पुनः सिंधु नदी को पार कर वह भारतभूमि से अपने देश को लौट गया।

भारत से लौटने के बाद तैमूर से सन 1400 में अनातोलिया पर आक्रमण किया और 1402 में अंगोरा के युद्ध में ऑटोमन तुर्कों को बुरी तरह से पराजित किया। सन 1405 में जब वह चीन की विजय की योजना बनाने में लगा था, अचानक उसकी मृत्यु हो गई।

क्रूर मुसलमान तैमूर लंग दूसरा चंगेज खाँ बनना चाहता था। वह चंगेजखॉ का वंशज होने का भी  दावा करता था, लेकिन असल में वह तुर्क था। वह लंगड़ा था, इसलिए तैमूर लंग ( लंगड़ा) कहलाता था। वह अपने बाप के बाद सन 1369 ई. में समरकंद का शासक बना। इसके बाद ही उसने अपनी विजय और क्रूरता की यात्रा शुरू की। वह बहुत बड़ा तलवार बाज . लडाकू सिपहसलार था, लेकिन पूरा  दरिन्दा और वहशी भी था। मध्य एशिया के मंगोल लोग इस बीच में मुसलमान हो चुके थे और तैमूर खुद भी मुसलमा��� था। लेकिन मुसलमानों से पाला पड़ने पर वह उनके साथ जरा भी रहम या मुलायमियत नहीं बरतता था। जहाँ-जहाँ वह पहुँचा, उसने तबाही और नरसंहार की बला और पूरी मुसीबत फैला दी। नर-मुंडों के बड़े-बड़े ढेर लगवाने में उसे खास मजा आता था। पूर्व में दिल्ली से लगाकर पश्चिम में एशिया- के कोचक तक उसने लाखों आदमी कत्ल कर डाले और उनके कटे सिरों को स्तूपों की शक्ल में जडवाया।

चंगेज खाँ और उनके मंगोल भी बेरहम और बरवादी करने वाले थे, पर वे अपने जमाने के दूसरे लोगों की तरह ही थे। लेकिन तैमूर लंग उनसे भी भयंकर बहुत ही बुरा मुसलमान था। अनियंत्रित और पैशाचिक क्रूरता में उसका मुकाबला करने वाला कोई दूसरा नहीं था। कहते हैं, एक जगह उसने दो हजार जिन्दा आदमियों की एक मीनार बनवाई और उन्हें ईंट और गारे में चुनवा दिया।

भारत पर  1399 ई. में तैमूरलंग का भयानक आक्रमण हुआ। अपनी जीवनी तुजुके तैमुरी में वह कुरान की इस आयत से ही प्रारंभ करता था । ऐ पैगम्बर ! काफिरों और विश्वास न करने योग्य दूसरे धर्म वालों से युद्ध करो और उन पर सखती बरतो।..यही उसकी नमाज होती थी ।  वह आगे भारत पर अपने आक्रमण का कारण बताते हुए लिखता है-
हिन्दुस्तान पर आक्रमण करने का मेरा ध्येय काफिर हिन्दुओं के विरुद्ध धार्मिक युद्ध करना है (जिससे) इस्लाम की सेना को भी हिन्दुओं की दौलत और मूल्यवान वस्तुएँ मिल जायें।

इस दौरान काश्मीर की सीमा पर कटोर नामी दुर्ग पर आक्रमण हुआ। उसने तमाम पुरुषों को कत्ल किया और स्त्रियों और बच्चों को कैद करने का आदेश दिया। फिर उन हठी काफिरों के सिरों के मीनार खड़े करने के आदेश दिये। फिर भटनेर के दुर्ग पर घेरा डाला गया। वहाँ के राजपूतों ने कुछ हल्के युद्ध के बाद हार मान ली और उन्हें क्षमादान दे दिया गया। किन्तु उनके असवाधान होते ही उन पर आक्रमण कर दिया गया। तैमूर अपनी जीवनी में लिखता है कि थोड़े ही समय में दुर्ग के तमाम लोगोंको तलवार की धार से मौत के घाट उतार दिये गये। घंटे भर में 10,000 (दस हजार) लोगों के सिर काटे गये। इस्लाम की तलवार ने काफिरों के रक्त में स्नान किया। उनके सरोसामान, खजाने और अनाज को भी, जो वर्षों से दुर्ग में इकट्ठा किया गया था, सिपाहियों ने लूट लिया। मकानों में आग लगा कर राख कर दी। इमारतों और दुर्ग को भूमिसात कर दिया गया।

तैमूल लंग आगे अपनी जीवनी में लिखता है कि हमारे आक्रमण का दूसरा नगर सरसुती हरियाणा और आज का पंजाब  था जिस पर भयंकर आक्रमण हुआ। सभी काफिर हिन्दू कत्ल कर दिये गये। उनके स्त्री और बच्चे और संपत्ति जब्त हो गई। तैमूर ने तब जाटों के प्रदेश हरियाणा में प्रवेश किया। उसने अपनी सेना को आदेश दिया कि जो भी मिल जाये, कत्ल कर दिया जाये। और फिर सेना के सामने जो भी ग्राम या नगर आया, उसे लूटा गया। पुरुषों को कत्ल कर दिया गया और कुछ लोगों, स्त्रियों और बच्चों को बंदी बना लिया गया।

दिल्ली के पास लोनी तब हिन्दू नगर था। किन्तु कुछ मुसलमान भी बंदियों में थे। तैमूर ने आदेश दिया कि मुसलमानों को छोड़कर शेष सभी हिन्दु को बंदी अवस्था में तलवार के घाट पर उतार दिये जायें। इस समय तक उसके पास हिन्दू बंदियों की संख्या एक लाख हो गयी थी। जब यमुना पार कर दिल्ली पर आक्रमण की तैयारी हो रही थी उसके साथ के अमीरों ने उससे कहा कि इन बंदियों को कैम्प में नहीं छोड़ा जा सकता और इन जैसे इस्लाम के शत्रुओं को स्वतंत्र कर देना भी युद्ध के नियमों के विरुद्ध होगा। तैमूर लिखता है-

इसलिये आगे उन एक लाख से ज्यादा बन्दी लोगों को सिवाय तलवार का भोजन बनाने के अलावा कोई मार्ग नहीं था। तैमूर लंग ने कैम्प में घोषणा करवा दी कि तमाम बंदी कत्ल कर दिये जायें और इस आदेश के पालन म���� जो भी लापरवाही करे उसे भी कत्ल कर दिया जाये और उसकी सम्पत्ति सूचना देने वाले को दे दी जाये। जब इस्लाम के गाजियों (काफिरों का कत्ल करने वालों को आदर सूचक नाम) को यह आदेश मिला तो उन्होंने तलवारें सूत लीं और अपने बंदियों को कत्ल कर दिया। उस दिन एक लाख अपवित्र मूर्ति-पूजक काफिर कत्ल कर दिये गये-

उसके बाद तुगलक बादशाह को हराकर तैमूर ने दिल्ली में प्रवेश किया। उसे पता लगा कि आस-पास के देहातों से भागकर हिन्दुओं ने बड़ी संख्या में अपने स्त्री-बच्चों तथा मूल्यवान वस्तुओं को छुपाया है और फिर हल्के हथियारो के साथ दिल्ली में शरण ली हुई हैं।

उसने अपने सिपाहियों को इन हिन्दुओं को उनकी संपत्ति समेत पकड़ लेने के आदेश दिया ।

तैमून लंग की जीवनी तुजुके तैमुरी बताती है कि  दिल्ली में तब उनमें से बहुत से हिन्दुओं ने तलवारें निकाल लीं और विरोध किया। जहाँपनाह और सीरी से पुरानी देहली तक विद्रोहाग्नि की लपटें फैल गई। हिन्दुओं ने अपने घरों में ही आग  लगा दी और अपनी स्त्रियों और बच्चों को उसमें भस्म कर युद्ध करने के लिए निकल पड़े और मारे गये। उस पूरे दिन वृहस्पतिवार को और अगले दिन शुक्रवार की सुबह तैमूर लंग की तमाम सेना शहर में घुस गई और सिवाय कत्ल करने, लूटने और लोगों को बंदी बनाने के उसे कुछ और नहीं सूझा। शनिवार 17 तारीख भी इसी प्रकार व्यतीत हुई और लूट इतनी हुई कि हर सिपाही के भाग में 80  से 100 बंदी आये जिनमें आदमी  औरतें और बच्चे सभी थे। फौज में ऐसा कोई व्यक्ति न था जिसको 20  से कम गुलाम न मिले हों। लूट का दूसरा सामान भी अतुलित था-लाल, हीरे, मोती, दूसरे जवाहरात, अशर्फियां, सोने, चाँदी के सिक्के, सोने, चाँदी के बर्तन, रेशम और जरीदार कपड़े। स्त्रियों के सोने चाँदी के गहनों की कोई गिनती संभव नहीं थी। सैयदों, उलेमाओं और दूसरे मुसलमानों के घरों को छोड़कर शेष सभी नगर निवासियों के घर  ध्वस्त कर दिया गये। 18 फरवरी 1405 तैमूर लंग मरा तो  विश्व के तमाम देशवासियों ने दुआ की कि  ईश्वर अल्लाह ! अब तू इस दुनियॉ में दूसरा तैमूर लंग पैदा मत करना । लेकिन ऐसी दुआयें कब तक कबूल होतीं... लुटेरे और नृशंश हत्यारे दरिन्दे पैदा होते रहते हैं ।




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