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Saturday, October 13, 2012

गाँधी के बारे में काफ़ी कुछ

सोनिया गाँधी के बारे में काफ़ी कुछ (भाग-१)-(भाग-४) | Rebel for Love~Nation~Crime~Corruption~Injustice

सोनिया गाँधी के बारे में काफ़ी कुछ (भाग-१)-(भाग-४)

सोनिया गाँधी को आप कितना जानते हैं ? (भाग-१)

सोनिया गाँधी के बारे में काफ़ी कुछ पढने को मिला । पहले तो मैंने भी इस पर विश्वास नहीं किया और इसे मात्र बकवास सोच कर खारिज कर दिया, लेकिन एक-दो नहीं कई साईटों पर कई लेखकों ने सोनिया के बारे में काफ़ी कुछ लिखा है जो कि अभी तक प्रिंट मीडिया में नहीं आया है ।  (कम से कम मैं इतना तो ईमानदार हूँ ही, कि जहाँ से अनुवाद करूँ उसका उल्लेख, नाम उपलब्ध हो तो नाम और लिंक उपलब्ध हो तो लिंक देता हूँ) ।
पेश है “आप सोनिया गाँधी को कितना जानते हैं” की पहली कडी़, अंग्रेजी में इसके मूल लेखक हैं एस.गुरुमूर्ति और यह लेख दिनांक १७ अप्रैल २००४ को “द न्यू इंडियन एक्सप्रेस” में – अनमास्किंग सोनिया गाँधी- शीर्षक से प्रकाशित हुआ था ।
“अब भूमिका बाँधने की आवश्यकता नहीं है और समय भी नहीं है, हमें सीधे मुख्य मुद्दे पर आ जाना चाहिये । भारत की खुफ़िया एजेंसी “रॉ”, जिसका गठन सन १९६८ में हुआ, ने विभिन्न देशों की गुप्तचर एजेंसियों जैसे अमेरिका की सीआईए, रूस की केजीबी, इसराईल की मोस्साद और फ़्रांस तथा जर्मनी में अपने पेशेगत संपर्क बढाये और एक नेटवर्क खडा़ किया । इन खुफ़िया एजेंसियों के अपने-अपने सूत्र थे और वे आतंकवाद, घुसपैठ और चीन के खतरे के बारे में सूचनायें आदान-प्रदान करने में सक्षम थीं । लेकिन “रॉ” ने इटली की खुफ़िया एजेंसियों से इस प्रकार का कोई सहयोग या गठजोड़ नहीं किया था, क्योंकि “रॉ” के वरिष्ठ जासूसों का मानना था कि इटालियन खुफ़िया एजेंसियाँ भरोसे के काबिल नहीं हैं और उनकी सूचनायें देने की क्षमता पर भी उन्हें संदेह था ।
सक्रिय राजनीति में राजीव गाँधी का प्रवेश हुआ १९८० में संजय की मौत के बाद । “रॉ” की नियमित “ब्रीफ़िंग” में राजीव गाँधी भी भाग लेने लगे थे (“ब्रीफ़िंग” कहते हैं उस संक्षिप्त बैठक को जिसमें रॉ या सीबीआई या पुलिस या कोई और सरकारी संस्था प्रधानमन्त्री या गृहमंत्री को अपनी रिपोर्ट देती है), जबकि राजीव गाँधी सरकार में किसी पद पर नहीं थे, तब वे सिर्फ़ काँग्रेस महासचिव थे । राजीव गाँधी चाहते थे कि अरुण नेहरू और अरुण सिंह भी रॉ की इन बैठकों में शामिल हों । रॉ के कुछ वरिष्ठ अधिकारियों ने दबी जुबान में इस बात का विरोध किया था चूँकि राजीव गाँधी किसी अधिकृत पद पर नहीं थे, लेकिन इंदिरा गाँधी ने रॉ से उन्हें इसकी अनुमति देने को कह दिया था, फ़िर भी रॉ ने इंदिरा जी को स्पष्ट कर दिया था कि इन लोगों के नाम इस ब्रीफ़िंग के रिकॉर्ड में नहीं आएंगे । उन बैठकों के दौरान राजीव गाँधी सतत रॉ पर दबाव डालते रहते कि वे इटालियन खुफ़िया एजेंसियों से भी गठजोड़ करें, राजीव गाँधी ऐसा क्यों चाहते थे ? या क्या वे इतने अनुभवी थे कि उन्हें इटालियन एजेंसियों के महत्व का पता भी चल गया था ? ऐसा कुछ नहीं था, इसके पीछे एकमात्र कारण थी सोनिया गाँधी । राजीव गाँधी ने सोनिया से सन १९६८ में विवाह किया था, और हालांकि रॉ मानती थी कि इटली की एजेंसी से गठजोड़ सिवाय पैसे और समय की बर्बादी के अलावा कुछ नहीं है, राजीव लगातार दबाव बनाये रहे । अन्ततः दस वर्षों से भी अधिक समय के पश्चात रॉ ने इटली की खुफ़िया संस्था से गठजोड़ कर लिया । क्या आप जानते हैं कि रॉ और इटली के जासूसों की पहली आधिकारिक मीटिंग की व्यवस्था किसने की ? जी हाँ, सोनिया गाँधी ने । सीधी सी बात यह है कि वह इटली के जासूसों के निरन्तर सम्पर्क में थीं । एक मासूम गृहिणी, जो राजनैतिक और प्रशासनिक मामलों से अलिप्त हो और उसके इटालियन खुफ़िया एजेन्सियों के गहरे सम्बन्ध हों यह सोचने वाली बात है, वह भी तब जबकि उन्होंने भारत की नागरिकता नहीं ली थी (वह उन्होंने बहुत बाद में ली) । प्रधानमंत्री के घर में रहते हुए, जबकि राजीव खुद सरकार में नहीं थे । हो सकता है कि रॉ इसी कारण से इटली की खुफ़िया एजेंसी से गठजोड़ करने मे कतरा रहा हो, क्योंकि ऐसे किसी भी सहयोग के बाद उन जासूसों की पहुँच सिर्फ़ रॉ तक न रहकर प्रधानमंत्री कार्यालय तक हो सकती थी ।
जब पंजाब में आतंकवाद चरम पर था तब सुरक्षा अधिकारियों ने इंदिरा गाँधी को बुलेटप्रूफ़ कार में चलने की सलाह दी, इंदिरा गाँधी ने अम्बेसेडर कारों को बुलेटप्रूफ़ बनवाने के लिये कहा, उस वक्त भारत में बुलेटप्रूफ़ कारें नहीं बनती थीं इसलिये एक जर्मन कम्पनी को कारों को बुलेटप्रूफ़ बनाने का ठेका दिया गया । जानना चाहते हैं उस ठेके का बिचौलिया कौन था, वाल्टर विंसी, सोनिया गाँधी की बहन अनुष्का का पति ! रॉ को हमेशा यह शक था कि उसे इसमें कमीशन मिला था, लेकिन कमीशन से भी गंभीर बात यह थी कि इतना महत्वपूर्ण सुरक्षा सम्बन्धी कार्य उसके मार्फ़त दिया गया । इटली का प्रभाव सोनिया दिल्ली तक लाने में कामयाब रही थीं, जबकि इंदिरा गाँधी जीवित थीं । दो साल बाद १९८६ में ये वही वाल्टर विंसी महाशय थे जिन्हें एसपीजी को इटालियन सुरक्षा एजेंसियों द्वारा प्रशिक्षण दिये जाने का ठेका मिला, और आश्चर्य की बात यह कि इस सौदे के लिये उन्होंने नगद भुगतान की मांग की और वह सरकारी तौर पर किया भी गया । यह नगद भुगतान पहले एक रॉ अधिकारी के हाथों जिनेवा (स्विटजरलैण्ड) पहुँचाया गया लेकिन वाल्टर विंसी ने जिनेवा में पैसा लेने से मना कर दिया और रॉ के अधिकारी से कहा कि वह ये पैसा मिलान (इटली) में चाहता है, विंसी ने उस अधिकारी को कहा कि वह स्विस और इटली के कस्टम से उन्हें आराम से निकलवा देगा और यह “कैश” चेक नहीं किया जायेगा । रॉ के उस अधिकारी ने उसकी बात नहीं मानी और अंततः वह भुगतान इटली में भारतीय दूतावास के जरिये किया गया । इस नगद भुगतान के बारे में तत्कालीन कैबिनेट सचिव बी.जी.देशमुख ने अपनी हालिया किताब में उल्लेख किया है, हालांकि वह तथाकथित ट्रेनिंग घोर असफ़ल रही और सारा पैसा लगभग व्यर्थ चला गया । इटली के जो सुरक्षा अधिकारी भारतीय एसपीजी कमांडो को प्रशिक्षण देने आये थे उनका रवैया जवानों के प्रति बेहद रूखा था, एक जवान को तो उस दौरान थप्पड़ भी मारा गया । रॉ अधिकारियों ने यह बात राजीव गाँधी को बताई और कहा कि इस व्यवहार से सुरक्षा बलों के मनोबल पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है और उनकी खुद की सुरक्षा व्यवस्था भी ऐसे में खतरे में पड़ सकती है, घबराये हुए राजीव ने तत्काल वह ट्रेनिंग रुकवा दी,लेकिन वह ट्रेनिंग का ठेका लेने वाले विंसी को तब तक भुगतान किया जा चुका था ।
राजीव गाँधी की हत्या के बाद तो सोनिया गाँधी पूरी तरह से इटालियन और पश्चिमी सुरक्षा अधिकारियों पर भरोसा करने लगीं, खासकर उस वक्त जब राहुल और प्रियंका यूरोप घूमने जाते थे । सन १९८५ में जब राजीव सपरिवार फ़्रांस गये थे तब रॉ का एक अधिकारी जो फ़्रेंच बोलना जानता था, उनके साथ भेजा गया था, ताकि फ़्रेंच सुरक्षा अधिकारियों से तालमेल बनाया जा सके । लियोन (फ़्रांस) में उस वक्त एसपीजी अधिकारियों में हड़कम्प मच गया जब पता चला कि राहुल और प्रियंका गुम हो गये हैं । भारतीय सुरक्षा अधिकारियों को विंसी ने बताया कि चिंता की कोई बात नहीं है, दोनों बच्चे जोस वाल्डेमारो के साथ हैं जो कि सोनिया की एक और बहन नादिया के पति हैं । विंसी ने उन्हें यह भी कहा कि वे वाल्डेमारो के साथ स्पेन चले जायेंगे जहाँ स्पेनिश अधिकारी उनकी सुरक्षा संभाल लेंगे । भारतीय सुरक्षा अधिकारी यह जानकर अचंभित रह गये कि न केवल स्पेनिश बल्कि इटालियन सुरक्षा अधिकारी उनके स्पेन जाने के कार्यक्रम के बारे में जानते थे । जाहिर है कि एक तो सोनिया गाँधी तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के अहसानों के तले दबना नहीं चाहती थीं, और वे भारतीय सुरक्षा एजेंसियों पर विश्वास नहीं करती थीं । इसका एक और सबूत इससे भी मिलता है कि एक बार सन १९८६ में जिनेवा स्थित रॉ के अधिकारी को वहाँ के पुलिस कमिश्नर जैक कुन्जी़ ने बताया कि जिनेवा से दो वीआईपी बच्चे इटली सुरक्षित पहुँच चुके हैं, खिसियाये हुए रॉ अधिकारी को तो इस बारे में कुछ मालूम ही नहीं था । जिनेवा का पुलिस कमिश्नर उस रॉ अधिकारी का मित्र था, लेकिन यह अलग से बताने की जरूरत नहीं थी कि वे वीआईपी बच्चे कौन थे । वे कार से वाल्टर विंसी के साथ जिनेवा आये थे और स्विस पुलिस तथा इटालियन अधिकारी निरन्तर सम्पर्क में थे जबकि रॉ अधिकारी को सिरे से कोई सूचना ही नहीं थी, है ना हास्यास्पद लेकिन चिंताजनक… उस स्विस पुलिस कमिश्नर ने ताना मारते हुए कहा कि “तुम्हारे प्रधानमंत्री की पत्नी तुम पर विश्वास नहीं करती और उनके बच्चों की सुरक्षा के लिये इटालियन एजेंसी से सहयोग करती है” । बुरी तरह से अपमानित रॉ के अधिकारी ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों से इसकी शिकायत की, लेकिन कुछ नहीं हुआ । अंतरराष्ट्रीय खुफ़िया एजेंसियों के गुट में तेजी से यह बात फ़ैल गई थी कि सोनिया गाँधी भारतीय अधिकारियों, भारतीय सुरक्षा और भारतीय दूतावासों पर बिलकुल भरोसा नहीं करती हैं, और यह निश्चित ही भारत की छवि खराब करने वाली बात थी । राजीव की हत्या के बाद तो उनके विदेश प्रवास के बारे में विदेशी सुरक्षा एजेंसियाँ, एसपीजी से अधिक सूचनायें पा जाती थी और भारतीय पुलिस और रॉ उनका मुँह देखते रहते थे । (ओट्टावियो क्वात्रोची के बार-बार मक्खन की तरह हाथ से फ़िसल जाने का कारण समझ में आया ?) उनके निजी सचिव विंसेंट जॉर्ज सीधे पश्चिमी सुरक्षा अधिकारियों के सम्पर्क में रहते थे, रॉ अधिकारियों ने इसकी शिकायत नरसिम्हा राव से की थी, लेकिन जैसी की उनकी आदत (?) थी वे मौन साध कर बैठ गये ।
संक्षेप में तात्पर्य यह कि, जब एक गृहिणी होते हुए भी वे गंभीर सुरक्षा मामलों में अपने परिवार वालों को ठेका दिलवा सकती हैं, राजीव गाँधी और इंदिरा गाँधी के जीवित रहते रॉ को इटालियन जासूसों से सहयोग करने को कह सकती हैं, सत्ता में ना रहते हुए भी भारतीय सुरक्षा अधिकारियों पर अविश्वास दिखा सकती हैं, तो अब जबकि सारी सत्ता और ताकत उनके हाथों मे है, वे क्या-क्या कर सकती हैं, बल्कि क्या नहीं कर सकती । हालांकि “मैं भारत की बहू हूँ” और “मेरे खून की अंतिम बूँद भी भारत के काम आयेगी” आदि वे यदा-कदा बोलती रहती हैं, लेकिन यह असली सोनिया नहीं है । समूचा पश्चिमी जगत, जो कि जरूरी नहीं कि भारत का मित्र ही हो, उनके बारे में सब कुछ जानता है, लेकिन हम भारतीय लोग सोनिया के बारे में कितना जानते हैं ? (भारत भूमि पर जन्म लेने वाला व्यक्ति चाहे कितने ही वर्ष विदेश में रह ले, स्थाई तौर पर बस जाये लेकिन उसका दिल हमेशा भारत के लिये धड़कता है, और इटली में जन्म लेने वाले व्यक्ति का….)
(यदि आपको यह अनुवाद पसन्द आया हो तो कृपया अपने मित्रों को भी इस पोस्ट की लिंक प्रेषित करें, ताकि जनता को जागरूक बनाने का यह प्रयास जारी रहे)… समय मिलते ही इसकी अगली कडी़ शीघ्र ही पेश की जायेगी…. आमीन
नोट : सिर्फ़ कोष्ठक में लिखे दो-चार वाक्य मेरे हैं, बाकी का लेख अनुवाद मात्र है ।
सोनिया गाँधी के बारे में काफ़ी कुछ (भाग-२)-(भाग-४) | Rebel for Love~Nation~Crime~Corruption~Injustice

सोनिया गाँधी के बारे में काफ़ी कुछ (भाग-२)-(भाग-४)



सोनिया गाँधी को आप कितना जानते हैं? (भाग-२)

सोनिया गाँधी भारत की प्रधानमंत्री बनने के योग्य हैं या नहीं, इस प्रश्न का “धर्मनिरपेक्षता”, या “हिन्दू राष्ट्रवाद” या “भारत की बहुलवादी संस्कृति” से कोई लेना-देना नहीं है। इसका पूरी तरह से नाता इस बात से है कि उनका जन्म इटली में हुआ, लेकिन यही एक बात नहीं है, सबसे पहली बात तो यह कि देश के सबसे महत्वपूर्ण पद पर आसीन कराने के लिये कैसे उन पर भरोसा किया जाये। सन १९९८ में एक रैली में उन्होंने कहा था कि “अपनी आखिरी साँस तक मैं भारतीय हूँ”, बहुत ही उच्च विचार है, लेकिन तथ्यों के आधार पर यह बेहद खोखला ठहरता है। अब चूँकि वे देश के एक खास परिवार से हैं और प्रधानमंत्री पद के लिये बेहद आतुर हैं (जी हाँ) तब वे एक सामाजिक व्यक्तित्व बन जाती हैं और उनके बारे में जानने का हक सभी को है (१४ मई २००४ तक वे प्रधानमंत्री बनने के लिये जी-तोड़ कोशिश करती रहीं, यहाँ तक कि एक बार तो पूर्ण समर्थन ना होने के बावजूद वे दावा पेश करने चल पडी़ थीं, लेकिन १४ मई २००४ को राष्ट्रपति कलाम साहब द्वारा कुछ “असुविधाजनक” प्रश्न पूछ लिये जाने के बाद यकायक १७ मई आते-आते उनमे वैराग्य भावना जागृत हो गई और वे खामख्वाह “त्याग” और “बलिदान” (?) की प्रतिमूर्ति बना दी गईं - कलाम साहब को दूसरा कार्यकाल न मिलने के पीछे यह एक बडी़ वजह है, ठीक वैसे ही जैसे सोनिया ने प्रणब मुखर्जी को राष्ट्रपति इसलिये नहीं बनवाया, क्योंकि इंदिरा गाँधी की मृत्यु के बाद राजीव के प्रधानमंत्री बनने का उन्होंने विरोध किया था… और अब एक तरफ़ कठपुतली प्रधानमंत्री और जी-हुजूर राष्ट्रपति दूसरी तरफ़ होने के बाद अगले चुनावों के पश्चात सोनिया को प्रधानमंत्री बनने से कौन रोक सकता है?)बहरहाल… सोनिया गाँधी उर्फ़ माइनो भले ही आखिरी साँस तक भारतीय होने का दावा करती रहें, भारत की भोली-भाली (?) जनता को इन्दिरा स्टाइल में,सिर पर पल्ला ओढ़ कर “नामास्खार” आदि दो चार हिन्दी शब्द बोल लें, लेकिन यह सच्चाई है कि सन १९८४ तक उन्होंने इटली की नागरिकता और पासपोर्ट नहीं छोडा़ था (शायद कभी जरूरत पड़ जाये) । राजीव और सोनिया का विवाह हुआ था सन १९६८ में,भारत के नागरिकता कानूनों के मुताबिक (जो कानून भाजपा या कम्युनिस्टों ने नहीं बल्कि कांग्रेसियों ने ही सन १९५० में बनाये) सोनिया को पाँच वर्ष के भीतर भारत की नागरिकता ग्रहण कर लेना चाहिये था अर्थात सन १९७४ तक, लेकिन यह काम उन्होंने किया दस साल बाद…यह कोई नजरअंदाज कर दिये जाने वाली बात नहीं है। इन पन्द्रह वर्षों में दो मौके ऐसे आये जब सोनिया अपने आप को भारतीय(!)साबित कर सकती थीं। पहला मौका आया था सन १९७१ में जब पाकिस्तान से युद्ध हुआ (बांग्लादेश को तभी मुक्त करवाया गया था), उस वक्त आपातकालीन आदेशों के तहत इंडियन एयरलाइंस के सभी पायलटों की छुट्टियाँ रद्द कर दी गईं थीं, ताकि आवश्यकता पड़ने पर सेना को किसी भी तरह की रसद आदि पहुँचाई जा सके । सिर्फ़ एक पायलट को इससे छूट दी गई थी, जी हाँ राजीव गाँधी, जो उस वक्त भी एक पूर्णकालिक पायलट थे । जब सारे भारतीय पायलट अपनी मातृभूमि की सेवा में लगे थे तब सोनिया अपने पति और दोनों बच्चों के साथ इटली की सुरम्य वादियों में थीं, वे वहाँ से तभी लौटीं, जब जनरल नियाजी ने समर्पण के कागजों पर दस्तखत कर दिये। दूसरा मौका आया सन १९७७ में जब यह खबर आई कि इंदिरा गाँधी चुनाव हार गईं हैं और शायद जनता पार्टी सरकार उनको गिरफ़्तार करे और उन्हें परेशान करे। “माईनो” मैडम ने तत्काल अपना सामान बाँधा और अपने दोनों बच्चों सहित दिल्ली के चाणक्यपुरी स्थित इटालियन दूतावास में जा छिपीं। इंदिरा गाँधी, संजय गाँधी और एक और बहू मेनका के संयुक्त प्रयासों और मान-मनौव्वल के बाद वे घर वापस लौटीं। १९८४ में भी भारतीय नागरिकता ग्रहण करना उनकी मजबूरी इसलिये थी कि राजीव गाँधी के लिये यह बडी़ शर्म और असुविधा की स्थिति होती कि एक भारतीय प्रधानमंत्री की पत्नी इटली की नागरिक है ? भारत की नागरिकता लेने की दिनांक भारतीय जनता से बडी़ ही सफ़ाई से छिपाई गई। भारत का कानून अमेरिका, जर्मनी, फ़िनलैंड, थाईलैंड या सिंगापुर आदि देशों जैसा नहीं है जिसमें वहाँ पैदा हुआ व्यक्ति ही उच्च पदों पर बैठ सकता है। भारत के संविधान में यह प्रावधान इसलिये नहीं है कि इसे बनाने वाले “धर्मनिरपेक्ष नेताओं” ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि आजादी के साठ वर्ष के भीतर ही कोई विदेशी मूल का व्यक्ति प्रधानमंत्री पद का दावेदार बन जायेगा। लेकिन कलाम साहब ने आसानी से धोखा नहीं खाया और उनसे सवाल कर लिये (प्रतिभा ताई कितने सवाल कर पाती हैं यह देखना बाकी है)। संविधान के मुताबिक सोनिया प्रधानमंत्री पद की दावेदार बन सकती हैं, जैसे कि मैं या कोई और। लेकिन भारत के नागरिकता कानून के मुताबिक व्यक्ति तीन तरीकों से भारत का नागरिक हो सकता है, पहला जन्म से, दूसरा रजिस्ट्रेशन से, और तीसरा प्राकृतिक कारणों (भारतीय से विवाह के बाद पाँच वर्ष तक लगातार भारत में रहने पर) । इस प्रकार मैं और सोनिया गाँधी,दोनों भारतीय नागरिक हैं, लेकिन मैं जन्म से भारत का नागरिक हूँ और मुझसे यह कोई नहीं छीन सकता, जबकि सोनिया के मामले में उनका रजिस्ट्रेशन रद्द किया जा सकता है। वे भले ही लाख दावा करें कि वे भारतीय बहू हैं, लेकिन उनका नागरिकता रजिस्ट्रेशन भारत के नागरिकता कानून की धारा १० के तहत तीन उपधाराओं के कारण रद्द किया जा सकता है (अ) उन्होंने नागरिकता का रजिस्ट्रेशन धोखाधडी़ या कोई तथ्य छुपाकर हासिल किया हो, (ब) वह नागरिक भारत के संविधान के प्रति बेईमान हो, या (स) रजिस्टर्ड नागरिक युद्धकाल के दौरान दुश्मन देश के साथ किसी भी प्रकार के सम्पर्क में रहा हो । (इन मुद्दों पर डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी काफ़ी काम कर चुके हैं और अपनी पुस्तक में उन्होंने इसका उल्लेख भी किया है, जो आप पायेंगे इन अनुवादों के “तीसरे भाग” में)। राष्ट्रपति कलाम साहब के दिमाग में एक और बात निश्चित ही चल रही होगी, वह यह कि इटली के कानूनों के मुताबिक वहाँ का कोई भी नागरिक दोहरी नागरिकता रख सकता है, भारत के कानून में ऐसा नहीं है, और अब तक यह बात सार्वजनिक नहीं हुई है कि सोनिया ने अपना इटली वाला पासपोर्ट और नागरिकता कब छोडी़ ? ऐसे में वह भारत की प्रधानमंत्री बनने के साथ-साथ इटली की भी प्रधानमंत्री बनने की दावेदार हो सकती हैं। अन्त में एक और मुद्दा, अमेरिका के संविधान के अनुसार सर्वोच्च पद पर आसीन होने वाले व्यक्ति को अंग्रेजी आना चाहिये, अमेरिका के प्रति वफ़ादार हो तथा अमेरिकी संविधान और शासन व्यवस्था का जानकार हो। भारत का संविधान भी लगभग मिलता-जुलता ही है, लेकिन सोनिया किसी भी भारतीय भाषा में निपुण नहीं हैं (अंग्रेजी में भी), उनकी भारत के प्रति वफ़ादारी भी मात्र बाईस-तेईस साल पुरानी ही है, और उन्हें भारतीय संविधान और इतिहास की कितनी जानकारी है यह तो सभी जानते हैं। जब कोई नया प्रधानमंत्री बनता है तो भारत सरकार का पत्र सूचना ब्यूरो (पीआईबी) उनका बायो-डाटा और अन्य जानकारियाँ एक पैम्फ़लेट में जारी करता है। आज तक उस पैम्फ़लेट को किसी ने भी ध्यान से नहीं पढा़, क्योंकि जो भी प्रधानमंत्री बना उसके बारे में जनता, प्रेस और यहाँ तक कि छुटभैये नेता तक नख-शिख जानते हैं। यदि (भगवान न करे) सोनिया प्रधानमंत्री पद पर आसीन हुईं तो पीआईबी के उस विस्तृत पैम्फ़लेट को पढ़ना बेहद दिलचस्प होगा। आखिर भारतीयों को यह जानना ही होगा कि सोनिया का जन्म दरअसल कहाँ हुआ? उनके माता-पिता का नाम क्या है और उनका इतिहास क्या है? वे किस स्कूल में पढीं? किस भाषा में वे अपने को सहज पाती हैं? उनका मनपसन्द खाना कौन सा है? हिन्दी फ़िल्मों का कौन सा गायक उन्हें अच्छा लगता है? किस भारतीय कवि की कवितायें उन्हें लुभाती हैं? क्या भारत के प्रधानमंत्री के बारे में इतना भी नहीं जानना चाहिये!
(प्रस्तुत लेख सुश्री कंचन गुप्ता द्वारा दिनांक २३ अप्रैल १९९९ को रेडिफ़.कॉम पर लिखा गया है, बेहद मामूली फ़ेरबदल और कुछ भाषाई जरूरतों के मुताबिक इसे मैंने संकलित, संपादित और अनुवादित किया है। डॉ.सुब्रह्मण्यम स्वामी द्वारा लिखे गये कुछ लेखों का संकलन पूर्ण होते ही अनुवादों की इस कडी़ का तीसरा भाग पेश किया जायेगा।) मित्रों जनजागरण का यह महाअभियान जारी रहे, अंग्रेजी में लिखा हुआ अधिकतर आम लोगों ने नहीं पढा़ होगा इसलिये सभी का यह कर्तव्य बनता है कि महाजाल पर स्थित यह सामग्री हिन्दी पाठकों को भी सुलभ हो, इसलिये इस लेख की लिंक को अपने इष्टमित्रों तक अवश्य पहुँचायें, क्योंकि हो सकता है कि कल को हम एक विदेशी द्वारा शासित होने को अभिशप्त हो जायें !
सोनिया गाँधी के बारे में काफ़ी कुछ (भाग-४)-(भाग-४) | Rebel for Love~Nation~Crime~Corruption~Injustice

सोनिया गाँधी के बारे में काफ़ी कुछ (भाग-४)-(भाग-४)

सोनिया गाँधी को आप कितना जानते हैं? (भाग-४)

Know Sonia Gandhi (Part-4)
गतांक (सोनिया…भाग-३) से आगे जारी…
राजीव से विवाह के बाद सोनिया और उनके इटालियन मित्रों को स्नैम प्रोगैती की ओट्टावियो क्वात्रोची से भारी-भरकम राशियाँ मिलीं, वह भारतीय कानूनों से बेखौफ़ होकर दलाली में रुपये कूटने लगा। कुछ ही वर्षों में माइनो परिवार जो गरीबी के भंवर में फ़ँसा था अचानक करोड़पति हो गया । लोकसभा के नयेनवेले सदस्य के रूप में मैंने 19 नवम्बर 1974 को संसद में ही तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी से पूछा था कि “क्या आपकी बहू सोनिया गाँधी, जो कि अपने-आप को एक इंश्योरेंस एजेंट बताती हैं (वे खुद को ओरियंटल फ़ायर एंड इंश्योरेंस कम्पनी की एजेंट बताती थीं), प्रधानमंत्री आवास का पता उपयोग कर रही हैं?” जबकि यह अपराध है क्योंकि वे एक इटालियन नागरिक हैं (और यह विदेशी मुद्रा उल्लंघन) का मामला भी बनता है”, तब संसद में बहुत शोरगुल मचा, श्रीमती इन्दिरा गाँधी गुस्सा तो बहुत हुईं, लेकिन उनके सामने और कोई विकल्प नहीं था, इसलिये उन्होंने लिखित में यह बयान दिया कि “यह गलती से हो गया था और सोनिया ने इंश्योरेंस कम्पनी से इस्तीफ़ा दे दिया है” (मेरे प्रश्न पूछने के बाद), लेकिन सोनिया का भारतीय कानूनों को लतियाने और तोड़ने का यह सिलसिला यहीं खत्म नहीं हुआ। 1977 में जनता पार्टी सरकार द्वारा उच्चतम न्यायालय के जस्टिस ए.सी.गुप्ता के नेतृत्व में गठित आयोग ने जो रिपोर्ट सौंपी थी, उसके अनुसार “मारुति” कम्पनी (जो उस वक्त गाँधी परिवार की मिल्कियत था) ने “फ़ेरा कानूनों, कम्पनी कानूनों और विदेशी पंजीकरण कानून के कई गंभीर उल्लंघन किये”, लेकिन ना तो संजय गाँधी और ना ही सोनिया गाँधी के खिलाफ़ कभी भी कोई केस दर्ज हुआ, ना मुकदमा चला। हालांकि यह अभी भी किया जा सकता है, क्योंकि भारतीय कानूनों के मुताबिक “आर्थिक घपलों” पर कार्रवाई हेतु कोई समय-सीमा तय नहीं है।
जनवरी 1980 में श्रीमती इन्दिरा गाँधी पुनः सत्तासीन हुईं। सोनिया ने सबसे पहला काम यह किया कि उन्होंने अपना नाम “वोटर लिस्ट” में दर्ज करवाया, यह साफ़-साफ़ कानून का मखौल उड़ाने जैसा था और उनका वीसा रद्द किया जाना चाहिये था (क्योंकि उस वक्त भी वे इटली की नागरिक थीं)। प्रेस द्वारा हल्ला मचाने के बाद दिल्ली के चुनाव अधिकारी ने 1982 में उनका नाम मतदाता सूची से हटाया। लेकिन फ़िर जनवरी 1983 में उन्होंने अपना नाम मतदाता सूची में जुड़वा लिया, जबकि उस समय भी वे विदेशी ही थीं (आधिकारिक रूप से उन्होंने भारतीय नागरिकता के लिये अप्रैल 1983 में आवेद दिया था)। हाल ही में ख्यात कानूनविद, ए.जी.नूरानी ने अपनी पुस्तक “सिटीजन्स राईट्स, जजेस एंड अकाऊण्टेबिलिटी रेकॉर्ड्स” (पृष्ठ 318) पर यह दर्ज किया है कि “सोनिया गाँधी ने जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल के कुछ खास कागजात एक विदेशी को दिखाये, जो कागजात उनके पास नहीं होने चाहिये थे और उन्हें अपने पास रखने का सोनिया को कोई अधिकार नहीं था।“ इससे साफ़ जाहिर होता है उनके मन में भारतीय कानूनों के प्रति कितना सम्मान है और वे अभी भी राजतंत्र की मानसिकता से ग्रस्त हैं। सार यह कि सोनिया गाँधी के मन में भारतीय कानून के सम्बन्ध में कोई इज्जत नहीं है, वे एक महारानी की तरह व्यवहार करती हैं। यदि भविष्य में उनके खिलाफ़ कोई मुकदमा चलता है और जेल जाने की नौबत आ जाती है तो वे इटली भी भाग सकती हैं। पेरू के राष्ट्रपति फ़ूजीमोरी जीवन भर यह जपते रहे कि वे जन्म से ही पेरूवासी हैं, लेकिन जब भ्रष्टाचार के मुकदमे में उन्हें दोषी पाया गया तो वे अपने गृह देश जापान भाग गये और वहाँ की नागरिकता ले ली।
भारत से घृणा करने वाले मुहम्मद गोरी, नादिर शाह और अंग्रेज रॉबर्ट क्लाइव ने भारत की धन-सम्पदा को जमकर लूटा, लेकिन सोनिया तो “भारतीय” हैं, फ़िर जब राजीव और इन्दिरा प्रधानमंत्री थे, तब बक्से के बक्से भरकर रोज-ब-रोज प्रधानमंत्री निवास से सुरक्षा गार्ड चेन्नई के हवाई अड्डे पर इटली जाने वाले हवाई जहाजों में क्या ले जाते थे? एक तो हमेशा उन बक्सों को रोम के लिये बुक किया जाता था, एयर इंडिया और अलिटालिया एयरलाईन्स को ही जिम्मा सौंपा जाता था और दूसरी बात यह कि कस्टम्स पर उन बक्सों की कोई जाँच नहीं होती थी। अर्जुन सिंह जो कि मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं और संस्कृति मंत्री भी, इस मामले में विशेष रुचि लेते थे। कुछ भारतीय कलाकृतियाँ, पुरातन वस्तुयें, पिछवाई पेंटिंग्स, शहतूश शॉलें, सिक्के आदि इटली की दो दुकानों, (जिनकी मालिक सोनिया की बहन अनुस्का हैं) में आम तौर पर देखी जाती हैं। ये दुकानें इटली के आलीशान इलाकों रिवोल्टा (दुकान का नाम – एटनिका) और ओर्बेस्सानो (दुकान का नाम – गनपति) में स्थित हैं जहाँ इनका धंधा नहीं के बराबर चलता है, लेकिन दरअसल यह एक “आड़” है, इन दुकानों के नाम पर फ़र्जी बिल तैयार करवाये जाते हैं फ़िर वे बेशकीमती वस्तुयें लन्दन ले जाकर “सौथरबी और क्रिस्टीज” द्वारा नीलामी में चढ़ा दी जाती हैं, इन सबका क्या मतलब निकलता है? यह पैसा आखिर जाता कहाँ है? एक बात तो तय है कि राहुल गाँधी की हार्वर्ड की एक वर्ष की फ़ीस और अन्य खर्चों के लिये भुगतान एक बार केमैन द्वीप की किसी बैंक के खाते से हुआ था। इस सबकी शिकायत जब मैंने वाजपेयी सरकार में की तो उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया, इस पर मैंने दिल्ली हाइकोर्ट में जनहित याचिका दाखिल की। हाईकोर्ट की बेंच ने सरकार को नोटिस जारी किया, लेकिन तब तक सरकार गिर गई, फ़िर कोर्ट नें सीबीआई को निर्देश दिये कि वह इंटरपोल की मदद से इन बहुमूल्य वस्तुओं के सम्बन्ध में इटली सरकार से सहायता ले। इटालियन सरकार ने प्रक्रिया के तहत भारत सरकार से अधिकार-पत्र माँगा जिसके आधार पर इटली पुलिस एफ़आईआर दर्ज करे। अन्ततः इंटरपोल ने दो बड़ी रिपोर्टें कोर्ट और सीबीआई को सौंपी और न्यायाधीश ने मुझे उसकी एक प्रति देने को कहा, लेकिन आज तक सीबीआई ने मुझे वह नहीं दी, और यह सवाल अगली सुनवाई के दौरान फ़िर से पूछा जायेगा। सीबीआई का झूठ एक बार और तब पकड़ा गया, जब उसने कहा कि “अलेस्सान्द्रा माइनो” किसी पुरुष का नाम है, और “विया बेल्लिनी, 14, ओरबेस्सानो”, किसी गाँव का नाम है, ना कि “माईनो” परिवार का पता। बाद में सीबीआई के वकील ने कोर्ट से माफ़ी माँगी और कहा कि यह गलती से हो गया, उस वकील का “प्रमोशन” बाद में “ऎडिशनल सॉलिसिटर जनरल” के रूप में हो गया, ऐसा क्यों हुआ, इसका खुलासा तो वाजपेयी-सोनिया की आपसी “समझबूझ” और “गठजोड़” ही बता सकता है।
इन दिनों सोनिया गाँधी अपने पति हत्यारों के समर्थकों MDMK, PMK और DMK से सत्ता के लिये मधुर सम्बन्ध बनाये हुए हैं, कोई भारतीय विधवा कभी ऐसा नहीं कर सकती। उनका पूर्व आचरण भी ऐसे मामलों में संदिग्ध रहा है, जैसे कि – जब संजय गाँधी का हवाई जहाज नाक के बल गिरा तो उसमें विस्फ़ोट नहीं हुआ, क्योंकि पाया गया कि उसमें ईंधन नहीं था, जबकि फ़्लाईट रजिस्टर के अनुसार निकलते वक्त टैंक फ़ुल किया गया था, जैसे माधवराव सिंधिया की विमान दुर्घटना के ऐन पहले मणिशंकर अय्यर और शीला दीक्षित को उनके साथ जाने से मना कर दिया गया। इन्दिरा गाँधी की मौत की वजह बना था उनका अत्यधिक रक्तस्राव, न कि सिर में गोली लगने से, फ़िर सोनिया गाँधी ने उस वक्त खून बहते हुए हालत में इन्दिरा गाँधी को लोहिया अस्पताल ले जाने की जिद की जो कि अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AAIMS) से बिलकुल विपरीत दिशा में है? और जबकि “ऐम्स” में तमाम सुविधायें भी उपलब्ध हैं, फ़िर लोहिया अस्पताल पहुँच कर वापस सभी लोग AAIMS पहुँचे, और इस बीच लगभग पच्चीस कीमती मिनट बरबाद हो गये? ऐसा क्यों हुआ, क्या आज तक किसी ने इसकी जाँच की? सोनिया गाँधी के विकल्प बन सकने वाले लगभग सभी युवा नेता जैसे राजेश पायलट, माधवराव सिन्धिया, जितेन्द्र प्रसाद विभिन्न हादसों में ही क्यों मारे गये? अब सोनिया की सत्ता निर्बाध रूप से चल रही है, लेकिन ऐसे कई अनसुलझे और रहस्यमयी प्रश्न चारों ओर मौजूद हैं, उनका कोई जवाब नहीं है, और कोई पूछने वाला भी नहीं है, यही इटली की स्टाइल है।
[आशा है कि मेरे कई “मित्रों” (?) को कई जवाब मिल गये होंगे, जो मैंने पिछली दोनो पोस्टों में जानबूझकर नहीं उठाये थे, यह भी आभास हुआ होगा कि कांग्रेस सांसद “सुब्बा” कैसे भारतीय नागरिक ना होते हुए भी सांसद बन गया (क्योंकि उसकी महारानी खुद कानून का सम्मान नहीं करती), क्यों बार-बार क्वात्रोच्ची सीबीआई के फ़ौलादी (!) हाथों से फ़िसल जाता है, क्यों कांग्रेस और भाजपा एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं? क्यों हमारी सीबीआई इतनी लुंज-पुंज है? आदि-आदि... मेरा सिर्फ़ यही आग्रह है कि किसी को भी तड़ से “सांप्रदायिक या फ़ासिस्ट” घोषित करने से पहले जरा ठंडे दिमाग से सोच लें, तथ्यों पर गौर करें, कई बार हमें जो दिखाई देता है सत्य उससे कहीं अधिक भयानक होता है, और सत्ता के शीर्ष शिखरों पर तो इतनी सड़ांध और षडयंत्र हैं कि हम जैसे आम आदमी कल्पना भी नहीं कर सकते, बल्कि यह कहना गैरवाजिब नहीं होगा कि सत्ता और धन की चोटी पर बैठे व्यक्ति के नीचे न जाने कितनी आहें होती हैं, कितने नरमुंड होते हैं, कितनी चालबाजियाँ होती हैं.... राजनीति शायद इसी का नाम है...]
Rebel for Love~Nation~Crime~Corruption~Injustice
  • 1.भारत को दुनिया का सबसे बड़ा व पुरानी सभ्यता का देश मना जाता है 
  • २.पिछले 10,000 वर्षों के इतिहास में भारत किसी भी देश पर हमला नहीं किया.
  • ३.भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है.
  • ४.वाराणसी जिसे  बनारस भी रूप में भी जाना जाता है ,जब भगवान बुद्ध ने 500 BCE मेंदौरा किया तब उसे ”प्राचीन शहर ‘कहा जाता था. और आज दुनिया में निरंतर आगे बढ़ने वाला शहर है.
  • ५.भारत में नंबर सिस्टम का आविष्कार हुआ . शून्य आर्यभट्ट द्वारा आविष्कार किया गया था.
  • ६.दुनिया का पहला विश्वविद्यालय तक्षशिला में 700BC में स्थापित किया गया था. दुनिया भर से 10,500 से अधिक छात्रों ने  60 से अधिक विषयों का अध्ययन किया. नालंदा 
  • विश्वविद्यालय 4 शताब्दी ई.पू. जो शिक्षा के क्षेत्र में प्राचीन भारत की महानतम उपलब्धियों में से एक था में बनाया.
  • ७.संस्कृत सभी यूरोपीय भाषाओं की जननी है. फोर्ब्स पत्रिका, जुलाई 1987 में एक रिपोर्ट - संस्कृतकंप्यूटर सॉफ्टवेयर के लिए सबसे उपयुक्त भाषा है.
  • ८.आयुर्वेद मनुष्य के लिए ज्ञात सबसे आरंभिक चिकित्सा शाखा है.
  • ९.भारत 17 वीं शताब्दी में ब्रिटिश आक्रमण के समय पृथ्वी पर सबसे अमीर देश था.क्रिस्टोफर कोलंबस भारत की सम्पन्नता से ही  आकर्षित हुआ  था.
  • १०.नेविगेशन की कला सिंधु नदी में  6000 वर्ष पहले से शुरू  हुआ था. नेविगेशन शब्द  संस्कृत शब्द नवगति  से ली गई है. शब्द नौ सेना भी संस्कृत शब्द नोउ से ली गई है.
  • ११.भारत विश्व में वैज्ञानिकों और इंजीनियरों का दूसरा सबसे बड़ा पूल है ..
  • १२.भारत दुनिया में सबसे बड़ा अंग्रेजी भाषी देश है.
  • १३.भारत अमेरिका और जापान के अतिरिक्त एकमात्र देश है जिसने अपने देश में सुपर कोम्प्यूटर का निर्माण किया है 
1) “उसके इतिहास के पिछले 10,000 वर्षों में भारत किसी भी देश पर हमला नहीं किया.”
2) “यह दुनिया में केवल समाज है जो गुलामी कभी नहीं जाना जाता है.”
3) “India संख्या प्रणाली का आविष्कार शून्य आर्यभट्ट द्वारा आविष्कार किया गया था.”
4) विश्व का पहला विश्वविद्यालय 700 ईसा पूर्व में Takshila में wasestablished.
5) “दुनिया भर से 10,500 से अधिक छात्रों को अधिक से अधिक 60 विषयों का अध्ययन नालंदा विश्वविद्यालय 4 शताब्दी CE में बनाया क्षेत्र ofeducation में सबसे बड़ी ancientIndia की उपलब्धियों में से एक था.”
6) संस्कृत सभी उच्च भाषाओं की जननी है. “
7) “संस्कृत कंप्यूटर सॉफ्टवेयर के लिए सबसे सटीक और इसलिए उपयुक्त भाषा है फोर्ब्स पत्रिका, जुलाई 1987 में एक रिपोर्ट.”
8) “आयुर्वेद मनुष्य के लिए जाना जाता दवा के जल्द से जल्द स्कूल है चरक, दवा समेकित आयुर्वेद 2500 yearsago पिता है. आज आयुर्वेद तेजी से हमारी सभ्यता में अपनी सही जगह फिर से है. यह केवल प्रणाली है जो व्यक्ति के समग्र दृष्टिकोण लेता है इलाज किया जा रहा है. “
9) “हालांकि भारत की आधुनिक छवियों अक्सर गरीबी और lackof विकास दिखा, भारत 17 वीं शताब्दी में ब्रिटिश के thetime जब तक पृथ्वी पर सबसे अमीर देश था क्रिस्टोफर कोलंबस उसके धन से आकर्षित किया गया था और भारत के लिए मार्ग के लिए देख रहे हैं जब वह अमेरिका की खोज. गलती से महाद्वीप. “
10) “सिंध नदी में नौवहन की कला का जन्म 6000 वर्ष पहले किया गया था.”
11) “यह बहुत ही शब्द नेविगेशन संस्कृत शब्द NAVGATIH से ली गई है शब्द नौ सेना भी संस्कृत ‘नाउ’ से व्युत्पन्न है.”
12) “भास्कराचार्य पृथ्वी द्वारा उठाए गए स्मार्ट खगोलशास्त्री से पहले साल के सूरज सैकड़ों कक्षा के समय की गणना की.”
13) पृथ्वी द्वारा लिया के लिए सूर्य orbitthe टाइम: (5 वीं शताब्दी) ३६५.२५,८७,५६,४८४ दिन
14) बगुलाभगत “” का मान “पहले Budhayana द्वारा की गणना की गई, और वह पाइथागोरस का प्रमेय के रूप में जाना जाता है की अवधारणा की व्याख्या की.
वह 6 Europeanmathematicians से पहले लंबे समय तक सदी में इस खोज की. बीजगणित त्रिकोणमिति, और कलन भारत से आया है. द्विघात समीकरण Sridharacharya द्वारा 11 वीं सदी में प्रतिपादित किया गया. “
15) “यूनानी और रोमन का इस्तेमाल किया सबसे बड़ी संख्या 106 थे जबकि हिंदू के रूप में 10 ** वैदिक काल के दौरान 5000 BCE के रूप में जल्दी के रूप में विशिष्ट नामों के साथ 53 (10 की घात 53) बड़ा के रूप में संख्या का इस्तेमाल किया.”
10 ** 12 (10 की thepower 12) आज भी सबसे बड़ी संख्या तेरा है.
16) “जेमोलॉजिकल इंस्टीट्यूट ऑफ अमेरिका, 1896 तक भारत दुनिया के लिए हीरे के लिए केवल स्रोत संयुक्त राज्य अमेरिका आधारित आईईईई साबित कर दिया है कि एक सदी पुराने संदेह दुनिया वैज्ञानिक समुदाय है कि बेतार संचार के अग्रणी में किया गया है. प्रोफेसर JagdeeshBose और मारकोनी नहीं. “
17) “150 जिसे उपयुक्त ‘सुदर्शन’ कहा जाता है एक सुंदर झील Raivataka की पहाड़ियों पर चंद्रगुप्त मौर्य के समय के दौरान निर्माण किया गया था CE के शक KingRudradaman मैं Saurashtra.According में जल्द से जल्द और सिंचाई के लिए जलाशय बांध बनाया गया था.
18) “शतरंज (Shataranja या AshtaPada) भारत में आविष्कार किया गया था सुश्रुत surgery.2600 साल पहले वह और अपने समय के स्वास्थ्य वैज्ञानिकों cesareans, मोतियाबिंद, कृत्रिम अंगों, भंग, मूत्राशय की पथरी और भी प्लास्टिक सर्जरी की तरह जटिल सर्जरी का आयोजन के पिता है. और मस्तिष्क सर्जरी. निश्चेतक का उपयोग प्राचीन भारत में अच्छी तरह से जाना जाता था 125 से अधिक शल्य चिकित्सा उपकरणों का इस्तेमाल किया गया. “
19) शरीर रचना विज्ञान के दीप ज्ञान, शरीर विज्ञान, एटियलजि, भ्रूण विज्ञान, पाचन, चयापचय, आनुवंशिकी andimmunity की भी कई ग्रंथों में पाया जाता है. “
20) जब कई संस्कृतियों over5000 साल पहले ही घुमंतू वनवासी थे, भारतीय सिंधु घाटी (सिंधु घाटी सभ्यता) जगह मूल्य प्रणाली में हड़प्पा संस्कृति की स्थापना की, दशमलव प्रणाली भारत में 100 ई.पू. के रूप में विकसित किया गया था. “
भारत के बारे में उद्धरण
अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा:
हम भारतीयों को, जो हमें सिखाया कैसे भरोसा करने के लिए जो बिना कोई सार्थक वैज्ञानिक खोज बना दिया गया है सकते हैं एक बहुत कुछ देना.
मार्क ट्वेन ने कहा:
भारत है, मानव जाति का उद्गम स्थल है, मानव भाषण, इतिहास की माँ, कथा के thegrandmother, और आदमी के इतिहास में tradition.Our सबसे मूल्यवान और सबसे शिक्षाप्रद सामग्री के महान भव्य माँ का जन्मस्थान भारत में क़ीमती हैं केवल
फ्रांसीसी विद्वान रोमां रोलां ने कहा:
यदि वहाँ पृथ्वी जहां रहने वाले पुरुषों के सारे सपने बहुत जल्द से जल्द दिनों whenman अस्तित्व का सपना शुरू से एक घर मिल गया है के चेहरे पर एक जगह है, यह भारत है.
नेहरू ने ऐसा क्यूँ कहा “I AM HINDU BY AN ACCIDENT” | Rebel for Love~Nation~Crime~Corruption~Injustice

नेहरू ने ऐसा क्यूँ कहा “I AM HINDU BY AN ACCIDENT”

नेहरू खानदान यानी गयासुद्दीन गाजी का वंश 

  • भारत मे और कोई नेहरू क्यूँ नहीं हुआ ?

  • नेहरू ने ऐसा क्यूँ कहा “I AM HINDU BY AN ACCIDENT”

  • कभी फ़िरोज़ H/o इंदिरा गाँधी उर्फ़ मेमुना बेगम का जन्म या मृत्यु दिवस मनाते नहीं देखा है, क्यों?

1. गंगाधर नेहरु
इस देश मे पैसठ सालो से कांग्रेस  का राज रहा .. फिर भी ये नेहरु का कश्मीर का घर क्यों नही खोज पाए ? खोज तो लिए फिर उसे जाहिर क्यों नही किया ? असल मे ये  खानदान मुस्लिम मूल का है
नेहरू से पहले ….नेहरू कीपीढ़ी इस प्रकार है….

1. गंगाधर नेहरु






2. राज कुमार नेहरु
3. विद्याधर नेहरु
4. मोतीलाल नेहरु
5. जवाहर लाल नेहरु
गंगाधर नेहरु (Nehru) उर्फ़ GAYAS -UD – DIN SHAH जिसे GAZI की उपाधि दी गई थी ….
GAZI जिसका मतलब होता है (KAFIR – KILLER) इस गयासुद्दीन गाजी ने ही मुसलमानों को खबर (मुखबिरी ) दी थी की गुरु गोबिंद सिंह जी नांदेड में आये हुए हैं , इसकी मुखबिरी और पक्की खबर के कारण ही सिखों के दशम गुरु गोबिंद सिंह जी के ऊपर हमला बोला गया, जिसमे उन्हें चोट पहुंची और कुछ दिन बाद उनकी मृत्यु हो गई थी.और आज नांदेड में सिक्खों का बहुत बड़ा तीर्थ-स्थान बना हुआ है.|

जब गयासुद्दीन को हिन्दू और सिक्ख मिलकरचारों और ढूँढने लगे तो उसने अपना नामबदल लिया और गंगाधर राव बन गया, और उसे इससे पहले मुसलमानों ने पुरस्कार के रूप में अलाहाबाद, उत्तर प्रदेश में इशरत मंजिल नामक महल/हवेली दिया, जिसका नाम आज आनंद भवन है.| आनंद भवन को आज अलाहाबाद में कांग्रेस उर्फ पोर्नग्रेस का मुख्यालय बनाया हुआ है इशरत मंजिल के बगल से एक नहर गुजरा करती थी, जिसके कारण लोग गंगाधर को नहर के पास वाला, नहर किनारे वाला, नहर वाला, neharua,आदि बोलते थे जो बाद में गंगाधर नेहरु अपना लिखने लगा इस प्रकार से एक नया उपनाम अस्तित्व में आया नेहरु और आज समय ऐसा है की एक दिन अरुण नेहरु को छोड़कर कोई नेहरु नहीं बचा …






अपने आप को कश्मीरी पंडितकह कर रह रहा था गंगाधर क्यूंकि अफगानी था और लोग आसानी से विश्वास कर लेतेथे क्यूंकि कश्मीरी पंडितभी ऐसे ही लगते थे.
अपने आप को पंडित साबित करने के लिए सबने नाम के आगे पंडित लगाना शुरू कर दिया
1. गंगाधर नेहरु
2. राज कुमार नेहरु
3. विद्याधर नेहरु
4. मोतीलाल नेहरु
5. जवाहर लाल नेहरु लिखा ..और यही नाम व्यवहार में लाते गए …

  • पंडित जवाहर लाल नेहरु अगर कश्मीर का था तो आज कहाँ गया कश्मीर में वो घर आज तो वो कश्मीरमें कांग्रेस का मुख्यालय होना चाहिए जिस प्रकार आनंदभवन कांग्रेस का मुख्यालय बना हुआ है इलाहाबाद में….

  • आज तो वो घर हर कांग्रेसी के लिए तीर्थ स्थान घोषित हो जाना चाहिए

  • ये कहानी इतनी पुरानी भी नहीं है की इसके तथ्य कश्मीर में मिल न सकें ….आज हर पुरानी चीज़ मिल रही है ….चित्रकूट में भगवन श्री राम के पैरों के निशान मिले,लंका में रावन की लंका मिली, उसके हवाई अड्डे, अशोक वाटिका, संजीवनी बूटी वाले पहाड़ आदि बहुतकुछ….समुद्र में भगवान श्री कृष्ण भगवान् द्वारा बसाईगई द्वारिका नगरी मिली ,करोड़ों वर्ष पूर्व की DINOSAUR के अवशेष मिले तो 150 वर्ष पुरानाकश्मीर में नकली नेहरू काअस्तित्व ढूंढना क्या कठिन है ?????दुश्मन बहुत होशिआर है हमें आजादी के धोखे में रखा हुआ है,

  • इस से उभरने के लिए इनको इन सब से भी बड़ी चुस्की पिलानी पड़ेगी जो की मेरेविचार से धर्मान्धता ही हो सकती है जैसे गणेश को दूध पिलाया था अन्यथा किसी डिक्टटर को आना पड़ेगा या सिविल वार अनिवार्य हो जायेगा

तो क्या सोचा हम नेहरू को कौनसे नाम से पुकारे ? जवाहरुद्दीन या चाचा नेहरू ?






जो नेहरू नेहरू कहते है उनसे पूछिये की इस खानदानके अलावा भारत मे और कोई नेहरू क्यूँ नहीं हुआ ?अगर यह वास्तव मे ब्राह्मण था तो ब्राह्मनों मे नेहरू नाम की गोत्र अवश्य होनी चाहिए थी ? क्यूँ नहीं ?क्यों देश मे और कोई नेहरू नहीं मिलता?क्या ये जवाहर लाल के परिवार वाले आसमान से टपके थे ?

  • जो लोग नेहरू गांधी परिवार को मुस्लिम मानने से इंकार करते है उनके लिए प्रश्न

  • # देश मे सोलंकी, अग्रवाल, माथुर, सिंह, कुशवाहा, शर्मा, चौहान, शिंदे, कुलकर्णी, व्यास, ठाकरे आदि उपनाम हजारो, लाखो करोड़ो कीसंख्या मेमिलेंगे लेकिन “नेहरू” सेकड़ों भी नहीं है क्यूँ?

  • # कश्मीरी हमेशा अपने नाम के पीछे पंडित लगाते है लेकिन जवाहर लाल के नाम के आगे पंडित कैसे ? गंगाधर के पहले का इतिहास क्यूँ नहीं है ?

  • # नेहरू ने ऐसा क्यूँ कहा “I AM HINDU BY AN ACCIDENT”

क्या ये प्रश्न आपके मन मे उठे कभी ? ?? ? इस कोंग्रेसी वामपंथी इस कोंग्रेसी महिमामंडित गांधी नेहरू इतिहास ने कभी मौका ही नहीं दिया ? ? ?ऐसे ही मासूम विद्यार्थियों के भेजे मे यह गांधी नेहरू परिवार

की गंदगी भरी जा रही है देश के लाखो स्कूलो मे…इस गांधी नेहरू नाम के इतिहास के सामने राम कृष्ण, राणा, शिवाजी आदि हजारो महावीरों सपूतो के किस्से इतिहास भी नगण्य किए जाते है…इतिहासकारो और इतिहासिक संस्थानो पर कॉंग्रेस और वामपंथियों का कब्जा है कैसे देश की पीढ़ी वीर बनेगी ? ? ? ?

इस परिवार ने देश के अन्य वीर शहीदो की शहीदी को भू फीका कर दिया अपने महिमामंडित इतिहास से हर पन्ने पर इनका नाम नजर आता है …हमें तो अब चाहिए पूर्ण आजादी …राम कृष्ण राणा शिवाजी के देश मे नकली गाँधी नेहरू नाम के पिशाच नहीं चाहिए






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Feroze Gandhi
* जवाहरलाल नेहरू और महात्मा गाँधी ने तो अपने बेटा-बेटी के आपस में रिश्ते नहीं किए तब कहाँ से आ धमका नेहरू-गाँधी खानदान और उनके जॉइंट वारिस? जिनका गाँधी जी से कोई वास्ता नहीं है, वे गाँधी के वंशज कैसे बन गये?
* जवाहरलाल नेहरू राहुल-वरुण की दादी के पिता जी थे, यानि तीसरी पीढ़ी में. तब ये नेहरू के वंशज कैसे बन गये?
* क्या नेहरू ने दूर की सोचकर अपने दामाद फ़िरोज़ को गाँधी नाम दिलाकर विधि-विधान के विरुद्ध कार्य किया था?
* पैदा होने के बाद आदमी का धर्म तो बदला जा सकता है, लेकिन जाति बदले का अधिकार तो विधि के हाथ भी नहीं है.
* फ़िरोज़ जहाँगीर घंडी को किन्ही दस्तावेज़ो में पारसी (ज़्रोस्ट्रियन) लिखा गया है. बरहाल वे पारसी थे कि, मुस्लिम इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता लेकिन गाँधी जी के कुछ नहीं थे और न ही वे किसी भी तरह से गाँधी थे. कश्मीरी कौल ब्राहमण की बेटी इंदिरा और फ़िरोज़ की संतान गुजरात के गाँधी बनिये किस विधि से हो सकती है?
* इस देश के पढ़े लिखे लोग ग़लत बात का विरोध क्यों नहीं करते? इस नामकरण से इस देश का बहुत कुछ बर्बाद हो रहा है, और बर्बाद हो चुका है….?
* अगर यह छद्म नामकरण रोक दिया जाता तो आज देश की तस्वीर ही कुछ और होती. चुनाव में नेहरू-गाँधी के वंशज की झोक में ठप्पा मारने वालों का रुख़ ही कुछ और होता और 5-7% वोट का डेवियेशन इस देश की तकदीर बदल देता.
* पढ़े कथित गाँधी-नेहरू के वंशज की असलियत, जिससे लम्बे समय से इस देश का वोटर्स धोखा में हैं:
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एक और तर्क दिया जाता है इस बात के लिए की ,
क्या वजह थी कि जब इंदिरा ने फिरोज़ जहांगीर शाह; पारसी मुसलिमद्ध से ब्याह रचाया तो नहेरु ने उनकी एक नहीं सुनी और गांधीजी ने  फिरोज को गोद लेना पडा़। मेरी समझ में तो पूरे देश की तरह शायद गांधी जी भी यही मानते थे कि आज़ादी की लड़ाई में सबसे ज्यादा योगदान उन्हीं का है और इसलिए वो नहीं चाहते थे कि गांधी नाम की विरासत उनके साथ ही खत्म को जाए, वो चाहते थे कि उनका नाम सियासी गलियारों में हमेशा गूंजता रहे, लेकिन खुद को किसी पद से जोड़ के महानता का चोगा त्यागे बिना। उन्हें ये मौका इंदिरा की शादी से मिला,गांधी जी का एक और गुण भी था उनकी दूरर्दर्शिता, इंदिरा में नेतृत्व के गुण वो पहले ही देख चुके थे,वो जानते थे कि इंदिरा से परमपरागत राजनीती की शुरुआत होगी और इसीलिए उन्होंने फिरोज़ को गोद लिया और उसे अपना नाम दिया।
लोगों का मानना है कि र्सिफ हिन्दु कट्टरपंथी ही नहीं नेहरु जी भी इस शादी के खिलाफ थे,पर नेहरु ने अपनी एक किताब में लिखा है कि फिरोज़ को वो बेहद पसंद करते थे और उन्हें इस शादी से नहीं बल्कि लोंगों के विद्रोह से परेशानी थी,जिसका अंदाजा उन्हें और गांधी जी को पहले से था। देश आज़ादी की कगार पे था और गांधी जी का प्रभाव अपने चरम पे,उन्होंने इंदिरा और फिरोज के पक्ष में एक वक्तव्य जारी किया,जिसे पढ़ के और सुन के सभी शांत हो गये। फिर भी उन्होने फिरोज को अपना नाम दिया, चाहे इंदिरा हो,राजीव हो,सोनिया या अब राहुल,ये तो बस अलग-अलग चेहरें हैं, देश चलाने वाला तो गांधी ही है,पर हम तो उन्हें महात्मा के नाम से जानते हैं!          
“समंदरे शोहरत का साहिल नहीं होता,
 डूबते हैं बड़े बड़े तैराक इस समंदर में!!!  ”  
  • इस देश की कुछ जनता को पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा-फिरोज का जन्म और मृत्यु दिवस मनाते देखा है. राजीव और संजय का भी मृत्यु दिवस कुछ पोलिटिकल/ सरकारी/ जनता द्वारा मनाया जाता है. मज़े की बात देखिए कि कभी फ़िरोज़ H/o इंदिरा गाँधी उर्फ़ मेमुना बेगम का जन्म या मृत्यु दिवस मनाते नहीं देखा है, क्यों?
  • इंदिरा के पति यानी कि राजीव व संजय के पिता का नाम लेवा कोई क्यों नहीं रहा, यानी कि जो हैं वे उनके ये पावन दिन क्यों नहीं मनाते हैं? क्यों नहीं उनकी कब्र पर उनके वंशज अमुक दिन माला या फूल चढ़ाने जाते हैं? क्या फ़िरोज़ का इंदिरा से शादी करके दो बच्चे पैदा करने का ही कांट्रॅक्ट था? ये सब ज्वलंत प्रश्न हैं.
Feroze Gandhi
फिरोज गांधी
Member of the Indian Parliament
for Pratapgarh District (west) cum Rae Bareli District (east)[1]
In office
17 April 1952 – 4 April 1957
Member of the Indian Parliament
for Rae Bareli[2]
In office
5 May 1957 – 8 September 1960
Succeeded byBaij Nath Kureel
Personal details
Born12 September 1912
Bombay, Bombay Presidency, British India
Died8 September 1960 (aged 47)
New Delhi, Delhi, India
Resting placeParsi cemetery, Allahabad
NationalityIndian
Political partyIndian National Congress
Spouse(s)Indira Gandhi
ChildrenSanjay Gandhi,
Rajiv Gandhi
ReligionZoroastrianism[विकिपेडीया से उपलब्ध]
  •  अब भी अगर इस लेख पर विश्वास ना आ रहा हो तो इस लिंक को विजिट करे [http://www.vepachedu.org/Nehrudynasty.html]
  • दस्तावेज़ों और नेट पर उपलब्ध विवरण के अनुसार फ़िरोज़ एक मुस्लिम पिता और घंडी गोत्र की पारसी महिला की संतान थे. देवी इंदिरा और फ़िरोज़ ने प्रेम विवाह किया था. नेहरू अपना वंश चलाने के लिए अपने दो नातियों राजीव और संजय में से एक को गोद ले सकते थे, लेकिन उस दशा में वह शख्स नेहरू कहलाता. अगर नेहरू ने फ़िरोज़ को घर जमाई भी रख लिया होता तो भी उसके बच्चे नेहरू हो गये होते. यानी कि नेहरू ने अपनी इकलौती बेटी इंदिरा का विवाह कर दिया था, लेकिन तत्पश्चात किसी को गोद नहीं लिया था. इस प्रकार जादायद भले ही इंदिरा को मिले लेकिन खानदानी वारिस होने का हक उसे नहीं मिल सकता है. इस प्रकार जवाहरलाल नेहरू का खानदान उनकी मृत्यु के साथ ही ख़त्म हो गया था. इंदिरा-फ़िरोज़ की संतान फ़िरोज़ की वंशज हुई न कि नेहरु की.
  • फ़िरोज़ ख़ान क्यों और कैसे गाँधी बन गये, यह एक रोचक बात है. अगर किसी की माँ उसके बाप को तलाक़ देकर खुद बच्चे की परवरिश करे और उसे अपने परिवार का नाम दे तो भी उस दशा में फ़िरोज़, फ़िरोज़ घंडी हो सकते थे. हम नहीं जानते कि फ़िरोज़ के साथ ऐसा कुछ हुआ था या नहीं?
  • रही समस्त बुराई की जड़ मोहन दस करमचंद गाँधी द्वारा फ़िरोज़ को गोद लेने की बात. यह भी सुना है कि सेकुलर नेहरू फ़िरोज़ से इंदिरा का विवाह करने को तैयार नहीं थे, जबकि वह पहले ही बिना बाप को बताये शादी कर चुकी थी. ऐसी दशा में गाँधी ने कहा था कि वे फ़िरोज़ को गोद लेते हैं. गोद लेना कोई गुड्डे-गुड़िया का खेल नहीं है. गोद लेने की एक प्रक्रिया है, एक एक विधि-विधान है. एक उम्र है. यही नहीं गोद लेने के लिए जाति आधारित क़ानून भी थे. गाँधी जी कोई खुदा नहीं थे कि वे जब जो चाहे कर लेते. तब गाँधी ने अगर यह बात की भी तो यह बड़ी ही हास्यस्पद घटना है, और एक बेरिस्टर से ऐसी मूर्खता पूर्ण बात की कल्पना नहीं की जा सकती है. (इससे साबित होता है की वो बेरिस्टर की डिग्री के नाम पर विदेश किसी और मिशन पर गए थे)
  • दादी के पिता जी का वारिस दादी का पोता हो, शायद यह अजूबा दुनिया में भारत में ही मान्य हो सकता है. अधिकतर लोगों को तो अपनी दादी के पिता जी का भी नाम मालूम न होगा. दादी के पिता जी का वारिस दादी हो सकती है या दादी का पुत्र, भला पोता काहे और कैसे वारिस हो जाएगा? और वह भी बिना किसी वैधानिक प्रक्रिया के.
  • इनके नेहरु के वारिस होने की ही नहीं कुछ सिरफिरे लोग इनके गाँधी के वारिस होने की भी बात करते हैं. वह यह नहीं बताते कि ये लोग कौन से गाँधी के वारिस हैं? इन्हें उस गाँधी का पूरा नाम लेना चाहिए. यह देश तो गाँधी का मतलब मोहनदास कर्मचंद गाँधी मानता है. अगर फ़िरोज़ उर्फ छद्म गाँधी की बात कर रहे हैं तो उसका पूरा नाम क्यों नहीं लेते, कभी उसका जन्म या मृत्यु दिवस क्यों नहीं मनाते? कभी उसकी कब्र पर झाड़पूंछकर फूल पत्ते क्यों नहीं धरते? और अगर महात्मा गाँधी जी के वारिस होने की बात करते हैं तो गाँधी जी का अपना भरा पूरा परिवार है, वे दूसरों को वारिस क्यों बनाते? यह तो ऐसा हुआ जैसे कि खरगोश ऊँट का वारिस होने की ताल ठोक रिया हो.
  • तब प्रश्न उठता है कि फ़िरोज़, फ़िरोज़ गाँधी कैसे हो गये, और उन्हें इस उपनाम जो की गुजरात के बनिए वर्ग में प्रयुक्त होने वाले गाँधी के उपयोग की इजाज़त किसने और क्यों दी? फ़िरोज़ को अपने सही नाम पर क्यों आपत्ति हुई, और क्यों ही उसे नाम बदलने की ज़रूरत पड़ी? देश के बहुत से लोग तो आज भी यह समझते हैं कि यह कथित गाँधी परिवार महात्मा गाँधी से रिलेटेड है, जबकि ऐसा कतई नहीं है. कथित कश्मीरी पंडित की बेटी इंदिरा-फ़िरोज़ से विवाह करके गाँधी बनिया कैसे पैदा कर सकती थी? इस देश के पढ़े लिखे तबके को यह सोचना चाहिए.
  • राहुल के दादा फ़िरोज़ थे, और दादी कथित कश्मीरी पंडित की बेटी थी, और वह भी तीन पीढ़ी पहले. राहुल एक इटलियन लेडी और राजीव वल्द फ़िरोज़ की औलाद है, तब वह नेहरू-गाँधी परिवार का वारिश किस विधि से हो गया, इस देश के प्रबुद्ध जन इस पर विचार करे. यही नहीं कथित रूप से भी राहुल ही नेहरू-गाँधी परिवार का वारिस क्यों हुआ, मेनका-संजय का बेटा वरुण भी वारिस क्यों नहीं हुआ?
  • क्या इस नामकरण की साजिश में गाँधी और नेहरू भी शामिल थे? और अगर ऐसा था तो गाँधी ने इस देश के साथ बहुत बड़ा जघन्य धोखा अपराध किया है. धर्म परिवर्तन हो सकता है लेकिन दुनिया की कोई विधि-विधान जाति परिवर्तन नहीं कर सकता है, यानी कि गाँधी जी फ़िरोज़ को गुजराती बनिया गाँधी में परिवर्तित नहीं कर सकते थे, किसी प्रौढ़ फ़िरोज़ को गोद नहीं ले सकते थे. अपना भरा पूरा परिवार होते हुए भी अपना नाम किसी प्रौढ़ को दे देने का अधिकार गाँधी जी को भी प्रदत्त नहीं था.
[Allahabad Parsi Anjuman trustee Rustom Gandhi has sent an e-mail to Parsiana detailing how his efforts with government departments for improvements to the neglected Allahabad Parsee Cemetery have borne fruit. Feroze Gandhi, husband of the late Prime Minister Indira Gandhi is buried here.]
  • दस्तावेज़ों के अनुसार फ़िरोज़ की कब्र इलाहाबाद के पारसी  कब्रिस्तान में हैं. दूसरों की कब्र/ समाधियों पर माला टांगने वाले लोग क्यों नहीं अपने पूर्वज फ़िरोज़ की कब्र की सुध लेते हैं? शायद इसलिए कि कहीं लोग असलियत न जान जाएँ.
  • जो लोग शासन की समझ रखते हैं वें भी जानते होंगे कि सेना प्रत्यक्ष रूप से ही युद्ध में हार जीत के निर्णय में भागीदार होती है असली जीत का भागीदार तो कोई और ही होता है. एक चार कमरे के मकान में कोई अंजान व्यक्ति फ्रीली नहीं घूम सकता. तब अरब़ अक्रांता/ अँग्रेज़ों ने कैसे इस इतने बड़े मुल्क पर फ़तह कर उसे सैकड़ों वर्ष तक गुलाम बनाए रखा? रावण जैसा विद्याधर, योद्धा क्या यूँ ही राम के हाथों हार गया, और मारा गया. जी नहीं सच यह है कि `घर का भेदी लंका ढ़ावे’ हुआ है. जीत के लिए श्रेय हमेशा सशक्त ख़ुफ़िया तंत्र के सिर होता है. हार के प्रमुख कारणों में से एक कारण, पराजित देश के देशद्रोही/ समाजद्रोही भेदियों की नकारात्मक भूमिका होती है. अगर ये देशद्रोही/ समाजद्रोही भेदिये विजयी सेना के ख़ुफ़िया तंत्र को अपने देश के राज न दें तो स्थिति ही कुछ और होती 
  • आज इस देश में सोनिया क्या अपने बल पर अध्यक्ष बनी बैठी है? क्या उसमें इतना बूता है? तो उत्तर होगा कतई नहीं. यहाँ दो पहलू हैं एक तो यह प्रोपगॅंडा की राहुल नेहरू-गाँधी खानदान का वारिस, जैसे कि वरुण उनमें से किसी का कुछ न लगता हो. दूसरे वे कौंच के बीज इस कुकर्म में दोषी हैं जो इस देश की बर्बादी में विभीषण की भूमिका निभा रहे हैं, और सत्ता और संपत्ति के लालच में डूबे हैं. 
  • उन विभीषणों को यह नहीं भूलना चाहिए कि आज भी विभीषण का नाम समाज में गाली समझा जाता हैं. वे अपने मन से अपने कुकर्मों का हिसाब लगाकर कभी ज़रूर देखे, और की तो छोड़िए उनकी आत्म ही अगर कभी जाग गयी तो उन्हें माफ़ न करेगी. किसी की आत्मा कभी जागे न जागे लेकिन मृत्यु के समय ज़रूर जागेगी, ….और उस समय उन्हें देश के समाज के साथ धोखा करने के पाप का बोध तो हो जाएगा, लेकिन तब प्रायशचित का न तो समय रहेगा, न ही शक्ति.
जननी जनमभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी
सुखस्य मूलं धर्म:
धर्मस्य मूलं अर्थ:
अर्थस्य मूलं वाणिज्य:
वानिजस्य मूलं स्वराज्य:
स्वराज्यस्य मूलं चारित्रं.
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बीसवीं सदी में भारतीय इतिहास के छः काले पन्ने भाग -2

अब
प्रश्न खड़ा होता है कि उस दिन कांग्रेस की सभा में सुभाषचन्द्र बोस ने
इस्तीफा नहीं दिया होता तो 15 अगस्त 1947 को लाल किले की प्राचीर पर झण्डा
कौन फहरा रहा होता? सुभाषचन्द्र बोस
जैसा ऊर्जावान व्यक्ति अगर भारत का प्रथम प्रधानमंत्री होता तो भारत की
विदेश नीति क्या होती? पड़ोसी देशों से सम्बंध कैसे होते? देश की आतंरिक व
बाहरी सुरक्षा व्यवस्था कैसी होती? क्या पाकिस्तानी कबीलाई कश्मीर में
घुसकर कश्मीर का एक तिहाई हिस्सा दबोच सकते थे? क्या चीन भारत को तो छोड़िए
तिब्बत पर भी आक्रमण करने का साहस कर सकता था? 60 सालों से भी अधिक समय से
बदहाली झेल रहा यह भारत अगर विकास के क्षेत्र में पिछड़ गया है तो उसका मूल
कारण है सुभाष बाबू का वह त्याग पत्र!
असमय भारतीय समाज जीवन से उनकी अनुपस्थिति। उस दिन पण्डाल से केवल सुभाष बाबू ही बाहर नहीं गए, शक्तिशाली भारत का भविष्य भी बाहर चला गया। उन्होने कोलकाता शहर को नहीं छोड़ा, अकेले भारत की सीमा के बाहर नहीं गए, उनके साथ भारत का भाग्य भी कुछ समय के लिए सीमा पार गया। पार्टी
की संवैधानिक व्यवस्था असंवैधानिक प्रयत्नों के सामने हार गई, अनन्त ऊर्जा
जो भारत का निर्माण कर सकती थी व्यक्ति निष्ठा की बलि चढ़ गई।

स्वर्णिम भारत का भविष्य भी 25-30 सालों के लिए आगे चला गया। शासन का कोई
पद खाली नहीं रहता, कोई भी लड़का या लड़की उम्र भर कुंवारा नहीं रहता। हर पद
भर जाता है और हर बच्चे  की शादी हो जाती है। मूल बात यह है कि योग्यता के
अनुसार जिसे जहां होना चाहिए था, वह वहां था अथवा है क्या। अब घर
में प्रज्ञा अपराध होता है तो उसका परिणाम पूरा कुनबा भुगतता है। देश के
शक्ति केन्द्र पर जब यह अपराध होता है तो उसे पूरा देश भुगतता है। देश की
एक दो नहीं कई पीढ़ियां उस दंश और शूल को भुगतती है।
प्रजातंत्र की बाते करने वालों को यह समझ लेना होगा कि असहमति विरोध नहीं है। अयोग्य
और नपुंसक को बेटी देकर कोई बाप सुखी नहीं हो सकता है। प्रत्येक कार्य को
योग्य कार्यकर्ता और योग्य कार्यकर्ता को उपयुक्त कार्य देना योजनाकारों का
काम है जब योजनाकार अपने पट्ठों को नवाजे और अपने से असहमति करने वालों को
दुत्कारे तो समझो कि घी नाली में ही बह रहा है।
सुभाष चन्द्र बोस एक
घनीभूत ऊर्जा थे, ऊजा्र मार्ग मांगती है, अगर उसे मार्ग ना दिया जाये तो
वह विस्फोट करते हुए अपनी दिशा स्वयं तय करती है। परदे के पीछे से राजनीति
को संचालित करने वाले हमेशा अपने आस-पास कमजोर लोगो को पसंद करते है।
व्यक्तियों की पसंद-नापसंद के उनके अपने मानक होते है। क्षमतावान जनाधार
वाले व्यक्ति सामान्यतः इस प्रकार के लोगो की पंसद नहीं होते। वे उनके
आत्मविश्वास को दंभ और योग्यता को लीक से हटकर व्यक्तिगत छवि के लिए काम
करने वाले व्यक्ति के रूप में देखते है। वे औसत क्षमता को प्रतिभा और
असाधारण गुणों को अयोग्यता मानते है। सच तो यह है कि शक्ति को पचाने के लिए
शिव लगता है, राम के राज्याभिषेक को वशिष्ठ लगता है, राम
जैसे कपड़े पहन, सज-धज कर घूमने से रामलीला का राम तो बना जा सकता है किंतु
मर्यादा पुरूषोत्तम राम नहीं। चाणक्य की भांति चलने और अभिनय करने से
बहरूपिया तो बना जा सकता है, चाणक्य नहीं।
दुर्भाग्य से
देश जिस अवस्था में गत शताब्दी से चला आ रहा है वह तिलक, सावरकर, सुभाष व
वल्लभ भाई पटेल जैसे व्यक्तित्वों की ऊंचाई घटाने या मिटाने का कार्य ही कर
रही है। इन महापुरूषों के समकालीन समय में उनके घुटनों तक जिनकी ऊंचाई
नहीं आती थी, ऐसे लोगो द्वारा उन्हे हटते और मिटते हम इतिहास में देखते है।
नेताजी बलुचिस्तान, अफगानिस्तान, जर्मनी फिर जापान, रंगुन होते हुए अनन्त
की यात्रा पर चले गए। वे कब गए? कहां गए? यह रहस्य का विषय है लेकिन वे
क्यों गए? यह
प्रश्न आज की पीढ़ी दीवारों पर लगे हुए उन चित्रों से पूछना चाहती है। हमें
जबाब दो नायको, इस देश के लाल को विदेश क्यों जाना पड़ा। देश  माउंटबैटन और
एडविना की मुस्कुराहट पर क्यों चला। जिस महानायक को इंग्लैण्ड ने समझा,
जर्मनी ने पहचाना, जापान ने परखा, देश के छोटे-छोटे लोगो ने जाना। महिलाओं
ने हंसते-हंसते उन्हे अपने सोने के जेवर व बच्चों ने पाई-पाई कर बचाई गई
गुल्लके दे दी मगर उन्हे नहीं समझा तो कांग्रेस के कर्णधारों ने। कभी
कल्पना करता हूं कि 15 अगस्त 1947 को लाल किले की प्राचीर से अगर सुभाष
बाबू बोल रहे होते तो कैसे लगते? देश उन्हे कैसे सुनता? देश की व्यवस्था
उनके संकेत पर कैसे चलती? रक्षा सेनाओं का पुनर्गठन वे कैसे करते? जिसके
पास सेना के नाम पर कोलकत्ता में देसी तमंचा भी नहीं था, उसने आजाद हिन्द
फौज खड़ी कर दी! स्वतंत्र भारत की सैन्य शक्ति उन्हे मिल जाती तो वे उसे
विश्व की महान शक्तिशाली सेना बना देते। देश के दुश्मन दुम दबाए घूमते नजर
आते। लेकिन अफसोस! यह नहीं हो सका। कांग्रेस के तात्कालीन कर्णधारों की
हठधर्मिता और विद्याता के इस क्रूर मजाक की भारत ने बहुत बढ़ी कीमत चुकाई है
एक सपना सच होता तो भारत कैसा होता..........।                          (क्रमशः)
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बीसवीं सदी में भारतीय इतिहास के छः काले पन्ने भाग 3

दूसरे
काले पन्ने को भारत का काला पन्ना कहा जाये या विश्व का ही एक काला पन्ना
माना जायेए इसे भविष्य तय करेगा। क्योंकि इस पन्ने में कालापन और दर्द की
कसक इतनी ज्यादा है कि यह विश्व की अन्य किसी भी घटना में दिखाई नहीं देती।

कल्पना करे कि हमारे शहर या प्रान्त को धर्म के आधार पर बांट दिया जाये तो
क्या होगा। अपना पैतृक घर, कीमती सामान वहीं छोड़, सालों की बसाई गृहस्थी
उजाड़कर शहर अथवा प्रदेश के दूसरे कोने में चले जाने को मजबूर कर दिया जाए
तो ....। कुछ घंटों में घर से भागने को कहा जाये! वह भी ऐसी सड़कों और
मोहल्लो से जो भीषण दंगो की चपेट में हो! यह सब इसलिए किया जाये क्योंकि
जिस हिन्दु धर्म को हम मानते है उसके लोग दूसरे क्षेत्र में रहते है और यह
इलाका मुसलमानों का है। रास्ते में लोग आपकी पत्नी, बच्चे, भाई-बंधु की
हत्या कर दे, लूटपाट करे तो आपको कैसा लगेगा!
1947 में भारत के एक हिस्से को धर्म के
आधार पर अलग कर, शेष हिस्से में उसी आधार को अस्वीकार करने का जो दो
मुंहेपन और दोहरे मापदण्डों वाला तथा राष्ट्र के साथ क्रूर मजाक करने वाला
आचरण रूपी अपराध कांग्रेस ने किया है, वह अकेला अपने आप में इतना बड़ा पाप
है कि उसके लिए सारे कांग्रेसी सौ पीढ़ियों तक आजीवन प्रायश्चित करें तो भी
कम है। विश्व के किसी भी सुसभ्य समाज में इस अपराध के लिए कम से कम नहीं
सजा होगी जो कोई सभ्य समाज एक अपराधी को ज्यादा से ज्यादा सजा दे सकता है।

संसार में साम्प्रदायिकता का इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है कि देश का
हिस्सा धर्म के आधार पर अलग कर दिया जाये। सत्ता प्राप्त करने की जल्दी में
लाखों देशवासियों को असमय ही मौत के हवाले कर दिया गया। चोरी और सीनाजोरी तो तब है जब अपने इस अपराध पर विभाजन करने वाले कांग्रेसियों को किसी प्रकार का अफसोस तक ना हो!
आज पाकिस्तान व बांग्लोदेश में जितने मुसलमान निवास करते है उससे कही अधिक भारत में है। धर्म
के आधार पर बना हुआ पाकिस्तान अतिमहत्वाकांक्षी राजनेताओं की असफल योजनाओ
का वह बदसूरत स्मारक है जिसके नीचे प्रेम नहीं घृणा दफन है।
पाकिस्तान जिस सिद्धांत पर बना वह सिद्धांत आज पूरी तरह से ध्वस्त हो चुका है। यह प्रमाणित हो चुका है कि समकालीन समय में जिन्होने
देश को धर्म के आधार पर बांटने की योजना बनाई, जिन्होने उसमें सहमति दी और
जो मौन रहे वे सब इस देश और मानव जाति की नजरों में उन हत्याओं और
बलात्कारों के लिए नैतिक रूप से जिम्मेवार है, जो विभाजन के समय हुए थे।
लार्ड वावेल ने भारत के सम्बंध में एक बहुत अच्छी बात कही थी, उसने कहा था,
गॉड हेज क्रिएटेड दिस कन्ट्री वन, एंड यू केन नॉट डिवाइड इट इन टू ।जो
बात ब्रिटेन में पैदा होने वाले राजनेता को समझ में आई वह भारत में जन्में
जवाहरलाल नेहरू की समझ में नहीं आई। वास्तव में दोनो नेताओं में अंतर बहुत
थोड़ा भी है और बहुत ज्यादा भी। वावेल ब्रिटेन में खड़े होकर भारत को देख रहे थे और नेहरू भारत में खड़े होकर ब्रिटेन को। एक कहावत है-
आप वहां देखिए जहां आपको जाना है अन्यथा आप वहां चले जायेगे, जहां आप देख रहे है।
पाकिस्तान कैसे बना! इस प्रक्रिया को समझने के लिए नेहरू के विचारों में
होते बदलाव को गहराई से समझना आवश्यक है। भारत के पहले प्रधानमंत्री बनने
के पांच साल पूर्व नेहरू से पूछा गया जिन्ना पाकिस्तान की मांग कर रहे है
आपका क्या विचार है! नेहरू ने तमतमाते हुए जबाब दिया ''नथिंग इट इज फेंटास्टिक नोनसेन्स!''
 देश
का संचालन करने की चाह रखने वाले की बोली गई बातो को तार-तार करके पढ़ना
चाहिए। समाज उन्हे जो साधन, सुख-सुविधाएं प्रदान करता है वे इसलिए होती है
कि वे बेहतर काम कर सके, न कि आमोद प्रमोद करते हुए मदमस्त घूमने के लिए।
इन्ही नेहरू की उपस्थिति में भारत का विभाजन हुआ। उनके सामने हुआ, उनकी
सहमति से हुआ। देश का उन्होने अपने हाथो से बांटा। समय बीता 1950 में फिर
एक पत्रकार ने नेहरू से पूछा पाकिस्तान के सम्बंध में आपके क्या विचार है!
नेहरू बोले ''नाऊ इट इज ए सेटल्ड फैक्टस!!'' एक राजेनता
जो यह ना देख पाया कि देश विभाजन की ओर बढ़ रहा है। देश का प्रधानमंत्री
बनने की चाह रखने वाला यह गणित ना लगा सका कि देश बंट रहा है, कटने जा रहा
है। सत्ता की वासना ऐसी अनियंत्रित छटपटाहट में बदल जाये कि हमें मरते व
कटते हुए हिन्दु-मुस्लिम ना दिखे। सत्ता प्राप्ति की ऐसी भी क्या लालसा कि
उसके लिए मानव जाति को इतनी भारी कीमत चुकानी पड़े। क्या फर्क पड़ जाता अगर
देश को आजादी 6 महीने पहले मिलती या बाद में। अंग्रेजों को तो जाना ही था,
उन्होने अपना सामान बांध ही लिया था। वह छटपटाहट माउंटबैटन या एडविना की
नजरों से नहीं बच पाई थी। उस रंगमंच के सभी पात्रों के अपने-अपने सपने थे।
सभी के अपने गंतव्य थे। वे सब मिलकर भारत को बांट रहे थे और भारत की भोली-भाली जनता उनके षड्यंत्रों को समझ नहीं पाई।
सच तो यह है कि कांग्रेस के डीएनए में सत्ता के प्रति लोलुपता साफ दिखाई
देती है। आजादी के बाद सत्ता-प्राप्ति की इस वासना ने इतना विकराल रूप धारण
कर लिया कि उसने करीब-करीब देश की राजनीति का ही कांग्रेसीकरण कर डाला।
कपड़े पहनने से लगातार उठने-बैठने तक, बातचीत करने की शैली से लगाकर कार्य
करने की पद्धति तक। सबमें समानता आ गई। बहुताय जिले के नेता प्रान्तों की
राजधानियों को पत्र-पुष्प् भेन्ट करते है और प्रान्त के लोग चुनाव फंड के
नाम पर राष्ट्रीय नेताओं को पैसा देते है। देते समय कहते है चुनाव के लिए
है सर! सर लीजिए, लेकिन होती है वह व्यक्तिगत भेन्ट। नेहरू को शरणम गच्छामि
लोग पंसद थे। कांग्रेस की
संस्कृति में सबसे बड़ा नेता कहता है- तुम बने रहो, संवैधानिक पदों को भोगते
रहो, बस हमारी कृपा के पात्र बने रहना। मैं जो चाहूं वही करो, नियुक्ति हो
या निष्कासन, निर्णय हम करेगे, क्रियान्वयन तुम करना। मेरी हां में हां
रही तो तुम राजपथ पर चलते रहोगे अन्यथा वनवास के लिए तैयार रहो। उन्हे
स्वाभिमान से खड़े नेताजी सुभाषचन्द्र बोस अच्छे नहीं लगते। फिर चाहे अपना
स्वतंत्र मत व्यक्त करते श्यामा प्रसाद मुखर्जी हो या चन्द्रशेखर आजाद।

अगर आपने अपनी आवाज उठाई तो बाहर का रास्ता दिखा दिया जायेगा। बगैर रीढ़ के
और सत्ता के लिए कुछ भी करेगें का भाव रखने वाले लोग देश के विभिन्न
महत्वपूर्ण पदों पर कभी भी बैठ जाते है। ऐसे लोगो के नेतृत्व में देश
घिसट-घिसट कर रेंग तो सकता है लेकिन संभलकर चल नहीं सकता। आजादी
के आंदोलन के समय सुभाष बाबू का देश से बलात निष्कासन और सरदार पटेल को
नेपथ्य में धकेलने की जो कूटनीतिक चाले चली गई, उसका परिणाम आज देश भुगत
रहा है। सत्ता के लिए कांग्रेसियों के जब प्राण निकल रहे थे जब अंग्रेजों
ने कांग्रेस नेतृत्व से पूछा था कि हम देश को आजाद करने जा रहे है, लेकिन
पहले काटेगे फिर बांटेगे और फिर तुम्हे सौंपेगे! बोलो तैयार हो!! और
दुर्भाग्य है कि कांग्रेस के नेता देश को बांटने के लिए तैयार हो गए।

सच तो यह है कि हमने आजादी अंग्रेजों की इच्छा से नहीं, बल्कि अपने बाहुबल
से प्राप्त की थी। वे हमें आजाद करके नहीं गए भारतीयों ने उन्हे भगाया। यह
बात सड़क पर चलते आम नागरिक की समझ में आ रही थी लेकिन नेहरू की समझ में
नहीं आई। उन्हे लगता था कि मांउटबैटन का मूड खराब हो गया तो शायद आजादी दूर
चली जायेगी। नेहरू को कौन समझाता कि बंबई बंदरगाह में हुए विस्फोट आजादी
के आने का शंखनाद था, न कि माउंटबैटन और एडविना का मायारूपी मकड़जाल।
सैफोलोजिस्ट से प्रभावित आज की राजनीति में उस समय के कुछ चुनावी आंकड़ों का
विश्लेषण करे तो परिणाम बड़े रोचक मिलते है। आज जो पाकिस्तान और बांग्लादेश
है वहां 1946 में प्रतिनिधि सभाओं के चुनावों में मुस्लिम लीग हार गई और
जो वर्तमान भारत है उसमें मुस्लिम लीग जीत गई। अर्थात वह मुस्लिम लीग जो
पाकिस्तान की मांग कर रही थी वह पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान में जनता
द्वारा अस्वीकार कर दी गई। बलूच, सिंध, पंजाब और बंगाल के मुसलिमों ने
मुस्लिम लीग को ठुकरा कर अपना वोट कांग्रेस को दिया था। बलूच
प्रान्त के गांधी, खान अब्दुल गफ््फार खान ने जीते जी कभी पाकिस्तान में
वोट नहीं डाला। जब तक जीवित रहे हर चुनाव में दिल्ली आते और भारत में वोट
डालते थे। उन्होने दिल्ली में अपना आवास सदा बनाए रखा। वे कहते थे, मैं
पाकिस्तान के वजूद को अस्वीकार करता हूं। जब तक जिंदा हूं। भारत का हूं और
भारत का रहूंगा।

कांग्रेस मुसलमानों से बातचीत के लिए मुस्लिम समाज से गलत प्रतिनिधियों का
चुनाव करती रही। अब्दुल गफ्फार खान जैसे देशभक्त को छोड़कर वह जिन्ना को सर
पर बिठाए घूमती रही। जिन्ना को ही मुसलमानों का एकमात्र नेता मानती रही। कांग्रेस के नेता जिन्ना से बार-बार कहते रहे - ''जिन्ना मेरे भाई मान जाओं, हम तुमसे प्रार्थना करते है, मान जाओं!''
दूसरी ओर जिन्ना उनकी हर मांग को अपनी सिग्रेट के धुंए में उन्ही में मुंह
पर उड़ाता रहा। यह कौनसी कूटनीति थी और कैसी राजनीति! तब भी समझ से परे थी
और आज भी। भारत को
धर्म के आधार पर बांटना भारत की गत शताब्दी का दूसरा काला पन्ना है। इस
काले पन्ने के लेखक, नायक और महानायक जवाहरलाल नेहरू और केवल नेहरू है। 
                                        (क्रमशः)
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बीसवीं सदी में भारत के इतिहास के 6 काले पन्ने (भाग 5)

चौथा काला पन्ना


भारतवासियों ने 1950 में संविधान की शपथ लेकर जन के तंत्र
को स्वीकार किया। हमने कहा कि देश की संचालक आम जनता रहेगी। वह जनप्रतिनिधि
चुनेगी और उनसे देश की सरकार चलवायेगी। अगर चलाने वालों ने अयोग्यता या
भ्रष्ट आचरण का प्रदर्शन किया तो उन्हे बदल देगी। पूरें देश के संचालन के
लिए एक व्यवस्था बनी, जो विधानसभा और लोकसभा के नाम से जानी जाने लगी।
वैसे
भारत में गणराज्यों की व्यवस्था का पुराना इतिहास है। मालव, शूद्रक,
वैशाली जैसे गणराज्यों का वर्णन भारतीय इतिहास में स्थान-स्थान पर मिलता
है। हम भारत के लोग स्वभाव से ही
प्रजातांत्रिक है। अधिनायकवाद हमें क्षणभर के लिए भी स्वीकार्य नहीं है।
तानाशाही चाहे तामसिक, राजसिक या सात्विक आवरण ओढ़कर भी आये तो वह भारतीयो
को स्वीकार्य नहीं। अतिवाद और आतंकवाद से भारतीयों को घृणा है। इस देश ने
कठमुल्लेपन को कभी महिमामण्डित नहीं किया, धर्मान्धता हमारे रक्त में नहीं
है।
ऐसे भारत के गणतंत्र में भी काला पन्ना लिखा गया।

                      प्रजातंत्र की
इस मातृभूमि में 25 जून 1975 की मध्य रात्रि में सत्ता के चाटुकारों और
दलालों द्वारा जनतंत्र से बलात्कार किया गया। रात के अंधेरे में सोते हुए
भारत के गणतंत्र पर जो हिटलरी हमला हुआ, वह गत शताब्दी का चौथा काला पन्ना
है। इसे लगाने वालों को भूलना स्वयं में सबसे बड़ा पाप है।
आपातकाल
लगाने की पूर्व बेला में भारत के मूर्धन्य पत्रकार, प्रसिद्ध लेखक व
संपादक श्री राजेन्द्र माथुर द्वारा लिखे गए एक संपादकीय के शब्दों को
दोहराना यहां सामयिक रहेगा। अपने लेख में वे लिखते है - ''देश
में आज का दिन चाटुकारों और जी-हजुरी करने वालों का बलि चढ़ गया, सही दिशा
देने के बजाय वे चरण भक्त इंदिरा गांधी का स्तुतिगान करते रहे। पार्टी के
नेता कहते रहे आप जैसा कोई नहीं है मैडम! आप तो आप है। हाईकोर्ट के निर्णय
से क्या फर्क पड़ता है! हम सुप्रीम कोर्ट चले जायेगें, आप प्रधानमंत्री पद
मत छोड़िये, आपके बगैर देश डूब जायेगा।''

हद तो तब हो गई कि कांग्रेस के राष्ट्रीय नेता देवकांत बरूआ ''इन्दिरा इज इण्डिया एंड इण्डिया इज इंदिरा''
जैसे नारे लगाने लगे और साठ करोड़ दिलो की धड़कन एक नई पहचान बन गई। इंदिरा
हिन्दुस्तान बन गई, इंदिरा हिन्दुस्तान बन गई जैसी कविताएं रची जाने लगी।
वैसे चापलूसी कांग्रेस का मूल चरित्र रही है। चाटुकारिता का काम वे पल दो पल नहीं, 24 घण्टे,365 दिन और पूरा जीवन बड़ी सहजता से करते है।25
जून 1975 के बाद कुछ ही दिनों में लाखों लोग जेलों में ठूंस दिए गए। उन्हे
अमानवीय यातनाएं दी गई। बोलने और लिखने की आजादी देश और देशवासियों से छीन
ली गई। हिटलर और मुसोलीनी की अधिनायकवादिता को अनुशासन पर्व पर रैपर चढ़ा
दिया गया। जेलों में बंद सामाजिक कार्यकर्ताओं के हाथ, पैरों के नाखून टेबल
और कुर्सियों के पायों से दबा-दबाकर निकाले गए। उनके गुप्तांगों पर
मरणांतक प्रहार किए गए। कई लोग अनाम मौत का शिकार हो गए। देश नारकीय कष्टों
से गुजरा। एक क्षण के लिए लगा, क्या देश ऐसी सुरंग में चला गया है जिसका
कभी अंत नहीं होगा। रह-रहकर शंका होने लगी कि अब हमारा अर्थात भारत का अंत
निश्चित है!

                             अधिनायकवादी
और अलोकतांत्रिक होना कांग्रेस का सहज स्वभाव है। वह धर्म के आधार पर भारत
को बांटते समय भी दिखता है, त्रिपुरी सम्मेलन के घटनाक्रमों में भी नजर
आता है, चीन की पराजय पर दिए गए जबाबों में भी साफ झलकता है। कांग्रेस का
यह स्वभाव दोष कल भी था, आज भी है और आगे भी रहेगा। जैसे हिंसक प्राणी
हिंसा से नहीं चूकता, वैसे ही कांग्रेस का नेतृत्व अधिनायकवादिता से नहीं
चूकता।
आपातकाल का अंत भी आपातकाल लगाने वालों के कारण नहीं हुआ था। वह दो प्रमुख कारणों से हुआ था।
एक - आपातकाल लगाने वाले कांग्रेस नेता इस गलतफहमी में थे कि हम चुनाव करवा
कर फिर से शासन में आ जायेगें। उन्होने सोचा कि पड़ोसी देशों में जनतंत्र
के नाम पर जिस प्रकार से चुनाव होते है, वैसे ही खानापूर्ति के लिए भारत
में भी चुनाव करवाकर हम फिर पांच सालों के लिए सत्ता हथिया लेगें। लेकिन
उनका यह अनुमान गलत निकला।
दूसरा - भारत इस प्रकार कर आततायी वृत्तियों से सदियों से लड़ता चला आया है। चूंकि भारतवासी
प्रकृति से प्रजातांत्रिक, स्वभाव से सहिष्णु व हमला होने या करने पर अजेय
योद्धा जैसा आचरण करते है इसलिए हम सही समय का इंतजार करते है, अपनी चेतना
को कभी मरने नहीं देते। हम भारतीयों पर ज्यादा दबाब दो तो चुप हो जाते है,
मजबूरी हो तो झुक भी जाते है। हमारे झुकने को कोई मिटना समझे और चुप रहने
को कायरता मान बैठे तो यह प्रतिद्वंदी की सबसे बड़ी भूल होती है। भारत को
गिरकर खड़ा होना बहुत अच्छी प्रकार से आता है। धर्म केन्द्रित हमारी इस
सांस्कृतिक चेतना के कारण हमने कांग्रेस द्वारा थोपे गए आपातकाल को उखाड़
फेंका।
कही आरएसएस ने नेतृत्व किया तो जनसंघ, अखिल भारतीय
विद्यार्थी परिषद, समाजवादी व अन्य जन संगठनों ने। वस्तुतः आपातकाल का हटना
ना तो कांग्रेस की हार थी न जनता पार्टी के लिए जीत। वह तो करोड़ों
भारतीयों के द्वारा विश्व को दिया हुआ एक संदेश था, उन्होने गरजकर घोषणा की
थी

हम
आततायियों के आक्रमण से नहीं डरते, अत्याचारियों के दबाब के सामने नहीं
झुकते, हम स्वभाव से प्रजातांत्रिक है और चेतना से स्वतंत्र है। कभी-कभी
दूसरों को लग सकता है कि हम दब गए है या लड़खड़ा रहे है लेकिन उठकर, संभलकर
किया हुआ हमारा पलटवार प्रतिद्वंदी के लिए प्राणांतक होता है। सच तो यह है
कि हमारे प्रहार क्षेत्र में आया हुआ
दुश्मन प्रहार के बाद पानी तक नहीं मांगता। हम अधिनायकवाद को जड़ मूल से
उखाड़ फेंकते है, हमारा विरोध कभी किसी व्यक्ति से नहीं रहा, हमारा विरोध
सदैव वृत्ति से रहा है।
भारत के हर छोटे-बड़े, अपने-अपने
स्थान पर नेतृत्व कर रहे या नेतृत्व करने की चाह रखने वाले नायको को यह एक
मंत्र कंठस्थ कर लेना होगा। चाहे फिर वह नेतृत्व सामाजिक, राजनैतिक,
धार्मिक या अन्य किसी क्षेत्र में हो। कोई बताने पर समझता है, कोई ठोकर
खाकर समझता है, तो कोई सब कुछ खोकर समझता है। कांग्रेस की अधिनायकवादी
नेतृत्व की वृत्ति कब और कैसे समझती है। वह 1977 में ठोकर खाकर तो नहीं
समझती शायद सबकुछ खोकर समझ जाये। आपातकाल लगाकर कांग्रेस ने देश की गत
शताब्दी का चौथा बड़ा पाप किया। आपातकाल लगाना व जनता को उसे भोगना भारतीय
गणतंत्र के इतिहास में 2000 साल बाद भी शिक्षा व बोध कथाओं का हिस्सा बना
रहेगा। बच्चों को पढ़ाया जाता रहेगा कि सन् 1975 में हमारे देश में एक ऐसा
घृणित कार्य हुआ था। कांग्रेस नाम का एक राजनैतिक दल था, उसकी नेता इंदिरा
गांधी नाम की महिला थी, उसने वा उसके साथियों ने देश में प्रजातंत्र की
हत्या करने का प्रयास किया किंतु तत्कालीन भारतीय जनता ने उसे सिरे से नकार
दिया।

हे देश के भावी कर्णधारों! तुम्हारे समय
में भी कभी ऐसा हो तो तुम भी वैसे ही लड़ना जैसे 1975 से 1977 तक हमारे देश
के लोग जनतंत्र के लिए लड़े थे।
(आपको यह लेखमाला कैसी लगी? कृपया अपने विचारों से अवगत अवश्य करावें )
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बीसवीं सदी में भारत के इतिहास के 6 काले पन्ने (भाग 6)

पांचवां काला पन्ना

सदी का पांचवां काला पन्ना लिखा नेहरू-गांधी खानदान के उत्तराधिकारी व भारत
के पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी ने। उन दिनों श्रीलंका गृहयुद्ध
से जूझ रहा था। लिट्टे और श्रीलंका सेना के बीच संघर्ष जोरो पर था। लिट्टे
अपने लिए स्वतंत्र देश तमिल ईलम की मांग कर रहा था। भारत के प्रांत
तमिलनाडू में तमिल संख्या कह बहुलता होने के कारण लिट्टे का प्रभाव था। यू
तो 1983 से भारत की श्रीलंका पर प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्ष दृष्टि थी। राजीव
गांधी ने अपने पड़ोसियों से सम्बंध सुधारने के नाम पर इन्टरनेशनल स्तर पर
अपने नेतृत्व की धाक स्थापित करने की इच्छा से जून 1987 में यह कदम उठाया।
प्रसिद्धि की चमक और ताकत की धमक के कारण उन्होने अपनी महत्वाकांक्षा की
पूर्ति के लिए भारतीय सेना को दांव पर लगा दिया। किसी युद्ध में भारत को
ऐसी सैन्य हानि नहीं हुई, जितनी शांति सेना को श्रीलंका में भेजकर देश को
चुकानी पड़ी। भारत भूमि की रक्षा के लिए हमारा सैनिक हंसते-हंसते अपने
प्राणों की आहुति दे देता है, सैनिक का परिवार और समाज उसे शहीद के रूप में
बरसों तक पूजता रहता है। पर श्रीलंका में शांति सेना के सैनिकों के बलिदान
का उद्देश्य तब भी समझ से परे था और आज भी है। लड़ते हुए सैनिक शायद ही समझ
पाये हो कि वे क्यों लड़ रहे है। शांति के लिए युद्ध राजीव गांधी में भी
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वयं को ख्याति देने की महत्वाकांक्षा ठीक वैसी
ही थी जैसी कभी नेहरू के मन में समाई थी। शायद इसी के चलते उन्होने भारत की
सुरक्षा और भावना दोनो को बलात तो में रखकर शांति सेना श्रीलंका में भेज
दी।
 श्री राजीव गांधी का अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में अपना महारथ दिखाने का
प्रयास अपरिपक्व राजनीति और अदूरदर्शी कूटनीति से भरा था। यह निर्णय हमारी
सेना की हानि के साथ-साथ आने वाले कई सालों तक दो देशों की जनता के बीच
अलगाव के बीज बो गया। तात्कालीन प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह की बात दोहराये
तो राजीव के इस निर्णय से हमारे अमूल्य 1100 सैनिकों के प्राण और भारत की
जनता की गाढ़ी कमाई के लगभग 2000 करोड़ रूपयें गंवाए है। राजनीतिक और सैन्य
दृष्टि से यह निर्णय भारत के पक्ष में नहीं था, यह जानकर वी.पी. सिंह ने
सेना को श्रीलंका से वापिस बुला लिया। 24 मार्च 1990 को अंतिम बेड़ा
श्रीलंका की धरती को छोड़कर भारत की ओर चला आया।
 श्रीलंका का संकट समाप्ति के नाम पर भेजे गए व्यक्तियों का, वापसी के बाद
कहना था कि हमारा उद्देश्य मानवीय दृष्टिकोण से श्रीलंका की मदद करना था।
शांति सेना के जवानों का कहना था कि हम तो शांति सेना में थे, पर अचानक हम
बिना किसी स्पष्ट आदेश के एक युद्ध के बीच में पंहुच गए। हमारे पास अपने
संसाधन और यंत्र भी नहीं थे। हमें ऐसा महसूस हो रहा था कि हम अपने ही लोगो
को मार रहे हो।
श्रीलंका की जनता के बीच शांति सेना के विरूद्ध तीव्र आक्रोश था। इसी के
चलते शांति सेना के सैनिकों को लिट्टे के सैनिक और जनता दोनो ओर से मार
सहनी पड़ी। श्रीलंका की सेना अपने राष्ट्रीय गौरव के मान से भारत की भेजी
शांति सेना के विरूद्ध थी और उसने दुनियाभर में यह प्रचार कर दिया कि
भारतीय शांति सेना मानवाधिकारों का उल्लंघन कर रही है। दुनियाभर में शांति
सेना के विरूद्ध हत्या, बलात्कार, लूट, महिलाओं एवं बच्चों के साथ गलत
व्यवहार के समाचार मनगढन्त तरीके से प्रचारित किए गए। शायद यह पहला मौका था
कि जब दुनिया में भारत जैसे देश की महान सेना इस कदर बदनाम हो रही थी और
सच यह था कि उसी सेना के साथ अमानवीय व्यवहार हो रहा था। इन सबके पीछे एक
मात्र कारण राजीव गांधी की अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा और कूटनीतिक
अपरिपक्वता थी। उनके चाटुकार यहां तक मानते व कहते थे कि ऐसा करने से उन्हे
शांति का नोबल पुरस्कार भी मिल सकता है।
 भारत की करीब-करीब सभी राजनैतिक पार्टियों ने राजीव गांधी के इस निर्णय का
विरोध किया। बड़ी राजनैतिक पार्टियों ने अपना विरोध संसद के अंदर और बाहर
भी प्रकट किया। क्षेत्रीय पार्टिया भी तमिलनाडु की डीएमके के नेतृत्व में
लामबन्द हो गई। भारत में ऐसा पहली बार हो रहा था कि भारत की संना का विरोध
भारत की जनता या राजनीतिक पार्टिया कर रहे थे। तमिलनाडु में अक्टूबर-
नवम्बर 1987 में आंदोलन हुआ, तो उसके पूर्व 22 अक्टूबर 1987 को
प्रदेशव्यापी रेल रोको आंदोलन हुआ। इससे पूर्व 22 अक्टूबर 1987 को ही एक
विशाल जनसभा का आयोजन डीएमके के नेतृत्व में हुआ जिसमें एक ही आवाज उठ रही
थी कि शांति सेना को वापिस बुलाओं। इस सभा में आन्ध्रप्रदेश के तत्कालीन
मुख्यमंत्री एन.टी. रामाराव, अकाली दल के सांसद आहलुवालिया, कांग्रेस आई के
सांसद के.पी. उन्नीकृष्णन, लोकदल नेता अजित सिंह एवं सुब्रमण्यम स्वामी और
टीडीपी के सांसद पी. उपेन्द्र भी शामिल हुए। पूरे देश की आवाज शांति सेना
को वापस बुलाने में एक साथ थी।
 वहीं दूसरी ओर राजीव गांधी का राजनैतिक खेल चल रहा था। वह एक ओर शांति
सेना को श्रीलंका में भेजकर लिट्टे के विरूद्ध संघर्ष की बात कर रहे थे तो
दूसरी ओर लिट्टे को वित्तीय मदद देने के आरोप भी राजीव पर लग रहे थे। पूरे
खेल में बाजी भारत हार रहा था। मर रहे थे भारतीय सैनिक और खो रही थी भारत
की जनता अपना अमूल्य धन। जब 2 जनवरी 1989 को राणासिंघे प्रेमदासा श्रीलंका
के राष्ट्रपति बने तो उन्होने 1989 में शांति सेना को 3 माह के भीतर
श्रीलंका छोड़ने की बात कही। प्रेमदासा को उस दौरान श्रीलंका की जनता का 95
प्रतिशत समर्थन मिल रहा था। परन्तु राजीव गांधी का मानना था कि लिट्टे और
श्रीलंका सरकार के मध्य समझौता होने पर ही शांति सेना की वापसी हो। दिसम्बर
1989 में भारत में चुनाव हुए और वी.पी. सिंह भारत के प्रधानमंत्री बने।
वीपी सिंह के निर्णय पर शांति सेना की वापसी सुनिश्चित हुई। केवल नेहरू-
इंदिरा वंश में जन्म लेने के कारण अचानक देश की राजनीति में सर्वोच्च पद पर
पंहुचे राजीव गांधी ने न भारत की सरकार को समझा न भारत के जन के मन को।
राजीव गांधी के असफल प्रयास का अंत देश के जन व धन की अपार हानि से पूरा
हुआ, भारत ने सब कुछ खोया- स्वाभिमान खोया, गौरव खोया और अंत में अपना युवा
पूर्व प्रधानमंत्री भी खो दिया।                                   
(क्रमशः)
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बीसवीं सदी में भारतीय इतिहास के छः काले पन्ने:- भाग 6

काला पन्ना जो लिखा जा रहा है
यह
काला पन्ना अभी पूरा लिखा नहीं गया है। वह हर रोज आगे और आगे लिखा जा रहा
है। गत 50-60 सालों से उसे लिखे जाने का कार्य जारी है। भारतवासी गत 1000
सालों से आतंकवाद से लड़ रहे है शायद आपको स्मरण हो तो मोहम्मद बिन कासिम से
लेकर मोहम्मद अली जिन्ना तक। और मोहम्मद अली जिन्ना से लेकर आज तक कितने
नाम कितने ही रूपों में हमारे सामने आये है। भारत में दो प्रकार का आतंकवाद
है प्रथम:- कट्टरपंथी इस्लामिक चिंतन से उपजा आतंकवाद और दूसरा है वामपंथी
विचारधारा के विभिन्न संगठनों से उपजा माओवाद और नक्सलवाद। ये देश के
विभिन्न हिस्सों में समय-समय पर पनपते रहते है, हमारे रक्षा संगठनों को
इनसे 24 घंटे और 365 दिन लड़ना पड़़ता है। दुर्बल और तुष्टिकरण चाहने वाले
राजनेता इसके विरूद्ध प्राणांतक प्रहार से न केवल बचाते है बल्कि उन्हे
अनुकूलता पैदा हो इसके लिए अप्रत्यक्ष सहयोग भी करते है। रक्षा संस्थाएं
अपनी प्रामाणिकता के लिए सीता की भांति आये दिन अग्नि परीक्षा देती रहती
है। मानवाधिकार व न्याय व्यवस्था के झण्डाबरदार पुलिस व सेना द्वारा मारे
गए लोगो को तार-तार कर समझती और जांचती रहती है। किन्तु आतंकवादियों के
हाथों मरने वालों पर शायद ही कभी विचार करती है! जे लोग निर्दोष लोगों को
मारते है, कमजोरों, बीमारों, बच्चों और महिलाओं को बम से उड़ाते है, वे भला
कही मानव हो सकते है। वे हर लिहाज से अमानव है, लेकिन मानवाधिकारवादी और
उनके समर्थक तथाकथित बुद्धिजीवी उनका पक्ष लेकर सुरक्षा बलों का मनोबल
तोड़ने का काम आये दिन करते रहते है।
 आज पूरा विश्व आतंकवाद से जूझ रहा है। कुल आंतक की घटनाओं में से 95
प्रतिशत जेहाद के नाम पर की जाती है। आतंकवादी सब कुछ इस्लाम, अल्लाह और
कुरान के नाम का दुरूपयोग करते हुए करते है। वे पूरे विश्व को इस्लाम में
बदलना चाहते है। उनका स्वप्न है: दारूल इस्लाम अर्थात विश्व में इस्लाम के
अलावा कोई मत, पंथ, धर्म व संस्कृति ना रहे। अन्य मुस्लिम राष्ट्रों को
छोड़कर अकेले पाकिस्तान और बांग्लादेश का विचार करेगें तो पायेगें कि ये
पीद्दी से देश आतंकवाद की सबसे बड़ी चारागाह है। नवम्बर 2001 में न्यूजलाईन
कराची चौंकाने वाले आंकड़े देता है। वह लिखता है कि गृह मंत्रालय के आंकड़ों
के अनुसार, देश में करीब 20,000 मदरसे चल रहे है जिनमें करीब 3 करोड़ छात्र
अध्ययनरत है। 7000 मदरसे देवबंदी धारा से सम्बधित है, अधिकांश; कट्टरपंथी
लड़के इसी धारा से तैयार होकर निकले है। चार वर्ष और इससे अधिक उम्र के लगभग
7 लाख विद्यार्थी देवबंदी सम्प्रदाय के धार्मिक विद्यालयों में पढ़ रहे है।
यह अनुमान लगाया जा रहा है कि अगर मदरसों की संख्या में इसी प्रकार वृद्धि
होती रही तो सन 2010-2011 तक मदरसों की कुल संख्या पाकिस्तान सरकार द्वारा
चलाये जा रहे प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों के बराबर हो जायेगी।
 देवबंदी से जुड़े कुछ लोगों को कहना है कि उनके मदरसों में बालिग; तरूणाई
की उम्र, जो चेहरे पर मूंछों और दाड़ी के बाल देखकर निश्चित की जाती है;
होने तक विद्यार्थियों को मूल रूप से कुरान और उसकी व्याख्याऐं पढ़ाई जाती
है। जब वे बालिग हो जाते है तो उन्हे जेहाद के लिए प्रेरित किया जाता है।
सूत्रों का कहना है कि इन मदरसों में आज भी लगभग 3 लाख विद्यार्थी ऐसे है
जिन्हे जेहाद के लिए प्रेरित किया जा रहा है। मदरसों में सुबह 3 घण्टे और
दोपहर में 3 घण्टे निरंतर जो शिक्षा दी जाती है, उसके सम्बंध में श्री अरूण
शौरी अपनी पुस्तक पाकिस्तान-बांग्लादेश आतंकवाद के पोषक में एक स्थान पर
लिखते है कि:- कुरान के फायदों पर चली लम्बी बहस के बाद मैने विद्यार्थियों
से पूछा कि स्कूल शिक्षा पाने के बाद उनमें से कौन-कौन डॉक्टर या इंजीयिर
बनना चाहता है? जबाब में सिर्फ दो हाथ खड़े हुए। जब मैनें यह पूछा कि बड़े
हाकर जेहाद के लिए कितने लोग लड़ना चाहते है? तब जबाब में हर विद्यार्थी ने
अपना हाथ तपाक से उठा दिया। आश्चर्य की बात तो यह है कि इनमें से अधिकतर
बच्चों की उम्र 10 साल से कम थी। जब तक धार्मिक शिक्षा के नाम से ऐसी
जेहादी शिक्षा बच्चों को दी जाती रहेगी तब तक पाकिस्तान शांति का दावा कैसे
कर सकता है? पेशावर के बाहरी हिस्सों में चल रहे मदरसों का मुआयना करके
दूरदर्शन पर एक कार्यक्रम प्रसारित किया गया। इसमें शंकर शरण की पुस्तक द
मदरसा क्वेश्चन एण्ड टेररिज्म में कुछ यू उद्धृत किया गया है; गांधी मार्ग,
अप्रेल-जून 2002ः लश्कर-ए-तैयबा को गैर कानूनी संगठन घोषित किए जाने के
बाद जो कश्मीर में भारत विरोधी गतिविधियों में लिप्त थे, उन्हे फिर से
बसाया गया, जेहाद करने को कहा गया। लश्कर-ए-तैयबा को गैर कानूनी संगठन
घोषित करने के एक सप्ताह पहले उसका नेतृत्व छोड़कर सईद व उसके अनुयायियों ने
कहा कि उन्होने नये बैनर तले जमात-उद-दावा के नाम से नया संगठन खड़ा कर
लिया है। जमात-उद-दावा के सदस्य अबू मूजाहिद नदीम ने कहा, लश्कर के
आंतकवादी कश्मीर में तो सक्रिय है, लेकिन अभी पाकिस्तान में उनका अस्तित्व
नहीं है। इसकी कोई जरूरत नहीं है। हम सिर्फ धर्म की शिक्षा दे रहें है।
लोगों को हम कुरान के अनुसार शिक्षित कर रहे है, जिसमें जेहाद का आह्वान
किया गया है।
 पाकिस्तान के उन मदरसों में कुरान के नाम पर जो पढ़ाया जाता है, वह कुछ-कुछ इस प्रकार है:-
अल्लाह की नजर में सबसे बुरा आदमी वह है जो अल्लाह को नहीं मानता, जो उसमें विश्वास नहीं रखता (8/55)
बच्चों को अल्लाह और कुरान का हवाला देते हुए बताया जाता है कि अपनी गलत
धारणाओं की वजह से वे अल्लाह के आदेशों का बेजा इस्तेमाल कर रहे है और वचन
भंग कर रहे है। (5/14)
उन्होने ईसा की बात को भी ठुकरा दिया है, जिन्होने उनसे कहा था कि वे अल्लाह की पूजा करें ना कि उनकी। (5/116-118)
वे हमेशा छल-कपट की फिराक में लगे रहते है
वे गलत तर्को का सहारा लेते हुए कहते है कि वे तो पहले यहूदी या ईसाई थे
जबकि सच्चाई यह है कि वे सभी मुस्लिम थे। (जैसा कि कुरान में कई स्थानों पर
उल्लेख है उाहरणार्थ 2/149)
वे तुम्हे पथभ्रष्ट करने की कोशिश करते है।
वे सच्चाई को झूठ का जामा पहना कर उसे ढकना चाहते है।
बच्चों को पढाया जाता है कि वे (नास्तिक लोग) अल्लाह और पैगम्बर की निंदा
करते है। वे अल्लाह की यह कहकर निंदा करते है कि ईसा मसीह भगवान है और उसकी
पूजा करनी चाहिए।
वे अल्लाह की यह कहकर निंदा करते है कि ईसा मसीह ईश्वर के पुत्र है।
और ऐसा कहकर वे अल्लाह के कोप का भाजन बनते है।
वे अल्लाह की निंदा यह कहकर करते है कि वह एक नहीं तीन है।
वे झगड़ालू लोग है।
ईसा तो महज एक धर्म प्रचारक थे, वे अल्लाह के सेवक से अधिक कुछ नहीं थे।
 इस प्रकार की पाकिस्तान में दी जा रही शिक्षा का परिणाम यह है कि अकेले
भारत में पिछले 20 सालों में 60 हजार से अधिक जाने आंतकवादियों ने ली है।
इसमें बच्चे, बूढ़े, महिलाऐं, जवान सभी शामिल है और यह सब जेहाद के नाम पर
हो रहा है। विकसित और विकासशील देशों में ऐसा कौनसा देश बचा है जो आंतकवाद
से मुक्त हो? ब्रिटेन, फ्रांस, हालैण्ड, आस्ट्रेलिया, अमेरिका, कनाडा में
तो यह गले तक आ गया है। कभी भारत में होने वाली आंतकवादी वारदातों पर ।। यह
भारत और पाकिस्तान का आंतरिक मामला है।। कहकर चुप्पी साध लेने वाला
अमेरिका अलकायदा द्वारा उसकी दो इमारतों को गिरा देने से इतना घबराया कि
पूरी दुनियाभर में ओसामा को तलाशता रहा और वो ओसामा मिला भी तो कहा-
अमेरिका की नाक के नीचे उसके पिट्ठू पाकिस्तान में! विकासशील देशों के कुछ
तथाकथित मानवाधिकारवादी कश्मीर में हिन्दुओं की हत्या पर स्थानीय जनता
द्वारा स्वाधीनता के लिए किए जा रहे संघर्ष स ेउपजी हिंसा बताते है। आज वे
ही स्वयं आंतकवाद से पीड़ित होने पर इसे वैश्विक लड़ाई बता रहे है। आओ, मिलकर
साथ लड़े का नारा देने लगे है। आज भारत में ऐसी कौनसी तहसील या खण्ड है
जहां आईएसआई कोई वाक्या करने में सक्षम नहीं है ! भारत सरकार का ऐसा कौनसा
विभाग है जहां उसकी पंहुच नहीं है! आंतकवादी भारतवासियों पर हमला करने का
समय, स्थान और माध्यम आपनी इच्छा से चयन करते है। हम रात-दिन सुरक्षात्मक
रवैया अपनाए अपनी जान और इज्जत बचाने में लगे रहते है।
         (क्रमशः)
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3/19/2012


चंद्रगुप्त और चाणक्य को वृद्धा की सीख

सम्राट
चंद्रगुप्त एवं चाणक्य की वीरता एवं बुद्धिमता का लोहा सभी मानते है ,
चाणक्य की कुटनीति विश्व की सर्वश्रेष्ठ कुटनीति मानी जाती है , फिर भी एक
बार उनसे गलती हो गई थी और जिसके फलस्वरूप उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा
था । दरअसल नन्द राज्य को जीतने के लिये उन लोगों ने सीधा पाटलीपुत्र पर ही
हमला कर दिया था और इस कारण उन्हें हार का मुँह देखना पड़ा और मारे - मारे
जंगलों में भी भटकना पड़ा था ।
इसी प्रकार जब वो भूखे - प्यासे एक दिन जंगल में भटक रहे थे तो उन्हें एक
झोपड़ी दिखी । झोपड़ी के पास पहुँच कर जब उन्होंने आवाज दी तो अंदर से एक
वृद्धा निकली । वह अत्यंत ही गरीब थी परन्तु उसका हृदय अत्यंत विशाल एवं
प्रेम से परिपूर्ण था ।
जब उस वृद्धा ने अपने द्वार पर दो - दो अतिथितियों को देखा , तो वह खुशी से
जैसे पागल हो गई । उसे यह नहीं पता था कि उसकी कुटिया में सम्राट
चंद्रगुप्त एवं उनके बुद्धिमान मंत्री चाणक्य आये है । वह वृद्धा उन्हें
केवल अतिथि मान कर उनकी आवाभगत करने लगी । उन्हें बड़े सम्मान से टूटी खाट
पर बिठाया और ठंडा पानी पिलाया ।
कुछ देर बाद वृद्धा ने देखा कि अतिथि तो वहीं पर बैठे है और कुछ परेशान से
लग रहे है । तो उसने अपने अतिथियों से कहा - ' तुम लोग थके परेशान से लग
रहे हो । यही बैठकर आराम करो , तब तक मैं कुछ खाना बनाती हूँ । '
शाम होने को थी । वृद्धा ने अपनी कुटिया के एक कोने में बने चूल्हे को
जलाया और उस पर खिचड़ी बनाने को रख दी । थोड़ी ही देर बाद वृद्धा का लड़का खेत
से लौटा और अपनी माँ से बोला - ' मुझे कुछ खाने को दो , बहुत जोर से भूख
लगी है । ' खिचड़ी बनकर तैयार हो चुकी थी । वृद्धा ने अपने पुत्र के सामने
खिचड़ी भरी थाली परोस दी । पुत्र बहुत भूखा था । उसने शीघ्रता पूर्वक अपना
हाथ खिचड़ी में डाल दिया और जोर से चीख पड़ा । वृद्धा अपने पुत्र की चीख
सुनकर घबराते हुये उसके पास पहुँची और पूछा - ' क्या हुआ , तुम चीखे क्यों
थे ? ' , ' कुछ नहीं माँ , खिचड़ी बहुत गर्म थी । मेरा हाथ जल गया । ' लड़के
ने उत्तर दिया । पुत्र की व्याकुलता की भर्त्सना करते हुए वृद्धा बोली - '
अरे अभागे ! क्या तू भी चंद्रगुप्त और चाणक्य जैसा ही बेवकूफ है । '
वृद्धा की जुबान पर अपना नाम सुनते ही चन्द्रगुप्त और चाणक्य के कान खड़े हो
गये । उन्होंने वृद्धा से पूछा - ' अम्मा , चंद्रगुप्त एवं चाणक्य आखिर
मूर्ख कैसे है , उन्होंने क्या मूर्खता की है ? और फिर आपने अपने पुत्र को
उनका उद्दाहरण क्यों दिया ? '
वृद्धा हास्यपूर्ण मुद्रा में बोली - ' देखों बेटा , राजा चंद्रगुप्त और
चाणक्य ने गलती की थी , तभी तो मैं उनका उदाहरण अपने पुत्र को दे रही थी ।
चंद्रगुप्त एक शक्तिशाली राजा है और चाणक्य उनका बुद्धिमान मंत्री है । वो
लोग नन्द वंश का नाश करना चाहते थे पर उनमें इतनी भी बुद्धि नहीं थी कि
पहले आसपास के छोटे - मोटे राजाओं को जीतते , तब राजधानी पर आक्रमण करते ।
इससे जीते हुये राजाओं का भी उन्हें सहयोग प्राप्त हो जाता । परन्तु
उन्होंने ऐसा नहीं किया । उन मूर्खो ने सीधे ही बीच में जाकर राजधानी
पाटलीपुत्र पर चढ़ाई कर दी और किसी की सहायता न मिलने के कारण वो हार गये ।
ठीक इसी प्रकार मेरे पुत्र ने भी आचरण किया । उसने भी गर्म खिचड़ी में ही
सीधे हाथ डाल दिया । उसे चाहिये था कि पहले आस पास यानि की थाली के किनारों
की खिचड़ी लेकर ठंडा करता और फिर उसे खाता । '
वृद्धा की बात सुनकर चंद्रगुप्त और चाणक्य की आखें खुल गई । उन्होंने उसकी
बात को सीख मानकर और अपनी बुद्धि का उपयोग करके , अंत में नन्द पर विजय
प्राप्त कर नन्दवंश का नाश कर दिया ।
राष्ट्र सेवा के संकल्पी मित्रों यदि हमें सच में माँ भारती और इसकी
संस्कृति की रक्षा करनी है , तो वेकिटन या अरबपंथीयों पर विजय करने से
पूर्व हमें अपने देश के छद्म सेक्यूलर दरिंदों पर विजय प्राप्त करनी होगी ।
हमें असली खतरा इन्ही गद्दारों से है , यदि ये गद्दार न होते तो भारत
कदापि बाहर से आई कुछ मुठ्ठीभर साम्राज्यवादी साम्प्रदायिक ताकतों का गुलाम
न बना होता ।
वन्दे मातरम्
जय जय माँ भारती ।

10/31/2011


बापू ने कहा था, जरूरी था कश्मीर में सेना भेजना

अहिंसा
के सबसे बड़े प्रवर्तक महात्मा गांधी ने कश्मीर में सेना भेजने के फैसले की
हिमायत की थी और स्पष्ट तौर पर कहा था कि भारतीय सेना हमले के इरादे से
कश्मीर नहीं गई, बल्कि शेख अब्दुल्ला और कश्मीर के महाराजा की अपील पर वहां
पहुंची।



अपने निधन से कुछ दिन पूर्व 20 जनवरी, 1948 को एक प्रार्थना सभा में दिए और
प्रार्थना प्रवचन में प्रकाशित भाषण में बापू ने कहा कि मुझे कश्मीर
फ्रीड़ा लीग के अध्यक्ष का लाहौर से एक तार मिला है, जिसमें उन्होंने
कश्मीर में भारतीय सेना के प्रवेश को हमले के रूप में पेश किया और सेना की
वापसी की मांग की है।

उन्होंने
कहा कि इस तार ने मुझे विचलित किया है। अगर कश्मीर का कोई समाधान नहीं
निकलता तो स्थिति को क्या ऐसे ही छोड़ दिया जाए और मुसलमान, हिन्दू तथा सिख
एक-दूसरे के दुश्मन बने रहें।



महात्मा गांधी ने कहा था कि  मैं इस बात से
सहमत नहीं हूं कि हमारी सरकार का कश्मीर में सेना को भेजना किसी तरह का
हमला था। सशस्त्र बलों को कश्मीर के प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला और महाराजा
की अपील पर भेजा गया था।





उन्होंने दलील दी थी कि यह सही है कि कश्मीर उसी के साथ होना चाहिए जिसका
यह है। इस स्थिति में जो लोग भी बाहर से आए हैं चाहे वह अफरीदी हो या कोई
अन्य, उन्हें कश्मीर से निकल जाना चाहिए। मैं पुंछ में लोगों के विद्रोह के
खिलाफ नहीं हूं लेकिन मैं विद्रोह के जरिए पूरे कश्मीर पर कब्जा करने का
विरोध करता हूं।

 
     

उन्होंने कहा था कि मैं यह तब समझ सकता हूं जब बाहर से आए सभी लोग कश्मीर
से चले जाएं और कहीं से कोई बाहरी हस्तक्षेप या मदद या शिकायत नहीं हो।
लेकिन मेरी समझ में यह नहीं आता कि बाहर से आए लोग कश्मीर में मौजूद हों और
अन्य लोगों को बाहर जाने को कहें। कश्मीर किससे जुड़ा हुआ है, अभी मैं यह
कह सकता हूं कि यह महाराजा का है क्योंकि महाराजा अभी भी हैं।

बापू ने कहा था कि सरकार की नजर में महाराज अभी भी वैध शासक है। और अगर
महाराज दुष्ट शासक है तो मेरी नजर में उन्हें हटाना सरकार का काम है। लेकिन
अभी तक ऐसी स्थिति नहीं आई है। कश्मीर के मुसलमान भी इस विषय पर अपना मत
रखेंगे तो किसी को कोई शिकायत नहीं होगी।




गांधी जी के मुताबिक इस विषय पर उनका रूख स्पष्ट है और वह मुसलमानों के दुश्मन नहीं हो सकते।

जम्मू - कश्मीर समस्या पर सरदार पटेल व नेहरू में मतभेद

राष्ट्र-निर्माता
लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल 'लौह पुरुष के नाम से विख्यात सरदार पटेल
को भारत के गृह मंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान कश्मीर के
संवेदनशील मामले को सुलझाने में कई गंभीर मुश्किलों का सामना करना पड़ा था।
उनका मानना था कि कश्मीर मामले को संयुक्त राष्ट्र में नहीं ले जाना चाहिए
था। वास्तव में सयुक्त राष्ट्र में ले जाने से पहले ही इस मामले को भारत
के हित में सुलझाया जा सकता था। हैदराबाद रियासत के संबंध में सरदार पटेल
समझौते के लिए भी तैयार नहीं थे। बाद में लॉर्ड माउंटबेटन के आग्रह पर ही
वह 20 नवंबर, 1947 को निजाम द्वारा बाह्म मामले भारत रक्षा एवं संचार
मंत्रालय भारत सरकार को सौंपे जाने की बात पर सहमत हुए। हैदराबाद के भारत
में विलय के प्रस्ताव को निजाम द्वारा अस्वीकार कर दिए जाने पर अतंत: वहाँ
सैनिक अभियान का नेतृत्व करने के लिए सरदार पटेल ने जनरल जे.एन. चौधरी को
नियुक्त करते हुए शीघ्रातिशीघ्र कार्यवाई पूरी करने का निर्देश दिया। सैनिक
हैदराबाद पहुँच गए और सप्ताह भर में ही हैदराबाद का भारत में विधिवत् विलय
कर लिया गया।

यदि सरदार पटेल
को कश्मीर समस्या सुलझाने की अनुमति दी जाती, जैसा कि उन्होंने स्वयं भी
अनुभव किया था, तो हैदराबाद की तरह यह समस्या भी सोद्देश्यपूर्ण ढंग से
सुलझ जाती। एक बार सरदार पटेल ने स्वयं श्री एच.वी.कामत को बताया था कि
''यदि जवाहरलाल नेहरू और गोपालस्वामी आयंगर कश्मीर मुद्दे पर हस्तक्षेप न
करते और उसे गृह मंत्रालय से अलग न करते तो मैं हैदराबाद की तरह ही इस
मुद्दे को भी आसानी से देश-हित में सुलझा लेता।
हैदराबाद
के मामले में भी जवाहरलाल नेहरू सैनिक काररवाई के पक्ष में नही थे।
उन्होंने सरदार पटेल को यह परामर्श दिया-''इस प्रकार से मसले को सुलझाने
में पूरा खतरा और अनिश्चितता है।'' वे चाहते थे कि हैदराबाद में की
जानेवाली सैनिक काररवाई को स्थगित कर दिया जाए। इससे राष्ट्रीय एवं
अंतरराष्ट्रीय जटिलताएँ उत्पन्न हो सकती हैं। प्रख्यात कांग्रेसी नेता
प्रो.एन.जी.रंगा की भी राय थी कि विलंब से की गई काररवाई के लिए नेहरू,
मौलाना और माउंटबेटन जिम्मेदार हैं। रंगा लिखते हैं कि हैदराबाद के मामले
में सरदार पटेल स्वयं अनुभव करते थे कि उन्होंने यदि जवाहरलाल नेहरू की
सलाहें मान ली होतीं तो हैदराबाद मामला उलझ जाता; कमोबेश वैसी ही सलाहें
मौलाना आजाद एवं लार्ड माउंटबेटन की भी थीं। सरदार पटेल हैदराबाद के भारत
में शीघ्र विलय के पक्ष में थे, लेकिन जवाहरलाल नेहरू इससे सहमत नहीं थे।
लॉर्ड माउंटबेटन की कूटनीति भी ऐसी थी कि सरदार पटेल के विचार और प्रयासों
को साकार रूप देने में विलंब हो गया।
सरदार
पटेल के राजनीतिक विरोधियों ने उन्हें मुसलिम वर्ग के विरोधी के रूप में
वर्णित किया; लेकिन वास्तव में सरदार पटेल हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए
संघर्षरत रहे। इस धारणा की पुष्टि उनके विचारों एवं कार्यों से होती है।
यहाँ तक कि गांधीजी ने भी स्पष्ट किया था कि ''सरदार पटेल को मुसलिम-विरोधी
बताना सत्य को झुठलाना है। यह बहुत बड़ी विडंबना है।'' वस्तुत:
स्वतंत्रता-प्राप्ति के तत्काल बाद अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय में दिए गए
उनके व्याख्यान में हिंदू-मुसलिम प्रश्न पर उनके विचारों की पुष्टि होती
है।
इसी
प्रकार, निहित स्वार्थ के वशीभूत होकर लोगों ने नेहरू और पटेल के बीच
विवाद को बढ़ा-चढ़ाकर प्रचारित किया तथा जान-बूझकर पटेल व नेहरू के बीच
परस्पर मान-सम्मान और स्नेह की उपेक्षा थी। इन दोनों दिग्गज नेताओं के बीच
एक-दूसरे के प्रति आदर और स्नेह के भाव उन पत्रों से झलकते हैं, जो
उन्होंने गांधीजी की हत्या के बाद एक-दूसरे को लिखे थे। निस्संदेह, सरदार
पटेल की कांग्रेस संगठन पर मजबूत पकड़ थी और नेहरूजी को वे आसानी से (वोटों
से) पराजित कर सकते थे। लेकिन वे गांधीजी की इच्छा का सम्मान रखते हुए
दूसरे नंबर पर रहकर संतुष्ट थे। उन्होंने राष्ट्र के कल्याण को सर्वोपरि
स्थान दिया।
विदेश
नीति के संबंध में सरदार पटेल के विचारों के बारे में लोगों को बहुत कम
जानकारी हैं, जो उन्होंने मंत्रिमंडल की बैठकों में स्पष्ट रूप से व्यक्त
किए थे तथा पं.नेहरू पर लगातार दबाव डाला कि राष्ट्रीय हित में ब्रिटिश
राष्ट्रमंडल का सदस्य बनने से भारत को मदद मिलेगी। जबकि नेहरू पूर्ण स्वराज
पर अड़े रहे, जिसका अर्थ था-राष्ट्रमंडल से किसी भी प्रकार का नाता न
जोडऩा। किंतु फिर भी, सरदार पटेल के व्यावहारिक एवं दृढ़ विचार के कारण
नेहरू राष्ट्रमंडल का सदस्य बनने के लिए प्रेरित हुए। तदनुसार समझौता किया
गया, जिसके अंतर्गत भारत गणतंत्रात्मक सरकार अपनाने के बाद राष्ट्रमंडल का
सदस्य रहा।
सरदार
पटेल चीन के साथ मैत्री तथा 'हिंदी-चीनी भाई-भाई' के विचार से सहमत नहीं
थे। इस विचार के कारण गुमराह होकर नेहरूजी यह मानने लगे थे कि यदि भारत
तिब्बत मुद्दे पर पीछे हट जाता है तो चीन और भारत के बीच स्थायी मैत्री
स्थापित हो जाएगी। विदेश मंत्रालय के तत्कालीन महासचिव श्री गिरिजाशंकर
वाजपेयी भी सरदार पटेल के विचारों से सहमत थे। वे संयुक्त राष्ट्र संघ में
चीन के दावे का समर्थन करने के पक्ष में भी नहीं थे। उन्होंने चीन की
तिब्बत नीति पर एक लंबा नोट लिखकर उसके दुष्परिणामों से नेहरू को आगाह किया
था। सरदार पटेल को आशंका थी कि भारत की मार्क्सवादी पार्टी की देश से बाहर
साम्यवादियों तक पहुँच होगी, खासतौर से चीन तक। अन्य साम्यवादी देशों से
उन्हें हथियार एवं साहित्य आदि की आपूर्ति भी अवश्य होती होगी। वे चाहते थे
कि सरकार द्वारा भारत के साम्यवादी दल तथा चीन के बारे में स्पष्ट नीति
बनाई जाए।


इसी प्रकार, भारत की आर्थिक नीति के संबंध में सरदार पटेल के
स्पष्ट विचार थे। मंत्रिमंडल की बैठकों में उन्होंने नेहरूजी के समक्ष अपने
विचार बार-बार रखे; लेकिन किसी-न-किसी कारणवश उनके विचारों पर अमल नहीं
किया गया। उदाहरण के लिए उनका विचार था कि समुचित योजना तैयार करके
उदारीकरण की नीति अपनाई जानी चाहिए। आज सोवियत संघ पर आधारित नेहरूवादी
आर्थिक नीतियों के स्थान पर जोर-शोर से उदारीकरण की नीति ही अपनाई जा रही
है।


खेद की बात है कि सरदार पटेल को सही रूप में नहीं समझा गया। उनके ऐसे
राजनीतिक विरोधियों के हम शुक्रगुजार हैं, जिन्होंने निरंतर उनके विरुद्ध
अभियान चलाया तथा तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश किया, जिससे पटेल को
अप्रत्यक्ष रूप से सम्मान मिला। समाजवादी विचारधारा के लोग नेहरू को अपना
अग्रणी नेता मानते थे। उन्होंने पटेल की छवि पूँजीवाद के समर्थक के रूप में
प्रस्तुत की। लेकिन सौभाग्यवश, सबसे पहले समाजवादियों ने ही यह महसूस किया
था कि उन्होंने पटेल के बारे में गलत निर्णय लिया है।

प्रस्तुत पुस्तक में ऐसे महत्त्वपूर्ण तथा संवेदनशील मुद्दों पर विचार करने
का प्रयास किया गया है, जो आज भी विवादग्रस्त हैं। तत्कालीन राष्ट्रपति
डॉ.राजेन्द्र प्रसाद ने मई 1959 में लिखा था-''सरदार पटेल की नेतृत्व-शक्ति
तथा सुदृढ़ प्रशासन के कारण ही आज भारत की चर्चा हो रही है तथा विचार किया
जा रहा है।'' आगे राजेन्द्र प्रसाद ने यह जोड़ा-''अभी तक हम इस महान्
व्यक्ति की उपेक्षा करते रहे हैं।'' उथल-पुथल की घडिय़ों में भारत में
होनेवाली गतिविधियों पर उनकी मजबूत पकड़ थी। यह 'पकड़' उनमें कैसी आई ? यह
प्रश्न पटेल की गाथा का एक हिस्सा है।

भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के चुनाव के पच्चीस वर्ष बाद चक्रवर्ती
राज-गोपालाचारी ने लिखा-''निस्संदेह बेहतर होता, यदि नेहरू को विदेश मंत्री
तथा सरदार पटेल को प्रधानमंत्री बनाया जाता। यदि पटेल कुछ दिन और जीवित
रहते तो वे प्रधानमंत्री के पद पर अवश्य पहुँचते, जिसके लिए संभवत: वे
योग्य पात्र थे। तब भारत में कश्मीर, तिब्बत, चीन और अन्यान्य विवादों की
कोई समस्या नहीं रहती।'' लेकिन निराशाजनक स्थिति यह रही कि उनके निधन के
बाद सत्ताहीन राजनीतिज्ञों ने उनकी उपेक्षा की और उन्हें वह सम्मान नहीं
दिया गया, जो एक राष्ट्र-निर्माता को दिया जाना चाहिए था।

गृहमंत्री, सूचना एवं प्रसारण मंत्री तथा राज्यों संबंधी मामलों के मंत्री
होने के नाते सरदार पटेल स्वाभाविक रूप से जम्मू व कश्मीर मामले भी देखते
थे। किंतु बाद में जम्मू व कश्मीर संबंधी मामले प्रधानमंत्री स्वयं देखने
लगे। जम्मू व कश्मीर के प्रमुख नेता शेख अब्दुल्ला से प्रधानमंत्री
पं.नेहरू के भावनात्मक संबंध थे। हैदराबाद के संबंध में निजाम द्वारा भारत
सरकार की अति उदार शर्तें मानने से इनकार करने के बाद सरदार पटेल के पास
सैन्य काररवाई के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प शेष नहीं बचा था। हैदराबाद
राज्य की जनता उत्तरदायी सरकार हेतु हैदराबाद के भारतीय संघ में विलय की
माँग कर रही थी। इस राज्य की आंतरिक व बाह्म शक्तियों के भारत के हित के
प्रतिकूल विचारों पर सरदार पटेल का पत्र-व्यवहार काफी प्रकाश डालता है।

जम्मू व कश्मीर एक सामरिक महत्त्व का राज्य था, जिसकी सीमाएँ कई देशों से
जुड़ी हुई थीं, और सरदार पटेल उत्सुक थे कि उसका भारत में विलय हो जाए।
किंतु भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन के चर्चिल व टोरी पार्टी से
काफी मित्रतापूर्ण संबंध थे। वे कश्मीर के पाकिस्तान के साथ मिलने के
विरुद्ध नहीं थे। उनका यह आश्वासन अत्यंत ही रोचक है कि यदि कश्मीर
पाकिस्तान के साथ विलय करना चाहे तो भारत कोई समस्या खड़ी नहीं करेगा।
यद्यपि सरदार पटेल इस प्रकार के आश्वासन के विरुद्ध थे, किंतु युक्तियुक्त
योजना के कारण वे उस समय कुछ न बोल सके। फिर भी वह कश्मीर का भारत में विलय
चाहते थे। उन्होंने महाराजा हरि सिंह से कहा कि उनका हित भारत के साथ
मिलने में है और इसी विषय पर उन्होंने जम्मू व कश्मीर के प्रधानमंत्री
पं.रामचंद्र काक को 3 जुलाई, 1947 को एक पत्र लिखा-''मैं कश्मीर की विशेष
कठिनाइयों को समझता हूँ, किंतु इतिहास एवं पारंपरिक रीति-रिवाजों आदि को
ध्यान में रखते हुए मेरे विचार से जम्मू व कश्मीर के भारत में विलय के
अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प ही नहीं है।''

उन्होंने महाराजा के इस भय को दूर करना चाहा, जिस पर उन्होंने उसी दिन के
अपने पत्र में चर्चा की थी-''पं.नेहरू कश्मीर के हैं। उन्हें इस पर गर्व
है, वह आपके शत्रु कभी नहीं हो सकते।'' उन्होंने और भी जोर देकर कहा कि
राज्य का हितैषी होने के कारण मैं आपको आश्वस्त करता हूँ कि कश्मीर का हित
अविलंब भारत में विलय तथा संविधान सभा में भाग लेने से ही है। उनके
मस्तिष्क में यह साफ एवं स्पष्ट था कि कश्मीर समस्या अलग प्रकार की है।
जम्मू में हिंदू बहुसंख्यक थे; कश्मीर घाटी में भी हिंदू काफी संख्या में
थे; परंतु घाटी में अधिक संख्या मुसलमानों की थी तथा लद्दाख में बौद्ध
बहुमत में थे। कश्मीर घाटी में मुसलिम बहुसंख्यक थे, किंतु वे वंश एवं भाषा
के आधार पर पंजाब तथा शेष पाकिस्तान के मुसलिमों से भिन्न थे।

फिर भी महाराजा हरि सिंह लंबित रेडक्लिप अवार्ड के कारण असमंजस में थे,
क्योंकि गुरदासपुर जिला, जिसकी पूरी सीमा कश्मीर राज्य तथा भावी भारतीय संघ
से मिलती थी, पाकिस्तान में मिला लिया गया था और यदि इसे स्वीकार कर लिया
गया तो इसका मतलब होगा हिमालय की ऊंची पहाडिय़ों के अतिरिक्त जम्मू और
कश्मीर तथा भारत की सीमाएँ कहीं भी परस्पर नहीं मिलेंगी।

इस बीच चतुर महाराजा परिस्थितियों से लाभ उठाने के उद्देश्य से यह भी सोच
रहे थे कि अपनी रियासत को स्वतंत्र घोषित कर लें। उन्होंने लॉर्ड माउंटबेटन
को अपने मंतव्य से परिचित कराना चाहा और उनके 26 सितंबर, 1947 के पत्र में
दिए गए सुझाव को मानते हुए कहा कि कश्मीर की सीमाएँ सोवियत रूस व चीन से
भी मिलती हैं और भारत तथा पाकिस्तान से भी, अत: उसे स्वतंत्र राज्य माना
जाए। संभवत: यह दोनों देशों (भारत-पाकिस्तान) तथा अपने राज्य के हित में
रहेगा-यदि उसे स्वतंत्र रहने दिया जाए। इस प्रकार वह अपना काम निकालने की
प्रतीक्षा में थे।

यद्यपि जवाहरलाल नेहरू के पूर्वजों ने कई पीढिय़ों पहले ही कश्मीर छोड़ दिया
था, फिर भी वे स्वयं को कश्मीरी मानते हुए उस राज्य तथा नेशनल कॉन्फ्रेंस
के नेता शेख अब्दुल्ला से भावनात्मक संबंध रखते थे। अखिल भारतीय राज्य
प्रज्ञा परिषद् के अध्यक्ष होने के नाते जवाहरलाल नेहरू ने राज्य में एक
उत्तरदायी सरकार की माँग का समर्थन किया तथा शेख अब्दुल्ला को बंदी
बनानेवाले महाराजा हरि सिंह की भर्त्सना की। उन्होंने जून 1946 में राज्य
प्रज्ञा परिषद् के आंदोलन को प्रोत्साहन देने के उद्देश्य से राज्य का दौरा
करना चाहा, जिसका महाराजा ने निषेध कर दिया था।

पं.नेहरू ने निषेधाज्ञा का उल्लंघन करना चाहा, किंतु सरदार पटेल और
कांग्रेसी कार्यकारिणी समिति के अन्य सदस्य उस समय नियमोल्लंघन के पक्ष में
नहीं थे। यहाँ तक कि कांग्रेस अध्यक्ष मौलाना आजाद ने भी नेहरू को ऐसा न
करने का परामर्श दिया। सरदार पटेल ने अपने विचार स्पष्ट किए कि उन दोनों
(गांधी व नेहरू) में से कोई भी वहाँ न जाए। किंतु पं. नेहरू के वहाँ जाने
के उद्देश्य के पूरा न होने से कहीं मानसिक तनाव न बढ़े, इस कारण पटेल ने
फिर उनमें से एक को ही जाने की राय दी। उन्होंने बहुत दक्षता से कहा, ''इन
दो-दो हानिकर बुराइयों में से एक को चुनने के सवाल पर मैं सोचता हूँ कि
गांधीजी के जाने से हानि कम होगी।''

11 जुलाई, 1946 को अपने पत्र में सरदार पटेल ने डी.पी. मिश्रा को लिखा-
उन्होंने (नेहरू) हाल ही में ऐसी बहुत सी बातें कही हैं, जिनसे जटिल उलझनें
पैदा हुई हैं। कश्मीर के संदर्भ में उनकी गतिविधियाँ, संविधान सभा में सिख
चुनाव में हस्तक्षेप, अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के अधिवेशन के तुरंत बाद
प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाना-ये सभी कार्य भावनात्मक पागलपन के थे और इनसे हम
सभी को इन मामलों को हल करने में बहुत ही तनावपूर्ण स्थिति का सामना करना
पड़ा था। किंतु इन सभी निष्कलंक एवं अविवेकपूर्ण बातों को उनके
स्वतंत्रता-प्राप्ति के आवेश का असामान्य उत्साह माना जा सकता है।

महाराजा हरि सिंह के साथ तनावपूर्ण संबंध होने के कारण पं.नेहरू को भारतीय
संघ में विलय हेतु महाराजा के साथ बातचीत करने के लिए सरदार पटेल पर निर्भर
रहना पड़ता था। इस बात पर वह बिलकुल असहाय से थे। 27 सितंबर, 1947 को
पं.नेहरू ने सरदार पटेल को ध्यान दिलाया कि पंजाब के उत्तरी-पश्चिमी
सीमाप्रांत के मुसलिम कश्मीर में घुसपैठ की तैयारियाँ कर रहे हैं। उनकी
योजना अक्तूबर के अंत या नवंबर के आरंभ में युद्ध छेडऩे की है। वास्तव में
तब हवाई मार्ग से किसी प्रकार का सहयोग देना कठिन होगा। उन्होंने यह भी
बताया कि उन्हें उस स्थिति में शेख अब्दुल्ला के नेतृत्ववाली नेशनल
कॉन्फ्रेंस पर निर्भर रहना पड़ेगा। उन्होंने कश्मीर राज्य के भारत में
शीघ्र विलय की आवश्यकता बताई, जिसके बिना शीतकाल शुरू होने से पूर्व भारत
के लिए कुछ भी करना दुष्कर होगा। जवाहरलाल नेहरू ने सरदार पटेल को यह भी
बताया कि उन्होंने कश्मीर के प्रधानमंत्री मेहर चंद महाजन को भी परिस्थिति
से अवगत करा दिया है, किंतु अभी उनके मन की बात का पता नहीं चल सका है।
उन्होंने पटेल से कहा कि ''महाराजा व महाजन के लिए आपका परामर्श स्वाभाविक
रूप से अधिक प्रभावी रहेगा।''

एक कुशल राजनीतिज्ञ होने के नाते सरदार पटेल ने महाराजा हरि सिंह के साथ
अच्छे संबंध बनाए थे और उन्हीं की सलाह से महाराजा ने महाजन को-जो उस समय
पंजाब उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश थे-रामचंद्र काक की जगह प्रधानमंत्री
नियुक्त किया था।

इस बीच पाकिस्तानी सेना के नेतृत्व में कबायलियों द्वारा बड़ी संख्या में
घुसपैठ के कारण कश्मीर की स्थिति ने नाटकीय मोड़ ले लिया था। महाराजा ने
राजनीतिक बंदियों-शेख अब्दुल्ला एवं अन्य को-मुक्त कर दिया था। शेख
अब्दुल्ला ने अपनी ओर से महाराजा के प्रति पूरी निष्ठा एवं सहयोग का वचन
दिया।

पठानकोट के भारतीय संघ में विलय से रेडक्लिफ अवार्ड के अनुसार जम्मू व
कश्मीर राज्य का भारत से सीधा संपर्क हो गया। सरदार पटेल महाराजा हरि सिंह व
प्रधानमंत्री महाजन को मनाने में सफल रहे कि इन परिस्थितियों में उनके पास
भारतीय संघ में विलय के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है।

27 अक्तूबर, 1947 के अपने पत्र में माउंटबेटन ने कश्मीर के महाराजा को लिखा
कि बाद में भारत सरकार राज्य में कानून व व्यवस्था स्थापित होने और
घुसपैठियों को खदेडऩे के बाद अपनी नीति के अनुसार इस राज्य के भारत में
विलय के प्रस्ताव को राज्य की प्रज्ञा की इच्छा कहकर अंतिम रूप देकर इसे
भारत में मिला लेगी। 27 अक्तूबर के ही एक अन्य पत्र में माउंटबेटन ने सरदार
पटेल को एक ब्रिटिश अधिकारी के विचारों से अवगत कराया कि आंदोलन बहुत ही
सुदृढ़ता से आयोजित किया गया है, पूर्व आई.एन.ए.अधिकारी इसमें सम्मिलित हैं
और श्रीनगर पर नियंत्रण के लिए (उदाहरणार्थ-उपायुक्त नामित किया गया है)
उसी ओर बढ़ रहे हैं और मुसलिम लीग भी इसमें सम्मिलित है। समाचार यह भी मिला
था कि पाकिस्तानी हमलावरों ने कुछ क्षेत्र पर अधिकार कर लिया है और आगे
बढ़ रहे है। भारत सरकार ने इसपर अपनी सेना को कश्मीर भेजने का निर्णय लिया।
फिर भी ब्रिटिश कमांडर-इन-चीफ सर राय बुकर कश्मीर में सेना भेजने के पक्ष
में नहीं थे, क्योंकि दो मुहिमों-कश्मीर व रेडक्लिफ-पर भिडऩा कठिन होगा।

एस.गोपाल ने अपनी पुस्तक 'जवाहरलाल नेहरू की आत्मकथा' में सरदार पटेल की
भूमिका को कम दरशाते हुए इस बात पर जोर दिया कि कश्मीर में सेना भेजने का
निर्णय मंत्रिमंडल का था। यद्यपि यह तथ्यों के विपरीत था। लगभग सारा
मंत्रिमंडल अनिर्णय की स्थिति में था और यह सरदार पटेल ही थे, जिन्होंने
सेनाध्यक्ष तथा अन्य लोगों की इच्छा के विरुद्ध श्रीनगर में सेना भेजने का
निर्णय लिया।

राज्य में सेना भेजने के निर्णय पर बक्शी गुलाम मोहम्मद, जो उस समय शेख
अब्दुल्ला के प्रमुख सहायक थे, ने सरदार पटेल की भूमिका पर दिलचस्प प्रकाश
डाला। दिल्ली में होनेवाली उस निर्णयात्मक बैठक में बक्शी गुलाम मोहम्मद
उपस्थित थे। जब निर्णय लिया गया, उस संबंध में उन्होंने अपने विचारों को
अभिलिखित किया है-

लॉर्ड माउंटबेटन ने बैठक की अध्यक्षता की। बैठक में सम्मिलित होनेवालों में
थे-पंडितजी (जवाहलाल नेहरू), सरदार वल्लभभाई पटेल, रक्षा मंत्री सरदार
बलदेव सिंह, जनरल बुकर, कमांडर-इन-चीफ जनरल रसेल, आर्मी कमांडर तथा मैं।
हमारे राज्य में सैन्य स्थिति तथा सहायता को तुरंत पहुँचाने की संभावना पर
ही विचार होना था। जनरल बुकर ने जोर देकर कहा कि उनके पास संसाधन इतने
थोड़े हैं कि राज्य को सैनिक सहायता देना संभव नहीं। लॉर्ड माउंटबेटन ने
निरुत्साहपूर्ण झिझक दरशाई। पंडितजी ने तीव्र उत्सुकता एवं शंका प्रकट की।
सरदार पटेल सबकुछ सुन रहे थे, किंतु एक शब्द भी नहीं बोले। वह शांत व गंभीर
प्रकृति के थे; उनकी चुप्पी पराजय एवं असहाय स्थिति, जो बैठक में
परिलक्षित हो रही थी, के बिलकुल विपरीत थी। सहसा सरदार अपनी सीट पर हिले और
तुरंत कठोर एवं दृढ़ स्वर से सबको अपनी ओर आकर्षित किया। उन्होंने अपना
विचार व्यक्त किया-''जनरल हर कीमत पर कश्मीर की रक्षा करनी होगी। आगे जो
होगा, देखा जाएगा। संसाधन हैं या नहीं, आपको यह तुरंत करना चाहिए। सरकार
आपकी हर प्रकार की सहायता करेगी। यह अवश्य होना और होना ही चाहिए। कैसे और
किसी भी प्रकार करो, किंतु इसे करो।'' जनरल के चेहरे पर उत्तेजना के भाव
दिखाई दिए। मुझमें आशा की कुछ किरण जगी। जनरल की इच्छा आशंका जताने की रही
होगी, किंतु सरदार चुपचाप उठे और बोले, ''हवाई जहाज से सामान पहुँचाने की
तैयारी सुबह तक कर ली जाएगी।'' इस प्रकार कश्मीर की रक्षा सरदार पटेल के
त्वरित निर्णय, दृढ़ इच्छाशक्ति और विषम-से-विषम परिस्थिति में भी निर्णय
के कार्यान्वयन की दृढ़ इच्छा का ही परिणाम थी।

सरदार पटेल के राजनीतिक विरोधियों द्वारा उनके बारे में समय-समय पर यह
दुष्प्रचारित किया गया कि वे मुसलमान-विरोधी थे। किंतु वास्तविकता इसके
विपरीत थी। उन पर यह आरोप लगाना न्यायसंगत नहीं होगा और इतिहास को झुठलाना
होगा। सच्चाई यह थी कि हिंदुओं और मुसलमानों को एक साथ लाने के लिए सरदार
पटेल ने हरसंभव प्रयास किए। इतिहास साक्षी है कि उन्होंने कई ऊँचे-ऊँचे
पदों पर मुस्लमानों की नियुक्ति की थी। वह देश की अंतर्बाह्य सुरक्षा को
सर्वोच्च प्राथमिकता देते थे और इस संबंध में किसी तरह का जोखिम लेना उचित
नहीं समझते थे। पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान (अब बँगलादेश) से भागकर आए
शरणार्थियों के प्रति सरदार पटेल का दृष्टिकोण अत्यंत सहानुभूतिपूर्ण था।
उन्होंने शरणार्थियों के पुनर्वास एवं उनकी सुरक्षा हेतु कोई कसर बाकी न
रखी और हरसंभव आवश्यक कदम उठाए।

'सरदार पटेल सोसाइटी' के संस्थापक एवं यूनाइटेड नेशनल कांग्रेस के पूर्व
अध्यक्ष श्री एस. निजलिंगप्पा ने अपनी जीवनी 'माइ लाइफ ऐंड पॉलिटक्स' (उनकी
मृत्यु के कुछ माह पश्चात् प्रकाशित) में लिखा था-

''......आश्चर्य होता है कि पं. नेहरू से लेकर अब तक कांग्रेसी नेताओं को
उनकी जीवनियाँ तथा संगृहीत चुनिंदा कार्यों को छपवाकर स्मरण किया जाता है।
उनकी प्रतिमाएँ लगाई जाती हैं तथा उनके नामों पर बड़ी-बड़ी इमारतों के नाम
रखे जाते हैं। लेकिन सरदार पटेल के नाम की स्मृति में ऐसा कुछ नहीं किया
गया। जब हम सरदार पटेल की उपलब्धियों पर विचार करते हैं तो गांधी जी को
छोड़कर अन्य कोई नेता उनके समकक्ष नहीं ठहरता। मेरा आशय अन्य नेताओं की
समर्पित सेवाओं की प्रतिष्ठा को नीचा दिखाना नहीं है; लेकिन सरदार पटेल की
सेवाएँ सर्वोपरि हैं।

''पिछले आठ वर्षों से मैं तत्कालीन प्रधानमंत्री से भी बार-बार अनुरोध करता
रहा कि इस सोसायटी को उचित स्तर की इमारत दी जाए। हम वहाँ पर सरदार पटेल
के व्यक्तित्व एवं कृतित्व संबंधी विशेषताओं को प्रदर्शित करना चाहते हैं।
यह सोसायटी एक पुस्तकालय बनवाना चाहती है तथा बैठकों के आयोजन की व्यवस्था
करना चाहती है। लेकिन आज तक इस दिशा में कुछ नहीं किया गया, जबकि प्रत्येक
प्रधानमंत्री को इस बारे में असंख्य पत्र लिखे और अनेक बार अपील की गई।''

सरदार पटेल से मतभेद रखनेवाले तथा उनके राजनीतिक विरोधियों ने निहित
स्वार्थोंवश उनकी ऐसी छवि बनाई है कि वे मुसलिम-विरोधी थे तथा उनके प्रति
भेदभाव बरतते थे। यहाँ यह ध्यातव्य है कि नीतिगत एवं महत्त्वपूर्ण मुद्दों
पर पं. जवाहरलाल नेहरू तथा वल्लभभाई पटेल के बीच मतभेद थे।

राष्ट्रवादी मुसलिम जवाहरलालजी के समर्थक थे तथा कई मुसलिम नेता उनके
घनिष्ठ मित्र थे। मौलाना आजाद, रफी अहमद किदवई, शेख अब्दुल्ला, डॉ. सईद
मदमूद, आसफ अली तथा अन्य नेता पं. नेहरू के घनिष्ठ मित्रों में थे; जबकि
वल्लभभाई पटेल के साथ उनके औपचारिक संबंध ही थे।

दूसरी ओर, वल्लभभाई पटेल अकेले थे तथा उनके बहुत कम मित्र थे। उन्होंने कुछ
महत्त्वपूर्ण लोगों के साथ ही संबंध रखे थे। इसमें राजेन्द्र प्रसाद,
जी.बी. पंत, पी.डी. टंडन, मोरारजी देसाई, जमनालाल बजाज तथा कुछ गुजराती
लोगों के नाम शामिल किए जा सकते हैं। कुछ निचली श्रेणी के नेताओं अथवा
विरोधी नेताओं ने, जिनमें कुछ वामपंथी भी शामिल थे। (जैसे- के.डी. मालवीय,
अशरफ, अरुणा आसफ अली, मृदुला साराभाई, पद्मजा नायडू), नेहरू के समक्ष
मुसलमानों के प्रति पटेल के वैमनस्यपूर्ण रवैए के बारे में मनगढ़ंत
कहानियाँ सुनाते रहते थे। इनमें से अधिकांश मुसलिम निस्संदेह मुसलिम लीग की
पाकिस्तान बनाने की मांग के समर्थक थे। जब कभी चुनाव हुए, उन्होंने
पाकिस्तान के लिए ही मत दिया। यह आम धारणा है कि सरदार पटेल कांग्रेस के
तीन दिग्गजों-महात्मा गाँधी, पं. नेहरु और सुभाषचंद्र बोस के खिलाफ थे।
किंतु यह मात्र दुष्प्रचार ही है। हाँ, कुछ मामलों में-खासकर सामरिक नीति
के मामलों में-उनके बीच कुछ मतभेद जरुर थे, पर मनधेद नहीं होता था।

सरदार पटेल ने पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए दिए जाने के प्रस्ताव पर गाँधीजी
का विरोध नहीं किया था; यद्यपि वह समझ गए थे कि ऐसा करने की कीमत चुकानी
पड़ेगी। इसी तरह उन्होंने प्रधानमंत्री के रुप में पं. नेहरु के प्रति भी
उपयुक्त सम्मान प्रदर्शित किया। उन्होंने ही भारत को ब्रिटिश राष्ट्रमण्डल
में शामिल करने के लिए पं. नेहरु को तैयार किया था; यद्यपि नेहरु पूरी तरह
इसके पक्ष में नहीं थे। जहाँ सुभाष चंद्र बोस के साथ उनके संबंधों की बात
है, वे वरन् सन् 1939 में दूसरी बार सुभाषचंद्र बोस को कांग्रेस का अध्यक्ष
चुने जाने के खिलाफ थे। सुभाषचंद्र बोस ने किस प्रकार सरदार पटेल के बड़े
भाई वि_लभाई पटेल-जिनका विएना में निधन हो गया था, के अंतिम संस्कार में
मदद की थी, उससे दोनों के मध्य आपसी प्रेम और सम्मान की भावना का पता चलता
है।

2 सितंबर, 1946 को सरदार पटेल जब अंतिम सरकार में शामिल हुए, तो उस समय
उनकी आयु 71 वर्ष थी। हम भली-भाँति जानते हैं कि गांधीजी की इच्छा का
सम्मान करते हुए ही सरदार पटेल ने सन् 1946 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
के अध्यक्ष पद के चुनाव से अपना नाम वापस ले लिया था, जबकि 15 प्रांतों की
कांग्रेस समितियों में से 12 ने उनके नाम का अनुमोदन कर दिया था। यदि
उन्हें चुनाव लडऩे दिया जाता, तो निस्संदेह वह स्वतंत्र भारत के प्रथम
प्रधानमंत्री बनते।

गांधीजी के इस निर्णय पर कई बड़े कांग्रेसी नेताओं ने रोष प्रकट किया था।
मध्य प्रांत के तत्कालीन गृहमंत्री डी.पी. मिश्र ने सरदार पटेल को लिखे एक
पत्र में शिकायत भी की थी कि उनके (पटेल के) कारण ही कांग्रेसी नेताओं ने
चुपचाप सबकुछ स्वीकार कर लिया। वस्तुत: सरदार पटेल और उनके समर्थक नेता पद
के भूखे नहीं थे, उनके अपने राजनीतिक आदर्श थे, जिन्हें वे किसी भी स्थिति
में छोडऩा नहीं चाहते थे।

डी.पी. मिश्र के पत्र के उत्तर में सरदार पटेल ने लिखा था कि पं. नेहरू
चौथी बार कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए चुने गए हैं। उन्होंने आगे लिखा था
कि पं. नेहरू अकसर बच्चों जैसी नादानी कर बैठते हैं, जिससे हम सभी के
सामने बड़ी-बड़ी मुश्किलें खड़ी हो जाती हैं। इस तरह की कुछ मुश्किलों का
जिक्र करते हुए उन्होंने लिखा था, ''कश्मीर में उनके द्वारा किया गया
कार्य, संविधान सभा के लिए सिख चुनाव में हस्तक्षेप और अखिल भारतीय
कांग्रेस के तुरंत बाद उनके द्वारा आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस-सभी कार्य उनकी
भावनात्मक अस्वस्थता को दरशाते हैं, जिससे इन मामलों को जल्दी-से-जल्दी
सुलझाने के लिए हमारे ऊपर काफी दबाव आ जाता है।''


जब पं. नेहरू को मंत्रिमंडल का गठन करने और उसके सदस्यों की सूची भेजने के
लिए कहा गया तो उन्होंने अपनी प्रथम सूची में सरदार पटेल को कोई स्थान नहीं
दिया था। बाद में जब सरदार पटेल को मंत्रिमंडल में सहायक
(उप-प्रधानमंत्री) के रूप में शामिल किया गया तो उन्होंने अपने एक कनिष्ठ
सहकर्मी को सहयोग देना सहर्ष स्वीकार कर लिया। पं. नेहरू ने स्वयं भी अहसास
किया कि उनका प्रधानमंत्री बनना सरदार पटेल की उदारता के कारण ही संभव हो
सका।


सरदार पटेल को उप-प्रधानमंत्री बनाकर उन्हें सबसे महत्त्वपूर्ण विभाग-गृह
तथा सूचना एवं प्रसारण-सौंपा गया। बाद में 5 जुलाई, 1947 को एक और
महत्त्वपूर्ण विभाग-राज्य मंत्रालय भी उन्हें सौंप दिया गया। वस्तुत: सरदार
पटेल कांग्रेस के सबसे सशक्त नेता के रूप में स्थापित थे, लेकिन पं. नेहरू
को सूचित किए बिना या उनकी स्वीकृति लिये बिना शायद ही उन्होंने कभी कोई
बड़ा फैसला लिया हो। अपनी अद्भुत सगंठन क्षमता और सूझ-बूझ के बल पर
उन्होंने देश को विभाजन के बाद की मुश्किलों और अव्यवस्थाओं से उबारने में
सफलता प्राप्त की।

 

यह सच है कि पं. नेहरू के साथ उनके कुछ मतभेद थे, लेकिन ये मतभेद
स्वाभाविक थे, जो कुछ विशेष मामलों-खासकर आर्थिक, सामुदायिक और समय-समय पर
उठनेवाले संगठनात्मक मामलों-को लेकर ही थे। किंतु दुर्भाग्य की बात है कि
कुछ स्वार्थ-प्रेरित तत्त्वों ने उनके इन मतभेदों को गलत अर्थ में प्रस्तुत
करके जनता को गुमराह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मणिबेन ने इस संदर्भ
में पद्मजा नायडू, मृदुला साराभाई और रफी अहमद किदवई के नामों का उल्लेख
किया है, जिन्होंने मौके का भरपूर फायदा उठाने का प्रयास किया था। यहाँ तक
कहा गया कि सरदार पटेल पद के भूखे हैं और वह उसे किसी भी कीमत पर छोडऩा
नहीं चाहेंगे। गांधीजी को जब इसका पता चला तो उन्होंने सरदार पटेल को एक
पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने अत्यंत कड़े शब्दों में उनकी शिकायत की थी-
मुझे तुम्हारे खिलाफ
कई शिकायतें सुनने को मिली हैं।....तुम्हारे भाषण भड़काऊ होते हैं...तुमने
मुसलिम लीग को नीचा दिखाने की कोई कसर नहीं छोड़ रखी।...लोग तो कह रहे हैं
कि तुम (किसी भी स्थिति में) पद पर बने रहना चाहते हो।


गांधीजी के इन शब्दों से सरदार पटेल को गहरा आघात लगा। उन्होंने 7 जनवरी,
1947 को गांधीजी को लिखे अपने पत्र में स्पष्ट रूप में उल्लेख किया कि पं.
नेहरू ने उन्हें पद छोडऩे के लिए दबाव डालते हुए धमकी दी थी, जिसे उन्होंने
अस्वीकार कर दिया, क्योंकि इससे कांग्रेस की गरिमा पर प्रतिकूल प्रभाव
पड़ता। अपने ऊपर लगाए गए निराधार आरोपों के संदर्भ में सरदार पटेल ने
गांधीजी को बताया कि ये अफवाहें मृदुला द्वारा ही फैलाई गई होंगी,
जिन्होंने मुझे बदनाम करने को अपना शौक बना लिया है। वह तो यहाँ तक अफवाह
फैला रही हैं कि मैं जवाहरलाल से अलग होकर एक नई पार्टी का गठन करने जा रहा
हूँ। इस तरह की बातें उन्होंने कई मौकों पर की हैं। पत्र में उन्होंने यह
भी लिखा कि कार्यसमिति की बैठक में भिन्न विचार व्यक्त करने में मुझे कोई
बुराई दिखाई नहीं देती। आखिरकार हम सभी एक ही दल के सदस्य हैं। वस्तुत: पं.
जवाहरलाल नेहरू और मौलाना अबुल कलाम के साथ सरदार पटेल के जो भी मतभेद थे,
वे व्यक्तिगत मामलों को लेकर नहीं, बल्कि सिद्धांतों और नीतियों को लेकर
थे। जो लोग उनके मतभेदों के बारे में जानते थे, उन्होंने इसका लाभ उठाते
हुए दोनों के बीच खाई खोदने की पूरी कोशिश की।

पं. नेहरू के  साथ  सरदार
पटेल के मतभेद उस समय और गहरा गए, जब गोपालस्वामी आयंगर का हस्तक्षेप
कश्मीर मामले के साथ-साथ अन्य मंत्रालयों कार्यों में बढऩे लगा।
गोपालस्वामी ने पंजाब सरकार को कश्मीर के लिए वाहन चलाने का निर्देश दे
दिया, जिसका सरदार पटेल ने यह तर्क देते हुए विरोध किया कि यह मामला राज्य
मंत्रालय के कार्य क्षेत्र के अंतर्गत आता है, जो उस समय पाकिस्तान से आए
शरणार्थियों के पुनर्वास कार्य में लगे हुए थे, हालाँकि बाद में
गोपालस्वामी ने सरदार पटेल के दृष्टिकोण की सराहना की, लेकिन पं. नेहरू
किसी भी स्थिति में सरदार पटेल से सहमत नहीं हो पा रहे थे। उन्होंने
प्रधानमंत्री की शक्ति का मामला उठाते हुए कड़े शब्दों में सरदार पटेल को
लिखा, ''यह सब मेरे ही आग्रह पर किया गया था और मैं उन मामलों से संबंधित
अपने अधिकारों को नहीं छोडऩा चाहता, जिनके प्रति मैं स्वयं को उत्तरदायी
मानता हूँ।ÓÓ
इसी
तरह अजमेर में सांप्रदायिक अशांति के दौरान पहले तो पं. नेहरू ने घोषणा की
कि वह स्वयं अजमेर का दौरा करके स्थिति का जायजा लेंगे, लेकिन अपने भतीजे
के निधन के कारण वह दौरे पर नहीं जा सके। अत: इसके लिए उन्होंने एक सरकारी
अधिकारी एच.आर.वी. आयंगर को नियुक्त कर दिया, जिसने एक पर्यवेक्षक की
हैसियत से शहर का दौरा किया। इस दौरान उसने उपद्रव के कारण हुई क्षति का
जायजा लिया और दरगाह, महासभा तथा आर्य समाज के प्रतिनिधियों से भेंट की।
उसकी गतिविधियों से ऐसा लगा कि उसे अजमेर के मुख्य आयुक्त और उसके अधीनस्थ
अधिकारियों के कार्यों की जाँच करने के लिए भेजा गया है। शंकर प्रसाद ने
इसकी शिकायत सरदार पटेल (गृहमंत्री) से की, जिसे गंभीरता से लेते हुए सरदार
पटेल ने पूरी बात पं. नेहरू के सामने रखते हुए कहा कि यदि वह स्वयं दौरे
पर जाने में असमर्थ थे तो वह अपने स्थान पर एक सरकारी अधिकारी को नियुक्त
करने की बजाय किसी मंत्री को या स्वयं मुझे नियुक्त कर सकते थे। अपने
अधिकारों के संबंध में उठाए गए इस सवाल पर नेहरू ने कड़ा रुख अपनाते हुए
विरोध जताया और कहा कि इस तरह तो मैं एक कैदी की तरह हो जाऊँगा, जिसे
स्थिति को देखते हुए कोई कार्य करने की स्वतंत्रता न हो। हालाँकि उन्होंने
स्वीकार किया कि विभिन्न मामलों पर उनकी सोच और सरदार पटेल की सोच में
व्यापक अंतर है।
पं. नेहरू द्वा रा
गृह और राज्य मंत्रालयों के कार्यों में अनावश्यक हस्तक्षेप किए जाने के
मामले पर भी दोनों के बीच में अकसर मतभेद उभर आते थे। पं. नेहरू की शिकायत
होती की कि राज्य मंत्रालय से संबंधित कार्यों की प्रगति की जानकारी
मंत्रिमंडल को नियमित रूप से नहीं दी जाती, जबकि सरदार पटेल ने इसका खंडन
करते हुए कहा था कि वह सभी नीतिगत मामलों से संबंधित सूचना प्रधानमंत्री और
उनके मंत्रिमंडल को नियमित रूप से देते रहने का विशेष ध्यान रखते हैं।
त्रिलोकी सिंह और रफी अहमद किदवई ने एक छोटा सा अल्पसंख्यक गुट बनाया था,
जो बहुसंख्यकों पर अपना प्रभुत्व जमाना चाहता था। सरदार पटेल को यह बात
बिलकुल पसंद नहीं आई। उन्होंने सुझाव दिया कि इसका निर्णय करने का सबसे
अच्छा तरीका सद्भावपूर्ण समझौता है और यदि यह तरीका सफल नहीं होता तो
स्थिति को देखते हुए इसका एकमात्र लोकतांत्रिक रास्ता चुनाव कराकर
बहुसंख्यक मतों द्वारा इसका निर्धारण करना हो सकता है। त्रिलोकी सिंह को यह
बात पसंद नहीं आई और वह अपने छोटे से गुट के साथ कांग्रेस से अलग हो गए।
वस्तुत:, रफी अहमद किदवई स्वयं को उत्तर प्रदेश में गोबिंद वल्लभ पंत के
प्रतिद्वंद्वी के रूप में स्थापित करना चाहते थे, क्योंकि वह पं. नेहरू के
अधिक निकट थे। बाद में जब उन्हें केंद्र में आने का मौका मिला तो यह निकटता
और भी बढ़ गई।


4 जून, 1948 को लिखे एक पत्र में सरदार पटेल ने पं. नेहरू को बताया कि वह
उत्तर प्रदेश में चल रही स्थिति से खुश नहीं हैं। पत्र में उन्होंने स्पष्ट
शब्दों में लिखा था-''रफी उत्तर प्रदेश की प्रांतीय कांग्रेस समिति के
अध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ रहे हैं।...केंद्र में एक मंत्री के रूप में
रहते हुए उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। उनका गुट संभवत: यही सोच रहा है कि
उनके पास कोई अन्य प्रत्याशी ऐसा नहीं है, जो टंडनजी को चुनाव में हरा
सके।''


संभवत:,
वैचारिक मतभेदों के चलते ही सरदार पटेल ने 16 जनवरी, 1948 को गांधीजी को
पत्र लिखकर उनसे अनुरोध किया था कि उन्हें पद से मुक्त कर दिया जाए,
हालाँकि पत्र में उन्होंने कारण का उल्लेख नहीं किया था। इससे पूर्व 6
जनवरी, 1948 को पं. नेहरू ने भी गांधीजी को एक पत्र लिखा था, जिसमें
उन्होंने अपने और सरदार पटेल के बीच उत्पन्न मतभेदों को विस्तृत करते हुए
लिखा था कि या तो सरदार पटेल को अपना पद छोडऩा होगा, नहीं तो मैं स्वयं
त्याग-पत्र दे दूँगा। नेहरू द्वारा उठाए गए मामलों पर संक्षिप्त टिप्पणी
करते हुए सरदार पटेल ने गांधीजी को पत्र के माध्यम से पुन: स्पष्ट किया था
कि उनके बीच हिंदू-मुसलिम संबंधों और आर्थिक मामलों को लेकर कोई मतभेद नहीं
है, जैसा प्रधानमंत्री (पं. नेहरू) ने भी स्वीकार किया है, और आखिरकार
दोनों के लिए देश का हित ही सर्वोपरि है। उन्होंने आगे स्पष्ट करते हुए
लिखा था कि यदि पं. नेहरू की नीतियों को स्वीकार कर लिया जाए तो देश में
प्रधानमंत्री की भूमिका एक तानाशाह की हो जाएगी।

11/24/2010


कश्मीर और पं. नेहरू की पांच अक्षम्य भूलें

वह
सर्वविदित है कि पं. नेहरू तथा माउन्टबेटन के परस्पर विशेष सम्बंध थे, जो
किसी भी भारतीय कांग्रेसी या मुस्लिम नेता के आपस में न थे। पंडित नेहरू के
प्रयासों से ही माउन्टबेटन को स्वतंत्र भारत का पहला गर्वनर जनरल बनाया
गया, जबकि जिन्ना ने माउन्टबेटन को पाकिस्तान का पहला गर्वनर जनरल मानने से
साफ इन्कार कर दिया, जिसका माउन्टेबटन को जीवन भर अफसोस भी रहा।
माउन्टबेटन 24 मार्च, 1947 से 30 जून, 1948 तक भारत में रहे। इन पन्द्रह
महीनों में वह न केवल संवैधानिक प्रमुख रहे बल्कि भारत की महत्वपूर्ण
नीतियों का निर्णायक भी रहे। पं. नेहरू उन्हें सदैव अपना मित्र, मार्गदर्शक
तथा महानतम सलाहकार मानते रहे। वह भी पं. नेहरू को एक "शानदार", "सर्वदा
विश्वसनीय" "कल्पनाशील" तथा "सैद्धांतिक समाजवादी" मानते रहे।
कश्मीर
के प्रश्न पर भी माउन्टबेटन के विचारों को पं. नेहरू ने अत्यधिक महत्व
दिया। पं. नेहरू के शेख अब्दुल्ला के साथ भी गहरे सम्बंध थे। शेख अब्दुल्ला
ने 1932 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से एम.एस.सी किया था। फिर वह
श्रीनगर के एक हाईस्कूल में अध्यापक नियुक्त हुए, परन्तु अनुशासनहीनता के
कारण स्कूल से हटा दिये गये। फिर वह कुछ समय तक ब्रिटिश सरकार से तालमेल
बिठाने का प्रयत्न करते रहे। आखिर में उन्होंने 1932 में ही कश्मीर की
राजनीति में अपना भाग्य आजमाना चाहा और "मुस्लिम कांफ्रेंस" स्थापित की, जो
केवल मुसलमानों के लिए थी। परन्तु 1939 में इसके द्वार अन्य पंथों, मजहबों
के मानने वालों के लिए भी खोल दिए गए और इसका नाम "नेशनल कांफ्रेंस" रख
दिया तथा इसने पंडित नेहरू के प्रजा मण्डल आन्दोलन से अपने को जोड़ लिया।
शेख अब्दुल्ला ने 1940 में नेशनल कांफ्रेंस के सम्मेलन में मुख्य अतिथि के
रूप में पंडित नेहरू को बुलाया था। शेख अब्दुल्ला से पं. नेहरू की अंधी
दोस्ती और भी गहरी होती गई। शेख अब्दुल्ला समय-समय पर अपनी शब्दावली बदलते
रहे और पं. नेहरू को भी धोखा देते रहे। बाद में भी नेहरू परिवार के साथ शेख
अब्दुल्ला के परिवार की यही दोस्ती चलती रही। श्रीमती इंदिरा गांधी, राजीव
गांधी और अब राहुल गांधी की दोस्ती क्रमश: शेख अब्दुल्ला, फारुख अब्दुल्ला
तथा वर्तमान में उमर अब्दुल्ला से चल रही है।
महाराजा से कटु सम्बंध दुर्भाग्य
से कश्मीर के महाराजा हरि सिंह (1925-1947) से न ही शेख अब्दुल्ला के और न
ही पंडित नेहरू के सम्बंध अच्छे रह पाए। महाराजा कश्मीर शेख अब्दुल्ला की
कुटिल चालों, स्वार्थी और अलगाववादी सोच तथा कश्मीर में हिन्दू-विरोधी
रवैये से परिचित थे। वे इससे भी परिचित थे कि "क्विट कश्मीर आन्दोलन" के
द्वारा शेख अब्दुल्ला महाराजा को हटाकर, स्वयं शासन संभालने को आतुर है।
जबकि पं. नेहरू भारत के अंतरिम प्रधानमंत्री बन गए थे, तब एक घटना ने इस
कटुता को और बढ़ा दिया था। शेख अब्दुल्ला ने श्रीनगर की एक कांफ्रेंस में
पंडित नेहरू को आने का निमंत्रण दिया था। इस कांफ्रेंस में मुख्य प्रस्ताव
था महाराजा कश्मीर को हटाने का। मजबूर होकर महाराजा ने पं. नेहरू से इस
कांफ्रेंस में न आने को कहा। पर न मानने पर पं. नेहरू को जम्मू में ही
श्रीनगर जाने से पूर्व रोक दिया गया। पं. नेहरू ने इसे अपना अपमान समझा तथा
वे इसे जीवन भर न भूले। इस घटना से शेख अब्दुल्ला को दोहरी प्रसन्नता हुई।
इससे वह पं. नेहरू को प्रसन्न करने तथा महाराजा को कुपित करने में सफल
हुआ।
कश्मीरियत की भावना पं.
नेहरू का व्यक्तित्व यद्यपि राष्ट्रीय था परन्तु कश्मीर का प्रश्न आते ही
वे भावुक हो जाते थे। इसीलिए जहां उन्होंने भारत में चौतरफा बिखरी 560
रियासतों के विलय का महान दायित्व सरदार पटेल को सौंपा, वहीं केवल कश्मीरी
दस्तावेजों को अपने कब्जे में रखा। ऐसे कई उदाहरण हैं जब वे कश्मीर के
मामले में केन्द्रीय प्रशासन की भी सलाह सुनने को तैयार न होते थे तत्कालीन
विदेश सचिव वाई.डी. गुणडेवीय का कथन था, "आप प्रधानमंत्री से कश्मीर पर
बात न करें। कश्मीर का नाम सुनते ही वे अचेत हो जाते हैं।" प्रस्तुत लेख के
लेखक का स्वयं का भी एक अनुभव है-1958 में मैं एक प्रतिनिधिमण्डल के साथ
पं. नेहरू के निवास तीन मूर्ति गया। वहां स्कूल के बच्चों ने उनके सामने
कश्मीर पर पाकिस्तान को चुनौती देते हुए एक गीत प्रस्तुत किया। इसमें
"कश्मीर भला तू क्या लेगा?" सुनते ही पं. नेहरू तिलमिला गए तथा गीत को बीच
में ही बन्द करने को कहा।
महाराजा की भारत-प्रियता जिन्ना
कश्मीर तथा हैदराबाद पर पाकिस्तान का आधिपत्य चाहते थे। उन्होंने अपने
सैन्य सचिव को तीन बार महाराजा कश्मीर से मिलने के लिए भेजा। तत्कालीन
कश्मीर के प्रधानमंत्री काक ने भी उनसे मिलाने का वायदा किया था। पर
महाराजा ने बार-बार बीमारी का बहाना बनाकर बातचीत को टाल दिया। जिन्ना ने
गर्मियों की छुट्टी कश्मीर में बिताने की इजाजत चाही थी। परन्तु महाराजा ने
विनमर्तापूर्वक इस आग्रह को टालते हुए कहा था कि वह एक पड़ोसी देश के
गर्वनर जनरल को ठहराने की औपचारिकता पूरी नहीं कर पाएंगे। दूसरी ओर शेख
अब्दुल्ला गद्दी हथियाने तथा इसे एक मुस्लिम प्रदेश (देश) बनाने को आतुर
थे। पं. नेहरू भी अपमानित महसूस कर रहे थे। उधर माउंटबेटन भी जून मास में
तीन दिन कश्मीर रहे थे। शायद वे कश्मीर का विलय पाकिस्तान में चाहते थे,
क्योंकि उन्होंने मेहरचन्द महाजन से कहा था कि "भौगोलिक स्थिति" को देखते
हुए कश्मीर के पाकिस्तान का भाग बनना उचित है। इस समस्त प्रसंग में अत्यंत
महत्वपूर्ण भूमिका श्री गुरुजी (माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर) ने निभाई। वे
महाराजा कश्मीर से बातचीत करने 18 अक्तूबर को श्रीनगर पहुंचे। विचार-विमर्श
के पश्चात महाराजा कश्मीर अपनी रियासत के भारत में विलय के लिए पूरी तरह
पक्ष में हो गए थे।
पं. नेहरू की भयंकर भूलें
जब षड्यंत्रों से बात नहीं बनी तो पाकिस्तान ने बल प्रयोग द्वारा कश्मीर को
हथियाने की कोशिश की तथा 22 अक्तूबर, 1947 को सेना के साथ कबाइलियों ने
मुजफ्फराबाद की ओर कूच किया। लेकिन कश्मीर के नए प्रधानमंत्री मेहरचन्द्र
महाजन के बार-बार सहायता के अनुरोध पर भी भारत सरकार उदासीन रही। भारत
सरकार के गुप्तचर विभाग ने भी इस सन्दर्भ में कोई पूर्व जानकारी नहीं दी।
कश्मीर के ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह ने बिना वर्दी के 250 जवानों के साथ
पाकिस्तान की सेना को रोकने की कोशिश की तथा वे सभी वीरगति को प्राप्त हुए।
आखिर 24 अक्तूबर को माउन्टबेटन ने "सुरक्षा कमेटी" की बैठक की। परन्तु
बैठक में महाराजा को किसी भी प्रकार की सहायता देने का निर्णय नहीं किया
गया। 26 अक्तूबर को पुन: कमेटी की बैठक हुई। अध्यक्ष माउन्टबेटन अब भी
महाराजा के हस्ताक्षर सहित विलय प्राप्त न होने तक किसी सहायता के पक्ष में
नहीं थे। आखिरकार 26 अक्तूबर को सरदार पटेल ने अपने सचिव वी.पी. मेनन को
महाराजा के हस्ताक्षर युक्त विलय दस्तावेज लाने को कहा। सरदार पटेल स्वयं
वापसी में वी.पी. मेनन से मिलने हवाई अड्डे पहुंचे। विलय पत्र मिलने के बाद
27 अक्तूबर को हवाई जहाज द्वारा श्रीनगर में भारतीय सेना भेजी गई।
दूसरे,
जब भारत की विजय-वाहिनी सेनाएं कबाइलियों को खदेड़ रही थीं। सात नवम्बर को
बारहमूला कबाइलियों से खाली करा लिया गया था परन्तु पं. नेहरू ने शेख
अब्दुल्ला की सलाह पर तुरन्त युद्ध विराम कर दिया। परिणामस्वरूप कश्मीर का
एक तिहाई भाग जिसमें मुजफ्फराबाद, पुंछ, मीरपुर, गिलागित आदि क्षेत्र आते
हैं, पाकिस्तान के पास रह गए, जो आज भी "आजाद कश्मीर" के नाम से पुकारे
जाते हैं।
तीसरे, माउन्टबेटन की
सलाह पर पं. नेहरू एक जनवरी, 1948 को कश्मीर का मामला संयुक्त राष्ट्र संघ
की सुरक्षा परिषद् में ले गए। सम्भवत: इसके द्वारा वे विश्व के सामने अपनी
ईमानदारी छवि का प्रदर्शन करना चाहते थे तथा विश्वव्यापी प्रतिष्ठा प्राप्त
करना चाहते थे। पर यह प्रश्न विश्व पंचायत में युद्ध का मुद्दा बन गया।
चौथी
भयंकर भूल पं. नेहरू ने तब की जबकि देश के अनेक नेताओं के विरोध के बाद
भी, शेख अब्दुल्ला की सलाह पर भारतीय संविधान में धारा 370 जुड़ गई।
न्यायाधीश डी.डी. बसु ने इस धारा को असंवैधानिक तथा राजनीति से प्रेरित
बतलाया। डा. भीमराव अम्बेडकर ने इसका विरोध किया तथा स्वयं इस धारा को
जोड़ने से मना कर दिया। इस पर प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने रियासत राज्यमंत्री
गोपाल स्वामी आयंगर द्वारा 17 अक्तूबर, 1949 को यह प्रस्ताव रखवाया। इसमें
कश्मीर के लिए अलग संविधान को स्वीकृति दी गई जिसमें भारत का कोई भी कानून
यहां की विधानसभा द्वारा पारित होने तक लागू नहीं होगा। दूसरे शब्दों में
दो संविधान, दो प्रधान तथा दो निशान को मान्यता दी गई। कश्मीर जाने के लिए
परमिट की अनिवार्यता की गई। शेख अब्दुल्ला कश्मीर के प्रधानमंत्री बने।
वस्तुत: इस धारा के जोड़ने से बढ़कर दूसरी कोई भयंकर गलती हो नहीं सकती थी।
पांचवीं
भयंकर भूल शेख अब्दुल्ला को कश्मीर का "प्रधानमंत्री" बनाकर की। उसी काल
में देश के महान राजनेता डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने दो विधान,, दो
प्रधान, दो निशान के विरुद्ध देशव्यापी आन्दोलन किया। वे परमिट व्यवस्था को
तोड़कर श्रीनगर गए जहां जेल में उनकी हत्या कर दी गई। पं. नेहरू को अपनी
गलती का अहसास हुआ, पर बहुत देर से। शेख अब्दुल्ला को कारागार में डाल दिया
गया लेकिन पं. नेहरू ने अपनी मृत्यु से पूर्व अप्रैल, 1964 में उन्हें
पुन: रिहा कर दिया। पं. नेहरू की इन पांच ऐतिहासिक भूलों का मूल्य तो भारत
की वर्तमान पीढ़ी को चुकाना पड़ ही रहा है, अब नेहरू परिवार द्वारा की जा रही
भयंकर भूलों का मूल्य भावी पीढ़ी चुकाएगी।


ब्रिटिश सरकार ने भारत की सत्ता कांग्रेस को क्यों सौंपी?

यह
भारतीय इतिहास का एक विवादित प्रश्न, एक अनबूझ पहेली तथा विचारणीय विषय
है- कि अंग्रेजों ने 15 अगस्त, 1947 को भारतीय राजनीतिक सत्ता का हस्तांतरण
कांग्रेस को ही क्यों किया? यह सर्वविदित कि 1946 के चुनाव में केवल 11
प्रतिशत लोगों को ही मतदान का अधिकार था तथा उससे चुनकर आए सदस्य अपने-अपने
क्षेत्रों से कुल मतों की तुलना में बहुत कम मतों से जीते थे। उस समय
वयस्क मताधिकार न था, जबकि पाकिस्तान का निर्माण मुस्लिम जनमत संग्रह से
हुआ था जिसमें 96.5 प्रतिशत मुसलमानों ने पाकिस्तान के निर्माण को सहमति दी
थी तथा वहां मुस्लिम लीग की सरकार स्थापित हुई थी। इसके विपरीत भारत के
कुछ दलों द्वारा बहुसंख्यक समुदाय के जनमत संग्रह की मांग बार-बार की गई,
परन्तु ब्रिटिश सरकार ने इसे स्वीकार नहीं किया। प्रश्न यह भी है कि क्या
ब्रिटिश सरकार के पास हिन्दुस्थान के लिए कोई विकल्प न था या अंग्रेज सरकार
किसी अन्य विकल्प को चाहती ही नहीं थी? क्या वह पूर्ण हस्तांतरण चाहती थी
या सीमित सीमा तक सत्ता सौंपना चाहती थी।
यदि हम द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात भारत के राजनीतिक परिदृश्य का विचार
करें तो स्थिति स्पष्ट हो सकती है। ब्रिटिश सरकार की नीति तथा कांग्रेस के
विभिन्न कार्यक्रमों में भारत का बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय सर्वथा उपेक्षित
रहा। कांग्रेस ने हिन्दू समाज को विविध मतों तथा सम्प्रदायों के रूप में
देखा। उसने हिन्दुओं की सम्पूर्णता, एकत्व तथा समग्रता का कभी विचार नहीं
किया।
हिन्दुओं की अनदेखी
ब्रिटिश सरकार ने भी प्रारंभ से ही भारतीय समाज को मुख्यतरू मुस्लिम तथा
गैरमुस्लिम के रूप में देखा। ब्रिटिश चुनाव प्रक्रिया में चुनाव क्षेत्रों
अथवा मतदाताओं को मुस्लिम, सिख तथा सामान्य की श्रेणी में बांटा। कहीं भी
हिन्दू के रूप में उसके प्रतिनिधित्व के लिए विशिष्ट शब्दावली का प्रयोग
नहीं किया। अत: व्यावहारिक रूप से राजनीति में हिन्दू के स्वरूप को
पूर्णतरू अप्रासंगिक करने में जहां कांग्रेस ने सहयोग दिया वहीं ब्रिटिश
सरकार ने जान बूझकर कूटनीति ढंग से अलग किया। अर्थात 85 प्रतिशत हिन्दुओं
का अपना प्रतिनिधित्व कहीं न था। न ही उनका कोई संगठित प्रयास था। हिन्दुओं
के नाम पर केवल हिन्दू महासभा थी, जिसके प्रयास तथा क्षेत्र एक हद तक
सीमित थे। हिन्दू महासभा का जन्म 1915 में हुआ था। पं. मदनमोहन मालवीय, लाल
लाजपतराय, वीर सावरकर, डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने इसे सुदृढ़ वैचारिक
आधार प्रदान किया। उनके चिंतन में संस्कृति, हिन्दुत्व व भारतीयता की भावना
थी। 1933 में इसके अध्यक्ष भाई परमानन्द ने ब्रिटिश सरकार का विरोध करते
हुए हिन्दुओं को भारत का मुख्य समुदाय मानने को कहा था। डा. श्यामा प्रसाद
मुखर्जी ने 1946 में अर्थात स्वतंत्रता से पूर्व साम्प्रदायिकता के आधार पर
राज्यों का गठन, हिन्दुओं तथा मुसलमानों में बराबरी तथा पाकिस्तान निर्माण
का विरोध किया था। उन्होंने लार्ड बेवल की योजना को भी अस्वीकार किया।
प्रसिद्ध विद्वान प्रोफेसर कूपलैण्ड ने लिखा कि इसी कारण बेवल ने शिमला
कांफ्रेंस में हिन्दू महासभा को नहीं बुलाया था। हिन्दू महासभा के बिलासपुर
अधिवेशन में वीर सावरकर ने अखण्ड भारत के साथ एक व्यक्ति एक वोट तथा समान
नागरिकता की बात कही थी। 16 जून, 1946 को हिन्दू महासभा ने अपने प्रस्ताव
में एक मजबूत केन्द्रीय शासन तथा जनसंख्या के आधार पर अन्तरिम सरकार की
स्थापना की बात कही थी।
यह उल्लेखनीय है कि जब माउन्टबेटन मई, 1947 में एक-एक करके भारतीय नेताओं
से बातचीत कर भारत के विभाजन का वातावरण बना रहे थे तब हिन्दू महासभा के
महासचिव वी.जी. देशपांडे ने 21 मई, 1947 को विभाजन की योजना को विनाशकारी
बतलाया था तथा कांग्रेस के नेताओं से अनुरोध किया था कि वे भारत का भविष्य
बिना भारत के बहुसंख्यक समाज का जनमत संग्रह कराए, स्वीकार न करें। हिन्दू
महासभा के अध्यक्ष एल.बी. भोपटकर ने 3 जून, 1947 के प्रस्ताव, जिसे
कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग ने स्वीकृति दी थी, को राष्ट्र के साथ विश्वासघात
कहा था। उन्होंने समूचे देश में 3 जून को काला दिवस मनाने का आह्वान किया
था। डा. गोकुल चन्द नारंग ने इस बात की कटु आलोचना की थी कि जो कांग्रेस
1946 के चुनावों में भारत की एकता की बढ़-चढक़र बातें करती थी, अब वह कहां
है? दयाल सिंह बेदी ने कहा कि यह विचित्र संयोग है कि मोतीलाल नेहरू ने
बम्बई को सिन्ध से अलग किया, अब उनका पुत्र सिन्ध को शेष भारत से अलग कर
रहा है। इसी भांति 15 अगस्त को शोक दिवस मनाने को कहा। वीर
सावरकर ने पुन: आलोचना करते हुए कहा था कि कांग्रेस कहती है कि हमने
विभाजन स्वीकार कर देश को रक्तपात से बचाया, सही यह है कि जब तक पाकिस्तान
रहेगा, पुन: रक्तपात का खतरा बना रहेगा।
संक्षेप में
हिन्दू महासभा स्वतंत्रता से पूर्व अखण्ड भारत, पाकिस्तान निर्माण का विरोध
तथा विभाजन से पूर्व हिन्दुओं के जनमत संग्रह की मांग कर रही थी।
हिन्दू महासभा की भांति भारत के समाजवादी नेता 1946 में किसी भी प्रकार के
विभाजन को अस्वीकार कर रहे थे। इनमें प्रमुख रूप से जयप्रकाश नारायण,
अच्युत पटवर्धन, डा. राम मनोहर लोहिया तथा अरुणा आसफ अली थे। उन्होंने
राष्ट्रवाद का आधार किसी भी प्रकार के तत्वों से, जो विदेशी प्रभुत्व के
बीच आते होंप्ते, से पूर्ण मुक्ति, भारत की राजनीतिक तथा आर्थिक एकता, सभी
नागरिकों के लिए एक समान संहिता को आवश्यक बताया था। उन्होंने पूर्ण
स्वतंत्रता का अर्थ प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश प्रभुत्व की
समाप्ति पर बल दिया, जिसमें भारतीय संविधान के निर्माण से पूर्व ब्रिटिश
सेना की वापसी, ब्रिटिश पूंजीवादी हितों की समाप्ति को भी आवश्यक बताया था।
साथ ही राष्ट्रीय एकता तथा प्रजातंत्र के लिए किसी भी प्रकार के समझौते को
अस्वीकार किया था। उल्लेखनीय है कि समाजवादी दल ने कैबिनेट मिशन योजना के
अन्तर्गत चुने गये सदस्यों को अस्वीकार करके संविधान सभा के लिए सीधे चुनाव
की मांग की थी, इसके लिए उन्होंने वयस्क मताधिकार के आधार की भी मांग की
थी। 3 जून, 1947 के भारत विभाजन के प्रस्ताव को अस्वीकृत किया था।
कम्युनिस्टों की मानसिकता
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की भारत विभाजन के सन्दर्भ में कोई सक्रिय भूमिका
का प्रश्न ही नहीं था। यद्यपि 1942 के आन्दोलन में कम्युनिस्टों ने
अंग्रेजों का पूरी तरह साथ दिया था परन्तु न उसके पीछे भारतीय जन समर्थन था
और न ही अंग्रेजों का विश्वास। उन्होंने भारत को दो नहीं बल्कि 17 पृथक
पूर्ण राज्यों में बांटने की योजना रखी, जो मानी जाती तो महाविनाशकारी
होती।
सिख समुदाय ने भी 9 व 10 जून, 1946 को भारत के भविष्य का गहन चिन्तन किया
था जिसमें सिख विचार के अनेक प्रमुख व्यक्ति सम्मिलित हुए थे। मास्टर तारा
सिंह ने इसमें आह्वान किया था कि या तो ब्रिटिश राज्य को समाप्त करो अन्यथा
स्वयं खत्म हो जाओ। उन्होंने सिख एकता पर बल दिया था। उन्होंने भी कैबिनेट
मिशन योजना की कटु आलोचना की थी तथा 3 जून 1947 के विभाजन की आलोचना की
थी। प्रसिद्ध क्रांतिकारी सरदार अजीत सिंह ने विभाजन की स्वीकृति को महान
भूल कहा। बाबा खडग़ सिंह ने भी इसका तीव्र विरोध किया था। महाराजा फरीदकोट
ने इसे अपवित्र बतलाया।
कुल
मिलाकर भारत के राजनीतिक परिवेश में ब्रिटिश सरकार द्वारा कांग्रेस को
सत्ता हस्तांतरण करने के चार प्रमुख कारण थे। प्रथम, कांग्रेस के अलावा
भारत के सभी प्रमुख दल भारत विभाजन का प्रत्यक्ष रूप से विरोध कर रहे थे
तथा उन्हें विभाजन अस्वीकार था। दूसरे, कांग्रेस सही अर्थों में ष्ब्रिाटिश
कामनवैल्थष् के अधीन, डोमिनियन स्टेटस से ही सन्तुष्ट थी, जबकि शेष दल
अंग्रेजों के प्रभाव से पूर्णतरू मुक्त शासन चाहते थे। तीसरे, कांग्रेस को
छोडक़र सभी दल भारतीय संविधान सभा के निर्माण के लिए देशव्यापी चुनाव के
पक्ष में थे। हिन्दू महासभा हिन्दुओं का जनमत संग्रह कराना चाहती थी तथा
समाजवादी दल वयस्क मताधिकार के आधार पर निर्णय। चौथे, भारत में हिन्दू
शक्ति का प्रभाव बढ़ रहा था, जो न कांग्रेस के लिए हितकारी था और न ब्रिटिश
सरकार के। अत: ब्रिटिश सरकार ने अपने वर्तमान तथा भविष्य का ध्यान रखते हुए
भारत शासन की सत्ता कांग्रेस को ही सौंपी।

गांधी जी का कांग्रेस नेताओं से टकराव

केम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अनिल सील ने 1968 ई. में भारत के
राष्ट्रीय आन्दोलन के सन्दर्भ में निष्कर्ष देते हुए, भारतीय राष्ट्रीय
कांग्रेस द्वारा संचालित आन्दोलन को एक वैचारिक शून्य तथा जानवरों की लड़ाई
बताया है। निश्चय ही उसका यह कथन तर्कहीन तथा अतिशयोक्तिपूर्ण है। परन्तु
यह भी कटु सत्य है कि कांग्रेस का इतिहास इसके नेताओं में परस्पर ईष्या,
द्वेष तथा टकराव से भरपूर रहा है तथा इसका बार-बार विभाजन होता रहा है। यह
स्वतंत्रता से पूर्व 1907, 1923 तथा 1930 में सूरत की फूट, स्वराज्यवादी
तथा गांधीवादी, दक्षिणपंथी कांग्रेस तथा वामपंथी (कांग्रेस सोशलिस्ट
पार्टी) कांग्रेस के रूप में प्रसिद्ध है। स्वतंत्रता के पश्चात भी कभी
कांग्रेस संगठन तथा कांग्रेस इन्दिरा तथा कभी असली कांग्रेस तथा
राष्ट्रवादी कांग्रेस में बंटी रही। अलगाव का प्रमुख कारण व्यक्तिगत ईष्या
तथा राजनीतिक महत्वकांक्षा ही रहा। यह भी सर्वमान्य है कि ए.ओ. ह्रूम की
प्रेरणा तथा भारत के वायसराय लार्ड डफरिन के आशार्वाद से स्थापित कांग्रेस
का प्रारम्भ में उद्देश्य अंग्रेजी राज्य की सुरक्षा तथा अंग्रेजी
साम्रााज्य के अर्न्तगत भारतीयों को कुछ सुविधाएं प्राप्त करना मात्र था।
इसकी कार्यवाही वर्ष में केवल तीन दिनों तक होती थी। अतः इसे वार्षिक मेला,
एक तमाशा, तीन दिन की पिकनिक, एक मंच आदि के नामों से पुकारा गया। एक
विद्वान ने कांग्रेस को एक गैरवफादार लेकिन कम खतरनाक तथा इसकी कार्यवाही
को बेहूदा बतलाया। 1901 ई. में गांधी जी ने प्रथम बार कलकत्ता अधिवेशन में
भाग लिया था तथा इसके अध्यक्ष फिरोजशाह मेहता के साथ एक ही रेलगाड़ी में (पर
अलग-अलग डिब्बों में) बम्बई से कलकत्ता गए थे। वे मेहता के राजसी ठाट-बाट
तथा उनके सैलून को देखकर दंग थे तथा अधिवेशन में अनुशासनहीनता तथा बेहद
गंदगी से परेशान। इतना ही नहीं, 1912 में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने पहली बार
बांकीपुर (पटना) में कांग्रेस अधिवेशन में भाग लिया तो उन्हें भी मोर्निंग
कोट व सुन्दर प्रेस किए हुए ट्राउजर पहने प्रतिनिधियों को देखकर लगा कि
अधिवेशन मानो कोई सामाजिक एकत्रीकरण हो, जिनमें कोई राजनीतिक उत्साह या
तनाव नहीं है।
1915 में गांधी जी का भारत में वापस आगमन हुआ। आते ही उनका गुजराती सभा
द्वारा बम्बई में स्वागत हुआ। पहली ही सभा में उनका मोहम्मद अली जिन्ना से
टकराव हो गया। गांधी जी गुजराती में बोले जबकि जिन्ना, जो अध्यक्षता कर रहे
थे, अग्रेजी में। गांधी जी ने अंग्रेजी में बोलने पर उनको फटकार लगाई।
सम्भवतः तभी से दोनों में अलगाव का बीजारोपण हो गया था।
भारत आते ही गांधी जी भारतीय राजनीति में आना चाहते थे, परन्तु उनके
राजनीतिक गुरू श्री गोपाल कृष्ण गोखले ने उन्हें आगामी दो वर्षों तक देश को
समझने, घूमने तथा राजनीति को समझने के लिए कहा। साथ ही उन्होंने गांधी जी
की आखें खुली रखने तथा मुंह को बन्द रखने को कहा। इस दो-तीन वर्ष के काल को
गांधी जी भारतीय राजनीति में अपना प्रोबेशन पीरियड कहते थे।
गांधी जी का प्रथम मिलन तथा टकराव पं. मोतीलाल नेहरू से हुआ। 1919 ई. का
वर्ष भारतीय राजनीति में चहल-पहल का वर्ष था। इस वर्ष गांधी जी ने इतिहास
की सर्वाधिक चमत्कारी राजनीतिक विजय प्राप्त की। गांधी द्वारा जीता गया
सबसे पहला और निर्णायक क्षेत्र-इलाहाबाद का आनन्द भवन था। वस्तुतः नेहरू
परिवार को अभी तक राजनीति से कोई लगाव न था। इतिहासकार बी.आर. नन्दा के
अनुसार राजनीति उनके लिए सप्ताहांत में खाने की मेज पर रोज की जिंदगी से एक
बदलाव के रूप में थी। दोनों एक-दूसरे से प्रभावित हुए।
मोतीलाल आयु में गांधी जी से आठ साल बड़े थे। इलाहाबाद के एक सम्पन्न तथा
प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। गांधी जी उनके पुत्र जवाहरलाल नेहरू को राजनीति में
लेना चाहते थे। मोतीलाल नेहरू गांधी जी के ष्रोलेट एक्टष् सम्बंधी विरोध
तथा सत्याग्रह से प्रभावित थे। परन्तु मोतीलाल नेहरू का गांधी जी से पहला
आग्रह था कि वे उनके पुत्र जवाहरलाल नेहरू को सत्याग्रह में भाग लेने से
रोकें तथा समझाएं। गांधी जी मान गए तथा मोतीलाल का पुत्र भी। दोनों की
मित्रता गहरी होती गई। जलियांवाला बाग काण्ड के पश्चात कांग्रेस ने एक जांच
समिति बनाई तथा इसमें मोतीलाल को मुख्यतः जिम्मेदारी दी गई। पुरस्कार
स्वरूप मोतीलाल को 1922 में अमृतसर कांग्रेस 1919 ई. का अध्यक्ष बना दिया
गया। मोतीलाल ने अपने अध्यक्षीय भाषण में गांधी जी को इस समय का सर्वाधिक
आदरणीय भारतीय भारतीय कहा, परन्तु शीघ्र ही दोनों में टकराव हो गया।
मोतीलाल को अहिंसा तथा असहयोग आंदोलन का स्वरूप नहीं जंचा। पर जब गांधी जी
ने फरवरी, 1922 ई. में चौरा-चौरा की अचानक घटना से आन्दोलन स्थगित कर दिया
तो वे आग बबूला हो गए। गांधी ने इसे शून्य की अवस्था में पहुंचाने वाली दवा
की खुराक कहा। टकराव इतना बढ़ा कि गया अधिवेशन की समाप्ति के अगले दिन मोतीलाल व सी.आर.दास ने स्वराज्य पार्टी जनवरी, 1923 ई. में बनाई
और असहयोग के विपरीत काउंसिंलों में प्रवेश तथा सहकारी कार्य में अड़ेंगे
की नीति अपनाई। गांधी जी को इस अडग़ेबाजी में हिंसा की जबरदस्त गन्ध आई।
कांग्रेस की सदस्यता के प्रश्न पर भी टकराव हुआ। अभी तक प्रचलित चार आने
(वर्तमान 25 पैसे) देकर कांग्रेस की सदस्यता के स्थान पर 2000 गज सूत कातने
की शर्त लगा दी गई। अत: 1924 के अन्त तक परस्पर टकराव चरम सीमा तक पहुंच
गया। गांधी जी के मित्र सी.एफ. एन्डलज ने लिखा कि मई-जून 1924 ई. में दोनों
के मस्तिष्क में एक-दूसरे के प्रति इतनी भिन्नता थी कि यह लगता था कि वे
अब कभी साथ न रहेंगे। दोनों की अलग-अलग बयानबाजी चल रही थी। आखिर गांधी जी
ने समझौते द्वारा बीच का मार्ग अपनाया तथा उन्हें काउंसिल प्रवेश की
स्वीकृति मिल गई तथा सदस्यता के लिए अब सूत दान को मान्यता मिली। इसके बाद
सामान्यतः दोनों के सम्बंध अच्छे रहे।
जवाहर लाल नेहरू के वामपंथ के प्रति झुकाव से मोतीलाल व गांधी जी-दोनों
परेशान थे। मोतीलाल के आग्रह पर गांधी जी-ने उसे कुछ बनाने की सोची। गांधी
जी को लगता था कि यदि उसे कांग्रेस में सक्रिय न किया गया तो वह लाल हो
जाएगा या बिगड़ जाएगा। अतरू 1929 में कांग्रेस अध्यक्ष के पद के लिए निम्नतम
वोट मिलने पर भी गांधी जी ने उसे अध्यक्ष बनाया। इसी भांति उन्हें कई बार
बिना चुनाव आगे भी अध्यक्ष बनाया गया। परन्तु गांधी जी तथा पंडित जवाहरलाल
नेहरू में भी शीघ्र कटुता बढ़ी। क्रोधित स्वभाव के कारण पं. नेहरू फरवरी,
1922 में असहयोग आंदोलन स्थगित किए जाने पर क्रोधित होने की भांति, सविनय
अवज्ञा आन्दोलन के रोकने पर अत्यधिक नाराज हो गए। पं. नेहरू ने स्वयं लिखा,
कोई बापू के साथ कैसे कार्य सकता है, अगर वह इस ढंग से काम करते है जिसमें
व्यक्तियों को आपत्ति में छोड़ दिया जाए। संविधान सभा के निर्माण में तथा
उसके तात्विक विवेचन में गांधी जी का हिन्द स्वराज्य, रामराज्य या ग्रामीण
आधारित योजना काल्पनिक बन गई थी। गांधी जी चाहते थे कि भारतीय राष्ट्रीय
कांग्रेस का उद्देश्य पूरा हो गया है। इसे समाप्त कर दिया जाए, परन्तु उनका
राष्ट्र चिंतन सत्ता की दौड़ में पिछड़ गया था।
इसी भांति विपिन चन्द्र पाल ने तो गांधी जी के असहयोग आन्दोलन से ही नहीं
बल्कि कांग्रेस से ही सम्बंध अलग कर लिया। असहयोग आन्दोलन में उन्हें न कोई
चमत्कार लगता और न ही कोई तर्क। अंग्रेजों की निगाह में खतरनाक बागी
लाजपतराय से भी गांधी जी के सम्बंध प्रायः कटु रहे। यद्यपि गांधी जी से
उनकी पहली भेंट 24 फरवरी, 1920 को हुई थी। उन्होंने गांधी जी के असहयोग
आन्दोलन का समर्थन किया था परन्तु वह आंदोलन में एक साथ सभी प्रकार के
बहिष्कार के पक्ष में न थे और न ही इस क्षेत्र में बिना व्यवस्था के सरकारी
स्कूलों तथा कालेजों को छोडऩे के। बाद में उन्होंने असहयोग आंदोलन को
महानतम गलती कहा था। उनका विचार कि गांधी जी की असहयोग आन्दोलन में मुस्लिम
समर्थन पर निर्भरता तथा एक वर्ष में स्वराज्य का कथन गलत था। 1926 में
उन्होंने मदन मोहन मालवीय से मिलकर एक इंडिपेंडेंट नेशनल पार्टी गठित की,
तथा केन्द्रीय असेम्बली के लिए दो स्थानों से खड़े हुए तथा जीते।
अतः संक्षेप में गांधी जी जैसा चमत्कारिक व्यक्तित्व तथा प्रभावी नेतृत्व
भी तत्कालीन कांग्रेस के प्रमुख नेताओं में सामूहिकता का बोध, समरसता तथा
सहयोग की भावना स्थापित न कर सका। सम्भवतः नेहरू परिवार तथा उग्र कांग्रेसी
नेता कांग्रेस के बदलते हुए लक्ष्य, ब्रिटिश सरकार के प्रति नीति तथा
मार्ग को स्पष्ट दिशा न दे सके। साथ ही नेताओं का अहम् तथा महत्वाकांक्षा
भी राजनीतिक पथ को अवरुद्ध करती रही।

व्रत-महोत्सव-मेलों ने किया था राष्ट्रीय चेतना का जागरण

पर्वों,
उत्सवों तथा मेलों की राष्ट्रीय जागरण में भी अहम भूमिका रही है। लोकमान्य
बाल गंगाधर तिलक के आह्वान पर महाराष्ट्र में 1893 ई. में गणपति महोत्सव
को व्यापक रूप दिया गया था। पुणे, नासिक तथा अन्य नगरों में जब गणपति बप्पा
मोरया, पुढच्या वर्षी लवकरया (अर्थात् हे गणेश बाबा, आप जल्दी ही अगले
वर्ष फिर से आइये!) के उद्घोष कर जब गणेशजी की मूर्तियों की शोभायात्रा
निकाली जाती तो युवा शक्ति में राष्ट्रीय भावनाओं का संचार होने लगता था।
लंदन
के टाइम्स पत्र में तब प्रकाशित सर वेलन्टाइन चिरोल नामक गई संवाददाता की
रपट में आशंका व्यक्त की गई थी कि तिलक जी ने धार्मिक समारोह की आड़ में
अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध विद्रोह की अग्नि भडक़ाने के लिए यह नया अभियान
शुरू किया है।
सन् 1896 में रायगढ़ दुर्ग में शिवाजी महोत्सव के नाम से विख्यात हिन्दू संगम मेले का आयोजन किया गया। अंग्रेजों ने शिवाजी महोत्सव को राष्ट्रद्रोह बताकर उसका विरोध शुरू किया।
कुछ भारतीयों ने भी इस आयोजन से हिन्दू-मुस्लिम के बीच विद्वेष पैदा होने
की शंका व्यक्त की। पं. मदनमोहन मालवीय तथा सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने रायगढ़
के ऐतिहासिक दुर्ग को भव्य रूप दिये जाने की मांग की। दुर्ग में लगे चार
दिनों के इस भव्य व विशाल मेले में भाग लेकर लाखों लोगों में राष्ट्रीय
चेतना का संचार हुआ।
22 जून 1897
को पुणे में रानी विक्टोरिया के राजतिलक समारोह से लौटते समय चाफेकर
बन्धुओं ने रैण्ड तथा लेफ्टिनेंट आयर्स्ट की हत्या कर दी। इन हत्याओं का
दोष तिलक जी पर लगाकर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। रपट में लिखा गया कि
गणेशोत्सव व शिवाजी महोत्सव की आड़ में युवकों में हिंसा की भावना पनपाई गई
थी।
तब 17 वर्षीय विनायक दामोदर
सावरकर ने चाफेकर और रानडे जैसे क्रांतिकारियों के बलिदान से प्रेरित होकर 1
जनवरी सन् 1900 को नासिक में मित्र मेला नामक संस्था की स्थापना की थी।
राष्ट्रभक्त समूह के अनेक तेजस्वी युवक इस समारोह में शामिल हुए थे। मित्र
मेला के मंच से सावरकर जी ने घोषणा की कि स्वदेश की सर्वांगीण उन्नति के लिए हम प्राणोत्सर्ग करने में भी नहीं हिचकिचाएंगे। मित्र मेला के तत्वावधान में ही नासिक में मेले के रूप में शिवाजी उत्सव का आयोजन कर आह्वान किया गया-
परतंत्र मातृभूमि को शिवाजी के दिखाए रास्ते से स्वतंत्र कराने के लिए हम सबको संघर्षरत रहना होगा।
सावरकर जी के इस आह्वान से नासिक के अंग्रेज अधिकारी एक बार तो कांप उठे
थे। मित्र मेला के तत्वावधान में विशाल मेले के रूप में गणेश महोत्सव मनाया
गया।
इंग्लैंड की रानी
विक्टोरिया की 1902 में मृत्यु हुई तो अंग्रेजों और उनके चाटुकारों की तरफ
से पूरे हिन्दुस्थान में शोक सभाओं का आयोजन किया गया। साथियों ने सावरकर
जी को सुझाव दिया कि मृत्यु के बाद शत्रुता का भाव त्यागकर मित्र मेला की
ओर से भी एक शोकसभा की जानी चाहिए। सावरकर
जी ने निर्भीकता से कहा, वह अंग्रेजों की अर्थात हमारे शत्रु की रानी थीं।
हमारे राष्ट्र को लूटने वाले डकैतों की सरदार (मुखिया) थीं। इसके लिए हम
शोक प्रकट कर राजनिष्ठा का ढोंग क्यों करें।
सावरकर द्वारा स्थापित मित्र मेला की गतिविधियों ने ब्रिटिश शासन को एकबार तो हिला डाला था।
रक्षा
बंधन महोत्सव का चमत्कार महाराष्ट्र के बाद बंगाल में भी व्रत-महोत्सवों व
गंगा मेलों का राष्ट्रीय जागरण के लिए उपयोग किया गया। बंगाल में सन् 1906
में काली माता की प्रेरणा से दुर्गा महोत्सव शुरू किया गया। युगांतर पत्र
ने लिखा- काली के उपासको, तुम्हारे धर्म, संस्कृति तथा राष्ट्र का अस्तित्व
खतरे में है। अहिंसा एवं शांति की मृग मरीचिका में न फंसकर इस बार
अरिमुंडों से माता का अभिषेक करने का संकल्प लो। इस लेख के छपते ही कोहराम
मच गया था। कोलकाता में व्रती समिति तथा वंदेमारतम् सम्प्रदाय का गठन कर
राष्ट्रीय भाव जगाया गया।
बंगाल
में हिन्दू मेला की स्थापना की गई। श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर के आह्वान पर 26
अक्तूबर 1905 को बंग-भंग के विरोध में रक्षाबंधन महोत्सव मनाया गया।
राष्ट्रभक्तों की टोलियां गंगातट पर लगने वाले विशाल मेले में पहुंचीं तथा
मेले को वंदेमातरम् के उद्घोषों से गुंजा दिया। गंगा स्नान के बाद केसरिया
धागों की राखियां बांधकर विदेशी-विधर्मी अंग्रेजों की सत्ता को उखाड़ फेंकने
के संकल्प के महोत्सव ने पूरे बंगाल में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का
वातावरण बनाने में सफलता पाई। जगह-जगह विदेशी वस्त्रों की होली जली। बंगाल
में कई स्थानों पर तो चर्मकार बंधुओं ने अंग्रेजी जूतों की मरम्मत करने से
इनकार कर दिया, रसोइयों ने मांस न पकाने का संकल्प लिया, धोबियों ने विदेशी
वस्त्र-धोने से इनकार कर दिया। इस प्रकार व्रत-महोत्सवों व मेलों का
राष्ट्रीय जागरण में अनूठा योगदान रहा है।

11/22/2010


इतिहास भी खामोश है जिनके बारें में : गाडोलिया लुहार

राजस्थान
की वीरप्रसूता भूमि का कण-कण शूरवीरों, योद्धाओं, भक्तों, त्यागियों और
दानियों की अनगिन गाथाओं से भरा हुआ है। इतिहास बताता है कि राजस्थान की
धरती और यहां के निवासियों ने अपनी स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए सर्वाधिक
विदेशी आक्रांताओं से लोहा लिया। मुगलों के शासनकाल में मेवाड़ रियासत का
दिल्ली के बादशाह अकबर से किया गया युद्ध भारत के इतिहास का एक स्वर्णिम
पृष्ठ तो है ही साथ ही भारतवासी स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए किस प्रकार से
आत्मोत्सर्ग कर सकते है उसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है।
 इतिहास के पन्ने उलटने से पता चलता है कि जब पूरे राजपूताने के अधिकांश
राजाओं- महाराजाओं ने अधीनता स्वीकार कर ली थी तो उस समय मात्र राणा प्रताप
ही ऐसे थे जिन्होने विदेशी और विधर्मी सत्ता के आगे समर्पण करने या मुगल
राजा के साथ रोटी-बेटी का नाता करने तथा किसी भी प्रकार का सम्बंध रखने से
इंकार करते हुए अपने देश की आजादी, सार्वभौमिकता, एकता व अखण्डता को
अक्षुण्ण रखने का संकल्प लिया था।
 जिस समय चित्तौड. पर मुगल आक्रांताओं द्वारा आक्रमण किया गया, बड.े पैमाने
पर पूजा स्थल ध्वस्त किए गए, बाल- वृद्ध, नारी सभी का बड.ी बेरहमी से कत्ल
किया गया तो एक प्रकार से पूरा चित्तौड. सूना सा हो गया। चारों ओर जहां
देखों मरघट सा सन्नाटा दिखाई देता था, स्थान - स्थान पर पड.े लाशों के ढ़ेर
मुसलमानों की क्रूरता की कहानी बयान कर रहे थे उस समय चित्तौड़ की बची-खुची
जनता जान बचाने के लिए जंगलों की ओर भाग गई। भूतपूर्व अंग्रेज सेन्सश
सुपरिटेडेन्ट विटस ने अपनी पुस्तक राजपमताना में से दस साल में लिखा है कि
जंगलों में छिपे लोगो को जब चित्तौड़ में हुए व्यापक और लोमहर्षक नरसंहार का
पता चला तो उनका खून खौल उठा। उन्होने चित्तौड़ आकर देखा कि चारों ओर आग की
लपटे उठ रही है। इन लोगो का जोश जागा और अपनी मातृभूमि के लिए कुछ करने की
ललक उनमें उठी। ये लोग कोई राजनैतिक इच्दा वाले लोग नहीं थे और न ही कोई
साधन सम्पन्न जमींदार। किंतु मेवाड़ के लिए कुछ करना है ऐसा प्रण लेकर वो
ऐसा चले कि आज तक अपना कोई स्थायी ठिकाना नहीं बना पाये। जी हां हम बात कर
रहे है महाराणा प्रताप के उन विश्वस्त सहयोगियों और भारत माता के सपूतो की
जिनको सारा देश आज गाडोलिया लुहार के नाम से जानता है।
 अंग्रेज सेन्सश सुपरिटेडेन्ट विटस के अनुसार, ये लोग मूलतः चित्तौड़ के
निकट लुहारूगढ़ के निवासी थे और इनके पूर्वज भी चित्तौड़ राजघरानों के लिए
हथियार बनाने का कार्य करते थे। जब महाराणा प्रताप को चित्तौड़ छोड़कर
अन्यंत्र जाना पड़ा तो उन्होने उस समय प्रतिज्ञा की थी कि जब तक मैं चित्तौड़
को विधर्मियों से आजाद नहीं करा लूंगा तक तक भूमि पर शयान करूगां, घास-फूस
की रोटी खाकर भी जीवन निर्वाह करूंगा। इतिहास बताता है कि महाराणा के
साथियों जिनमें बड़ी संख्या में ये गोडोलिया लुहार शामिल थे ने भी ऐसा ही
संकल्प लिया था कि जब तक उनकी मातृभूमि पर उनका अधिकार नहीं होगा तब तक वे
घुमक्कड़ रूप् में ही जीवन यापन करेगे अर्थात एक स्थान पर स्थायी ठिकाना
बनाकर नहीं रहेगे। उस समय की परिस्थितियों के अनुसार यह एक अनुकूल निर्णय
था किंतु तब से लेकर आज तक ये गोडोलिया लुहार दर-दर की ठोकरे खाते दिखाई
देते है। एक सामान्य सी बनी लकड़ी की बैलगाड़ी, चन्द टूटे-फूटे बरतन और सीमित
संसाधनों के बल पर ये लोग आज भी पूरे देश में घूमते देखे जा सकते है।
 यद्यपि भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने इनकी सौंगंध
पूरी करवाने के लिए प्रतीक रूप में चित्तौड़ विजय करवा कर इनकी भीष्म
प्रतिज्ञा पूरी करवाई। आज विभिन्न सरकारों द्वारा इनके पुनर्वास के लिए कई
प्रकार की योजनाये संचालित हो रही है किंतु निरक्षरता और पिछड़ेपन के कारण
इनको उन सरकारी योजनाओं का कोई भी लाभ नहीं मिल पा रहा है।
सारी बाते अपने स्थान पर है किंतु भारत के इतिहास में इन वीर योद्धाओं की आज भी कही उल्लेख नहीं है।

11/21/2010


बारदौली का किसान संघर्ष

30जून,1927
को ब्रितानिया हुकूमत की गुलामी में जकडी़ भारतमाता के कर्मयोगी
सपूतों-अन्नदाता किसानों पर बम्बई प्रदेश की सरकार ने बारदौली जनपद,सूरत
ताल्लुक का लगान 20-25 प्रतिशत तक बढ़ा दिया था।यह वही समय था जब ब्रिटेन
की तीनों प्रमुख पार्टियों:कंजरवेटिव,लिबरल और लेबर के प्रतिनिधि साइमन
कमीशन के नाम से भारत में तत्कालीन शासन व्यवस्था के काम करने के तरीके का
पता लगाने,शिक्षा की दशा,प्रातिनिधिक संस्थाओं के विकास की स्थिति आदि का
पता करने घूम रही थी।इस कमीशन का पूरे भारत में जोरदार तरीके से विरोध किया
गया था।
लगान में वृद्धि के विरोध में बारदौली के किसानों ने अपना संगठित स्वरूप
खड़ा किया।बढ़े हुए लगान का प्रतिरोध करने के लिए आन्दोलन स्वयं किसानों ने
खडा किया।किसानों को जागृत किया,एकत्र किया,बड़ी विशाल किसान सभा का
तत्काल आयोजन हुआ।किसानों का एक प्रतिनिधि-मण्डल लगान में अनुचित वृद्धि को
वापस लेने की मांग को लेकर सरकार के राजस्व अधिकारी से मिला,ज्ञापन
दिया।होना क्या था?किसानों को दर्द देने वाले हाथ दवा देने से रहे।किसान
अपनी ताकत बढ़ाने में जुट गये।16सितम्बर,1927 को दूसरी किसान सभा का आयोजन
किया गया।बम्बई की लेजिस्लेटिव कौसिंल बढ़े हुए लगान को वापस लेने व वसूली
रोकने का प्रस्ताव भेज चुकी थी परन्तु सरकार सहमत न हुई।इस दूसरी सभा में
तमाम कंाग्रेसी नेता और कौंसिल के सदस्य शामिल हुए थे।निर्णय ले लिया
गया-बढ़ा हुआ लगान नहीं देंगे।
सरकार खामोश रही,किसान सुलगते रहे।4फरवरी,1928 को किसानों ने फिर सभा करके
अपना निर्णय लगान नही देंगे को दोहराया तथा वल्लभ भाई पटेल को अपना नेतृत्व
करने के लिए आमंत्रित किया।निमंत्रण मिलते ही पटेल महात्मा गाँधी से
मिले।महात्मा गाँधी से इजाजत लेकर,उनसे गहन विचार-विमर्श करने के पश्चात्
पटेल ने बारदौली के किसानों का आन्दोलन अपने हाथों में लिया। गाँधी का
ब्रह्मास्त्र सत्याग्रह लेकर उनके विश्वस्त पटेल ने किसानों की फौज के
सेनापति का दायित्व उठाया।
12फरवरी,1928 को किसानों का सम्मेलन हुआ।फैसला हुआ-जब तक सरकार लगान की
दरें संशोधित करने के लिए वचनबद्ध नहीं होगी,तब तक किसान सरकार को लगान
नहीं देंगे।बारदौली के गाँव में एक-एक पुराने कांग्रेसी को जिम्मेदारी देकर
किसानों को आंदोलन की रूपरेखा बताने में लगा दिया पटेल ने।लगानबंदी के
साथ-साथ असहयोग भी प्रारम्भ हो गया।सरकारी महकमें के लोगों से
बोलना,बैलगाड़ी देना,सामान बेचना सब बन्द कर दिया किसानों ने।क्या यह सब
शान्तिपूर्वक हो रहा था?सरकार दमन पर उतर आई।मवेशियों की कुड़की प्रारम्भ
हुई,किसानों ने शान्ति बनाये रखी।फिर सामूहिक कुड़की का दौर चला।पुलिस और
उनके पठान किसानों के घरों में घुसते,मारते-पीटते और घर की चीजों और
जानवरों को लेते जाते।इन कार्यों के विरोध में केन्द्रीय विधानसभा के
अध्यक्ष विठ्ठल भाई पटेल ने वाइसराय को पत्र लिखकर अपने पद से इस्तीफा देने
की धमकी दी।
किसानों पर हो रहे इस दमन चक्र की आग पूरे देश में फैल रही थी।हर तरफ से
लगान कम करने की मांग उठने लगी।बारदौली के किसानों के समर्थन में देश में
चारों तरफ सभाओं का आयोजन हुआ।बम्बई और संयुक्त प्रान्त में भी किसानों ने
लगानबंदी का अनुसरण करने का ऐलान किया।आन्दोलन को व्यापकता देने के लिए
गाँधी जी ने पूरे देश में एक साथ बारदौली दिवस मनाने की अपील की।तारीख तय
हुई-12जून,1928।बारदौली दिवस पर आयोजित एक सभा में तत्कालीन कांग्रेस
अध्यक्ष डा० अंसारी ने कहाः-बारदौली के लोग जमाने से चली आई दासता से हमारे
गुलाम मुल्क की मुक्ति के पलटन के हरावल हैं।
किसानों की जनशक्ति को देख,अन्नदाता के विराट संगठित रूप को देख,भारतीयों
की भीष्म प्रतिज्ञा को देखकर बंबई के गवर्नर ने पटेल को धमकी भी दी।पर
गांधी के सैनिक और किसानों सेनापति पटेल ने लौह पुरूष की दृढ़ता दिखाई।वह
टस से मस न हुआ।फलतःबारदौली के किसानों की विजय हुई,पुराना लगान लागू हो
गया।गुलामी की जंजीर की एक कड़ी लौह पुरूष पटेल के नेतृत्व में अन्नदाता
किसान के विराट रूप ने तोड़ दी।सरकार ने वायदा किया कि सभी गिरफतार लोगों
को छोड़ दिया जायेगा तथा कुड़की की सारी सम्पत्ति वापस होगी।इस वायदे के
आधार पर जुलाई 1928 को आंदोलन समाप्त कर दिया गया।11-12अगस्त,1928 को सारे
गुजरात में बारदौली विजय का उत्सव मनाया गया। यहाँ पर ही किसान शक्ति ने
पटेल को सरदार की उपाधि से विभूषित किया था।हर तरफ महात्मा गाँधी की जय और
सरदार पटेल की जय गुंजायमान हो रही थी।लेकिन अफसोस बाद में बारदौली के
किसानों से किया गया वायदा निभाया न गया।किसानों को जेल से रिहा न किया
गया।जब्त सम्पत्तियां भी वापस न की।वाइसराय ने अपने वायदों की कोई कीमत न
रखी।गाँधी जी ने वायसराय को इस वायदाखिलाफी के विषय में कई पत्र
लिखे,परन्तु कोई असर न हुआ।बहरहाल,एक सत्य यह भी है कि यही बारदौली का
सत्याग्रह है जिसने कांग्रेस , गाँधी जी और उनके अनुयायियों की जनप्रियता
सारे देश में बहुत बढ़ाई परन्तु किसानों के साथ हुई वायदाखिलाफी पर ये लोग
कुछ न कर सकें।बारदौली सत्याग्रह ने गाँधी जी के लिए राजनीति में
पुनःप्रवेश और कांग्रेस की बागडोर फिर से अपने हाथ में लेने का मार्ग
प्रशस्त किया।
आज आजादी के 63 वर्षों बाद भी किसानों का शोषण-उत्पीड़न बन्द नहीं हुआ
है।विभिन्न सरकारी योजनाओं के लिए मनमाने तरीके से किसानों की उर्वरा भूमि
का अधिग्रहण जन विरोधी कृत्य है। अपने अथक परिश्रम से जिस भूमि पर अपना खून
पसीना बहा कर,तपती दोपहरी में,भयानक सर्द मौसम में और भीषण बरसात में
सपरिवार दिलो-जान लगा कर,अपना,अपने परिवार एवं समाज के उदर पोषण हेतु अन्न
उपजाता है,वही भूमि,विकास के नाम पर अधिग्रहीत कर के,कंक्रीट के जंगलों में
बदल दी जा रही है।सम्पूर्ण देश में भूमि अधिग्रहण के मामलों ने किसानों से
उनका हक छीन लिया है।विभिन्न सरकारी आवासीय योजनाओं के लिए कृषि योग्य
भूमि का अधिग्रहण तो बदस्तूर जारी ही है,प्रापर्टी डीलरों ने भी किसानों की
जमीनों की खरीद-फरोख्त कर के मोटा पैसा कमाने के साथ ही साथ भारत की कृषि
आधारित व्यवस्था को बरबाद करने में और किसानों को बर्बादी,शराब खोरी तथा
बेरोजगारी की तरफ ढकेलने जैसा कार्य किया है। भूमाफियाओं के काले कारनामें
अखबारों की सुर्खियां बनते रहते हैं।विभिन्न अदालतों में भी भूमि सम्बन्धित
मामले लम्बित पड़े हैं।धार्मिक स्थल,कब्रिस्तान की जमीनें भी जमीन के इन
दलालों ने नहीं छोड़ी हैं।रही-सही कसर किसानों की बेशकीमती उर्वरा भूमि पर
शासन-प्रशासन की दृष्टि ने पूरी कर दी है।ग्राम समाज,बंजर,नजूल आदि जमीनों
के रहते हुए कृषि योग्य उर्वरा भूमि का अधिग्रहण,ब्रितानिया जुल्मों सितम्
की याद दिलाता है।किसानों का कोई पुरसा हाल नहीं है,आम जन मॅंहगाई के बोझ
तले कराह रहा है।भारत के वर्तमान कृषि मंत्री सत्ता मद में चूर हो
कर,बार-बार कालाबाजारियों को शह देने वाले गैरजिम्मेदाराना वक्तव्य देकर
हिन्दुस्तान की रियाया का मजाक उड़ा रहें हैं।किसानों के हितों,आम जनता के
हितों के बजाए कृषि मंत्री मिल मालिकों व जमाखोरों को प्रोत्साहन देने का
जन विरोधी कार्य करने में मशगूल हैं।आज किसान बेबस होकर,अपनी शक्ति से
आन्दोलन की राह पर खड़ा है।भूमि अधिग्रहण,चकबन्दी,नहर कटान,बाढ़ की
विभिषिका,नकली खाद,बीजों की कमी,कृषि लागत में वृद्धि,शैक्षिक
स्थिति,स्वास्थ्य-परक समस्याओं से जूझ रहा किसान आज ठगा जा रहा
है।दुर्भाग्य वश किसानों का नेतृत्व भी किसानों की शक्ति के बल पर,इनको
संगठित करके,अपनी राजनैतिक हैसियत,आर्थिक मजबूती बनाने में लगा रहता
है।अधिकारों की बहाली व प्राप्ति के संघर्ष के स्थान पर समझौतों की परिपाटी
डाल रखी है,किसानों के इन रहनुमाओं ने।किसान वर्षों से अपनी समस्याओं से
जूझ रहा है और राजनीति व नौकरशाही के गठजोड़ में किसानों का शोषण अनवरत्
जारी है।
कृषि आधरित भारत की संरचना,महात्मा गाँधी के ग्राम्य स्वराज्य की
अवधारणा,आज हमारे हुक्मरानों की अनियंत्रित और जनविरोधी विकास की भेंट चढ़
रहीं हैं।आज किसानों के द्वारा ‘‘सरदार’’ की उपाधि से विभूषित वल्लभ भाई
पटेल को अपना आदर्श मानने वालों को किसानों के हित की लड़ाई में अपना
सर्वस्व दांव पर लगा देना चाहिए। सरदार वल्लभ भाई पटेल को सच्ची
श्रद्धाजंली होगी-किसानों की कृषि योग्य भूमि के अधिग्रहण का बन्द होना।युग
दृष्टा सरदार भगत सिंह ने कहा था,-‘‘वास्तविक क्रांतिकारी सेनायें तो गाँव
और कारखानों में हैं।
आज भी अन्नदाता किसान बेहाल है,किसान हित का दावा करने वाले सभी लोगों को
एकजुट होकर बुनियादी जरूरतों के लिए लड़ना चाहिए यही सच्ची श्रद्धाजंलि
होगी सरदार वल्लभ भाई पटेल को।
(साभार जनोक्ति)

चित्तौडग़ढ़ में हुआ था विश्व का सबसे पहला कत्ले-आम - PART -2

घमासान युद्ध आरंभ हो चुका था। दो रात और एक दिन तो युद्ध के कारण दोनों पक्षों के सैनिक खाना-सोना तक भूल गए थे। किले के नागरिकों से राजपूतों को भरपूर सहायता मिल रही थी। वे अपने घरों से ज्वलनशील सामग्री ला लाकर मोर्चों पर पहुँचा रहे थे। शस्त्रों का अनवरत निर्माण कर रहे थे। प्राचीरों पर पत्थरों का ढेर लगा था, यदा कदा स्वयं भी शाही सेना पर पथराव के द्वारा प्रत्यक्ष युद्ध में भाग ले रहे । राजपूताने के इतिहास में यह प्रथम अवसर था जब युद्ध विधा से अपरिचत नागरिकों, स्त्रियों और बालकों तक ने मातृभूमि की रक्षा के लिये युद्ध में भाग लिया था। चारों ओर रण मद छाया था। अपनी कमज़ोर स्थिति के बावज़ूद उनका उत्साह भंग नहीं हो रहा था। नागरिकों का मनोबल देख सैनिकों व सरदारों का हौसला भी दुगुना हुआ जाता था। यह देख रनिवासों की राजपूतानियाँ भी घूँघट उलट युद्ध में आ कूदीं। उनका मनोबल देख कर किसी भी सरदार को उन्हें रोकने का साहस नहीं हुआ। जयमल्ल द्वारा उन्हें महलों में रह कर ही युद्ध का परिणाम देखने की बात सुनते ही पत्ता चूंडावत की माँ सज्जन बाई सोनगरी बिफर उठी। सिंहनी की गर्जना के साथ उन्होंने पूछाग् क्या यह हमारी मातृभूमि नहीं है? क्या इसकी रक्षा की जिम्मेदारी हमारी नहीं है? क्या इससे पूर्व इसी किले में जवाहर बाई के नेतृत्व में राजपूत स्त्रियों ने युद्ध नहीं लडा.? यदि यह सच है तो हमें युद्ध में भाग लेने से कैसे रोका जा सकता है? इसके बाद किसीने उन्हें रोकने का साहस नहीं किया। युद्ध में अकबर चकिया  नामक हाथी पर सवार हो कर न केवल सभी मोर्चों को सँभालता था, अपितु सैनिकों के साथ खड़ा हो बंदूकें भी चलाने लगता था। लाखोटा दरवाजे के पास मोर्चे के निरीक्षण के समय किले से आई गोली उसके कान के पास से निकल गई। अकबर ने फुर्ती से दीवार की आड़ ले अपनी जान बचाई। फिर उसने बन्दूक लेकर तरकश की तरफ गोली चलाईग, जिससे किले के बन्दूकचियों का सरदार इस्माईल खाँ मारा गया. कालपी से लाए एक हजार बक्सरिया मुसलमानों की सेना इस्माईल खाँ के नेतृत्व में राजपूतों की ओर से लड़ रही थी। इस सेना के कुशल बन्दूकचियों ने शाही सेना के सैंकड़ों सैनिकों को मारा था। घमासान युद्ध के दौरान अकबर को एक तीरकश से हजारमेखी सिलह पहने एक सरदार दिखाई दिया। उसे महत्वपूर्ण सरदार जान अकबर ने अपनी संग्राम नामक बंदूक से गोली चला दी। गोली जयमल्ल के घुटने में लगी। पैर टूट जाने पर उसने सभी सरदारों को एकत्र कर मंत्रणा की। किले की दीवारें कई जगह से टूट-फूट जाने के अतिरिक्त भारी संख्या में सैनिक मारे जा चुके थे। उधर कड़ी घेराबंदी के कारण किले में खाद्य सामग्री का भी अभाव हो चला था। ऐसे में रनिवासों में शेष रही राजपूत स्त्रियों, कन्याओं और बालकों को जौहर की प्रचण्ड ज्वालाओं में भस्म करने के बाद, शेष राजपूतों को केसरिया बाना धारण कर शत्रुओं पर टूट पडऩे का अंतिम निर्णय ले लिया गया। 25 फरवरी 1568 को अर्धरात्रि में हज़ारों राजपूत वीरांगनाओं ने भीमलत कुण्ड में स्नान कर सौभाग्य चिन्ह धारण किये। हर हर महा देव के अनवरत जयघोषों और ढोल-नगाड़ों की ध्वनियों के बीच समिधेश्वर महादेव के दर्शन कर वे जौहर स्थल पर एकत्रित हो गईं। इनका नेतृत्व जयमल्ल राठौड़ और पत्ता चूण्डावत की पत्नियाँ कर रही थीं। समिधेश्वर महादेव  और भीमलत के बीच विशाल मैदान में लकडिय़ों का विशाल ढेर एकत्रित था। ब्रह्म मुहूर्त में वेद मंत्र ध्वनियों के साथ अग्नि प्रज्वलित की गई । केसरिया वस्त्र पहने राजपूत रक्तिम नेत्रों से अपनी पत्नियों, बालक पुत्रों तथा पुत्रियों को अन्तिम विदा दे रहे थे। विकराल अग्नि शिखाएं आकाश स्पर्श की स्पर्धा में लपलपाने लगीं। मातृभूमि को अन्तिम प्रणाम कर पत्ता की बड़ी रानी जीवाबाई सोलंकी ने पति की ओर देखा, आँखों से ही पति को अन्तिम प्रणाम कर, हर हर महादेव के गगनभेदी जयघोषों के बीच वह अग्निकुण्ड में कूद गई। इसके साथ ही पत्ता की अन्य रानियाँ मदालसा बाई कछवाही, भगवती बाई चहुवान, पद्मावती झाली, रतन बाई राठौड, बालेसा बाई चहुवान, आसाबाई बागड़ेची अपने दो पुत्रों तथा पाँच पुत्रियों के साथ लपलपाती ज्वाला में समा गई। कुछ वर्ष पूर्व गुजरात के बादशाह बहादुर शाह के चित्तौड़ आक्रमण में अपने पति को न्यौछावर करने वाली पत्ता की माँ सज्जन बाई सोनगरी ने पुत्र को केसरिया तिलक लगा कर जौहर किया। विजयी मुगलों से अपना सतीत्व और बच्चों को मुसलमान बनाने से बचाने के लिये हज़ारों राजपूत वीरांगनाओं ने पत्ता, साहिब खान, ईसरदास की हवेलियों के पास धधक रही चिताओं में अग्निस्नान कर दूसरे लोक में प्रस्थान किया। अंधकार में धधकती ज्वालाएं मीलों दूर तक दिखाई दे रही थी। आशंकित अकबर को आम्बेर के राजा भगवान दास ने बताया कि अपने स्त्री-बच्चों को अग्नि की भेंट कर महाकाल बने राजपूतों का अन्तिम ओर प्रचण्ड आक्रमण होने वाला है। केसरिया बाना  धारण करने के बाद राजपूत स्वयं महाकाल बन जाता है। सुन कर अकबर ने समय नष्ट नहीं किया और फौरन सेना की व्यूह रचना सुदृढ़ कर, राजपूती आक्रमण की प्रतीक्षा करने लगा।
भोर की प्रथम किरण के साथ किले के द्वार खुल गए। हर हर
महादेव के जयघोषों के साथ रण बांकुरे राजपूत मुगल सेना पर टूट पड़े। अकबर की
गोली से घुटना टूट जाने के कारण जयमल्ल को घोड़े पर बैठने में असमर्थ देख
उसके भाई कल्ला राठौड़ ने अपने कन्धें पर बिठा लिया। दोनों भाई तलवार चलाते
हुए शाही सेना में घुस गए। महाकाल बने दोनों भाई दो घड़ी घण्टे तक युद्ध
करने के बाद हनुमान पोल और  भैरव पोल के बीच मारे
गए। उधर डोडिया सांडा भी गम्भीरी नदी के पश्चिम में घमासान युद्ध करते हुए
मारा गया। राजपूतों के प्रचण्ड आक्रमण का सामना करने के लिये अकबर ने पचास
प्रशिक्षित हाथियों की सूंडों में दुधारे खांडे पकड़ा कर आगे बढ़ाया। इनके
पीछे तीन सौ हाथियों की एक और रक्षा पंक्ति सूंडों में दुधारे खांडे पकड़
आगे बढ़ी। इनमें मधुकर, जांगिया, सबदलिया, कदीरा
आदि कई विख्यात और कई युद्धों में आजमाये गजराज भी शामिल थे। अकबर स्वयं
मधुकर पर सवार होकर युद्ध संचालन कर रहा था। इनके मुकाबले राजपूत सरदार
घोड़ों पर शेष सब पैदल थे। लेकिन शौर्य साधनों का मोहताज नहीं होता। एक
राजपूत ने उछल कर वार किया तो अजमत खां के हाथी की सूंड कट कर दूर जा गिरी।
घबराया हाथी अपनी ही सेना को कुचलता हुआ भागा। भागते हाथी से गिर कर अजमत
खां ने भी दम तोड़ दिया। इसी प्रकार सबदलिया हाथी ने भी सूंड कट जाने पर
अपनी ही सेना के पचासों सैनिकों को कुचल डाला। राजपूतों के कड़े प्रतिरोध के
बाद भी शाही सेना हाथियों और बंदूकों के बल पर धीरे-धीरे किले में प्रवेश
करती जा रही थी। यह देख राजपूतों की ओर से लड़ रहे बक्सरिया मुसलमानों की
बन्दूक सेना ने भाग निकलने में ही कुशल समझी। वे अपनी स्त्रियों और बच्चों
को कैदियों की तरह घेर कर शाही सेना के बीच से निकले। उन्हें अपना सैनिक
समझ शाही सेना ने रोक-टोक नहीं की। सूरजपोल पर रावत साईं दास बहादुरी के
साथ लड़ते हुए मारा गया। उसकी मदद को पहुँचे राजराणा जैता सज्जावत और
राजराणा सुल्तान आसावत भी वहीं काम आ गए। समिधेश्वर महादेव मन्दिर के पास
और रामपोल पर पत्ता चूंडावत के नेतृत्व में युद्ध हो रहा था। रणबांकुरा
पत्ता चपलता के पूर्वक घोड़ा दौड़ाता हुआ हाथियों की सूंडे काट रहा था। रक्त
के धारे बहाते ये शुण्ड विहीन गजराज अपनी ही सेना को कुचलते हुए भाग रहे
थे। एक गजराज की सूंड में पकड़े खांडे से घोड़े का पैर कट जाने पर पत्ता जमीन
पर कूद पड़ा और पैदल ही मारकाट करता हुआ गम्भीर रूप से घायल हो गया। महावत
उसे महत्वपूर्ण सरदार समझ जिन्दा गिरफ्तार करने के लिये हाथी की सूंड में
लपेट अकबर की ओर चला। पत्ता की वीरता से प्रभावित बादशाह द्वारा प्राण
बचाने के प्रयास करने से पूर्व ही उसने दम तोड़ दिया। किले के चप्पे-चप्पे
पर हुए घमासान युद्ध में रणबांकुरे राजपूत तिल-तिल कट मरे। एक ओर जौहर की
चिताएं अब भी धधक रही थीं, दूसरी ओर रामपोल से
समिधेश्वर तक की जमीन लाशों से ढँक गई थी। किले पर शाही झंडा फहराने के बाद
अकबर के चेहरे पर विजय का उल्लास अभी ठीक से फैल भी न सका था कि एक
अप्रत्याशित दृश्य ने स्तंभित कर दिया, वह समझ नहीं
पा रहा था कि यह दृश्य वास्तव में हकीकत है या फिर कोई सपना देख रहा है।
ऐसा दृश्य किसी युद्ध में देखना तो दूर सुना तक न था। युद्ध में आम नागरिक
सेना की सहायता तो करते हैं किन्तु स्वयं मैदान में नहीं उतरते। लेकिन यहाँ
तो अघट ही घट रहा था। किले की घेराबंदी से पूर्व आस-पास के गाँवों से किले
में आ गए ग्रामीणों ने किले के निवासियों के साथ मिल कर शाही सेना पर
हल्ला बोल दिया था। इनके पास न शस्त्र थे और न ही लडऩे का कौशल। जिसके हाथ
जो आया उसी से सैनिकों को मारने लगा। ब्राह्मणों ने वेदपाठ छोड़ लाठियाँ उठा
लीं। वैश्य-वणिकों ने तौलने के बांटों से ही कइयों के सर फोड़ डाले। भील, लोहार, धोबी, रंगरेज, जुलाहे, मोची, राज मिस्त्री कोई भी तो पीछे न रहा। लाठी, डंडा, गोफन, पत्थर
आदि ही उनके अस्त्र थे। यह विश्व का अनूठा युद्ध था। जहाँ प्रशिक्षित
अस्त्र-शस्त्र से सज्जित सेना से शस्त्रविहीन देहाती भिड़ रहे थे। मुश्किल
से हासिल विजय में खलल पड़ता देख तैमूर के वंशज अकबर की आँखों में खून उतर
आया। मातृभूमि के प्रति प्रेम से उत्पन्न इस छोटे से प्रतिरोध को बिना
खून-खराबे के शान्त करना आसान था किन्तु अकबर ने नृशंस निर्णय लिया। शाही
सेना पर हमले के अपराध में उसने कत्ल-ए-आम का आदेश दे दिया। विजय के नशे
में चूर मुगल निहत्थे नागरिकों पर टूट पड़े। चारों ओर कोहराम मच गया। खूंखार
सैनिकों के सामने जो पड़ा, नृशंसता पूर्वक कत्ल कर
दिया गया। स्त्रियों और बच्चों तक को नहीं बख्शा गया। चित्तौड़ की आवासीय
गलियाँ लाशों से भर गईं। मध्यान्ह से तीसरे प्रहर तक चला कत्ल-ए-आम अन्तिम
व्यक्ति को भी तलवार की भेंट चढाने के बाद ही बन्द हुआ। विश्व के इस सबसे
बड़े हत्याकाण्ड में चालीस हज़ार से अधिक नागरिक स्त्री, पुरूष, बालक
मारे गए किन्तु इस युद्ध में मारे गए राजपूतों और जौहर की स्त्रियों को भी
शामिल करने पर यह संख्या सत्तर हज़ार से अधिक हो जाती है। जबकि 12 मार्च 1739 को
नादिरशाह द्वारा दिल्ली में किये कत्ल-ए-आम् में लगभग तीस हज़ार लोग
दरिन्दगी की भेंट चढ़े थे। यह महान कहे जाने वाले अकबर की नृसंसता का घृणित
प्रदर्शन ही था कि अपनी सफलता का आकलन करने के लिये उसने मारे गए लोंगों के
यज्ञोपवीतों को तुलवाया,  उनका वजन 7411 निकला।
उन दिनों मेवाड़ी मन चार सेर का होता था। इससे है हत्या की भयावहता का
अनुमान हो जाता है। कार्थाज़ वालों ने भी केना के युद्ध में मारे गए रोमनों
की अगूठियाँ तुलवा कर अपनी सफलता का परिणाम आंका था। चित्तौड़ दुर्ग के
निवासियों ने ही नहीं वहाँ के भवनों, मन्दिरों, महलों ने भी अकबरी प्रकोप झेला था। अनेकों भवनों, मन्दिरों, महलों
को नष्ट कर ख्वाजा अब्दुल मजीद आसिफ खाँ को किले का शासन सौंप कर अकबर
आगरा लौटा था। जयमल और पत्ता की वीरता से प्रभावित होकर उसने आगरा के किले
में इनकी पत्थर की मूर्तियाँ लगवा कर इनके शौर्य का सम्मान अवश्य किया था।

चित्तौडग़ढ़ में हुआ था विश्व का सबसे पहला कत्ले-आम - PART -1

मेवाड़ राज्य की राजधानी चित्तौडग़ढ़ का राजप्रासाद।
 मेड़तिया राठौड़ जयमल्ल वीरमदेवोत,चूंडावत सरदार रावत साईदास, बल्लू सोलंकी,
ईसरदास चहुवान, राज राणा सुलतान सहित दुर्ग के सभी प्रमुख रण बांकुरे
सरदारों के तेजस्वी वेहरों पर चिन्ताभरी उत्सुकता दिखाई दे रही थी। सभी की
निगाहें बादशाह अकबर के पास समझौता प्रस्ताव लेकर गए रावत साहिब खान चहुवान
और डोडिया ठाकुर सांडा पर टिकी थी। अकबर के शिविर से लौटे दोनों ठाकुरों
का मौन अच्छी खबर का परिचायक न होने के बावज़ूद भी वे युद्ध टलने की आशा न
छोड़ पा रहे थे। वातावरण की निस्तब्धता भंग की जयमल्ल ने। उसने पूछा- ''क्या
बात है सरदारों आपके चेहरों पर खिन्नता क्यों है? क्या बादशाह ने हमारी
समझौते की पेशकश ठुकरा दी? अथवा उसमें कोई असंभव सी शर्त लगाई है?''
डोडिया ठाकुर ने मातृभूमि के लिये सर कटाने को तैयार बैठे जुझारू सरदारों
की ओर देखा ''आप ठीक समझे। बादशाह चित्तौड़ विजय के साथ महाराणा उदयसिंह का
समर्पण भी चाहता है। उसने कहा है कि महाराणा के हाजिर हुए बगैर किसी भी तरह
संधि संभव नहीं है। बादशाह के अमीरों और सलाहकारों ने भी उसे समझौता कर
लेने की राय दी थी। लेकिन वह तो राणा के समर्पण के बगैर बात करने को भी
तैयार नहीं है। शायद उन्हें कुँवर शक्तिसिंह का बिना आज्ञा शिविर से चले
आना अपमान जनक लगा है।  खैर बादशाह के मन में चाहे जो टीस हो। लेकिन
महाराणा के समर्पण का तो प्रश्न ही नहीं उठता। वे मेवाड़ी सम्मान, आन-बान के
प्रतीक हैं। हमारे रहते मेवाड़ी आन पर आंच नहीं आ सकती। हम रहें या न रहें,
लेकिन महाराणा के सुरक्षित रहने पर वे कभी न कभी हमलावरों को मेवाड़ से
खदेडऩे में सफल हो जाएंगे। महाराणा के समर्पण के बाद तो शेष क्या रह
जाएगा?'' रावत पत्ता सारंगदेवोत ने कहा। युद्ध के प्रश्न पर सभी सरदार एकमत
थे। अपनी निश्चत पराजय से भिज्ञ होने पर भी लड़े बगैर, प्राण रहते मेवाड़ी
गौरव चित्तौडग़ढ़ बादशाह को सौंप देने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था। प्राण
रहते युद्ध करने के संकल्प के साथ सरदारों की मंत्रणा समाप्त हुई। सन् 1567
में मेवाड़ की राजधानी चित्तौडग़ढ़ पर हुए मुगलिया हमले का वास्तविक कारण
अकबर की सम्पूर्ण भारत पर प्रभुत्व पाने की लालसा थी। किन्तु प्रत्यक्ष
कारण एक छोटी सी घटना थी। मेवाड़ के महाराणा उदयसिंह का छोटा पुत्र
शक्तिसिंह पिता से नाराज़ हो कर अकबर के पास चला गया था। 31 अगस्त 1567 को
मालवा पर फौजकशी के लिये आगरा से रवाना हुए अकबर का पहला पड़ाव धौलपुर के
पास लगा।  दरबार में शक्तिसिंह को देख कर अकबर को दिल्लगी सूझी। उसने कहा,
शक्ति सिंह हिन्दुस्तान के बड़े-बड़े राजा हमारे दरबार में आकर हाजिर हुए।
लेकिन राणा उदयसिंह अभी तक नहीं आया। इसलिये हम उस पर चढ़ाई करना चाहते हैं।
इस हमले में तुम भी हमारी मदद करना। अकबर के कथन की परीक्षा किये बिना ही
वह इसे सच समझ बैठा। पिता के प्रति नाराजग़ी होने पर भी उनके विरूद्ध सैनिक
अभियान में भाग लेने की वह कल्पना भी नहीं कर सकता था। पिता को समय रहते
बादशाही इरादे से अवगत कराने के लिये उसने अपने साथियों के साथ बिना अनुमति
लिये बादशाही शिविर छोड़, चित्तौड़ की ओर प्रस्थान कर दिया। शक्तिसिंह की इस
हरकत से बादशाह को बहुत क्रोध आया और उसने मेवाड़ पर चढ़ाई का पक्का इरादा
बना कर कूच कर दिया। रणथम्भौर के जिले का शिवपुर किला बिना लड़े हाथ आ जाने
को अच्छा शगुन मान कर वह कूच करता हुआ कोटा जा पहुँचा। वहाँ के किले और
प्रदेश को शाह मुहम्मद कंधारी के सिपुर्द करग् उसने गागरोन को जा घेरा।
अकबर ने शाह बदाग खाँ, मुराद खाँ और हाजी मोहम्मद खाँ को माँडलगढ़ विजय के
लिये रवाना कर स्वयं चित्तौड़ की ओर कूच किया। उधर शक्तिसिंह ने चित्तौड़
पहुँच कर महाराणा उदयसिंह को अकबर के इरादों की सूचना दी। महाराणा ने मेड़ता
के राव वीरम देव के पुत्र जयमल्ल राठौड़, रावत साईंदास चूंडावत, राजराणा
सुल्तान, ईसरदास चहुवान, पत्ता चूंडावत, राव बल्लू सोलंखी और डोडीया सांडा
के अतिरिक्त महाराज कुमार और प्रतापसिंह और राजकुमार शक्तिसिंह आदि के साथ
युद्ध मंत्रणा के दौरान सरदारों ने कहा कि गुजराती बादशाहों के साथ हुए
युद्धों के कारण राज्य की सैन्य और आर्थिक स्थिति काफी कम हो गई है, इस
कमज़ोर स्थिति में बादशाह अकबर से मुकाबला करने में पराजय निश्चित है। ऐसे
में यही उचित होगा कि महाराणा राजकुमारों और रनिवास सहित पहाड़ों में
सुरक्षित चले जाएं और हम सभी सरदार यहाँ रह कर मुगलों से मुकाबला करें।
थोड़े से बहस, दबाव के बाद महाराणा अपनी 18 रानियों और 24 राजकुमारों के
परिवार और कुछ सामंतों के साथ अरावली की दुर्गम श्रृंखलाओं में चले गए।
वहाँ से गुजरात की ओर रेवा कांठा पर गोडिल राजपूतों की राजधानी राज पीपलां
पहुँच गए जहाँ राजा भैरव सिंह ने उनकी बड़ी खातिरदारी की। महाराणा वहाँ चार
माह तक रहे। 23 अक्टूबर 1567 को अकबर ने चित्तौड़ से तीन कोस उत्तर में
पांडोली, काबरा और नगरी गाँवों के बीच विशाल मैदान में अपना सैन्य शिविर
लगाया। पैमायश वालों से किले की लम्बाई-चौड़ाई नपवा कर, अनेक बाधाओं के
बावज़ूद उसने मोर्चाबन्दी पूरी कर डाली। किले के उत्तरी लाखोटा दरवाजे पर
अकबर ने स्वयं मोर्चा संभाला । यहाँ किले के अन्दर मेड़तिया राठौड़ जयमल
मुकाबले के लिये तैयार खड़ा था। पूर्वी सूरजपोल दरवाजे पर उसने राजा टोडरमल,
शुजात खां और कासिम खां को तैनात किया, जिनका मुकाबला चूंडावतों के मुख्य
सरदार रावत सांईदास से था। दक्षिण दिशा में चित्तौड़ी बुर्ज के सामने मोर्चे
का इन्तजाम आसिफ खां और वज़ीर खां को सौंपा गया, जहाँ किले के अन्दर बल्लू
सोलंखी आदि की चौकी थी। इसी प्रकार किले के अंदर पश्चिम में राम पोल, जोड़ला
पोल, गणेश पोल, हनुमान पोल और भैरव पोल पर तैनात डोडिया ठाकुर सांडा,
चहुवान ईसर दास, रावत साहिब खान और राजराणा सुल्तान आदि से मुकाबला करने के
लिये अकबर ने अपनी सेना के अनेक बहादुर सेनानायकों को नियुक्त किया था।
दुर्ग में युद्धरत राजपूतों को बाहरी सैनिक सहायता समाप्त करने के लिये
अकबर ने आसिफ खाँ को रामपुरा की ओर रवाना किया। रामपुरा के अच्छे योद्धा तो
चित्तौड़ दुर्ग में आ गए, जबकि राव दुर्गभाण महाराणा के साथ चला गया था।
रामपुरा की रक्षा के लिये छोड़े गए मुठ्ठी भर राजपूत अपने प्राण देकर भी
निश्चित पराजय को रोकने में सफल नहीं हो सके। रामपुरा विजय के के बाद थोड़ी
सी सेना छोडक़र आसिफ खाँ चित्तौड़ लौट आया। इसी प्रकार उदयपुर और कुंभलगढ़
पहाड़ों की और भेजा गया हुसैन कुली खाँ भी इस क्षेत्र में लूटपाट करता हुआ
चित्तौड़ आ गया। दुर्गम पर्वत श्रृंखलाओं, सघन वनों और सुदृढ़ प्राचीरों से
घिरे दस वर्ग मील क्षेत्रफल वाले विशाल चित्तौडग़ढ़ पर आक्रमण यद्यपि आसान न
था लेकिन अकबर की एक लाख सेना दुर्ग की घेराबंदी करने में सक्षम थी। बाहर
के सभी रास्ते बन्द हो जाने से राजपूत जैसे चूहेदानी में फँस कर रह गए थे।
लेकिन एक लाख शाही सेना के मुकाबले में खड़े आठ हजार राजपूतों के हौसलों में
कोई कमी नहीं थी। संख्या के अनुपात का विषम अन्तर साधनों के मामले में तो
तुलना करने जैसा ही नहीं था। अकबर की तोपों बंदूकों के मुकाबले में उनके
पास तीर और पत्थर फेंकने वाली गोफनें ही थीं। तलवार, भाले, ढाल, कटार आदि
परम्परागत अस्त्र तो आमने-सामने के युद्ध में ही काम आ सकते थे। फिर भी
साधनविहीन जुझारू राजपूतों के जवाबी हमलों से शाही सेना को हर बार भारी
नुकसान उठाना पड़ता था। किले से होने वाली बक्सरिया मुसलमानों के एक हजार
बन्दूकचियों की अचूक निशानेबाजी शाही सेना के नुकसान को और बढ़ा कर राजपूतों
की हौसला अफजाई करती। किले की उँचाई और विशालता के कारण शाही तोपखाना भी
बेअसर सिद्ध हो रहा था।
दो माह गुजऱ जाने पर भी शाही सेना के भारी जानमाल के नुकसान के कारण
चित्तौड़ विजय असंभव प्रतीत होने लगी थी। किन्तु युवा अकबर का मनोबल काफी
ऊँचा था। उसने बारूदी सुरंगों के द्वारा किले की दीवारें तोडऩे का निर्णय
लिया। किले से आने वाले तीरों, पत्थरों और गोलियों की बौछारों के बीच
दक्षिण में चित्तौड़ी की बुर्ज के नीचे सुरंगे खोदने का काम आरंभ हुआ। शाही
सेना किले से होने वाले हमले का जवाब देती थी, जबकि गोलियों और तीरों की
बौछारों के नीचे मजदूर सुरंगें खोदते थे। एक के मर जाने पर दूसरा स्थान
लेता था। मजदूरी भी स्वर्ण मुद्राओं में दी जा रही थी। अन्ततः सुरंगें
तैयार हुईं। एक में 120 मन और दूसरी में 80 मन बारूद भरा गया. बारूद
विस्फोट से दीवार उड़ते ही शाही सेना को जबरदस्त हमले का आदेश था। 17
दिसम्बर 1967 को एक सुरंग में किये विस्फोट से किले का बुर्ज, उस पर तैनात
90 सैनिकों के साथ उड़ गया। उसके पत्थर कई मील दूर जा गिरे। विस्फोट की आवाज
पाँच कोस तक सुनी गई थी। बुर्ज उड़ते ही शाही सेना ने हमला कर दिया। किन्तु
उनके किले की दीवार के पास पहुँचते ही दूसरी सुरंग में विस्फोट हो गयाग्
किले की प्राचीर को जो क्षति पहुँची सो पहुँची लेकिन आक्रमण के लिये आगे
बढ़ी शाही सेना के सैंकड़ों सैनिक इस विस्फोट की भेंट चढ़ गए। इनमें बरार के
सैयद अहमद का पुत्र जमालुद्दीन, मीर खाँ का बेटा मीरक बहादुर, मुहम्मद
सालिह हयात, सुलतान शाह अली एशक आगा, याजदां कुली, मिर्जा बिल्लोच, जान
बेग, यार बेग सहित अकबर के बीस महत्वपूर्ण सरदार मारे गए थे। उनके अंग कई
मील दूर जा गिरे। विस्फोट में मारे गए सैनिकों की संख्या अकबर नामा में दो
सौ बताई गई है और तबकात अकबरी में पाँच सौ बताई है। इस भारी नुकसान से शाही
सेना के हौसले पस्त हो गए और वह दुबारा हमला करने का साहस नहीं कर सकी।
दूसरी ओर राजपूतों ने रातों रात मरम्मत करके किले को पुनः अजेय बना दिया।
इस जबरदस्त दुर्घटना के बावजूद अकबर का मनोबल नहीं टूटा। किले के अन्दर तक
तोपों की मार करने के लिये पहाड़ी जैसे किसी ऊंचे स्थान की आवश्यकता थी।
किले के आसपास कोई उपयुक्त स्थान न देख उसने कृत्रिम पहाड़ी बनाने का निर्णय
लिया। किले के पश्चिमी ओर मजदूरों से मिट्टी डलवाने का काम शुरू हुआ।
तीरों और गोलियों की बौछारें मिट्टी डालने वालों को भी मिट्टी में मिला रही
थी। प्राणों का डर होने से मजदूर न मिलने पर अकबर ने मिट्टी की टोकरी की
मजदूरी एक रूपया कर दी और बाद में तो उसने एक सोने की मोहर प्रति टोकरी भी
दी। लालच में आकर सैंकड़ों मजदूर मारे गए। लेकिन अंत में पहाड़ी बन कर तैयार
हो गई। मोहरों में मजदूरी दिये जाने के कारण इसका नाम मोहरमगरी पड़ा। इस
पहाड़ी पर तोपें चढ़ाने का सिलसिला आरम्भ हुआ। एक तोप के लुढक़ जाने से बीस
सैनिक मारे गए। अन्ततः पहाड़ी पर तोपें चढ़ा कर किले में गोले बरसाए गए। शाही
सेना के कुशल गोलन्दाज़ों ने अचूक निशाने लगा कर किले की दीवार को कई
स्थानों से तोड़ दिया। इन टूटे स्थानों से हल्ला मचाती प्रवेश करने बढ़ती
शाही सेना को राजपूत तीरों गोलियों के अतिरिक्त गरम तेल और जलते हुए रूई और
कपड़ों के गोले फेंक कर रोक रहे
थे।                                                            ( CONTD.)
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अटल बिहारी वाजपेयी





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अटल बिहारी वाजपेयी विषय सूची

जन्मव्यावसायिक जीवनराजनीतिक जीवनप्रधानमंत्री पदउपलब्धियाँकारगिल युद्धमुशर्रफ़ से वार्ता
अटल बिहारी वाजपेयी
Atal-Bihari-Vajpayee.jpg
पूरा नामअटल बिहारी वाजपेयी
जन्म25 दिसंबर, 1924
जन्म भूमिलश्कर, ग्वालियर, मध्य प्रदेश
अविभावकपंडित कृष्ण बिहारी वाजपेयी, कृष्णा देवी
नागरिकताभारतीय
पार्टीभारतीय जनता पार्टी, भारतीय जनसंघ
पदप्रधानमंत्री, विदेश मंत्री
कार्य कालप्रधानमंत्री-16 मई 1996 – 1 जून 1996 और 19 मार्च 1998 – 19 मई 2004
विदेश मंत्री- 26 मार्च 1977 – 28 जुलाई 1979
विद्यालयगोरखी विद्यालय, विक्टोरिया कॉलेजियट स्कूल, रानी लक्ष्मीबाई कॉलेज, डी. ए. वी. महाविद्यालय
शिक्षास्नातकोत्तर
पुरस्कार-उपाधिपद्म विभूषण
धर्महिन्दू
अद्यतन‎
अटल बिहारी वाजपेयी (जन्म- 25 दिसंबर, 1924) भारत के दसवें प्रधानमंत्री के रूप में प्रथम बार केवल 13 दिन के लिए अपने पद पर रह पाए। भारतीय प्रधानमंत्रियों में उनका कार्यकाल सबसे संक्षिप्त रहा। लेकिन वह बाद में लम्बे समय के लिए प्रधानमंत्री बने और अपना कार्यकाल भी पूर्ण किया। इनका नाम भारत के सर्वाधिक लोकप्रिय प्रधानमंत्रियों में सम्मिलित किया जाता है। नरसिम्हा राव के बाद 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी मात्र 13 दिन के लिए ही प्रधानमंत्री बने, लेकिन वह कार्यकाल भी प्रधानमंत्री कार्यकाल के रूप में जाना जाता है। इसके बाद 1998 में हुए चुनावों के माध्यम से वह दोबारा प्रधानमंत्री बने। इस कारण 1996 और 1998 के मध्य बने दो प्रधानमंत्रियों-एच. डी. देवगौड़ा तथा इन्द्र कुमार गुजराल को आगे स्थान दिया गया है। तत्पश्चात् अटल बिहारी वाजपेयी अक्टूबर, 1999 में पुन: प्रधानमंत्री बने और यह कार्यकाल उन्होंने अत्यन्त सफलतापूर्वक पूर्ण किया। इसके पूर्व वह अप्रैल 1999 से अक्टूबर 1999 तक कार्यवाहक प्रधानमंत्री भी रहे।

जन्म एवं परिवार

अटल बिहारी वाजपेयी का जन्म 25 दिसम्बर (बड़ा दिन) 1924 को लश्कर, ग्वालियर में हुआ था, जो कि मध्य प्रदेश में है। तब कौन जानता था कि 'शिंके का बाड़ा मुहल्ले' में जन्म लेने वाला वह बालक कितना बड़ा भाग्य लेकर पैदा हुआ है। इनके पिता पंडित कृष्ण बिहारी वाजपेयी अध्यापन का कार्य करते थे और माता कृष्णा देवी घरेलू महिला थीं। श्री वाजपेयी संतान क्रम में सातवें थे। इनसे बड़े तीन भाई और तीन बहनें थीं। वह बचपन से ही अंतर्मुखी स्वभाव के थे, साथ ही साथ काफ़ी प्रतिभा सम्पन्न भी। अटल बिहारी वाजपेयी के बड़े भाइयों को अवध बिहारी वाजपेयी, सदा बिहारी वाजपेयी तथा प्रेम बिहारी वाजपेयी के नाम से जाना जाता है।

विद्यार्थी जीवन

अटल बिहारी वाजपेयी के पिता पंडित कृष्ण बिहारी वाजपेयी शिक्षण व्यवसाय से सम्बन्धित थे, इस कारण इन्हें कई स्थानों पर रहना पड़ता था। लेकिन अटलजी की आरम्भिक शिक्षा बड़नगर के गोरखी विद्यालय में सम्पन्न हुई। बड़नगर में इनके पिता प्रधानाध्यापक के पद पर थे। इस विद्यालय में अटलजी ने आठवीं कक्षा तक की शिक्षा प्राप्त की। वक्ता के रूप में इन्हें इसी विद्यालय से पहचान प्राप्त हुई थी। जब वह कक्षा पाँच में थे तब पाठ्येतर गतिविधियों के अंतर्गत उन्होंने प्रथम बार भाषण दिया था। लेकिन बड़नगर में उच्च शिक्षा व्यवस्था न होने के कारण अटलजी को ग्वालियर जाना पड़ा। इनका नामांकन विक्टोरिया कॉलेजियट स्कूल में हुआ। नौवीं कक्षा से इंटरमीडिएट तक की पढ़ाई अटलजी ने इसी विद्यालय से पूर्ण की। इस विद्यालय में रहते हुए उनकी वाद-विवाद सम्बन्धी प्रतिभा को उचित प्रवाह प्राप्त हुआ। वह वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में प्रथम भी आए।
इंटरमीडिएट करने के बाद अटलजी ने विक्टोरिया कॉलेज (जो कि बाद में रानी लक्ष्मीबाई कॉलेज के नाम से जाना गया) में स्नातक स्तर की शिक्षा ग्रहण करने के लिए प्रवेश लिया। स्नातक स्तर की शिक्षा हेतु उन्होंने तीनों विषय भाषा पर आधारित लिए जो संस्कृत, हिन्दी एवं अंग्रेज़ी थे। अटलजी की साहित्यिक प्रकृति थी, जिससे वह तीनों भाषाओं के प्रति आकृष्ट हुए। कॉलेज जीवन में ही इन्होंने राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा लेना आरम्भ कर दिया था। शुरू में वह छात्र संगठन से जुड़े। नारायण राव तरटे ने इन्हें काफ़ी प्रभावित किया, जो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख कार्यकर्ता थे। ग्वालियर में रहते हुए अटल बिहारी वाजपेयी ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के शाखा प्रभारी के रूप में अपने दायित्वों की पूर्ति की। कॉलेज जीवन में उन्होंने कविताओं की रचना करना आरम्भ कर दिया था। इनकी साहित्यिक अभिरुचि उसी समय काफ़ी परवान चढ़ी। इनके कॉलेज में अखिल भारतीय स्तर के कवि सम्मेलनों का भी आयोजन होता था। इस कारण से कविता की गहराई समझने में इन्हें काफ़ी मदद मिली। 1943 में वाजपेयी जी कॉलेज यूनियन के सचिव रहे और 1944 में उपाध्यक्ष भी बने। ग्वालियर की स्नातक उपाधि प्राप्त करने के बाद अटलजी कानपुर आ गए ताकि राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर स्तर की शिक्षा प्राप्त कर सकें। वहाँ उन्होंने एम. ए. तथा एल. एल. बी. में एक साथ प्रवेश लिया। चूंकि स्नातक परीक्षा इन्होंने प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी, इस कारण इन्हें छात्रवृत्ति भी प्राप्त हो रही थी। इस प्रकार कानपुर के डी. ए. वी. महाविद्यालय से इन्होंने कला में स्नातकोत्तर उपाधि भी प्रथम श्रेणी में प्राप्त की।

व्यावसायिक जीवन

शिक्षक पिता की संतान होने के कारण अटलजी शिक्षा का महत्त्व अच्छी तरह से जानते थे। इस कारण पी. एच. डी. करने के लिए वह लखनऊ चले गए और वक़ालत की पढ़ाई स्थगित कर दी। पढ़ाई के साथ-साथ वह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यों का भी सम्पादन करने लगे। लेकिन अटलजी पी. एच. डी. करने में सफलता प्राप्त नहीं कर सके, क्योंकि पत्रकारिता से जुड़ने के कारण इन्हें अध्ययन के लिए समय नहीं मिल रहा था। उन दिनों राष्ट्रधर्म नामक समाचार पत्र पंडित दीनदयाल उपाध्याय के सम्पादन में लखनऊ से मुद्रित हो रहा था। तब श्री अटल बिहारी वाजपेयी इसके सह सम्पादक के रूप में नियुक्त किए गए। पंडित दीनदयाल उपाध्याय इस समाचार पत्र का सम्पादकीय स्वयं लिखते थे और अख़बार का बाक़ी कार्य अटलजी एवं इनके सहायक करते थे। लेकिन सही मायने में अटलजी ही इसके सम्पादक थे। अटलजी के आने के बाद 'राष्ट्रधर्म' समाचार पत्र का प्रसार काफ़ी बढ़ गया। ऐसे में इसके लिए स्वयं की प्रेस का प्रबन्ध किया गया। इस प्रेस का नाम भारत प्रेस रखा गया था।
कुछ समय के बाद 'भारत प्रेस' से मुद्रित होने वाला दूसरा समाचार पत्र 'पाँचजन्य' भी प्रकाशित होने लगा। इस समाचार पत्र का सम्पादन पूर्ण रूप से अटलजी करते थे। देश आज़ाद हो गया था। कुछ समय के बाद 30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या हुई। नाथूराम गोडसे का सम्बन्ध राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से होने के कारण भारत सरकार ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को प्रतिबन्धत कर दिया। चूंकि 'भारत प्रेस' भी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रभाव क्षेत्र में थी, इसीलिए भारत प्रेस को बन्द कर दिया गया। लेकिन अटल जी को अब पत्रकारिता में अत्यन्त आनन्द आने लगा था। इस कारण वह इलाहाबाद चले गए और उन्होंने 'क्राइसिस टाइम्स' नामक अंग्रेज़ी साप्ताहिक के लिए अपनी सेवाएँ देना आरम्भ कर दिया। परन्तु 'क्राइसिस टाइम्स' का साथ 'क्राइसिस' रहने तक ही था। जब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर लगा प्रतिबंध हटा तो वह 'क्राइसिस टाइम्स' भी गुज़र गया। अटलजी पुन: लखनऊ लौटे और उनके सम्पादन में 'स्वदेश' नामक दैनिक पत्र निकलना आरम्भ हो गया। थोड़े ही दिनों में जहाँ 'स्वदेश' लोकप्रिय हुआ, वहीं अटलजी के सम्पादकीय भी काफ़ी सराहे गए और चर्चा का केन्द्र बने। लेकिन लगातार होने वाली हानि के कारण 'स्वदेश' को बंद कर देना पड़ा। तब अटलजी दिल्ली से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र 'वीर अर्जुन' का सम्पादन करने लगे। यह दैनिक एवं साप्ताहिक दोनों आधार पर प्रकाशित हो रहा था। 'वीर अर्जुन' का सम्पादन करने हुए एक पत्रकार के रूप में इन्हें काफ़ी प्रतिष्ठा और सम्मान मिला। अत: राजनेता से पूर्व अटलजी को एक कवि और पत्रकार के रूप में मान्यता प्राप्त हो गई थी।

राजनीतिक जीवन

यह सच है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आर. एस. एस.) हिन्दुत्ववादी विचारधारा की प्रमुख संस्था है और वह हिन्दुओं के हित में सदैव आवाज़ बुलन्द करती है। लेकिन भारत सरकार की नज़र में वह अलागववादी विचारधारा का पोषण कर रही थी। इस कारण आर. एस. एस. पर कई प्रकार के राजनयिक प्रतिबन्ध लगा दिए गए। ऐसे में आर. एस. एस. ने भारतीय जनसंघ का गठन किया जो राजनीतिक विचारधारा वाला दल था। भारतीय जनसंघ का जन्म संघ परिवार की राजनीतिक संस्था के रूप में हुआ, जिसके अध्यक्ष डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी थे। अटलजी उस समय से ही इस संस्था के संगठनात्मक ढाँचे से जुड़ गए। तब वह अध्यक्ष के निजी सचिव के रूप में दल का कार्य देख रहे थे। इस कारण उन्हें जनसंघ के सबसे पुराने व्यक्तियों में एक माना जाता है। भारतीय जनसंघ ने सर्वप्रथम 1952 के आम चुनावों में भाग लिया। तब उसका चुनाव चिह्न दीपक था। चुनावों में भारतीय जनसंघ को कोई विशेष क़ामयाबी प्राप्त नहीं हुई, फिर भी डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी राष्ट्रीय हित में कार्य करते रहे। उस समय भी कश्मीर का मामला अत्यन्त संवेदनशील था। डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अटलजी के साथ जम्मू-कश्मीर के लोगों को जागरूक करने का कार्य किया। वह कश्मीर के हिन्दुओं को अपने अधिकारों के लिए जाग्रत कर रहे थे। लेकिन सरकार ने इसे साम्प्रदायिक गतिविधि मानते हुए डॉक्टर मुखर्जी को गिरफ्तार करके जेल में ठूँस दिया। डॉक्टर मुखर्जी की 23 जून 1953 को जेल में ही मृत्यु हो गई। तब जनसंघ के समर्थकों ने उनकी मृत्यु को एक गहरी साज़िश मानते हुए इसे हत्या क़रार दिया।

दूसरा आम चुनाव

अब भारतीय जनसंघ का काम अटलजी प्रमुख रूप से देखने लगे। इन पर राजनीतिक रंग पूरी तरह से हावी हो चुका था। तभी दूसरा आम चुनाव आ गया। 1957 के इन चुनावों में भारतीय जनसंघ को चार स्थानों पर विजय प्राप्त हुई। अटलजी पहली बार बलरामपुर सीट से विजयी होकर लोकसभा में पहुँचे। यहाँ पर यह भी बताना आवश्यक है कि 1957 में लोकसभा चुनाव हेतु अटलजी ने तीन स्थानों से नामांकन पत्र दाख़िल किया था। बलरामपुर के अलावा उन्होंने लखनऊ और मथुरा से भी पर्चे भरे थे। बलरामपुर एक रियासत थी। जिसका आज़ादी के बाद उत्तर प्रदेश राज्य में विलय कर दिया गया था। वहाँ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का अच्छा दबदबा था। प्रताप नारायण तिवारी ने यहाँ जनसंघ के लिए दृढ़ आधार तैयार किया था। चूंकि बलरामपुर कभी रियासत थी, इस कारण रजवाड़ों का भी यहाँ दबदबा था। रजवाड़े कांग्रेस से नाराज़ थे, क्योंकि आज़ादी के बाद वे अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रखना चाहते थे। यही कारण है कि बलरामपुर की सीट कांग्रेस के बजाए जनसंघ की झोली में चली गई और अटलजी प्रथम बार लोकसभा में पहुँचे। वह इस चुनाव में 10 हज़ार मतों से विजय हुए थे। लेकिन अटलजी बाक़ी दो स्थानों पर हार गए। मथुरा में वह अपनी ज़मानत भी नहीं बचा पाए और लखनऊ में साढ़े बारह हज़ार मतों से पराजय स्वीकार करनी पड़ी। दोनों स्थानों पर कांग्रेस के उम्मीदवारों की विजय हुई थी। उस समय किसी भी पार्टी के लिए यह आवश्यक था कि वह कम से कम तीन प्रतिशत वोट प्राप्त करे अन्यथा उस पार्टी की मान्यता समाप्त की जा सकती थी। भारतीय जनसंघ को 6 प्रतिशत वोट प्राप्त हुए थे। इन चुनावों में हिन्दू महासभा और रामराज्य परिषद् जैसी पार्टियों की मान्यता समाप्त हो गई, क्योंकि उन्हें तीन प्रतिशत वोट नहीं मिले थे।

अटल बिहारी वाजपेयी और अमेरिका के राष्ट्रपति जिमी कार्टर

कश्मीर मुद्दे पर विचार

अटलजी ने संसद में पहुँचने के पश्चात् कश्मीर मुद्दे पर अपने विचार प्रकट किए और संसद ने उन्हें बेहद ध्यान से सुना। अटलजी ने कहा कि कश्मीर का मामला संयुक्त राष्ट्र संघ में नहीं भेजा जाना चाहिए था, क्योंकि वहाँ से कोई समाधान नहीं प्राप्त होगा। भारत को अपने स्तर पर ही प्रयास करके पाकिस्तान के अधिकार वाले कश्मीर के विषय में सोचना होगा। अटलजी का यह अनुमान आज भी सत्य है कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने कश्मीर समस्या का समाधान आज तक नहीं खोजा है। अटलजी का तर्क था कि कश्मीर में पाकिस्तान हमलावर था, अत: राष्ट्र संघ को त्वरित कार्रवाई करनी चाहिए थी। कश्मीर का मामला संयुक्त राष्ट्र संघ में भेजना एक ऐतिहासिक भूल थी। भारत को चाहिए था कि वह हमलावर को अपनी ज़मीन से हटा देता और इसके लिए आवश्यक सैनिक कार्रवाई करता।

1962 के आम चुनाव

अटलजी ने संसद में अपनी एक अलग पहचान बना ली थी। फिर 1962 के आम चुनाव आ गए। वह पुन: बलरामपुर की सीट से भारतीय जनसंघ के टिकट पर खड़े हुए लेकिन उन्हें इस बार पराजय का मुँह देखना पड़ा। कांग्रेसी उम्मीदवार को 1052 वोटों से विजय प्राप्त हुई। यह वाकई आश्चर्य की बात थी कि अटलजी को संसद में प्रशंसनीय कार्य करने के बाद भी जीत नसीब नहीं हुई। वैसे यह चुनाव इस कारण भी विवादास्पद रहा कि कांग्रेस प्रत्याशी ने उचित-अनुचित सभी प्रकार के पैंतरे अपनाए थे। इस चुनाव के दौरान साम्प्रदायिक सौहार्द्र भी बिगड़ा। इस कारण भयवश हज़ारों हिन्दू नारियों ने अपने मताधिकारों का प्रयोग नहीं किया। फिर भी 1962 के चुनाव में जनसंघ ने प्रगति की और संसद में उसके 14 प्रतिनिधि पहुँचने में सफल रहे। इस संख्या के आधार पर राज्यसभा के लिए जनसंघ को दो सदस्य मनोनीत करने का अधिकार प्राप्त हुआ। ऐसे में अटल बिहारी वाजपेयी और पंडित दीनदयाल उपाध्याय राज्यसभा में भेजे गए। चूंकि राष्ट्रपति ही राज्यसभा का पदेन सभापति होता है, इस कारण सर्वपल्ली राधाकृष्णन सभापति थे। उन्होंने अटलजी को राज्यसभा की प्रथम दीर्घा में बैठने को अनुप्रेरित किया। अटलजी ने राज्यसभा में भी अपने दायित्वों का निर्वहन योग्यता के साथ किया। इस कार्यकाल के दौरान राष्ट्रपति डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद और प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु हुई। अटलजी ने अनुठी भाषा-शैली में उन्हें श्रद्धांजली अर्पित की। दोनों श्रद्धांजलियों को राज्यसभा के पटल पर सुरक्षित रखा गया।

चौथे आम चुनाव

चौथे आम चुनाव 1967 में सम्पन्न हुए। अटलजी पुन: बलरामपुर की सीट से प्रत्याशी बने। उन्होंने कांग्रेस के प्रत्याशी को लगभग 32 हज़ार वोटों से हराया। अपने इस कार्यकाल में अटलजी ने यह साबित कर दिया कि वह धर्मनिरपेक्षता के पूर्ण समर्थक हैं तथा धर्म और राजनीति का सम्मिश्रण नहीं चाहते। काहिरा में आयोजित हुए इस्लामी सम्मेलन के बारे में उन्होंने कहा कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मज़हबी कट्टरता का पोषण नहीं होना चाहिए। ऐसे सम्मेलन विश्व बंधुत्व के आधार पर होने चाहिए। अटल बिहारी वाजपेयी ने मज़हबी आधार पर गुट बनाने की प्रवृत्ति को ख़तरनाक बताया और भारत सरकार को भी इस बारे में आगाह किया। धारा 370 के अंतर्गत कश्मीर को जो विशिष्ट दर्जा प्रदान किया गया था, उन्होंने उसका भी विरोध किया और धारा 370 समाप्त करने की मांग की। इसके अतिरिक्त उन्होंने भारत सरकार से यह मांग की कि कश्मीर में रोज़गार के साधन उपलब्ध कराए जाएँ और शिक्षा के स्तर में वृद्धि हो।
इसी प्रकार विदेशी राजनीति भी अटलजी का पसंदीदा विषय थी। जब अमेरिका ने वियतनाम पर हमला किया तो उन्होंने बड़े कड़े शब्दों में निंदा की। वियतनाम को लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ की ख़ामोशी को भी अटलजी ने अपना निशाना बनाया। उन्होंने इस युद्ध का परिणाम भी घोषित कर दिया था। अटलजी ने कहा था कि वियतनाम की जनता अपनी स्वाधीनता के लिए लड़ रही है और अमेरिका उसे युद्ध में तबाह करके अपना उपनिवेश बनाना चाहता है। लेकिन अमेरिका को यह समझ लेना चाहिए कि वियतनाम हार नहीं मानेगा और अंतत: अमेरिकी फ़ौजों को वहाँ से जाना ही होगा। इस मुद्दे पर उन्होंने सटीक भविष्यवाणी की थी। उस युद्ध में वाकई अमेरिका को पराजय का सामना करना पड़ा और वियतनाम युद्ध आज भी अमेरिका के लिए एक दाग़ की भाँति है। यही नहीं, अमेरिका की जनता ने भी बाद में वियतमान युद्ध का कड़ा विरोध करना आरम्भ कर दिया था।

काव्य की रचना

अटलजी पाँचवी लोकसभा में भी पहुँचने में क़ामयाब रहे। सन् 1972 का लोकसभा चुनाव उन्होंने गृहनगर यानी ग्वालियर से लड़ा था। बलरामपुर संसदीय चुनाव का उन्होंने परित्याग कर दिया था। इस समय श्रीमती इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं। लेकिन जून, 1975 में इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाकर विपक्ष के कई नेताओं को जेल में डाल दिया। उनमें अटलजी भी शामिल थे। उन्होंने जेल में रहते हुए समयानुकूल काव्य की रचना की और आपातकाल के यथार्थ को व्यंग्य के माध्यम से प्रकट किया। जेल में रहते हुए ही अटलजी का स्वास्थ्य ख़राब हो गया और उन्हें अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में भर्ती कराया गया। लगभग 18 माह के बाद आपातकाल समाप्त हुआ और छठवीं लोकसभा के गठन हेतु चुनाव घोषित हुए। जब विपक्ष के नेता जेल में बंद थे, तब भी उनमें वैचारिक मंथन हुआ।

विदेश मंत्री

आपातकाल के कारण विपक्ष संगठित होने में सफल रहा। फिर लोकसभा चुनाव सम्पन्न हुए, लेकिन इंदिरा गांधी चुनाव नहीं जीत सकीं। संगठित विपक्ष द्वारा मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्रित्व में जनता पार्टी की सरकार बनी और अटलजी विदेश मंत्री बनाए गए। उन्हें विदेशी मामलों का विशेषज्ञ भी माना जाता था। उन्होंने कई देशों की यात्राएँ कीं और भारत का पक्ष रखा। अटलजी की विदेश यात्राओं के कारण मोरारजी देसाई ने इन्हें टोका था कि कभी-कभी देश में भी रहा करो। अटलजी ने पाकिस्तान की भी यात्रा की। उन्होंने तत्कालीन फ़ौजी शासक जिया-उल-हक़ से वार्तालाप के दौरान फ़रक्का-गंगाजल बंटवारे का मसौदा तय किया। इसके अतिरिक्त भारत और पाकिस्तान के मध्य रेल सेवा की बहाली भी तय की गई। अटलजी बंग्लोदश के साथ भी गंगाजल के वितरण पर समझौते की दिशा में बढ़े। उन्होंने विदेश मंत्री के तौर पर भारतीय अणु शक्ति के सम्बन्ध में नीति स्पष्ट की और अणु ऊर्जा को भारतीय आवश्यकताओं के लिए ज़रूरी बताया। अटलजी ने नेपाल के विदेश मंत्री के साथ व्यापार और पारगमन की नई नीति के सम्बन्ध में भी चर्चा की। 4 अक्टूबर, 1977 को उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ के अधिवेशन में हिन्दी में सम्बोधन दिया। इसके पूर्व किसी भी भारतीय नागरिक ने राष्ट्रभाषा का प्रयोग इस मंच पर नहीं किया था।

राज्यसभा के लिए चुने गए

जनता पार्टी सरकार का पतन होने के पश्चात् 1980 में नए चुनाव हुए और इंदिरा गांधी पुन: सत्ता में आ गईं। इसके बाद 1996 तक अटलजी विपक्ष में रहे। 1980 में भारतीय जनसंघ के नए स्वरूप में भारतीय जनता पार्टी का गठन हुआ और इसका चुनाव चिह्न कमल का फूल रखा गया। उस समय अटलजी ही भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेता थे। प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के पश्चात् 1984 में आठवीं लोकसभा के चुनाव हुए। सहानुभूति की लहर कांग्रेस के साथ थी। यही कारण है कि विपक्ष के अनेक दिग्गजों को पराजय का मुँह देखना पड़ा। अटलजी भी ग्वालियर की अपनी सीट भी नहीं बचा पाए। लेकिन 1986 में इन्हें राज्यसभा के लिए चुन लिया गया। फिर समय ने पलटा खाया और विश्वनाथ प्रताप सिंह के कारण कांग्रेस को सत्ता से बाहर जाना पड़ा।

लोकसभा भंग

ऐसे में भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रीय मोर्चा को बाहर से ही समर्थन प्रदान किया। लेकिन 13 मार्च, 1991 को लोकसभा भंग हो गई और 1991 में नए चुनाव सम्पन्न हुए। सम्पूर्ण चुनाव प्रक्रिया को दो चरणों में होना था। चुनाव के प्रथम चरण के बाद तमिलनाडु में राजीव गांधी की हत्या होने और द्वितीय चरण के मतदान में कांग्रेस को सहानुभूति का लाभ मिलने से पी. वी. नरसिम्हा राव कांग्रेस के प्रधानमंत्री नियुक्त हुए। इनका प्रधानमंत्रित्व कार्यकाल पूर्ण होने के बाद 1996 में पुन: लोकसभा के चुनाव सम्पन्न हुए।

प्रधानमंत्री पद

1996 के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। संसदीय दल के नेता के रूप में अटलजी प्रधानमंत्री बने। उन्होंने 21 मई, 1996 को प्रधानमंत्री के पद एवं गोपनीयता की शपथ ग्रहण की। 31 मई, 1996 को इन्हें अन्तिम रूप से बहुमत सिद्ध करना था, लेकिन विपक्ष संगठित नहीं था। इस कारण अटलजी मात्र 13 दिनों तक ही प्रधानमंत्री रहे। उन्होंने अपनी अल्पमत सरकार का त्यागपत्र राष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा को सौंप दिया।

कार्यवाहक प्रधानमंत्री

कारगिल में युद्ध की जो स्थितियाँ बनीं, वह निश्चय ही घोर लापरवाही का कारण थीं, लेकिन सच्चाई सामने नहीं आ सकी। अगले चुनावों में एन. डी. ए. की सरकार बनी। उसने उन आरोपों की निष्पक्ष जाँच कराने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई और सभी सवाल समय की गर्त में दफ़न हो गए। अटलजी की सरकार दूसरी बार एक मत की कमी से बहुमत के जादुई आँकड़े तक नहीं पहुँच पाई और उसका पतन हो गया। सरकार गिराने के लिए विपक्ष ने राजनीति में प्रचलित वैध-अवैध सभी पैंतरे आजमाए, लेकिन कोई भी पार्टी सरकार बनाने की स्थिति में नहीं थी। अत: अप्रैल, 1999 से अक्टूबर, 1999 तक अटलजी कार्यवाहक प्रधानमंत्री रहे।

तीसरी बार प्रधानमंत्री

चुनाव के पश्चात एन. डी. ए. को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ और 13 अक्टूबर, 1999 को राष्ट्रपति श्री के. आर. नारायणन ने अटलजी को प्रधानमंत्री के रूप में पद एवं गोपनीयता की शपथ दिलाई। इस प्रकार अटलजी तीसरी बार प्रधानमंत्री बने। वह पहले के दो कार्यकाल पूर्ण नहीं कर पाए थे। अब अटलजी की पार्टी भाजपा और भाजपा के सहयोगियों की चर्चा करना भी प्रासंगिक होगा। यह सर्वविदित है कि भाजपा हिन्दुत्ववादी पार्टी है, लेकिन वह धर्मनिरपेक्षता का सिद्धान्त भी स्वीकार करती है। भाजपा में अनेक मुस्लिम लोग भी सम्मिलित हैं। लेकिन भाजपा का विश्वास रहा है कि हिन्दुओं को अपनी पार्टी से जोड़कर रखना है। इस कारण वह उन संवेदनशील मुद्दों को हवा सदैव देती रही जो हिन्दुओं से सम्बन्धित थे। इसमें अयोध्या स्थित रामजन्म भूमि पर मन्दिर बनाए जाने का भी मुद्दा था। यद्यपि अटलजी उस सीमा तक भाजपा के साथ माने जाते हैं, जहाँ तक हिन्दू राष्ट्र का सवाल आता है, लेकिन वह जन भावनाएँ भड़काने की नीति के समर्थक कभी भी नहीं रहे।
अटलजी प्रधानमंत्री के रूप में यक़ीनन बेहद योग्य व्यक्ति रहे हैं और नेहरूजी ने अपने जीवनकाल में ही यह घोषणा कर दी थी तथापि आडवाणी जी को इस बात का श्रेय अवश्य दिया जाना चाहिए कि उन्होंने अटलजी को प्रधानमंत्री के रूप में प्रचारित किया। आडवाणी जी के इस अथक श्रम को निश्चय ही याद किया जाएगा कि उन्होंने अटलजी के लिए समर्थन जुटाया। भाजपा की हिन्दुत्ववादी नीति से वोट बटोरने का कार्य भी उन्होंने किया था। राजनीति में स्थायी मित्रता और शत्रुता का कोई भी स्थान नहीं होता। प्रधानमंत्री बनने के बाद अटलजी के सामने सम्पूर्ण देश और उसकी समस्याएँ थीं। वह भाजपा तक सीमित नहीं रह सकते थे। वह संवैधानिक मर्यादा से बंधे हुए थे। यों भी अटलजी नैतिक व्यक्ति रहे हैं। इसके अलावा एन. डी. ए. के प्रति भी उनका उत्तरदायित्व था। आडवाणी जी चाहते थे कि राम मन्दिर का मसला सुलझा लिया जाए। लेकिन अटलजी जानते थे कि एन. डी. ए. में शामिल अन्य दल इसके लिए तैयार नहीं होंगे। वह विवादास्पद प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहते थे। वह दूरगामी परिणामों का आकलन कर रहे थे। यही कारण है कि आडवाणी जी के साथ उनके वैचारिक मतभेद हो गए।

ठोस कार्य

अटलजी की एन. डी. ए. सरकार ने पाँच वर्ष का कार्यकाल अवश्य पूर्ण किया, लेकिन इसके लिए अटलजी को काफ़ी पापड़ बेलने पड़े। एन. डी. ए. संयोजक जॉर्ज फ़र्नाडीज़ ने भी इसमें सकारात्मक भूमिका का निर्वहन किया था। एन. डी. ए. के सभी घटकों का पाँच वर्ष तक एक साथ रहना भी किसी चुनौती से कम नहीं था। अटलजी के तृतीय प्रधानमंत्रित्व काल की विशेषताओं को संक्षिप्त रूप में इस प्रकार समझा जा सकता है-
  • श्री नरसिम्हा राव में आर्थिक सुधारों की जो नीति आरम्भ की थी, उसे अटलजी ने जारी रखा। उन्हें इस नीति के सकारात्मक तथ्यों का ज्ञान था। वह उसे इस कारण ख़ारिज नहीं करना चाहते थे कि वह कांग्रेस की आर्थिक नीति थी। ऐसी नीति से अर्थव्यवस्था के सुधार का लाभ इनकी सरकार को भी प्राप्त हुआ और सर्वहारा वर्ग भी आर्थिक रूप से सम्पन्न हुआ।
  • श्री अटलजी ने संतुलित विदेश नीति का पालन करते हुए अपनी परमाणु नीति को स्पष्ट किया। अमेरिका और उसके मित्र देशों ने पोखरण परमाणु विस्फोट पर आँखें अवश्य तरेरीं लेकिन अटलजी ने स्पष्ट कर दिया कि भारत अगला परमाणु परीक्षण नहीं करेगा। वह परमाणु बम का उपयोग तभी करेगा जब उसके विरुद्ध ऐसा किया जाएगा। भारतीय परमाणु कार्यक्रम चीन तथा पाकिस्तान के विरोधी रवैये को देखते हुए बनाया गया और सारी दुनिया भी भारत के इस भय को समझती थी।
  • आर्थिक विकास के लिए अटलजी ने 'स्वर्णिम चतुर्भुज' योजना का आरम्भ किया। इसके अंतर्गत वह देश के महत्त्वपूर्ण शहरों को लम्बी-चौड़ी सड़कों के माध्यम से जोड़ना चाहते थे। इसका अधिकांश कार्य अटलजी के कार्यकाल में पूर्ण हुआ। इससे जहाँ आम व्यक्ति की यात्रा सुविधाजनक हुई, वहीं व्यापारिक और क़ारोबारी गतिविधियों को भी प्रोत्साहन मिला।
  • अटलजी ने पड़ोसी देश पाकिस्तान के साथ सम्बन्ध सुधारने की दिशा में सदैव पहल की, यद्यपि पाकिस्तान ने कभी भी अपने वादों को पूर्ण नहीं किया। कारगिल युद्ध इसका स्पष्ट उदाहरण है। उन्होंने पाकिस्तान के सैनिक शासक परवेज मुशर्रफ़ से भी बातचीत की थी।
  • अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिटंन के भारत आगमन पर अमेरिका के साथ भारतीय सम्बन्धों को सुधारने की दिशा में कार्य किया गया। अटलजी ने पाकिस्तान के अपदस्थ प्रधानमंत्री नवाज शरीफ़ की रिहाई के लिए बिल क्लिंटन से वार्ता की ताकि पड़ोसी देश में प्रजातंत्र की हत्या न हो सके। इस साझा प्रयास से ही नवाज शरीफ़ की रिहाई सम्भव हो सकी।

विभिन्न उपलब्धियाँ

19 मार्च, 1998 को नए चुनावों के माध्यम से अटलजी पुन: प्रधानमंत्री बने। इस समय सदन में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सदस्यों की संख्या 182 थी। तेलुगुदेशम, तृणमूल कांग्रेस और जयललिता की ए. आई. डी. एम. के. ने भाजपा को समर्थन दिया। अप्रैल 1999 तक अटलजी दूसरी बार प्रधानमंत्री पद पर रहे। इनका कार्यकाल इस बार 14 महीनों तक रहा। द्वितीय कार्यकाल में अटलजी ने प्रधानमंत्री के रूप में निम्नलिखित उपलब्धियाँ हासिल प्राप्त कीं-
  • अटलजी ने विज्ञान और तकनीक की प्रगति के साथ देश का भविष्य जोड़ा। उन्होंने परमाणु शक्ति को देश के लिए आवश्यक बताकर 11 मई 1998 को पोखरन में पाँच परमाणु परीक्षण किए।
  • अटलजी ने भारतीय सुरक्षा को महत्त्व दिया और देश को परमाणु बम से लैस किया। देश की स्वतंत्रता और सम्प्रभुता का नारा दिया।
  • परमाणु बम बना लेने के कारण अमेरिका और उसके मित्र राष्ट्रों ने भारत पर प्रतिबंध लगा दिया। लेकिन अटलजी ने प्रतिबंधों की परवाह न करते हुए भारत को स्वावलम्बी राष्ट्र बनाने की दिशा में कार्य किया। उन्होंने स्पष्ट रूप से कह दिया कि भारत की अर्थव्यवस्था मज़बूत है और उन्हें आर्थिक प्रतिबंधों की कोई भी परवाह नहीं है।
  • अटलजी ने पोखरन में जय जवान, जय किसान का नारा देकर अपने समस्त इरादे दुनिया के सामने ज़ाहिर कर दिए कि भारत भी एक परमाणु सम्पन्न देश है। अपनी स्वतंत्रता को क़ायम रखने के लिए उसे भी परमाणु बम बनाने का अधिकार है।
  • अटलजी ने प्रधानमंत्री के रूप में 'ब्रेन ड्रेन' (युवा प्रतिभाओं में विदेश गमन की अभिरुचि) को रोकने की ज़रूरत बताई। उन्होंने युवाओं का आह्वान किया कि वे मातृभूमि की सेवा पर ध्यान दें।
  • अटलजी ने सेनाओं का मनोबल ऊँचा उठाने कार्य किया। साथ ही परमाणु कार्यक्रम की आधार शिला रखने वाली भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को भी उन्होंने धन्यवाद दिया। अटलजी के लिए राष्ट्रहित दलगत राजनीति से सदैव ऊपर रहा। अटलजी को उदारमना ही कहना चाहिए कि उन्होंने विपक्ष की उपलब्धियों को भी सराहा।
मात्र चौदह महीनों के कार्यकाल में अटलजी ने प्रधानमंत्री के रूप में स्वयं को सफल साबित कर किया। उन्हें पता था कि वह साझा सरकार के रूप में काम कर रहे हैं और भारतीय जनता पार्टी के पास पूर्ण बहुमत नहीं है, इस कारण उन्होंने अपने भाषण में स्पष्ट कर दिया था कि शायद यह कार्यकाल भी पूर्ण न हो पाए। फिर यही हुआ भी। इसके पश्चात् ए. आई. डी. एम. के. की जयललिता ने सशर्त समर्थन देना चाहा लेकिन अटलजी ने इसे स्वीकार नहीं किया और उन्हें प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देना पड़ा। उस समय कोई भी पार्टी केन्द्र में सरकार बनाने में सक्षम नहीं थी। इस कारण सितम्बर-अक्टूबर के मध्य चुनाव कराए गए और इस समय तक कार्यवाहक प्रधानमंत्री का दायित्व अटलजी ने ही सम्भाला। लेकिन उसकी चर्चा करने से पूर्व उनके द्वितीय कार्यकाल में हुए कारगिल युद्ध का विवरण दिया जाना प्रासंगिक ही नहीं वरन् अत्यावश्यक भी होगा।

कारगिल युद्ध

कश्मीर के कारगिल क्षेत्र में सामरिक महत्त्व की ऊँची चोटियाँ भारत के अधिकार क्षेत्र में आती हैं। उन दुर्गम चोटियों पर शीत ऋतु में रहना काफ़ी कष्टसाध्य होता है। इस कारण भारतीय सेना वहाँ शीत ऋतु में नहीं रहती थी। इसका लाभ उठाकर पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ़ ने आतंकवादियों के साथ पाकिस्तानी सेना को भी कारगिल पर क़ब्ज़ा करने के लिए भेज दिया। वस्तुत: पाकिस्तान ने सीमा सम्बन्धी नियमों का उल्लघंन किया था। लेकिन उसके पास यह सुरक्षित बहाना था कि कारगिल की चोटियों पर तो आतंकवादियों ने क़ब्ज़ा किया है, न कि पाकिस्तान की सेना ने। ऐसी स्थिति में भारतीय सेना के सामने बड़ी चुनौती थी। दुश्मन काफ़ी ऊँचाई पर था और भारतीय सेना उनके आसान निशाने पर थी। लेकिन भारतीय सेना ने अपना मनोबल क़ायम रखते हुए पाकिस्तानी फ़ौज पर आक्रमण कर दिया। इसे 'ऑपरेशन विजय' का नाम दिया गया। युद्ध के दौरान भारतीय सेना के सैकड़ों अफ़सरों और सैनिकों को कुर्बानी देनी पड़ी। पाकिस्तानी सैनिक भी बड़ी संख्या में हताहत हुए। यहाँ यह भी बताना प्रासंगिक होगा कि कुछ ही समय पहले भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी पाकिस्तान का दौरा करके आए थे और भारत-पाक सम्बन्धों को सुधारने की दिशा में महत्त्वपूर्ण मंत्रणाएँ भी हुई थीं। उस समय पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ़ थे और राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ़। फ़रवरी 2009 में नवाज शरीफ़ ने यह ख़ुलासा किया कि कारगिल पर क़ब्ज़ा करने की साज़िश तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ़ की थी और उन्होंने मुझे क़ैद कर लिया था। कारगिल में पाकिस्तानी सेना का प्रवेश परवेज मुशर्रफ़ के आदेश पर ही हुआ था, जबकि परवेज मुशर्रफ़ ने यह कहा था कि कारगिल में पाकिस्तानी आतंकवादी उपस्थित थे।

भारत को विजयश्री

भारतीय सैनिकों ने ठान लिया था कि वे कारगिल से पाकिस्तानियों को खदेड़कर ही दम लेंगे। भारतीय सैनिकों ने विलक्षण वीरता का परिचय देते हुए पाकिस्तानी सैनिकों को चारों ओर से घेर लिया। बेशक़ कारगिल युद्ध में भारत को विजयश्री प्राप्त हुई लेकिन अमेरिका के हस्तक्षेप के कारण भारत सरकार ने पाकिस्तानी सैनिकों को हथियारों सहित निकल भागने का मौक़ा दे दिया। पाकिस्तान को सामरिक महत्त्व की चोटियाँ ख़ाली करनी पड़ीं और भारत ने पाकिस्तानी सैनिकों की ज़िन्दा वापसी को स्वीकार कर लिया। वस्तुत: युद्ध के भी कुछ नियम होते हैं। भारतवर्ष ने उन्हीं नियमों का पालन किया था। लेकिन इस युद्ध में जहाँ भारत की जीत का सेहरा अटलजी के सिर पर बंधा, वहीं कई अन्य बातें भी प्रमाणित हुईं। जिन बोफ़ोर्स तोपों के नाकारा होने की बात श्री राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में विपक्ष एवं भाजपा करती थीं, वही तोपें कारगिल युद्ध में बेहद क़ामयाब और उपयोगी साबित हुईं। सेना के उच्च अधिकारियों ने कहा कि बोफोर्स तोपों के कारण ही कारगिल में भारतीय सेना को शीघ्र क़ामयाबी मिल पाई थी वरना युद्ध लम्बा खिंच सकता था। बोफोर्स तोपों को लेकर राजीव गांधी पर जो आरोप लगे, वह इस प्रकार आंशिक रूप से धुल गए। बाद में न्यायपालिका ने भी स्वर्गीय राजीव गांधी को इस मामले में क्लीन चिट प्रदान कर दी।

शहीद सैनिकों का राजकीय सम्मान

कारगिल युद्ध के बाद शहीद भारतीय सैनिकों के शवों को उनके पैतृक आवास पर भेजने की विशेष व्यवस्था की गई। इससे पूर्व ऐसी व्यवस्था नहीं थी। पैतृक आवास पर शहीद सैनिकों का राजकीय सम्मान के साथ अन्तिम संस्कार किया गया। उनके शवों को ले जाने के लिए काफ़ी मंहगे शव बक्सों (कॉफ़िन बॉक्स) का उपयोग किया गया। उस समय देश के रक्षा मंत्री जॉर्ज फ़र्नांडीज़ थे। उन पर यह आरोप लगा कि शव बक्सों की मंहगी ख़रीद का कारण कमीशन प्राप्त करना था। यह ताबूत विदेशों से आयात किए गए थे। इससे भारतीय राजनीति का एक घटिया अध्याय लिखा गया। उस समय विपक्ष ने यह प्रचार आरम्भ कर दिया कि शहीदों की निर्जीव देह के लिए प्रयुक्त ताबूतों द्वारा भी धन बटोरने का कार्य किया गया। कारगिल का 'ऑपरेशन विजय' इस कारण भी महत्त्वपूर्ण था क्योंकि पाकिस्तानियों ने इस पर क़ब्ज़ा करके बढ़त प्राप्त करने की योजना बनाई थी। यदि पाकिस्तानियों को कारगिल से नहीं खदेड़ा जाता तो निकट भविष्य में वे कश्मीर की काफ़ी भूमि पर क़ब्ज़ा कर सकते थे।
प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार पर लापरवाही का आरोप लगा कि जब 1998 में पाकिस्तानी सैनिकों ने कारगिल पर शीत काल में घुसपैठ की थी तो भारत का ख़ुफ़िया तंत्र समय पर इसका पता नहीं लगा सका। इस पर ख़ुफ़िया तंत्र ने स्पष्ट किया कि उसे इस बात की जानकारी थी और उसने सरकार को सूचित कर दिया था। तब विपक्ष ने सरकार को निशाना बनाया कि ऐसी घोर लापरवाही का उद्देश्य क्या था?
क्या उद्देश्य यह था कि युद्ध जैसे हालात पैदा करने के लिए सरकार इंतज़ार कर रही थी, ताकि युद्ध में विजय का लाभ आगामी चुनावों में प्राप्त किया जा सके?

मुशर्रफ़ से वार्ता

प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ़ को आगरा में शिख़र वार्ता के लिए आमंत्रित किया। अटलजी चाहते थे कि वार्तालाप के माध्यम से दोनों देशों की समस्याओं का निराकरण किया जाए, लेकिन परवेज मुशर्रफ़ के व्यक्तित्व को समझने में भूल कर बैठे। परवेज मुशर्रफ़ ने शाही यात्रा का आनन्द तो उठाया लेकिन समझौते की राह हमवार नहीं हुई। परवेज मुशर्रफ़ ने भारत सरकार को पूर्व सूचना दिए बग़ैर ही आगरा के इलेक्ट्रानिक मीडिया को संभाषण जारी कर दिया, जिससे भारत की आलोचना हुई। इस संभाषण में भारत का पक्ष भी नकार दिया गया और कश्मीर के मामले को अधिक पेचीदा बनाकर पेश किया गया।
इस प्रकार परवेज मुशर्रफ़ ने भारत की ज़मीन पर रहते हुए भारत की ज़मीन का उपयोग कूटनीति के लिए किया और पाकिस्तानियों में लोकप्रियता हासिल कर ली। कहने का तात्पर्य यह है कि परवेज मुशर्रफ़ को 'बेचारा' समझकर बुलाया गया लेकिन वह नायक बनकर विदा हुआ। अटलजी के प्रयास सकारात्मक अवश्य थे, लेकिन परवेज मुशर्रफ़ भारत से सम्बन्ध सुधारने की ख़्वाहिश नहीं रखते थे। मुशर्रफ़ सरकार ने भारत में आतंकवादी घटनाओं को बढ़ावा दिया। परवेज मुशर्रफ़ और उनकी सरकार ने भारत के साथ कोई भी क़रार इस शिखर वार्ता के दौरान नहीं किया।

आतंक का साया

पाकिस्तान द्वारा समर्थित आतंकवाद के कारण भारत में अनेक प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न हुईं। पाकिस्तान यह अच्छी तरह से समझ चुका था कि भारत से युद्ध करके जीतना उसके लिए सम्भव नहीं है। इस कारण उसने आतंकवादियों के बल पर नई युद्ध नीति का विकास किया, जिससे कश्मीर के अवाम को सदैव परेशानियाँ भोगनी पड़ीं। अक्टूबर 2002 में आतंकवादियों ने जम्मू-कश्मीर विधानसभा पर आत्मघाती हमला कर दिया। वाजपेयी सरकार का ख़ुफ़िया तंत्र इस बार भी आतंकवादियों के मंसूबों का पूर्वानुमान नहीं कर पाया। पाकिस्तान बेशर्म की भाँति मुस्कराता रहा और भारत सरकार की प्रशासनिक क्षमता पर प्रश्नचिह्न लग गया। इतना ही नहीं, 13 दिसम्बर, 2001 को भारत की संसद पर आतंकियों ने हमला करके सबको आश्चर्य में डाल दिया। देश की राजधानी में संसद पर हमला किया जाना भारतीय इतिहास के लिए बाकई बेहद शर्म का दिन था। आतंकवादी भारी सुरक्षा के बावजूद संसद परिसर में गोला, बारूद और हथियारों सहित प्रविष्ट हो गए। लोकतंत्र की सबसे बड़ी संस्था पर किया गया हमला पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद का ही हिस्सा था। इस हमले के तहत् भारत सरकार ने काफ़ी शोर-शराबा मचाया और कूटनीतिक दबाव बनाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी का ध्यान भी आकृष्ट किया। लेकिन जो अपनी रक्षा स्वयं नहीं कर पाता, उसका साथ भला कौन देता है?
भारत ने बेशक़ संयम से काम लिया, लेकिन आवश्यकता थी कड़े क़दम उठाने की। परन्तु अटलजी इस हमले का माक़ूल जवाब देने में विफल रहे। इस सम्बन्ध में विपक्ष चाहता था कि वाजपेयी सरकार पाकिस्तान को इसका जवाब युद्ध से दे, लेकिन सरकार ने सीमाओं पर भारी तादाद में सेनाओं की तैनाती कर दी। युद्ध के बादल अवश्य मंडराये, लेकिन बरसे नहीं। परमाणु शक्ति दोनों देशों के पास हैं। इस कारण युद्ध की आशंका दोनों देशों के निवासी भयभीत थे। वे लोग युद्ध नहीं चाहते थे। यह आतंकवादी कार्रवाई लश्करे तैयबा ने की थी, जिसका पाकिस्तान में पोषण हो रहा था। संसद पर हमला करने वाले पाँच आतंकी थे और पाँचों को ही मार गिराया गया।

भ्रष्टाचार के आरोप

एन. डी. ए. सरकार पर भ्रष्टाचार के अनेक आरोप लगे थे। इनमें सर्वाधिक चर्चित था-तहलका काण्ड। तहलका द्वारा भाजपा सदस्यों सहित सेना के अनेक अधिकारियों को घूस लेते हुए कैमरे में क़ैद करके सार्वजनिक रूप से उसका टी. वी. चैनल पर प्रदर्शन किया गया था। तब भाजपा अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण और रक्षा मंत्री जॉर्ज फ़र्नाडीज़ ने इस्तीफ़ा दे दिया। लेकिन बाद में जॉर्ज फ़र्नीडीज़ को पुन: रक्षा मंत्रालय दे दिया गया। इससे जॉर्ज फ़र्नाडीज़ की छवि पर ऐसा दाग़ लगा कि फिर कभी भी धुल नहीं पाया। उसकी काली छाया भाजपा और अटलजी पर भी पड़ी। संसद का सत्र आहूत किए जाने पर विपक्ष ने जॉर्ज फ़र्नाडीज़ को लेकर सदन का कई बार बहिष्कार किया। एन. डी. ए. का कार्यकाल समाप्त होने तक यही स्थिति बनी रही।

चुनावों में पराजय

भाजपा और एन. डी. ए. को यह प्रबल विश्वास था कि जनता उन्हें पुन: अवसर प्रदान करेगी। उन्होंने चमकदार भारत (शाइनिंग इंडिया) और भारत उदय (इंडिया राइजिंग) का चुनावी नारा दिया था। उन्हें मुग़ालता था कि एन. डी. ए. ने भारत की तस्वीर बदल दी है। एन. डी. ए. अपनी उपलब्धियाँ भी गिनाईं। एन. डी. ए. का कार्यकाल अक्टूबर 2004 में समाप्त होना था। लेकिन उसे लगा कि यदि चुनाव जल्दी करा लिए जाएँ तो इसका फ़ायदा उन्हें अवश्य होगा। इस कारण चुनाव अप्रैल-मई में ही करा लिए गए। लेकिन एन. डी. ए. का पूर्वानुमान ग़लत साबित हुआ। कांग्रेस ने यू.पी.ए. के रूप में बहुमत प्राप्त कर लिया। उसके बाद से अटलजी भाजपा के लिए कार्य करते रहे।

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