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Tuesday, October 16, 2012

बदहाली के आंसू रोता नेहरु का 'स्विट्ज़रलैंड' सोनभद्र-सिंगरौली का कोंग्रेसी पतन !

बदहाली के आंसू रोता नेहरु का 'स्विट्ज़रलैंड'

16 अक्तूबर, 2012 को 08:34 IST तक के समाचार

भारत की बड़ी से बड़ी बिजली कंपनियों के आसमान छूते बिजली कारखाने और इन कारखानों के सामने बौने से लगते बदहाल गांव और अंधेरी बस्तियां. उत्तर-प्रदेश-मध्यप्रदेश के बीच बंटे सोनभद्र-सिंगरौली का जो आज भारत में 'बिजली का गढ़' है लेकिन फिर भी देश के सबसे पिछडे इलाकों में से एक है.

 1962 में भारत के नक्शे पर उस वक्त चमका जब रिंहद बांध (गोविंद बल्लभ पंत सागर बांध) का उदघाटन करने प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु यहां आए और इस इलाके को भारत का स्विट्ज़रलैंड कहा.

ब्रजमोहन का परिवार

ब्रजमोहन की 43 साल की बेटी मानसिक रोग का शिकार हैं. प्रदूषण के चलते इस इलाके में विकलांगता और मानसिक बीमारियों के मामले भी अधिक हैं.

बांध विस्थापितों के गांव कुसमाहा में रहने वाले ब्रजमोहन उस दिन को याद करते हुए कहते हैं, ''विस्थापितों को अपनी ज़मीन से उजड़ने का दुख तो था लेकिन नेहरु जी ने कहा देश को विकास की ऊंचाईयों तक ले जाना है. हमले कहा था कि गांव में बिजली आएगी और सबको नौकरी मिलेगी.''

अधूरे रह गए सपने

72 साल के ब्रजमोहन आज भी उस बिजली का इंतज़ार कर रहे हैं. दिन ढले अंधेरे में लालटेन टटोलकर रोशनी करते हुए कहते हैं, “हमारी उपजाऊ ज़मीन लेकर सरकार ने हमें यहां पठार में बसा दिया. हम आज भी हैंडपंप से पानी खींचकर खेत में सिंचाई करते हैं. यहां केवल सब्जी उगती है और पैदावार इतनी ही है कि तीन लोगों का पेट भर पाए. कंपनी वालों ने घर के बराबर में बिजली का खंभा गाड़ा था. तार भी पड़े लेकिन बिजली आजतक नहीं आई.’’

झोंपड़ी से बाहर निकलते ही खंभे पर नज़र पड़ी तो दिखा कि बेकार खड़ा बिजली का खंभा झोंपड़ी पर आधे से ज़्यादा झुक गया है. किसी भी दिन तेज़ बारिश या अंधड़ में गिरा तो ब्रजमोहन की रही-सही पूंजी भी ले डूबेगा.

कोयले और पानी के खज़ाने से आबाद लेकिन बदहाल इस इलाके में लगभग सभी गांवों और बस्तियों की यही कहानी है. 1962 में जिस जगह रिंहद बांध बना वो उस वक्त सोनभद्र-सिंगरौली का सबसे बड़ी आबादी वाला इलाका था.

"“त्याग का पाठ हमेशा उन्हीं लोगों को क्यों पढ़ाया जाता है जो लोग अपना शरीर गलाकर अपने बच्चों को अपाहिज बनाकर पहले ही इस बिजली की कीमत चुका रहे हैं. विकास के नाम पर हज़ारों करोड़ का मुनाफ़ा कमा रही इन कंपनियों क्या यहां लोगों का इलाज नहीं करा सकतीं. अब हमारे पास त्याग के लिए सिर्फ प्राण बचे हैं वो भी सरकार ले ही रही है.’’"

अजय शेखर, लेखक एंव स्थानीय निवासी

जल्द ही सरकार को इस इलाके में फैले काले सोने की खबर लगी और देखते ही देखते 2,200 किलोमीटर में कोयला खदानें भी खुद गईं. 1951 के जनसंख्या आंकड़ों के मुताबिक उस वक्त विस्थापितों की संख्या 1,05,000 थी.

बांध और खदानों से हुए बेघर

आज इलाके के ज्यादातर गांव उन बांध और खदान विस्थापितों के हैं जो अपनी ज़मीन से बेघर हुए और कारखानों के जानलेवा प्रदूषण से बेहाल हैं.

6500 मेगावाट से शुरु हुआ बिजली उत्पाद आज 10,000 मेगावाट है और 2018 तक 35000 का लक्ष्य रखता है, लेकिन चिल्काटांड में रहने वाले वेदान्ती प्रजापति के लिए ये देश का विकास नहीं बल्कि ज़िंदगी और मौत का सवाल है.

एनसीएल की कोयला खदान वेदांती प्रजापति के घर के पीछे तक पहुंच चुकी है. खदान के नीचे बैठे वेदांती प्रजापति और उनका परिवार.

प्रजापति के घर के बीच 500 मीटर से भी कम की दूरी है. घर की छत से नज़र दौड़ांए तो चारों ओर दिखते हैं आसमान छूते मिट्टी के विशाल पहाड़ जो एनसीएल की कोयला खदान से निकली है. बिना कोई सवाल उनका पहला जवाब ही सारी कहानी कह देता है, “हमको कुछ नहीं कहना है साहब, कारखानों से भागते-भागते हम थक गए. बांध बना तो घर डूब गया. बाप-दादा हमें लेकर दूसरी बस्ती में बसे. फिर एनटीपीसी ने प्लांट लगाया और हमें यहां भेज दिया. यहां भी अब गुजारा मुश्किल है. बारिश में पहाड़ों की मिट्टी घरों में घुस आती है. खदान में ब्लास्टिंग होती है तो भूकंप के जैसे पूरा घर हिलता है.”

भगोड़ों सी ज़िंदगी और रोज़ी-रोटी की तलाश में भटकने का डर वेदान्ती के चेहरे पर साफ़ दिखाई देता है, लेकिन घर के दरवाज़े तक पहुंच चुकी खदान और धमाकों से चटकती दीवारों ने ज़िंदगी को इतना बेहाल कर दिया है कि किसी भी कीमत पर लोग बस्ती छोड़ देना चाहते हैं.

'भगोड़ों सी ज़िंदगी'

विस्थापितों की सबसे बड़ी समस्या है कि कंपनियों की संख्या और खदानों का क्षेत्र लगातार बढ़ता जा रहा है. एक कंपनी उन्हें विस्थापित कर जिस जगह बसाती है वहां दूसरी कंपनी का कारखाना उनके लिए बोरिया-बिस्तर बांधे तैयार रहता है.

प्रजापति की बातचीत में जो गुस्सा झलकता है वो चिल्काटांड के लगभग हर बाशिंदे की कहानी है. अपनी आठ साल की विकलांग बेटी को स्कूल से घर लाती एक महिला को रोकर जब हमने बात करनी चाही तो दो टूक जवाब मिला, “हर कोई तो सर्वे करने चला आता है, लेकिन बदलता कुछ नहीं. पता नहीं कागजों में क्या लिखते हैं कि लखनऊ-दिल्ली जाकर सब बात पलट जाती है. हमारा नाम मत लिखिएगा. कंपनी वाले कहते हैं कि विस्थापित गुंडागर्दी करते हैं गलत बात फैलाते हैं.''

चिल्काटांड

खदान से निकली मिट्टी के घिरी बस्तियां. ये पहाड़ धूल की बड़ी वजह हैं.

 

नई बस्ती की मांग कर रहे चिल्काटांड निवासी मनोनीत कहते हैं, “जहां आप खड़ी हैं अगले साल यहां ब्लास्टिंग हो रही होगी. इसी तरह खदान बढ़ती है. सच ये है कि जिस ज़मीन पर विस्थापितों को बसाया जाता है उसका मालिकाना हक़ कंपनी के पास रहता है. वो जब चाहे हमें हटा सकते हैं, जबकि विस्थापित न ज़मीन बेच सकते हैं न उसपर कर्ज़ ले सकते हैं. कुलमिलाकर खेत मालिक से आज हम बेघर विस्थापित हो गए.”

उद्दोगों के गढ़ में 'बेरोज़गार'

"शुरुआत में सभी बिजली-उद्दोग केंद्र या राज्य सरकार के थे. सरकारों ने बाकायदा विस्थापितों के साथ लिखित करार किए. बाद में ये उद्दोग निजी कंपनियों को सौंप दिए गए. लैंको जैसी कंपनियां अब कहती हैं कि पुराने करार की कोई मान्यता नहीं. क्या सरकार उन वादों को भी पूरा नहीं करेगी जो उसने लिखित में किए हैं."

शुभाप्रेम, वनवासी सेवा आश्रम

विस्थापन से पैदा हुई सबसे बड़ी समस्या है बेरोज़गारी की. 2011 में आई ग्रीनपीस की एक रिपोर्ट के मुताबिक केवल उत्तप्रदेश राज्य विद्युत उत्पादन निगम की अनपरा परियोजना को ही देखें तो जिन 2205 लोगों को तुरंत प्रभाव से नौकरी देने का वादा किया गया था उनमें से केवल 234 को नौकरी दी गई. ये समस्या हर गांव, हर परियोजना की है. शक्तिनगर निवासी राजबीर कहते हैं, “जितने भी कारखाने यहां खुले उनमें स्थानीय लोगों को बहुत कम नौकरियां दी गई हैं. ऊपर से लेकर नीचे मज़दूर तक बिहार, छत्तीसगढ़ दिल्ली से लाए गए हैं. विस्थापित अपने हक की बात करते हैं इसलिए उन्हें अराजक कहा जाता है और नौकरी पर नहीं रखा जाता.”

बिजली उद्दोग जैसे-जैसे बढ़ रहा है उससे जुड़ी कंपनियों की सीमेंट, रसायन और पत्थर की फैक्ट्रियां भी इलाके पर कब्ज़ा जमा रही हैं. इस साल फरवरी में पत्थर की एक अवैध खदान में हुए भयानक हादसे के बाद दिन-रात चलने वाले क्रशर तो तालाबंद हैं लेकिन जंगलों में अवैध कटाई के बाद रिहंद जलाशय में बहाकर कैसे कीमती लकड़ी की तस्करी की जा रही है ये नज़ारा हमने खुद देखा. कुलमिलाकर सोनभद्र में संसाधनों की ऐसी लूट मची है जिसमें हर कोई अपने हाथ धो लेना चाहता है.

सरकारी चुप्पी

बेलवादाह में जल स्रोत में मिलती कारखाने की राख. कारखानों की राख इलाके की मिट्टी को बंजर करती जा रही है.

बीबीसी ने सोनभद्र के प्रभारी डीएम रामकृष्ण उत्तम से इस बाबत बात करनी चाही तो उन्होंने कुछ भी कहने से मना करते हुए सीधे फोन काट दिया. लेकिन भारत की एक अरब आबादी की बिजली की ज़रूरत और विकास के सवाल पर सोनभद्र से मांगी जा रही कीमत क्या वाकई ज्यादा है.

सोनभद्र में पूरी उम्र बिताने वाले अजय शेखर इस सवाल पर टीस से भर उठते हैं, “त्याग का पाठ हमेशा उन्हीं लोगों को क्यों पढ़ाया जाता है जो लोग अपना शरीर गलाकर अपने बच्चों को अपाहिज बनाकर पहले ही इस बिजली की कीमत चुका रहे हैं. विकास के नाम पर हज़ारों करोड़ का मुनाफ़ा कमा रही इन कंपनियों को क्या इसके लिए भी बाध्य नहीं किया जा सकता कि वो कम से इन लोगों का इलाज करांए. उन्हें अपने यहां नौकरी पर रखें. अब हमारे पास त्याग के लिए सिर्फ प्राण बचे हैं वो भी सरकार ले ही रही है.’’

आबाद या बर्बाद

इस इलाके में 1954 से काम कर रही संस्था वनवासी सेवा आश्रम से जुड़ी शुभा प्रेम कहती हैं, “शुरुआत में सभी बिजली-उद्दोग केंद्र या राज्य सरकार के थे. सरकारों ने बाकायदा विस्थापितों के साथ लिखित करार किए. बाद में ये उद्दोग निजी कंपनियों को सौंप दिए गए. लैंको जैसी कंपनियां अब कहती हैं कि पुराने करार की कोई मान्यता नहीं. क्या सरकार उन वादों को भी पूरा नहीं करेगी जो उसने लिखित में किए हैं.”

सोनभद्र जो कभी अपनी चिरौंजी और कत्थे की फसल, बीड़ी बनाने वाले पलाश के पत्तों और बहेड़े के हरे-भरे जंगलों के लिए जाना जाता था. आज ये इलाका ऊर्जा की राजधानी है और दिन-रात धुंआ उगलते कारखानों से आबाद है.

लेकिन यहां के लोगों की टीस बस यही है कि बहेड़े से बिजली तक, विकास का ये सफर सोनभद्र-सिंगरौली को बर्बाद कर गया.

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