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न्यूयॉर्क। अमेरिका की संघीय जांच एजेंसी [एफबीआइ] ने अपने खुफिया अभियान के तहत एक बांग्लादेशी की फेडरल रिजर्व बैंक की. बिल्डिंग में धमाका करने की साजिश को नाकाम कर दिया है। 21 वर्षीय काजी मुहम्मद रिजवानुल एहसान नफीस के पास से एक हजार पाउंड [करीब 454 किलोग्राम] विस्फोटक बरामद हुआ, जिसे बाद में निष्क्रिय कर दिया गया। नफीस को सामूहिक विनाश के हथियारों के इस्तेमाल की कोशिश और अलकायदा से संपर्क रखने के आरोपों का सामना करने के लिए ब्रूकलीन की संघीय अदालत में पेश किया गया। अदालत ने उसे बिना जमानत कैद में रखने का आदेश दिया है।
दैनिक जागरण -
बीजिंग। चीन ने भारत को बीजिंग के साथ सैन्य होड़ करने के बजाय आर्थिक संबंध बढ़ाने पर ध्यान देने की नसीहत दी है। भारत-चीन युद्ध की 50वीं सालगिरह के पहले चीनी मीडिया ने कहा है कि भारत को चीन की बढ़ती सैन्य ताकत को नहीं बल्कि उसकी अर्थव्यवस्था को देखना चाहिए। भारतीय मीडिया में इन दिनों प्रकाशित हो रहे लेखों पर ग्लोबल टाइम्स ने लिखा है कि भारत में कुछ लोग हमारी बढ़ती सैन्य ताकत से चिंतित हैं। उन्हें लगता है कि चीन फिर से हमले जैसी कोई कार्रवाई कर सकता है। लेख में चीनी सेना की ताकत की तारीफ की गई है।
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जम्मू : संघषर्विराम का एक बार फिर उल्लंघन करते हुए पाकिस्तानी सैनिकों ने जम्मू कश्मीर के पुंछ सेक्टर में सीमा पर स्थित भारतीय चौकियों की ओर गोलीबारी की । सेना के अधिकारियों ने आज बताया कि पाकिस्तानी सैनिकों ने बीती रात नियंत्रण रेखा पर पुंछ क्षेत्र में गोत्रियां और मनकोट स्थित अग्रिम सीमा चौकियों पर छोटे हथियारों से गोलीबारी की । उन्होंने कहा कि पहले गोत्रियां स्थित अग्रिम चौकियों पर कल शाम सीमा पार से गोलीबारी की गई और फिर देर रात मनकोट,मेंढर क्षेत्र में गोलीबारी हुई । सीमा पर तैनात भारतीय सैनिकों ने तुरंत मोर्चा संभाल लिया और जवाबी गोलीबारी ...
BBC Hindi - भारत - 1962 का युद्ध: विश्वासघात या कायरता
BBC Hindi - भारत - 1962 का युद्ध: विश्वासघात या कायरता
कोई भी व्यक्ति, जो मेरी तरह हिमालय की ऊँचाइयों में चीन के साथ अल्पकालिक लेकिन कटु सीमा युद्ध का साक्षी है, वो आधी सदी के बाद भी सदमा भूला नहीं है. इस युद्ध में भारत की सैन्य पराजय हुई थी और वो राजनीतिक विफलता भी थी.
इस युद्ध के इतिहास को इतनी बारीकी से लिखा गया है कि उस ज़मीन पर दोबारा चलने की आवश्यकता नहीं, जिस पर इतनी अच्छी तरह से काम हुआ है.
ये कहना पर्याप्त होगा जैसा जवाहर लाल नेहरू के आधिकारिक आत्मकथा लिखने वाले एस गोपाल ने लिखा था- चीज़ें इतनी बुरी तरह ग़लत हुईं कि अगर ऐसा वाक़ई में नहीं होता, तो उन पर यक़ीन करना मुश्किल होता.
लेकिन ये ग़लत चीज़ें इतनी हुईं कि भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति एस राधाकृष्णन ने अपनी सरकार पर गंभीर आरोप तक लगा दिए. उन्होंने चीन पर आसानी से विश्वास करने और वास्तविकताओं की अनदेखी के लिए सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया.
ग़लती
"बीएम कौल पहले दर्जे के सैनिक नौकरशाह थे. साथ ही वे गजब के जोश के कारण भी जाने जाते थे, जो उनकी महत्वाकांक्षा के कारण और बढ़ गया था. लेकिन उन्हें युद्ध का कोई अनुभव नहीं था."
जवाहर लाल नेहरू ने भी ख़ुद संसद में खेदपूर्वक कहा था, "हम आधुनिक दुनिया की सच्चाई से दूर हो गए थे और हम एक बनावटी माहौल में रह रहे थे, जिसे हमने ही तैयार किया था."
इस तरह उन्होंने इस बात को लगभग स्वीकार कर लिया था कि उन्होंने ये भरोसा करने में बड़ी ग़लती की कि चीन सीमा पर झड़पों, गश्ती दल के स्तर पर मुठभेड़ और तू-तू मैं-मैं से ज़्यादा कुछ नहीं करेगा.
हालाँकि चीन के साथ लगातार चल रहा संघर्ष नवंबर 1959 के शुरू में हिंसक हो गया था, जब लद्दाख के कोंगकाला में पहली बार चीन ने ख़ून बहाया था.
इसके बाद ग़लतियाँ होती गईं. इसके लिए हमारे प्रतिष्ठित प्रधानमंत्री को ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए.
लेकिन उनके सलाहकार, अधिकारी और सेना भी बराबर के दोषी हैं, क्योंकि इनमें से किसी ने भी नेहरू से ये कहने की हिम्मत नहीं दिखाई कि वे ग़लत थे.
उनका बहाना वही पुराना था यानी नेहरू सबसे बेहतर जानते थे. चीन के एकतरफ़ा युद्धविराम के बाद सेना प्रमुख बने जनरल जेएन 'मुच्छू' चौधरी का विचार था- हमने ये सोचा थे कि हम चीनी शतरंज खेल रहे हैं, लेकिन वो रूसी रोले निकला.
ज़िम्मेदार लोग
जिन लोगों को ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए, उनकी सूची काफ़ी लंबी है. लेकिन शीर्ष पर जो दो नाम होने चाहिए, उनमें पहले हैं कृष्ण मेनन, जो 1957 से ही रक्षा मंत्री थे.
दूसरा नाम लेफ़्टिनेंट जनरल बीएम कौल का है, जिन पर कृष्ण मेनन की छत्रछाया थी. लेफ़्टिनेंट जनरल बीएम कौल को पूर्वोत्तर के पूरे युद्धक्षेत्र का कमांडर बनाया गया था. उस समय वो पूर्वोत्तर फ्रंटियर कहलाता था और अब इसे अरुणाचल प्रदेश कहा जाता है.
बीएम कौल पहले दर्जे के सैनिक नौकरशाह थे. साथ ही वे गजब के जोश के कारण भी जाने जाते थे, जो उनकी महत्वाकांक्षा के कारण और बढ़ गया था. लेकिन उन्हें युद्ध का कोई अनुभव नहीं था.
ऐसी ग़लत नियुक्ति कृष्ण मेनन के कारण संभव हो पाई. प्रधानमंत्री की अंध श्रद्धा के कारण वे जो भी चाहते थे, वो करने के लिए स्वतंत्र थे.
एक प्रतिभाशाली और चिड़चिड़े व्यक्ति के रूप में उन्हें सेना प्रमुखों को उनके जूनियरों के सामने अपमान करते मज़ा आता था. वे सैनिक नियुक्तियों और प्रोमोशंस में अपने चहेतों पर काफ़ी मेहरबान रहते थे.
निश्चित रूप से इन्हीं वजहों से एक अड़ियल मंत्री और चर्चित सेना प्रमुख जनरल केएस थिमैया के बीच बड़ी बकझक हुई. मामले ने इतना तूल पकड़ा कि उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया, लेकिन उन्हें अपना इस्तीफ़ा वापस लेने के लिए मना लिया गया.
लेकिन उसके बाद सेना वास्तविक रूप में मेनन की अर्दली बन गई. उन्होंने कौल को युद्ध कमांडर बनाने की अपनी नादानी को अपनी असाधारण सनक से और जटिल बना दिया.
हिमालय की ऊँचाइयों पर कौल गंभीर रूप से बीमार पड़ गए और उन्हें दिल्ली लाया गया. मेनन ने आदेश दिया कि वे अपनी कमान बरकरार रखेंगे और दिल्ली के मोतीलाल नेहरू मार्ग के अपने घर से वे युद्ध का संचालन करेंगे.
टकराव से डर
"19 नवंबर को दिल्ली आए अमरीकी सीनेटरों के एक प्रतिनिधिमंडल ने राष्ट्रपति से मुलाकात की. इनमें से एक ने ये पूछा कि क्या जनरल कौल को बंदी बना लिया गया है. इस पर राष्ट्रपति राधाकृष्णन का जवाब था- दुर्भाग्य से ये सच नहीं है."
सेना प्रमुख जनरल पीएन थापर इसके पूरी तरह खिलाफ थे, लेकिन वे मेनन से टकराव का रास्ता मोल लेने से डरते थे. ये जानते हुए कि कौल स्पष्ट रूप से कई मामलों में ग़लत थे, जनरल थापर उनके फ़ैसले को बदलने के लिए भी तैयार नहीं रहते थे.
इन परिस्थितियों में आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि नेहरू के 19 नवंबर को राष्ट्रपति कैनेडी को लिखे उन भावनात्मक पत्रों से काफी पहले मेनन और कौल पूरे देश में नफरत के पात्र बन चुके थे.
इसका नतीजा स्पष्ट था. कांग्रेस पार्टी के ज़्यादातर लोगों और संसद ने अपना ज़्यादा समय और ऊर्जा आक्रमणकारियों को भगाने की बजाए मेनन को रक्षा मंत्रालय से हटाने में लगाया.
नेहरू पर काफ़ी दबाव पड़ा और उन्होंने मेनन को सात नवंबर को हटा दिया. कौल के मामले में राष्ट्रपति राधाकृष्णन ने जैसे सब कुछ कह दिया.
19 नवंबर को दिल्ली आए अमरीकी सीनेटरों के एक प्रतिनिधिमंडल ने राष्ट्रपति से मुलाकात की. इनमें से एक ने ये पूछा कि क्या जनरल कौल को बंदी बना लिया गया है. इस पर राष्ट्रपति राधाकृष्णन का जवाब था- दुर्भाग्य से ये सच नहीं है.
राष्ट्रीय सुरक्षा पर फ़ैसला लेना इतना अव्यवस्थित था कि मेनन और कौल के अलावा सिर्फ़ तीन लोग विदेश सचिव एमजे देसाई, ख़ुफ़िया ज़ार बीएन मलिक और रक्षा मंत्रालय के शक्तिशाली संयुक्त सचिव एचसी सरीन की नीति बनाने में चलती थी.
ख़ुफिया प्रमुख की नाकामी
"आख़िर में माओ ने भारत में वो हासिल कर लिया, जो वो चाहते थे. वो ख्रुश्चेव को कैरेबियन में कायरता और हिमालय में विश्वासघात के लिए ताना भी मार सकते थे."
इनमें से सभी मेनन के सहायक थे. मलिक की भूमिका बड़ी थी. मलिक नीतियाँ बनाने में अव्यवस्था फैलाते थे, जो एक खुफिया प्रमुख का काम नहीं था.
अगर मलिक अपने काम पर ध्यान देते और ये पता लगाते कि चीन वास्तव में क्या कर रहा है, तो हम उस शर्मनाक और अपमानजनक स्थिति से बच सकते थे.
लेकिन इसके लिए उन्हें चीन की रणनीतियों का पता लगाना होता. लेकिन भारत पूरी तरह संतुष्ट था कि चीन की ओर से कोई बड़ा हमला नहीं होगा.
लेकिन माओ, उनके शीर्ष सैनिक और राजनीतिक सलाहकार सतर्कतापूर्वक ये योजना बनाने में व्यस्त थे कि कैसे भारत के ख़िलाफ़ सावधानीपूर्वक प्रहार किया जाए, जो उन्होंने किया भी.
नेहरू ने ये सोचा था कि भारत-चीन संघर्ष के पीछे चीन-सोवियत फूट महत्वपूर्ण था और इससे चीन थोड़ा भयभीत रहेगा.
कायरता या विश्वासघात
लेकिन हम ये नहीं जानते थे कि क्यूबा के मिसाइल संकट की जानकारी का कुशलतापूर्वक इस्तेमाल करते हुए नेहरू को सबक सिखाने का माओ का संदेश निकिता ख्रुश्चेव के लिए भी था. और इसी कारण सोवियत नेता ने संयम बरता.
भारत को इस मिसाइल संकट के बारे में कोई जानकारी नहीं थी. 25 अक्तूबर को रूसी समाचार पत्र प्रावदा ने ये कह दिया कि चीन हमारा भाई है और भारतीय हमारे दोस्त हैं. इससे भारतीय कैंप में निराशा की लहर दौड़ गई.
प्रावदा ने ये भी सलाह दी कि भारत को व्यावहारिक रूप से चीन की शर्तों पर चीन से बात करनी चाहिए. ये अलग बात है कि क्यूबा संकट का समाधान क़रीब आते ही रूस अपनी पुरानी नीति पर आ गया.
लेकिन माओ ने आक्रमण का समय इस हिसाब से ही तय किया था. आख़िर में माओ ने भारत में वो हासिल कर लिया, जो वो चाहते थे. वो ख्रुश्चेव को कैरेबियन में कायरता और हिमालय में विश्वासघात के लिए ताना भी मार सकते थे.
BBC Hindi - भारत - 'नेहरू ने तैयार किया था विभाजन का खाका'
'नेहरू ने तैयार किया था विभाजन का खाका'
भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता जसवंत सिंह ने कहा है कि भारत और पाकिस्तान के अस्तित्व में आने के पीछे जिन्ना बेवजह बदनाम हुए और दरअसल यह जवाहरलाल नेहरू की वजह से हुआ.
उन्होंने यह विचार रखे हैं अपनी एक नई किताब.. 'जिन्ना- इंडिया, पार्टीशन, इंडिपेंडेंस' में.
हालांकि इस किताब का लोकार्पण किया जाना है सोमवार यानी 17 अगस्त को लेकिन सार्वजनिक होने से पहले ही किताब विवादों से घिर गई है और चर्चा का विषय बनती जा रही है.
किताब के बहाने मोहम्मद अली जिन्ना का ज़िक्र एक बार फिर भारतीय राजनीति के गलियारों में हलचल पैदा कर रहा है.
अपनी इस किताब में जसवंत सिंह ने विभाजन का ठीकरा भारत के पहले प्रधानमंत्री और स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेता जवाहरलाल नेहरू के सिर फोड़ा है.
उन्होंने कहा कि जिन्ना को इसके लिए बेवजह बदनाम किया जाता रहा.
बीबीसी से बातचीत में प्रकाशन समूह, रूपा एंड कंपनी की प्रकाशन संपादक, संजना ने बताया कि जसवंत सिंह की किताब में ऐसी कई बातें हैं जिन पर बहस छिड़ सकती है.
नेहरू बनाम जिन्ना
अपनी किताब में जसवंत सिंह ने लिखा है कि जिन्ना वर्ष 1945 तक हिंदू-मुस्लिम विवाद को विभाजन के चश्मे से नहीं बल्कि एक राष्ट्रीय समस्या के तौर पर देखते थे.
उन्होंने अपनी किताब में यह तक कहा है कि भारत और पाकिस्तान के विभाजन की रूपरेखा और ज़रूरी तैयारी भी जवाहरलाल नेहरू ने की थी.
किताब यह भी बताती है कि दरअसल जिन्ना हिंदू-मुस्लिम एकता के पैरोकार थे. उनकी जो छवि लोगों के सामने हैं, उनका व्यक्तित्व और कृतित्व उससे अलग था. उनके बारे में दुष्प्रचार भी किया गया और इसकी वजह से एक अलग छवि लोगों के दिमाग में बन गई है.
जसवंत सिंह बताते हैं कि इस किताब के पीछे उनकी पाँच साल से ज़्यादा की मेहनत है और इसके लिए उन्होंने देश और दुनिया के कई पुस्तकालयों, संदर्भ केंद्रों, जगहों पर जाकर साक्ष्य जुटाए हैं.
उन्होंने बताया कि दरअसल जिन्ना के राजनीतिक जीवन पर आधारित यह किताब उस दौर की राजनीति का दस्तावेज़ीकरण है.
BBC Hindi - भारत और पड़ोस - 'बलावरिस्तान खाली करे पाक'
'बलावरिस्तान खाली करे पाक'
पाकिस्तान प्रशासित बलावरिस्तान के एक निर्वासित नेता और बलावरिस्तान नेशनल फ्रंट के चेयरमैन अब्दुल हमीद खान ने भारत और अंतरराष्ट्रीय बिरादरी से गिलगित, बलिस्तां, चित्राल और शहेनाकी कोहिस्तान के लोगों को उनके लोकतांत्रिक अधिकार दिलाने में मदद की गुहार की है.
खान ने आरोप लगाया कि पाकिस्तान की फौज ने जबरन इस इलाक़े पर कब्ज़ा कर रखा है और इसमें कुछ हिस्सा भारत का भी है मगर पाकिस्तान चीन से हाथ मिला कर उस इलाक़े पर अपना अधिकार जमाए हुए है.
खान पिछले कई सालों से बेल्जियम में शरण लिए हुए है और अपने इलाक़े की आज़ादी के लिए अभियान चला रहे है.
हमारा आन्दोलन शांतिपूर्वक है.हम हिंसा नहीं चाहते हैं.हमारे लोग नागरिक अधिकारों से वंचित है.हमारा दमन किया जा रहा है.पाकिस्तान कश्मीर की बात तो करता है, मगर बलावरिस्तान के मामले में उसका रुख बिलकुल अलग है
अब्दुल हमीद खान
भारत में अपने दौरे के तहत जयपुर आए खान ने बीबीसी से कहा, ‘‘भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है. लिहाजा भारत को बलावरिस्तान के अवाम की सहायता करनी चाहिए.’’
उनका कहना है कि संयुक्त राष्ट्र प्रस्तावों के तहत पाकिस्तान को तुंरत अपनी फौज बलावरिस्तान से हटानी चाहिए.
खान कहते है कि इलाक़े की यूँ तो आबादी महज बीस लाख है और इसका क्षेत्रफल एक लाख वर्ग किलोमीटर है. साथ ही इस क्षेत्र में कुदरती संसाधन बहुत हैं और इसका सामरिक महत्व भी है.
खान को आपत्ति है कि की पाकिस्तान इस इलाके को नॉर्थन एरिया ऑफ पाकिस्तान कहता है जबकि पाकिस्तान का इस पर कोई क़ानूनी अधिकार नहीं है.
वो कहते हैं, ‘‘हमारा आंदोलन शांतिपूर्वक है. हम हिंसा नहीं चाहते हैं. हमारे लोग नागरिक अधिकारों से वंचित है. हमारा दमन किया जा रहा है. पाकिस्तान कश्मीर की बात तो करता है, मगर बलावरिस्तान के मामले में उसका रुख बिलकुल अलग है. हम चाहते हैं पाकिस्तान इस इलाक़े को खाली करे.’’
खान के मुताबिक पाकिस्तान ने गलत ढंग से चित्राल और शहेनाकी कोहिस्तान को अपने साथ मिला लिया जबकि गिलगित-बालतिस्तान अभी भारतीय हिस्से वाले जम्मू और कश्मीर का भाग है.
वो कहते है चीन और पाकिस्तान दोनों इस हिस्से में बड़े पैमाने पर निर्माण कार्य कर रहे है. पाकिस्तान इस इलाक़े में छह बड़े बाँध बना रहा है.
वो कहते हैं कि भारत पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर की बात तो करता है जबकि वो महज चार हजार वर्ग मील है. लेकिन इतने बड़े हिस्से पर उसका कोई ध्यान नहीं है.
BBC Hindi - भारत और पड़ोस - स्वात घाटी में चार साल बाद जश्ने आज़ादी
स्वात घाटी में चार साल बाद जश्ने आज़ादी
पाकिस्तान में स्वात घाटी में चार वर्ष के अंतराल के बाद पहली बार आधिकारिक तौर पर जश्ने आज़ादी के कार्यक्रम आयोजित किए गए.
स्वात घाटी के मुख्य शहर मिंगोरा में पाकिस्तान के झंडे लहराते दिखाए दिए. पाकिस्तानी सेना और सरकार ने चरमपंथियों के खिलाफ़ सैनिक अभियान की कामयाबी का प्रदर्शन के लिए इस मौक़े का भरपूर इस्तेमाल किया.
बीबीसी संवाददाता अब्दुल हई काकड़ ने बताया कि कार्यक्रम में शामिल हुए पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत के एक मंत्री मियाँ इफ़्तेख़ार ने चरमपंथियों के बारे में यहाँ तक कहा कि "जो लोग हमारे सिर की क़ीमत लगा रहे थे आज वे छिपते फिर रहे हैं."
स्वात घाटी से ऐसी ख़बरें भी मिल रही हैं कि सैनिकों ने लोगों से कहा कि वे अपने घरों पर पाकिस्तान का झंडा लगाएँ और कई लोगों ने बताया कि कई गाड़ियों पर ज़बरदस्ती पाकिस्तानी झंडे लगा दिए गए.
मिंगोरा में रहने वाली एक स्कूली लड़की ने बीबीसी से बातचीत में कहा, "हम आज बहुत ख़ुश हैं, तीन महीने तक घर से बाहर रहने के बाद और क़र्फ्यू की हालत में दिन-रात गुज़ारने के बाद हमें लग रहा है कि आज हमें सचमुच आज़ादी मिली है."
जो लोग हमारे सिर की क़ीमत लगा रहे थे आज वे छिपते फिर रहे हैं
मियाँ इफ़्तिख़ार
लेकिन बीबीसी से बातचीत में कई लोगों ने कहा कि उनके मन में कोई उत्साह नहीं है क्योंकि उन्हें "जश्न नहीं अमन चाहिए".
बलूचिस्तान से बीबीसी के संवाददाता अयूब तरीन ने बताया कि वहाँ सरकारी तौर पर जश्ने आज़ादी के कार्यक्रम तो हुए लेकिन बलोच जनता ने उसमें कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं दिखाई.
बलोच राष्ट्रवादियों ने स्वतंत्रता दिवस को काला दिवस मनाने की घोषणा की थी और उन्होंने सभी सरकारी कार्यक्रमों का बहिष्कार किया.
कश्मीर
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इस्लामाबाद में स्वतंत्रता दिवस के मौक़े पर अपने भाषण में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ़ रज़ा गिलानी ने कहा कि कश्मीर समस्या का समाधान उनके देश की विदेश नीति का मुख्य लक्ष्य है.उन्होंने कहा, "भारत और पाकिस्तान इस दिशा में जो प्रयास कर रहे हैं उससे उम्मीद है कि समस्या का कोई ठोस हल निकलेगा."
गिलानी ने भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पाकिस्तान के राष्ट्रपति ज़रदारी की बैठक का हवाला देते हुए कहा कि "मुझे हाल की बैठकों से बहुत उम्मीद जगी है."
इससे पहले पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ़ अली ज़रदारी ने संसद में घोषणा की कि लगभग 100 वर्ष पुराना फ्रंटियर क्राइम रेगुलेशन यानी एफ़सीआर क़ानून ख़त्म किया जा रहा है और अब क़बायली इलाक़ों में राजनीतिक गतिविधियों की अनुमति होगी.
क़बायली इलाक़ों में राजनीतिक दलों के काम करने पर कानूनी प्रतिबंध है, जिसकी वजह से राष्ट्रीय स्तर की पार्टियाँ इन इलाक़ों में अपनी पहुँच नहीं बना सकी थीं जबकि इस्लामी पार्टियाँ मस्जिदों के ज़रिए अपनी गतिविधियाँ चलाती रही हैं.
बीबीसी से लंबे समय तक जुड़े रहे वरिष्ठ विश्लेषक रहीमुल्लाह यूसुफ़ज़ई का कहना है कि इसका मक़सद कबायली इलाक़े में इस्लामी पार्टियों और चरपमपंथियों के बढ़ते असर को रोकना है.
राष्ट्रपति ज़रदारी ने संसद में घोषणा की है कि राजनीतिक पार्टियों को कबायली इलाक़ो में काम करने की अनुमति होगी लेकिन पूरा विवरण अभी तक सामने नहीं आया है.
स्वतंत्रता दिवस के मौक़े पर पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल अशफ़ाक़ परवेज़ कियानी ने कहा है कि देश इस समय एक बहुत ही अहम मोड़ से गुज़र रहा है और लोगों को यह समझना चाहिए कि चरमपंथियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई इस्लाम के ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं है बल्कि इस्लाम से भटके हुए लोगों के ख़िलाफ़ अभियान है.
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