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Saturday, October 13, 2012

कश्मीर के संवेदनशील मामले इतिहास

3/19/2012

चंद्रगुप्त और चाणक्य को वृद्धा की सीख

सम्राट चंद्रगुप्त एवं चाणक्य की वीरता एवं बुद्धिमता का लोहा सभी मानते है , चाणक्य की कुटनीति विश्व की सर्वश्रेष्ठ कुटनीति मानी जाती है , फिर भी एक बार उनसे गलती हो गई थी और जिसके फलस्वरूप उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा था । दरअसल नन्द राज्य को जीतने के लिये उन लोगों ने सीधा पाटलीपुत्र पर ही हमला कर दिया था और इस कारण उन्हें हार का मुँह देखना पड़ा और मारे - मारे जंगलों में भी भटकना पड़ा था ।
इसी प्रकार जब वो भूखे - प्यासे एक दिन जंगल में भटक रहे थे तो उन्हें एक झोपड़ी दिखी । झोपड़ी के पास पहुँच कर जब उन्होंने आवाज दी तो अंदर से एक वृद्धा निकली । वह अत्यंत ही गरीब थी परन्तु उसका हृदय अत्यंत विशाल एवं प्रेम से परिपूर्ण था ।
जब उस वृद्धा ने अपने द्वार पर दो - दो अतिथितियों को देखा , तो वह खुशी से जैसे पागल हो गई । उसे यह नहीं पता था कि उसकी कुटिया में सम्राट चंद्रगुप्त एवं उनके बुद्धिमान मंत्री चाणक्य आये है । वह वृद्धा उन्हें केवल अतिथि मान कर उनकी आवाभगत करने लगी । उन्हें बड़े सम्मान से टूटी खाट पर बिठाया और ठंडा पानी पिलाया ।
कुछ देर बाद वृद्धा ने देखा कि अतिथि तो वहीं पर बैठे है और कुछ परेशान से लग रहे है । तो उसने अपने अतिथियों से कहा - ' तुम लोग थके परेशान से लग रहे हो । यही बैठकर आराम करो , तब तक मैं कुछ खाना बनाती हूँ । '
शाम होने को थी । वृद्धा ने अपनी कुटिया के एक कोने में बने चूल्हे को जलाया और उस पर खिचड़ी बनाने को रख दी । थोड़ी ही देर बाद वृद्धा का लड़का खेत से लौटा और अपनी माँ से बोला - ' मुझे कुछ खाने को दो , बहुत जोर से भूख लगी है । ' खिचड़ी बनकर तैयार हो चुकी थी । वृद्धा ने अपने पुत्र के सामने खिचड़ी भरी थाली परोस दी । पुत्र बहुत भूखा था । उसने शीघ्रता पूर्वक अपना हाथ खिचड़ी में डाल दिया और जोर से चीख पड़ा । वृद्धा अपने पुत्र की चीख सुनकर घबराते हुये उसके पास पहुँची और पूछा - ' क्या हुआ , तुम चीखे क्यों थे ? ' , ' कुछ नहीं माँ , खिचड़ी बहुत गर्म थी । मेरा हाथ जल गया । ' लड़के ने उत्तर दिया । पुत्र की व्याकुलता की भर्त्सना करते हुए वृद्धा बोली - ' अरे अभागे ! क्या तू भी चंद्रगुप्त और चाणक्य जैसा ही बेवकूफ है । '
वृद्धा की जुबान पर अपना नाम सुनते ही चन्द्रगुप्त और चाणक्य के कान खड़े हो गये । उन्होंने वृद्धा से पूछा - ' अम्मा , चंद्रगुप्त एवं चाणक्य आखिर मूर्ख कैसे है , उन्होंने क्या मूर्खता की है ? और फिर आपने अपने पुत्र को उनका उद्दाहरण क्यों दिया ? '
वृद्धा हास्यपूर्ण मुद्रा में बोली - ' देखों बेटा , राजा चंद्रगुप्त और चाणक्य ने गलती की थी , तभी तो मैं उनका उदाहरण अपने पुत्र को दे रही थी । चंद्रगुप्त एक शक्तिशाली राजा है और चाणक्य उनका बुद्धिमान मंत्री है । वो लोग नन्द वंश का नाश करना चाहते थे पर उनमें इतनी भी बुद्धि नहीं थी कि पहले आसपास के छोटे - मोटे राजाओं को जीतते , तब राजधानी पर आक्रमण करते । इससे जीते हुये राजाओं का भी उन्हें सहयोग प्राप्त हो जाता । परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया । उन मूर्खो ने सीधे ही बीच में जाकर राजधानी पाटलीपुत्र पर चढ़ाई कर दी और किसी की सहायता न मिलने के कारण वो हार गये ।
ठीक इसी प्रकार मेरे पुत्र ने भी आचरण किया । उसने भी गर्म खिचड़ी में ही सीधे हाथ डाल दिया । उसे चाहिये था कि पहले आस पास यानि की थाली के किनारों की खिचड़ी लेकर ठंडा करता और फिर उसे खाता । '
वृद्धा की बात सुनकर चंद्रगुप्त और चाणक्य की आखें खुल गई । उन्होंने उसकी बात को सीख मानकर और अपनी बुद्धि का उपयोग करके , अंत में नन्द पर विजय प्राप्त कर नन्दवंश का नाश कर दिया ।


राष्ट्र सेवा के संकल्पी मित्रों यदि हमें सच में माँ भारती और इसकी संस्कृति की रक्षा करनी है , तो वेकिटन या अरबपंथीयों पर विजय करने से पूर्व हमें अपने देश के छद्म सेक्यूलर दरिंदों पर विजय प्राप्त करनी होगी । हमें असली खतरा इन्ही गद्दारों से है , यदि ये गद्दार न होते तो भारत कदापि बाहर से आई कुछ मुठ्ठीभर साम्राज्यवादी साम्प्रदायिक ताकतों का गुलाम न बना होता ।
वन्दे मातरम्
जय जय माँ भारती ।

10/31/2011

बापू ने कहा था, जरूरी था कश्मीर में सेना भेजना

अहिंसा के सबसे बड़े प्रवर्तक महात्मा गांधी ने कश्मीर में सेना भेजने के फैसले की हिमायत की थी और स्पष्ट तौर पर कहा था कि भारतीय सेना हमले के इरादे से कश्मीर नहीं गई, बल्कि शेख अब्दुल्ला और कश्मीर के महाराजा की अपील पर वहां पहुंची।
    
अपने निधन से कुछ दिन पूर्व 20 जनवरी, 1948 को एक प्रार्थना सभा में दिए और प्रार्थना प्रवचन में प्रकाशित भाषण में बापू ने कहा कि मुझे कश्मीर फ्रीड़ा लीग के अध्यक्ष का लाहौर से एक तार मिला है, जिसमें उन्होंने कश्मीर में भारतीय सेना के प्रवेश को हमले के रूप में पेश किया और सेना की वापसी की मांग की है।
उन्होंने कहा कि इस तार ने मुझे विचलित किया है। अगर कश्मीर का कोई समाधान नहीं निकलता तो स्थिति को क्या ऐसे ही छोड़ दिया जाए और मुसलमान, हिन्दू तथा सिख एक-दूसरे के दुश्मन बने रहें।
   
महात्मा गांधी ने कहा था कि मैं इस बात से सहमत नहीं हूं कि हमारी सरकार का कश्मीर में सेना को भेजना किसी तरह का हमला था। सशस्त्र बलों को कश्मीर के प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला और महाराजा की अपील पर भेजा गया था।


   
उन्होंने दलील दी थी कि यह सही है कि कश्मीर उसी के साथ होना चाहिए जिसका यह है। इस स्थिति में जो लोग भी बाहर से आए हैं चाहे वह अफरीदी हो या कोई अन्य, उन्हें कश्मीर से निकल जाना चाहिए। मैं पुंछ में लोगों के विद्रोह के खिलाफ नहीं हूं लेकिन मैं विद्रोह के जरिए पूरे कश्मीर पर कब्जा करने का विरोध करता हूं।

 
     
उन्होंने कहा था कि मैं यह तब समझ सकता हूं जब बाहर से आए सभी लोग कश्मीर से चले जाएं और कहीं से कोई बाहरी हस्तक्षेप या मदद या शिकायत नहीं हो। लेकिन मेरी समझ में यह नहीं आता कि बाहर से आए लोग कश्मीर में मौजूद हों और अन्य लोगों को बाहर जाने को कहें। कश्मीर किससे जुड़ा हुआ है, अभी मैं यह कह सकता हूं कि यह महाराजा का है क्योंकि महाराजा अभी भी हैं।

बापू ने कहा था कि सरकार की नजर में महाराज अभी भी वैध शासक है। और अगर महाराज दुष्ट शासक है तो मेरी नजर में उन्हें हटाना सरकार का काम है। लेकिन अभी तक ऐसी स्थिति नहीं आई है। कश्मीर के मुसलमान भी इस विषय पर अपना मत रखेंगे तो किसी को कोई शिकायत नहीं होगी।
   
गांधी जी के मुताबिक इस विषय पर उनका रूख स्पष्ट है और वह मुसलमानों के दुश्मन नहीं हो सकते।

जम्मू - कश्मीर समस्या पर सरदार पटेल व नेहरू में मतभेद

राष्ट्र-निर्माता लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल 'लौह पुरुष के नाम से विख्यात सरदार पटेल को भारत के गृह मंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान कश्मीर के संवेदनशील मामले को सुलझाने में कई गंभीर मुश्किलों का सामना करना पड़ा था। उनका मानना था कि कश्मीर मामले को संयुक्त राष्ट्र में नहीं ले जाना चाहिए था। वास्तव में सयुक्त राष्ट्र में ले जाने से पहले ही इस मामले को भारत के हित में सुलझाया जा सकता था। हैदराबाद रियासत के संबंध में सरदार पटेल समझौते के लिए भी तैयार नहीं थे। बाद में लॉर्ड माउंटबेटन के आग्रह पर ही वह 20 नवंबर, 1947 को निजाम द्वारा बाह्म मामले भारत रक्षा एवं संचार मंत्रालय भारत सरकार को सौंपे जाने की बात पर सहमत हुए। हैदराबाद के भारत में विलय के प्रस्ताव को निजाम द्वारा अस्वीकार कर दिए जाने पर अतंत: वहाँ सैनिक अभियान का नेतृत्व करने के लिए सरदार पटेल ने जनरल जे.एन. चौधरी को नियुक्त करते हुए शीघ्रातिशीघ्र कार्यवाई पूरी करने का निर्देश दिया। सैनिक हैदराबाद पहुँच गए और सप्ताह भर में ही हैदराबाद का भारत में विधिवत् विलय कर लिया गया।
यदि सरदार पटेल को कश्मीर समस्या सुलझाने की अनुमति दी जाती, जैसा कि उन्होंने स्वयं भी अनुभव किया था, तो हैदराबाद की तरह यह समस्या भी सोद्देश्यपूर्ण ढंग से सुलझ जाती। एक बार सरदार पटेल ने स्वयं श्री एच.वी.कामत को बताया था कि ''यदि जवाहरलाल नेहरू और गोपालस्वामी आयंगर कश्मीर मुद्दे पर हस्तक्षेप न करते और उसे गृह मंत्रालय से अलग न करते तो मैं हैदराबाद की तरह ही इस मुद्दे को भी आसानी से देश-हित में सुलझा लेता।
हैदराबाद के मामले में भी जवाहरलाल नेहरू सैनिक काररवाई के पक्ष में नही थे। उन्होंने सरदार पटेल को यह परामर्श दिया-''इस प्रकार से मसले को सुलझाने में पूरा खतरा और अनिश्चितता है।'' वे चाहते थे कि हैदराबाद में की जानेवाली सैनिक काररवाई को स्थगित कर दिया जाए। इससे राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय जटिलताएँ उत्पन्न हो सकती हैं। प्रख्यात कांग्रेसी नेता प्रो.एन.जी.रंगा की भी राय थी कि विलंब से की गई काररवाई के लिए नेहरू, मौलाना और माउंटबेटन जिम्मेदार हैं। रंगा लिखते हैं कि हैदराबाद के मामले में सरदार पटेल स्वयं अनुभव करते थे कि उन्होंने यदि जवाहरलाल नेहरू की सलाहें मान ली होतीं तो हैदराबाद मामला उलझ जाता; कमोबेश वैसी ही सलाहें मौलाना आजाद एवं लार्ड माउंटबेटन की भी थीं। सरदार पटेल हैदराबाद के भारत में शीघ्र विलय के पक्ष में थे, लेकिन जवाहरलाल नेहरू इससे सहमत नहीं थे। लॉर्ड माउंटबेटन की कूटनीति भी ऐसी थी कि सरदार पटेल के विचार और प्रयासों को साकार रूप देने में विलंब हो गया।
सरदार पटेल के राजनीतिक विरोधियों ने उन्हें मुसलिम वर्ग के विरोधी के रूप में वर्णित किया; लेकिन वास्तव में सरदार पटेल हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए संघर्षरत रहे। इस धारणा की पुष्टि उनके विचारों एवं कार्यों से होती है। यहाँ तक कि गांधीजी ने भी स्पष्ट किया था कि ''सरदार पटेल को मुसलिम-विरोधी बताना सत्य को झुठलाना है। यह बहुत बड़ी विडंबना है।'' वस्तुत: स्वतंत्रता-प्राप्ति के तत्काल बाद अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय में दिए गए उनके व्याख्यान में हिंदू-मुसलिम प्रश्न पर उनके विचारों की पुष्टि होती है।
इसी प्रकार, निहित स्वार्थ के वशीभूत होकर लोगों ने नेहरू और पटेल के बीच विवाद को बढ़ा-चढ़ाकर प्रचारित किया तथा जान-बूझकर पटेल व नेहरू के बीच परस्पर मान-सम्मान और स्नेह की उपेक्षा थी। इन दोनों दिग्गज नेताओं के बीच एक-दूसरे के प्रति आदर और स्नेह के भाव उन पत्रों से झलकते हैं, जो उन्होंने गांधीजी की हत्या के बाद एक-दूसरे को लिखे थे। निस्संदेह, सरदार पटेल की कांग्रेस संगठन पर मजबूत पकड़ थी और नेहरूजी को वे आसानी से (वोटों से) पराजित कर सकते थे। लेकिन वे गांधीजी की इच्छा का सम्मान रखते हुए दूसरे नंबर पर रहकर संतुष्ट थे। उन्होंने राष्ट्र के कल्याण को सर्वोपरि स्थान दिया।
विदेश नीति के संबंध में सरदार पटेल के विचारों के बारे में लोगों को बहुत कम जानकारी हैं, जो उन्होंने मंत्रिमंडल की बैठकों में स्पष्ट रूप से व्यक्त किए थे तथा पं.नेहरू पर लगातार दबाव डाला कि राष्ट्रीय हित में ब्रिटिश राष्ट्रमंडल का सदस्य बनने से भारत को मदद मिलेगी। जबकि नेहरू पूर्ण स्वराज पर अड़े रहे, जिसका अर्थ था-राष्ट्रमंडल से किसी भी प्रकार का नाता न जोडऩा। किंतु फिर भी, सरदार पटेल के व्यावहारिक एवं दृढ़ विचार के कारण नेहरू राष्ट्रमंडल का सदस्य बनने के लिए प्रेरित हुए। तदनुसार समझौता किया गया, जिसके अंतर्गत भारत गणतंत्रात्मक सरकार अपनाने के बाद राष्ट्रमंडल का सदस्य रहा।
सरदार पटेल चीन के साथ मैत्री तथा 'हिंदी-चीनी भाई-भाई' के विचार से सहमत नहीं थे। इस विचार के कारण गुमराह होकर नेहरूजी यह मानने लगे थे कि यदि भारत तिब्बत मुद्दे पर पीछे हट जाता है तो चीन और भारत के बीच स्थायी मैत्री स्थापित हो जाएगी। विदेश मंत्रालय के तत्कालीन महासचिव श्री गिरिजाशंकर वाजपेयी भी सरदार पटेल के विचारों से सहमत थे। वे संयुक्त राष्ट्र संघ में चीन के दावे का समर्थन करने के पक्ष में भी नहीं थे। उन्होंने चीन की तिब्बत नीति पर एक लंबा नोट लिखकर उसके दुष्परिणामों से नेहरू को आगाह किया था। सरदार पटेल को आशंका थी कि भारत की मार्क्सवादी पार्टी की देश से बाहर साम्यवादियों तक पहुँच होगी, खासतौर से चीन तक। अन्य साम्यवादी देशों से उन्हें हथियार एवं साहित्य आदि की आपूर्ति भी अवश्य होती होगी। वे चाहते थे कि सरकार द्वारा भारत के साम्यवादी दल तथा चीन के बारे में स्पष्ट नीति बनाई जाए।

इसी प्रकार, भारत की आर्थिक नीति के संबंध में सरदार पटेल के स्पष्ट विचार थे। मंत्रिमंडल की बैठकों में उन्होंने नेहरूजी के समक्ष अपने विचार बार-बार रखे; लेकिन किसी-न-किसी कारणवश उनके विचारों पर अमल नहीं किया गया। उदाहरण के लिए उनका विचार था कि समुचित योजना तैयार करके उदारीकरण की नीति अपनाई जानी चाहिए। आज सोवियत संघ पर आधारित नेहरूवादी आर्थिक नीतियों के स्थान पर जोर-शोर से उदारीकरण की नीति ही अपनाई जा रही है।
खेद की बात है कि सरदार पटेल को सही रूप में नहीं समझा गया। उनके ऐसे राजनीतिक विरोधियों के हम शुक्रगुजार हैं, जिन्होंने निरंतर उनके विरुद्ध अभियान चलाया तथा तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश किया, जिससे पटेल को अप्रत्यक्ष रूप से सम्मान मिला। समाजवादी विचारधारा के लोग नेहरू को अपना अग्रणी नेता मानते थे। उन्होंने पटेल की छवि पूँजीवाद के समर्थक के रूप में प्रस्तुत की। लेकिन सौभाग्यवश, सबसे पहले समाजवादियों ने ही यह महसूस किया था कि उन्होंने पटेल के बारे में गलत निर्णय लिया है।
प्रस्तुत पुस्तक में ऐसे महत्त्वपूर्ण तथा संवेदनशील मुद्दों पर विचार करने का प्रयास किया गया है, जो आज भी विवादग्रस्त हैं। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ.राजेन्द्र प्रसाद ने मई 1959 में लिखा था-''सरदार पटेल की नेतृत्व-शक्ति तथा सुदृढ़ प्रशासन के कारण ही आज भारत की चर्चा हो रही है तथा विचार किया जा रहा है।'' आगे राजेन्द्र प्रसाद ने यह जोड़ा-''अभी तक हम इस महान् व्यक्ति की उपेक्षा करते रहे हैं।'' उथल-पुथल की घडिय़ों में भारत में होनेवाली गतिविधियों पर उनकी मजबूत पकड़ थी। यह 'पकड़' उनमें कैसी आई ? यह प्रश्न पटेल की गाथा का एक हिस्सा है।
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के चुनाव के पच्चीस वर्ष बाद चक्रवर्ती राज-गोपालाचारी ने लिखा-''निस्संदेह बेहतर होता, यदि नेहरू को विदेश मंत्री तथा सरदार पटेल को प्रधानमंत्री बनाया जाता। यदि पटेल कुछ दिन और जीवित रहते तो वे प्रधानमंत्री के पद पर अवश्य पहुँचते, जिसके लिए संभवत: वे योग्य पात्र थे। तब भारत में कश्मीर, तिब्बत, चीन और अन्यान्य विवादों की कोई समस्या नहीं रहती।'' लेकिन निराशाजनक स्थिति यह रही कि उनके निधन के बाद सत्ताहीन राजनीतिज्ञों ने उनकी उपेक्षा की और उन्हें वह सम्मान नहीं दिया गया, जो एक राष्ट्र-निर्माता को दिया जाना चाहिए था।
गृहमंत्री, सूचना एवं प्रसारण मंत्री तथा राज्यों संबंधी मामलों के मंत्री होने के नाते सरदार पटेल स्वाभाविक रूप से जम्मू व कश्मीर मामले भी देखते थे। किंतु बाद में जम्मू व कश्मीर संबंधी मामले प्रधानमंत्री स्वयं देखने लगे। जम्मू व कश्मीर के प्रमुख नेता शेख अब्दुल्ला से प्रधानमंत्री पं.नेहरू के भावनात्मक संबंध थे। हैदराबाद के संबंध में निजाम द्वारा भारत सरकार की अति उदार शर्तें मानने से इनकार करने के बाद सरदार पटेल के पास सैन्य काररवाई के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प शेष नहीं बचा था। हैदराबाद राज्य की जनता उत्तरदायी सरकार हेतु हैदराबाद के भारतीय संघ में विलय की माँग कर रही थी। इस राज्य की आंतरिक व बाह्म शक्तियों के भारत के हित के प्रतिकूल विचारों पर सरदार पटेल का पत्र-व्यवहार काफी प्रकाश डालता है।
जम्मू व कश्मीर एक सामरिक महत्त्व का राज्य था, जिसकी सीमाएँ कई देशों से जुड़ी हुई थीं, और सरदार पटेल उत्सुक थे कि उसका भारत में विलय हो जाए। किंतु भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन के चर्चिल व टोरी पार्टी से काफी मित्रतापूर्ण संबंध थे। वे कश्मीर के पाकिस्तान के साथ मिलने के विरुद्ध नहीं थे। उनका यह आश्वासन अत्यंत ही रोचक है कि यदि कश्मीर पाकिस्तान के साथ विलय करना चाहे तो भारत कोई समस्या खड़ी नहीं करेगा। यद्यपि सरदार पटेल इस प्रकार के आश्वासन के विरुद्ध थे, किंतु युक्तियुक्त योजना के कारण वे उस समय कुछ न बोल सके। फिर भी वह कश्मीर का भारत में विलय चाहते थे। उन्होंने महाराजा हरि सिंह से कहा कि उनका हित भारत के साथ मिलने में है और इसी विषय पर उन्होंने जम्मू व कश्मीर के प्रधानमंत्री पं.रामचंद्र काक को 3 जुलाई, 1947 को एक पत्र लिखा-''मैं कश्मीर की विशेष कठिनाइयों को समझता हूँ, किंतु इतिहास एवं पारंपरिक रीति-रिवाजों आदि को ध्यान में रखते हुए मेरे विचार से जम्मू व कश्मीर के भारत में विलय के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प ही नहीं है।''
उन्होंने महाराजा के इस भय को दूर करना चाहा, जिस पर उन्होंने उसी दिन के अपने पत्र में चर्चा की थी-''पं.नेहरू कश्मीर के हैं। उन्हें इस पर गर्व है, वह आपके शत्रु कभी नहीं हो सकते।'' उन्होंने और भी जोर देकर कहा कि राज्य का हितैषी होने के कारण मैं आपको आश्वस्त करता हूँ कि कश्मीर का हित अविलंब भारत में विलय तथा संविधान सभा में भाग लेने से ही है। उनके मस्तिष्क में यह साफ एवं स्पष्ट था कि कश्मीर समस्या अलग प्रकार की है। जम्मू में हिंदू बहुसंख्यक थे; कश्मीर घाटी में भी हिंदू काफी संख्या में थे; परंतु घाटी में अधिक संख्या मुसलमानों की थी तथा लद्दाख में बौद्ध बहुमत में थे। कश्मीर घाटी में मुसलिम बहुसंख्यक थे, किंतु वे वंश एवं भाषा के आधार पर पंजाब तथा शेष पाकिस्तान के मुसलिमों से भिन्न थे।
फिर भी महाराजा हरि सिंह लंबित रेडक्लिप अवार्ड के कारण असमंजस में थे, क्योंकि गुरदासपुर जिला, जिसकी पूरी सीमा कश्मीर राज्य तथा भावी भारतीय संघ से मिलती थी, पाकिस्तान में मिला लिया गया था और यदि इसे स्वीकार कर लिया गया तो इसका मतलब होगा हिमालय की ऊंची पहाडिय़ों के अतिरिक्त जम्मू और कश्मीर तथा भारत की सीमाएँ कहीं भी परस्पर नहीं मिलेंगी।
इस बीच चतुर महाराजा परिस्थितियों से लाभ उठाने के उद्देश्य से यह भी सोच रहे थे कि अपनी रियासत को स्वतंत्र घोषित कर लें। उन्होंने लॉर्ड माउंटबेटन को अपने मंतव्य से परिचित कराना चाहा और उनके 26 सितंबर, 1947 के पत्र में दिए गए सुझाव को मानते हुए कहा कि कश्मीर की सीमाएँ सोवियत रूस व चीन से भी मिलती हैं और भारत तथा पाकिस्तान से भी, अत: उसे स्वतंत्र राज्य माना जाए। संभवत: यह दोनों देशों (भारत-पाकिस्तान) तथा अपने राज्य के हित में रहेगा-यदि उसे स्वतंत्र रहने दिया जाए। इस प्रकार वह अपना काम निकालने की प्रतीक्षा में थे।
यद्यपि जवाहरलाल नेहरू के पूर्वजों ने कई पीढिय़ों पहले ही कश्मीर छोड़ दिया था, फिर भी वे स्वयं को कश्मीरी मानते हुए उस राज्य तथा नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता शेख अब्दुल्ला से भावनात्मक संबंध रखते थे। अखिल भारतीय राज्य प्रज्ञा परिषद् के अध्यक्ष होने के नाते जवाहरलाल नेहरू ने राज्य में एक उत्तरदायी सरकार की माँग का समर्थन किया तथा शेख अब्दुल्ला को बंदी बनानेवाले महाराजा हरि सिंह की भर्त्सना की। उन्होंने जून 1946 में राज्य प्रज्ञा परिषद् के आंदोलन को प्रोत्साहन देने के उद्देश्य से राज्य का दौरा करना चाहा, जिसका महाराजा ने निषेध कर दिया था।
पं.नेहरू ने निषेधाज्ञा का उल्लंघन करना चाहा, किंतु सरदार पटेल और कांग्रेसी कार्यकारिणी समिति के अन्य सदस्य उस समय नियमोल्लंघन के पक्ष में नहीं थे। यहाँ तक कि कांग्रेस अध्यक्ष मौलाना आजाद ने भी नेहरू को ऐसा न करने का परामर्श दिया। सरदार पटेल ने अपने विचार स्पष्ट किए कि उन दोनों (गांधी व नेहरू) में से कोई भी वहाँ न जाए। किंतु पं. नेहरू के वहाँ जाने के उद्देश्य के पूरा न होने से कहीं मानसिक तनाव न बढ़े, इस कारण पटेल ने फिर उनमें से एक को ही जाने की राय दी। उन्होंने बहुत दक्षता से कहा, ''इन दो-दो हानिकर बुराइयों में से एक को चुनने के सवाल पर मैं सोचता हूँ कि गांधीजी के जाने से हानि कम होगी।''
11 जुलाई, 1946 को अपने पत्र में सरदार पटेल ने डी.पी. मिश्रा को लिखा-
उन्होंने (नेहरू) हाल ही में ऐसी बहुत सी बातें कही हैं, जिनसे जटिल उलझनें पैदा हुई हैं। कश्मीर के संदर्भ में उनकी गतिविधियाँ, संविधान सभा में सिख चुनाव में हस्तक्षेप, अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के अधिवेशन के तुरंत बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाना-ये सभी कार्य भावनात्मक पागलपन के थे और इनसे हम सभी को इन मामलों को हल करने में बहुत ही तनावपूर्ण स्थिति का सामना करना पड़ा था। किंतु इन सभी निष्कलंक एवं अविवेकपूर्ण बातों को उनके स्वतंत्रता-प्राप्ति के आवेश का असामान्य उत्साह माना जा सकता है।
महाराजा हरि सिंह के साथ तनावपूर्ण संबंध होने के कारण पं.नेहरू को भारतीय संघ में विलय हेतु महाराजा के साथ बातचीत करने के लिए सरदार पटेल पर निर्भर रहना पड़ता था। इस बात पर वह बिलकुल असहाय से थे। 27 सितंबर, 1947 को पं.नेहरू ने सरदार पटेल को ध्यान दिलाया कि पंजाब के उत्तरी-पश्चिमी सीमाप्रांत के मुसलिम कश्मीर में घुसपैठ की तैयारियाँ कर रहे हैं। उनकी योजना अक्तूबर के अंत या नवंबर के आरंभ में युद्ध छेडऩे की है। वास्तव में तब हवाई मार्ग से किसी प्रकार का सहयोग देना कठिन होगा। उन्होंने यह भी बताया कि उन्हें उस स्थिति में शेख अब्दुल्ला के नेतृत्ववाली नेशनल कॉन्फ्रेंस पर निर्भर रहना पड़ेगा। उन्होंने कश्मीर राज्य के भारत में शीघ्र विलय की आवश्यकता बताई, जिसके बिना शीतकाल शुरू होने से पूर्व भारत के लिए कुछ भी करना दुष्कर होगा। जवाहरलाल नेहरू ने सरदार पटेल को यह भी बताया कि उन्होंने कश्मीर के प्रधानमंत्री मेहर चंद महाजन को भी परिस्थिति से अवगत करा दिया है, किंतु अभी उनके मन की बात का पता नहीं चल सका है। उन्होंने पटेल से कहा कि ''महाराजा व महाजन के लिए आपका परामर्श स्वाभाविक रूप से अधिक प्रभावी रहेगा।''
एक कुशल राजनीतिज्ञ होने के नाते सरदार पटेल ने महाराजा हरि सिंह के साथ अच्छे संबंध बनाए थे और उन्हीं की सलाह से महाराजा ने महाजन को-जो उस समय पंजाब उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश थे-रामचंद्र काक की जगह प्रधानमंत्री नियुक्त किया था।
इस बीच पाकिस्तानी सेना के नेतृत्व में कबायलियों द्वारा बड़ी संख्या में घुसपैठ के कारण कश्मीर की स्थिति ने नाटकीय मोड़ ले लिया था। महाराजा ने राजनीतिक बंदियों-शेख अब्दुल्ला एवं अन्य को-मुक्त कर दिया था। शेख अब्दुल्ला ने अपनी ओर से महाराजा के प्रति पूरी निष्ठा एवं सहयोग का वचन दिया।
पठानकोट के भारतीय संघ में विलय से रेडक्लिफ अवार्ड के अनुसार जम्मू व कश्मीर राज्य का भारत से सीधा संपर्क हो गया। सरदार पटेल महाराजा हरि सिंह व प्रधानमंत्री महाजन को मनाने में सफल रहे कि इन परिस्थितियों में उनके पास भारतीय संघ में विलय के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है।
27 अक्तूबर, 1947 के अपने पत्र में माउंटबेटन ने कश्मीर के महाराजा को लिखा कि बाद में भारत सरकार राज्य में कानून व व्यवस्था स्थापित होने और घुसपैठियों को खदेडऩे के बाद अपनी नीति के अनुसार इस राज्य के भारत में विलय के प्रस्ताव को राज्य की प्रज्ञा की इच्छा कहकर अंतिम रूप देकर इसे भारत में मिला लेगी। 27 अक्तूबर के ही एक अन्य पत्र में माउंटबेटन ने सरदार पटेल को एक ब्रिटिश अधिकारी के विचारों से अवगत कराया कि आंदोलन बहुत ही सुदृढ़ता से आयोजित किया गया है, पूर्व आई.एन.ए.अधिकारी इसमें सम्मिलित हैं और श्रीनगर पर नियंत्रण के लिए (उदाहरणार्थ-उपायुक्त नामित किया गया है) उसी ओर बढ़ रहे हैं और मुसलिम लीग भी इसमें सम्मिलित है। समाचार यह भी मिला था कि पाकिस्तानी हमलावरों ने कुछ क्षेत्र पर अधिकार कर लिया है और आगे बढ़ रहे है। भारत सरकार ने इसपर अपनी सेना को कश्मीर भेजने का निर्णय लिया। फिर भी ब्रिटिश कमांडर-इन-चीफ सर राय बुकर कश्मीर में सेना भेजने के पक्ष में नहीं थे, क्योंकि दो मुहिमों-कश्मीर व रेडक्लिफ-पर भिडऩा कठिन होगा।
एस.गोपाल ने अपनी पुस्तक 'जवाहरलाल नेहरू की आत्मकथा' में सरदार पटेल की भूमिका को कम दरशाते हुए इस बात पर जोर दिया कि कश्मीर में सेना भेजने का निर्णय मंत्रिमंडल का था। यद्यपि यह तथ्यों के विपरीत था। लगभग सारा मंत्रिमंडल अनिर्णय की स्थिति में था और यह सरदार पटेल ही थे, जिन्होंने सेनाध्यक्ष तथा अन्य लोगों की इच्छा के विरुद्ध श्रीनगर में सेना भेजने का निर्णय लिया।
राज्य में सेना भेजने के निर्णय पर बक्शी गुलाम मोहम्मद, जो उस समय शेख अब्दुल्ला के प्रमुख सहायक थे, ने सरदार पटेल की भूमिका पर दिलचस्प प्रकाश डाला। दिल्ली में होनेवाली उस निर्णयात्मक बैठक में बक्शी गुलाम मोहम्मद उपस्थित थे। जब निर्णय लिया गया, उस संबंध में उन्होंने अपने विचारों को अभिलिखित किया है-
लॉर्ड माउंटबेटन ने बैठक की अध्यक्षता की। बैठक में सम्मिलित होनेवालों में थे-पंडितजी (जवाहलाल नेहरू), सरदार वल्लभभाई पटेल, रक्षा मंत्री सरदार बलदेव सिंह, जनरल बुकर, कमांडर-इन-चीफ जनरल रसेल, आर्मी कमांडर तथा मैं। हमारे राज्य में सैन्य स्थिति तथा सहायता को तुरंत पहुँचाने की संभावना पर ही विचार होना था। जनरल बुकर ने जोर देकर कहा कि उनके पास संसाधन इतने थोड़े हैं कि राज्य को सैनिक सहायता देना संभव नहीं। लॉर्ड माउंटबेटन ने निरुत्साहपूर्ण झिझक दरशाई। पंडितजी ने तीव्र उत्सुकता एवं शंका प्रकट की। सरदार पटेल सबकुछ सुन रहे थे, किंतु एक शब्द भी नहीं बोले। वह शांत व गंभीर प्रकृति के थे; उनकी चुप्पी पराजय एवं असहाय स्थिति, जो बैठक में परिलक्षित हो रही थी, के बिलकुल विपरीत थी। सहसा सरदार अपनी सीट पर हिले और तुरंत कठोर एवं दृढ़ स्वर से सबको अपनी ओर आकर्षित किया। उन्होंने अपना विचार व्यक्त किया-''जनरल हर कीमत पर कश्मीर की रक्षा करनी होगी। आगे जो होगा, देखा जाएगा। संसाधन हैं या नहीं, आपको यह तुरंत करना चाहिए। सरकार आपकी हर प्रकार की सहायता करेगी। यह अवश्य होना और होना ही चाहिए। कैसे और किसी भी प्रकार करो, किंतु इसे करो।'' जनरल के चेहरे पर उत्तेजना के भाव दिखाई दिए। मुझमें आशा की कुछ किरण जगी। जनरल की इच्छा आशंका जताने की रही होगी, किंतु सरदार चुपचाप उठे और बोले, ''हवाई जहाज से सामान पहुँचाने की तैयारी सुबह तक कर ली जाएगी।'' इस प्रकार कश्मीर की रक्षा सरदार पटेल के त्वरित निर्णय, दृढ़ इच्छाशक्ति और विषम-से-विषम परिस्थिति में भी निर्णय के कार्यान्वयन की दृढ़ इच्छा का ही परिणाम थी।
सरदार पटेल के राजनीतिक विरोधियों द्वारा उनके बारे में समय-समय पर यह दुष्प्रचारित किया गया कि वे मुसलमान-विरोधी थे। किंतु वास्तविकता इसके विपरीत थी। उन पर यह आरोप लगाना न्यायसंगत नहीं होगा और इतिहास को झुठलाना होगा। सच्चाई यह थी कि हिंदुओं और मुसलमानों को एक साथ लाने के लिए सरदार पटेल ने हरसंभव प्रयास किए। इतिहास साक्षी है कि उन्होंने कई ऊँचे-ऊँचे पदों पर मुस्लमानों की नियुक्ति की थी। वह देश की अंतर्बाह्य सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता देते थे और इस संबंध में किसी तरह का जोखिम लेना उचित नहीं समझते थे। पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान (अब बँगलादेश) से भागकर आए शरणार्थियों के प्रति सरदार पटेल का दृष्टिकोण अत्यंत सहानुभूतिपूर्ण था। उन्होंने शरणार्थियों के पुनर्वास एवं उनकी सुरक्षा हेतु कोई कसर बाकी न रखी और हरसंभव आवश्यक कदम उठाए।
'सरदार पटेल सोसाइटी' के संस्थापक एवं यूनाइटेड नेशनल कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष श्री एस. निजलिंगप्पा ने अपनी जीवनी 'माइ लाइफ ऐंड पॉलिटक्स' (उनकी मृत्यु के कुछ माह पश्चात् प्रकाशित) में लिखा था-
''......आश्चर्य होता है कि पं. नेहरू से लेकर अब तक कांग्रेसी नेताओं को उनकी जीवनियाँ तथा संगृहीत चुनिंदा कार्यों को छपवाकर स्मरण किया जाता है। उनकी प्रतिमाएँ लगाई जाती हैं तथा उनके नामों पर बड़ी-बड़ी इमारतों के नाम रखे जाते हैं। लेकिन सरदार पटेल के नाम की स्मृति में ऐसा कुछ नहीं किया गया। जब हम सरदार पटेल की उपलब्धियों पर विचार करते हैं तो गांधी जी को छोड़कर अन्य कोई नेता उनके समकक्ष नहीं ठहरता। मेरा आशय अन्य नेताओं की समर्पित सेवाओं की प्रतिष्ठा को नीचा दिखाना नहीं है; लेकिन सरदार पटेल की सेवाएँ सर्वोपरि हैं।
''पिछले आठ वर्षों से मैं तत्कालीन प्रधानमंत्री से भी बार-बार अनुरोध करता रहा कि इस सोसायटी को उचित स्तर की इमारत दी जाए। हम वहाँ पर सरदार पटेल के व्यक्तित्व एवं कृतित्व संबंधी विशेषताओं को प्रदर्शित करना चाहते हैं। यह सोसायटी एक पुस्तकालय बनवाना चाहती है तथा बैठकों के आयोजन की व्यवस्था करना चाहती है। लेकिन आज तक इस दिशा में कुछ नहीं किया गया, जबकि प्रत्येक प्रधानमंत्री को इस बारे में असंख्य पत्र लिखे और अनेक बार अपील की गई।''
सरदार पटेल से मतभेद रखनेवाले तथा उनके राजनीतिक विरोधियों ने निहित स्वार्थोंवश उनकी ऐसी छवि बनाई है कि वे मुसलिम-विरोधी थे तथा उनके प्रति भेदभाव बरतते थे। यहाँ यह ध्यातव्य है कि नीतिगत एवं महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर पं. जवाहरलाल नेहरू तथा वल्लभभाई पटेल के बीच मतभेद थे।
राष्ट्रवादी मुसलिम जवाहरलालजी के समर्थक थे तथा कई मुसलिम नेता उनके घनिष्ठ मित्र थे। मौलाना आजाद, रफी अहमद किदवई, शेख अब्दुल्ला, डॉ. सईद मदमूद, आसफ अली तथा अन्य नेता पं. नेहरू के घनिष्ठ मित्रों में थे; जबकि वल्लभभाई पटेल के साथ उनके औपचारिक संबंध ही थे।
दूसरी ओर, वल्लभभाई पटेल अकेले थे तथा उनके बहुत कम मित्र थे। उन्होंने कुछ महत्त्वपूर्ण लोगों के साथ ही संबंध रखे थे। इसमें राजेन्द्र प्रसाद, जी.बी. पंत, पी.डी. टंडन, मोरारजी देसाई, जमनालाल बजाज तथा कुछ गुजराती लोगों के नाम शामिल किए जा सकते हैं। कुछ निचली श्रेणी के नेताओं अथवा विरोधी नेताओं ने, जिनमें कुछ वामपंथी भी शामिल थे। (जैसे- के.डी. मालवीय, अशरफ, अरुणा आसफ अली, मृदुला साराभाई, पद्मजा नायडू), नेहरू के समक्ष मुसलमानों के प्रति पटेल के वैमनस्यपूर्ण रवैए के बारे में मनगढ़ंत कहानियाँ सुनाते रहते थे। इनमें से अधिकांश मुसलिम निस्संदेह मुसलिम लीग की पाकिस्तान बनाने की मांग के समर्थक थे। जब कभी चुनाव हुए, उन्होंने पाकिस्तान के लिए ही मत दिया। यह आम धारणा है कि सरदार पटेल कांग्रेस के तीन दिग्गजों-महात्मा गाँधी, पं. नेहरु और सुभाषचंद्र बोस के खिलाफ थे। किंतु यह मात्र दुष्प्रचार ही है। हाँ, कुछ मामलों में-खासकर सामरिक नीति के मामलों में-उनके बीच कुछ मतभेद जरुर थे, पर मनधेद नहीं होता था।
सरदार पटेल ने पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए दिए जाने के प्रस्ताव पर गाँधीजी का विरोध नहीं किया था; यद्यपि वह समझ गए थे कि ऐसा करने की कीमत चुकानी पड़ेगी। इसी तरह उन्होंने प्रधानमंत्री के रुप में पं. नेहरु के प्रति भी उपयुक्त सम्मान प्रदर्शित किया। उन्होंने ही भारत को ब्रिटिश राष्ट्रमण्डल में शामिल करने के लिए पं. नेहरु को तैयार किया था; यद्यपि नेहरु पूरी तरह इसके पक्ष में नहीं थे। जहाँ सुभाष चंद्र बोस के साथ उनके संबंधों की बात है, वे वरन् सन् 1939 में दूसरी बार सुभाषचंद्र बोस को कांग्रेस का अध्यक्ष चुने जाने के खिलाफ थे। सुभाषचंद्र बोस ने किस प्रकार सरदार पटेल के बड़े भाई वि_लभाई पटेल-जिनका विएना में निधन हो गया था, के अंतिम संस्कार में मदद की थी, उससे दोनों के मध्य आपसी प्रेम और सम्मान की भावना का पता चलता है।
2 सितंबर, 1946 को सरदार पटेल जब अंतिम सरकार में शामिल हुए, तो उस समय उनकी आयु 71 वर्ष थी। हम भली-भाँति जानते हैं कि गांधीजी की इच्छा का सम्मान करते हुए ही सरदार पटेल ने सन् 1946 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद के चुनाव से अपना नाम वापस ले लिया था, जबकि 15 प्रांतों की कांग्रेस समितियों में से 12 ने उनके नाम का अनुमोदन कर दिया था। यदि उन्हें चुनाव लडऩे दिया जाता, तो निस्संदेह वह स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री बनते।
गांधीजी के इस निर्णय पर कई बड़े कांग्रेसी नेताओं ने रोष प्रकट किया था। मध्य प्रांत के तत्कालीन गृहमंत्री डी.पी. मिश्र ने सरदार पटेल को लिखे एक पत्र में शिकायत भी की थी कि उनके (पटेल के) कारण ही कांग्रेसी नेताओं ने चुपचाप सबकुछ स्वीकार कर लिया। वस्तुत: सरदार पटेल और उनके समर्थक नेता पद के भूखे नहीं थे, उनके अपने राजनीतिक आदर्श थे, जिन्हें वे किसी भी स्थिति में छोडऩा नहीं चाहते थे।
डी.पी. मिश्र के पत्र के उत्तर में सरदार पटेल ने लिखा था कि पं. नेहरू चौथी बार कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए चुने गए हैं। उन्होंने आगे लिखा था कि पं. नेहरू अकसर बच्चों जैसी नादानी कर बैठते हैं, जिससे हम सभी के सामने बड़ी-बड़ी मुश्किलें खड़ी हो जाती हैं। इस तरह की कुछ मुश्किलों का जिक्र करते हुए उन्होंने लिखा था, ''कश्मीर में उनके द्वारा किया गया कार्य, संविधान सभा के लिए सिख चुनाव में हस्तक्षेप और अखिल भारतीय कांग्रेस के तुरंत बाद उनके द्वारा आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस-सभी कार्य उनकी भावनात्मक अस्वस्थता को दरशाते हैं, जिससे इन मामलों को जल्दी-से-जल्दी सुलझाने के लिए हमारे ऊपर काफी दबाव आ जाता है।''
जब पं. नेहरू को मंत्रिमंडल का गठन करने और उसके सदस्यों की सूची भेजने के लिए कहा गया तो उन्होंने अपनी प्रथम सूची में सरदार पटेल को कोई स्थान नहीं दिया था। बाद में जब सरदार पटेल को मंत्रिमंडल में सहायक (उप-प्रधानमंत्री) के रूप में शामिल किया गया तो उन्होंने अपने एक कनिष्ठ सहकर्मी को सहयोग देना सहर्ष स्वीकार कर लिया। पं. नेहरू ने स्वयं भी अहसास किया कि उनका प्रधानमंत्री बनना सरदार पटेल की उदारता के कारण ही संभव हो सका।

सरदार पटेल को उप-प्रधानमंत्री बनाकर उन्हें सबसे महत्त्वपूर्ण विभाग-गृह तथा सूचना एवं प्रसारण-सौंपा गया। बाद में 5 जुलाई, 1947 को एक और महत्त्वपूर्ण विभाग-राज्य मंत्रालय भी उन्हें सौंप दिया गया। वस्तुत: सरदार पटेल कांग्रेस के सबसे सशक्त नेता के रूप में स्थापित थे, लेकिन पं. नेहरू को सूचित किए बिना या उनकी स्वीकृति लिये बिना शायद ही उन्होंने कभी कोई बड़ा फैसला लिया हो। अपनी अद्भुत सगंठन क्षमता और सूझ-बूझ के बल पर उन्होंने देश को विभाजन के बाद की मुश्किलों और अव्यवस्थाओं से उबारने में सफलता प्राप्त की।



यह सच है कि पं. नेहरू के साथ उनके कुछ मतभेद थे, लेकिन ये मतभेद स्वाभाविक थे, जो कुछ विशेष मामलों-खासकर आर्थिक, सामुदायिक और समय-समय पर उठनेवाले संगठनात्मक मामलों-को लेकर ही थे। किंतु दुर्भाग्य की बात है कि कुछ स्वार्थ-प्रेरित तत्त्वों ने उनके इन मतभेदों को गलत अर्थ में प्रस्तुत करके जनता को गुमराह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मणिबेन ने इस संदर्भ में पद्मजा नायडू, मृदुला साराभाई और रफी अहमद किदवई के नामों का उल्लेख किया है, जिन्होंने मौके का भरपूर फायदा उठाने का प्रयास किया था। यहाँ तक कहा गया कि सरदार पटेल पद के भूखे हैं और वह उसे किसी भी कीमत पर छोडऩा नहीं चाहेंगे। गांधीजी को जब इसका पता चला तो उन्होंने सरदार पटेल को एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने अत्यंत कड़े शब्दों में उनकी शिकायत की थी-


मुझे तुम्हारे खिलाफ कई शिकायतें सुनने को मिली हैं।....तुम्हारे भाषण भड़काऊ होते हैं...तुमने मुसलिम लीग को नीचा दिखाने की कोई कसर नहीं छोड़ रखी।...लोग तो कह रहे हैं कि तुम (किसी भी स्थिति में) पद पर बने रहना चाहते हो।
गांधीजी के इन शब्दों से सरदार पटेल को गहरा आघात लगा। उन्होंने 7 जनवरी, 1947 को गांधीजी को लिखे अपने पत्र में स्पष्ट रूप में उल्लेख किया कि पं. नेहरू ने उन्हें पद छोडऩे के लिए दबाव डालते हुए धमकी दी थी, जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया, क्योंकि इससे कांग्रेस की गरिमा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता। अपने ऊपर लगाए गए निराधार आरोपों के संदर्भ में सरदार पटेल ने गांधीजी को बताया कि ये अफवाहें मृदुला द्वारा ही फैलाई गई होंगी, जिन्होंने मुझे बदनाम करने को अपना शौक बना लिया है। वह तो यहाँ तक अफवाह फैला रही हैं कि मैं जवाहरलाल से अलग होकर एक नई पार्टी का गठन करने जा रहा हूँ। इस तरह की बातें उन्होंने कई मौकों पर की हैं। पत्र में उन्होंने यह भी लिखा कि कार्यसमिति की बैठक में भिन्न विचार व्यक्त करने में मुझे कोई बुराई दिखाई नहीं देती। आखिरकार हम सभी एक ही दल के सदस्य हैं। वस्तुत: पं. जवाहरलाल नेहरू और मौलाना अबुल कलाम के साथ सरदार पटेल के जो भी मतभेद थे, वे व्यक्तिगत मामलों को लेकर नहीं, बल्कि सिद्धांतों और नीतियों को लेकर थे। जो लोग उनके मतभेदों के बारे में जानते थे, उन्होंने इसका लाभ उठाते हुए दोनों के बीच खाई खोदने की पूरी कोशिश की।

पं. नेहरू के साथ सरदार पटेल के मतभेद उस समय और गहरा गए, जब गोपालस्वामी आयंगर का हस्तक्षेप कश्मीर मामले के साथ-साथ अन्य मंत्रालयों कार्यों में बढऩे लगा। गोपालस्वामी ने पंजाब सरकार को कश्मीर के लिए वाहन चलाने का निर्देश दे दिया, जिसका सरदार पटेल ने यह तर्क देते हुए विरोध किया कि यह मामला राज्य मंत्रालय के कार्य क्षेत्र के अंतर्गत आता है, जो उस समय पाकिस्तान से आए शरणार्थियों के पुनर्वास कार्य में लगे हुए थे, हालाँकि बाद में गोपालस्वामी ने सरदार पटेल के दृष्टिकोण की सराहना की, लेकिन पं. नेहरू किसी भी स्थिति में सरदार पटेल से सहमत नहीं हो पा रहे थे। उन्होंने प्रधानमंत्री की शक्ति का मामला उठाते हुए कड़े शब्दों में सरदार पटेल को लिखा, ''यह सब मेरे ही आग्रह पर किया गया था और मैं उन मामलों से संबंधित अपने अधिकारों को नहीं छोडऩा चाहता, जिनके प्रति मैं स्वयं को उत्तरदायी मानता हूँ।ÓÓ
इसी तरह अजमेर में सांप्रदायिक अशांति के दौरान पहले तो पं. नेहरू ने घोषणा की कि वह स्वयं अजमेर का दौरा करके स्थिति का जायजा लेंगे, लेकिन अपने भतीजे के निधन के कारण वह दौरे पर नहीं जा सके। अत: इसके लिए उन्होंने एक सरकारी अधिकारी एच.आर.वी. आयंगर को नियुक्त कर दिया, जिसने एक पर्यवेक्षक की हैसियत से शहर का दौरा किया। इस दौरान उसने उपद्रव के कारण हुई क्षति का जायजा लिया और दरगाह, महासभा तथा आर्य समाज के प्रतिनिधियों से भेंट की। उसकी गतिविधियों से ऐसा लगा कि उसे अजमेर के मुख्य आयुक्त और उसके अधीनस्थ अधिकारियों के कार्यों की जाँच करने के लिए भेजा गया है। शंकर प्रसाद ने इसकी शिकायत सरदार पटेल (गृहमंत्री) से की, जिसे गंभीरता से लेते हुए सरदार पटेल ने पूरी बात पं. नेहरू के सामने रखते हुए कहा कि यदि वह स्वयं दौरे पर जाने में असमर्थ थे तो वह अपने स्थान पर एक सरकारी अधिकारी को नियुक्त करने की बजाय किसी मंत्री को या स्वयं मुझे नियुक्त कर सकते थे। अपने अधिकारों के संबंध में उठाए गए इस सवाल पर नेहरू ने कड़ा रुख अपनाते हुए विरोध जताया और कहा कि इस तरह तो मैं एक कैदी की तरह हो जाऊँगा, जिसे स्थिति को देखते हुए कोई कार्य करने की स्वतंत्रता न हो। हालाँकि उन्होंने स्वीकार किया कि विभिन्न मामलों पर उनकी सोच और सरदार पटेल की सोच में व्यापक अंतर है।
पं. नेहरू द्वारा गृह और राज्य मंत्रालयों के कार्यों में अनावश्यक हस्तक्षेप किए जाने के मामले पर भी दोनों के बीच में अकसर मतभेद उभर आते थे। पं. नेहरू की शिकायत होती की कि राज्य मंत्रालय से संबंधित कार्यों की प्रगति की जानकारी मंत्रिमंडल को नियमित रूप से नहीं दी जाती, जबकि सरदार पटेल ने इसका खंडन करते हुए कहा था कि वह सभी नीतिगत मामलों से संबंधित सूचना प्रधानमंत्री और उनके मंत्रिमंडल को नियमित रूप से देते रहने का विशेष ध्यान रखते हैं। त्रिलोकी सिंह और रफी अहमद किदवई ने एक छोटा सा अल्पसंख्यक गुट बनाया था, जो बहुसंख्यकों पर अपना प्रभुत्व जमाना चाहता था। सरदार पटेल को यह बात बिलकुल पसंद नहीं आई। उन्होंने सुझाव दिया कि इसका निर्णय करने का सबसे अच्छा तरीका सद्भावपूर्ण समझौता है और यदि यह तरीका सफल नहीं होता तो स्थिति को देखते हुए इसका एकमात्र लोकतांत्रिक रास्ता चुनाव कराकर बहुसंख्यक मतों द्वारा इसका निर्धारण करना हो सकता है। त्रिलोकी सिंह को यह बात पसंद नहीं आई और वह अपने छोटे से गुट के साथ कांग्रेस से अलग हो गए। वस्तुत:, रफी अहमद किदवई स्वयं को उत्तर प्रदेश में गोबिंद वल्लभ पंत के प्रतिद्वंद्वी के रूप में स्थापित करना चाहते थे, क्योंकि वह पं. नेहरू के अधिक निकट थे। बाद में जब उन्हें केंद्र में आने का मौका मिला तो यह निकटता और भी बढ़ गई।

4 जून, 1948 को लिखे एक पत्र में सरदार पटेल ने पं. नेहरू को बताया कि वह उत्तर प्रदेश में चल रही स्थिति से खुश नहीं हैं। पत्र में उन्होंने स्पष्ट शब्दों में लिखा था-''रफी उत्तर प्रदेश की प्रांतीय कांग्रेस समिति के अध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ रहे हैं।...केंद्र में एक मंत्री के रूप में रहते हुए उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। उनका गुट संभवत: यही सोच रहा है कि उनके पास कोई अन्य प्रत्याशी ऐसा नहीं है, जो टंडनजी को चुनाव में हरा सके।''
संभवत:, वैचारिक मतभेदों के चलते ही सरदार पटेल ने 16 जनवरी, 1948 को गांधीजी को पत्र लिखकर उनसे अनुरोध किया था कि उन्हें पद से मुक्त कर दिया जाए, हालाँकि पत्र में उन्होंने कारण का उल्लेख नहीं किया था। इससे पूर्व 6 जनवरी, 1948 को पं. नेहरू ने भी गांधीजी को एक पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने अपने और सरदार पटेल के बीच उत्पन्न मतभेदों को विस्तृत करते हुए लिखा था कि या तो सरदार पटेल को अपना पद छोडऩा होगा, नहीं तो मैं स्वयं त्याग-पत्र दे दूँगा। नेहरू द्वारा उठाए गए मामलों पर संक्षिप्त टिप्पणी करते हुए सरदार पटेल ने गांधीजी को पत्र के माध्यम से पुन: स्पष्ट किया था कि उनके बीच हिंदू-मुसलिम संबंधों और आर्थिक मामलों को लेकर कोई मतभेद नहीं है, जैसा प्रधानमंत्री (पं. नेहरू) ने भी स्वीकार किया है, और आखिरकार दोनों के लिए देश का हित ही सर्वोपरि है। उन्होंने आगे स्पष्ट करते हुए लिखा था कि यदि पं. नेहरू की नीतियों को स्वीकार कर लिया जाए तो देश में प्रधानमंत्री की भूमिका एक तानाशाह की हो जाएगी।

11/24/2010

कश्मीर और पं. नेहरू की पांच अक्षम्य भूलें

वह सर्वविदित है कि पं. नेहरू तथा माउन्टबेटन के परस्पर विशेष सम्बंध थे, जो किसी भी भारतीय कांग्रेसी या मुस्लिम नेता के आपस में न थे। पंडित नेहरू के प्रयासों से ही माउन्टबेटन को स्वतंत्र भारत का पहला गर्वनर जनरल बनाया गया, जबकि जिन्ना ने माउन्टबेटन को पाकिस्तान का पहला गर्वनर जनरल मानने से साफ इन्कार कर दिया, जिसका माउन्टेबटन को जीवन भर अफसोस भी रहा। माउन्टबेटन 24 मार्च, 1947 से 30 जून, 1948 तक भारत में रहे। इन पन्द्रह महीनों में वह न केवल संवैधानिक प्रमुख रहे बल्कि भारत की महत्वपूर्ण नीतियों का निर्णायक भी रहे। पं. नेहरू उन्हें सदैव अपना मित्र, मार्गदर्शक तथा महानतम सलाहकार मानते रहे। वह भी पं. नेहरू को एक "शानदार", "सर्वदा विश्वसनीय" "कल्पनाशील" तथा "सैद्धांतिक समाजवादी" मानते रहे।
कश्मीर के प्रश्न पर भी माउन्टबेटन के विचारों को पं. नेहरू ने अत्यधिक महत्व दिया। पं. नेहरू के शेख अब्दुल्ला के साथ भी गहरे सम्बंध थे। शेख अब्दुल्ला ने 1932 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से एम.एस.सी किया था। फिर वह श्रीनगर के एक हाईस्कूल में अध्यापक नियुक्त हुए, परन्तु अनुशासनहीनता के कारण स्कूल से हटा दिये गये। फिर वह कुछ समय तक ब्रिटिश सरकार से तालमेल बिठाने का प्रयत्न करते रहे। आखिर में उन्होंने 1932 में ही कश्मीर की राजनीति में अपना भाग्य आजमाना चाहा और "मुस्लिम कांफ्रेंस" स्थापित की, जो केवल मुसलमानों के लिए थी। परन्तु 1939 में इसके द्वार अन्य पंथों, मजहबों के मानने वालों के लिए भी खोल दिए गए और इसका नाम "नेशनल कांफ्रेंस" रख दिया तथा इसने पंडित नेहरू के प्रजा मण्डल आन्दोलन से अपने को जोड़ लिया। शेख अब्दुल्ला ने 1940 में नेशनल कांफ्रेंस के सम्मेलन में मुख्य अतिथि के रूप में पंडित नेहरू को बुलाया था। शेख अब्दुल्ला से पं. नेहरू की अंधी दोस्ती और भी गहरी होती गई। शेख अब्दुल्ला समय-समय पर अपनी शब्दावली बदलते रहे और पं. नेहरू को भी धोखा देते रहे। बाद में भी नेहरू परिवार के साथ शेख अब्दुल्ला के परिवार की यही दोस्ती चलती रही। श्रीमती इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और अब राहुल गांधी की दोस्ती क्रमश: शेख अब्दुल्ला, फारुख अब्दुल्ला तथा वर्तमान में उमर अब्दुल्ला से चल रही है।
महाराजा से कटु सम्बंध दुर्भाग्य से कश्मीर के महाराजा हरि सिंह (1925-1947) से न ही शेख अब्दुल्ला के और न ही पंडित नेहरू के सम्बंध अच्छे रह पाए। महाराजा कश्मीर शेख अब्दुल्ला की कुटिल चालों, स्वार्थी और अलगाववादी सोच तथा कश्मीर में हिन्दू-विरोधी रवैये से परिचित थे। वे इससे भी परिचित थे कि "क्विट कश्मीर आन्दोलन" के द्वारा शेख अब्दुल्ला महाराजा को हटाकर, स्वयं शासन संभालने को आतुर है। जबकि पं. नेहरू भारत के अंतरिम प्रधानमंत्री बन गए थे, तब एक घटना ने इस कटुता को और बढ़ा दिया था। शेख अब्दुल्ला ने श्रीनगर की एक कांफ्रेंस में पंडित नेहरू को आने का निमंत्रण दिया था। इस कांफ्रेंस में मुख्य प्रस्ताव था महाराजा कश्मीर को हटाने का। मजबूर होकर महाराजा ने पं. नेहरू से इस कांफ्रेंस में न आने को कहा। पर न मानने पर पं. नेहरू को जम्मू में ही श्रीनगर जाने से पूर्व रोक दिया गया। पं. नेहरू ने इसे अपना अपमान समझा तथा वे इसे जीवन भर न भूले। इस घटना से शेख अब्दुल्ला को दोहरी प्रसन्नता हुई। इससे वह पं. नेहरू को प्रसन्न करने तथा महाराजा को कुपित करने में सफल हुआ।
कश्मीरियत की भावना पं. नेहरू का व्यक्तित्व यद्यपि राष्ट्रीय था परन्तु कश्मीर का प्रश्न आते ही वे भावुक हो जाते थे। इसीलिए जहां उन्होंने भारत में चौतरफा बिखरी 560 रियासतों के विलय का महान दायित्व सरदार पटेल को सौंपा, वहीं केवल कश्मीरी दस्तावेजों को अपने कब्जे में रखा। ऐसे कई उदाहरण हैं जब वे कश्मीर के मामले में केन्द्रीय प्रशासन की भी सलाह सुनने को तैयार न होते थे तत्कालीन विदेश सचिव वाई.डी. गुणडेवीय का कथन था, "आप प्रधानमंत्री से कश्मीर पर बात न करें। कश्मीर का नाम सुनते ही वे अचेत हो जाते हैं।" प्रस्तुत लेख के लेखक का स्वयं का भी एक अनुभव है-1958 में मैं एक प्रतिनिधिमण्डल के साथ पं. नेहरू के निवास तीन मूर्ति गया। वहां स्कूल के बच्चों ने उनके सामने कश्मीर पर पाकिस्तान को चुनौती देते हुए एक गीत प्रस्तुत किया। इसमें "कश्मीर भला तू क्या लेगा?" सुनते ही पं. नेहरू तिलमिला गए तथा गीत को बीच में ही बन्द करने को कहा।
महाराजा की भारत-प्रियता जिन्ना कश्मीर तथा हैदराबाद पर पाकिस्तान का आधिपत्य चाहते थे। उन्होंने अपने सैन्य सचिव को तीन बार महाराजा कश्मीर से मिलने के लिए भेजा। तत्कालीन कश्मीर के प्रधानमंत्री काक ने भी उनसे मिलाने का वायदा किया था। पर महाराजा ने बार-बार बीमारी का बहाना बनाकर बातचीत को टाल दिया। जिन्ना ने गर्मियों की छुट्टी कश्मीर में बिताने की इजाजत चाही थी। परन्तु महाराजा ने विनमर्तापूर्वक इस आग्रह को टालते हुए कहा था कि वह एक पड़ोसी देश के गर्वनर जनरल को ठहराने की औपचारिकता पूरी नहीं कर पाएंगे। दूसरी ओर शेख अब्दुल्ला गद्दी हथियाने तथा इसे एक मुस्लिम प्रदेश (देश) बनाने को आतुर थे। पं. नेहरू भी अपमानित महसूस कर रहे थे। उधर माउंटबेटन भी जून मास में तीन दिन कश्मीर रहे थे। शायद वे कश्मीर का विलय पाकिस्तान में चाहते थे, क्योंकि उन्होंने मेहरचन्द महाजन से कहा था कि "भौगोलिक स्थिति" को देखते हुए कश्मीर के पाकिस्तान का भाग बनना उचित है। इस समस्त प्रसंग में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका श्री गुरुजी (माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर) ने निभाई। वे महाराजा कश्मीर से बातचीत करने 18 अक्तूबर को श्रीनगर पहुंचे। विचार-विमर्श के पश्चात महाराजा कश्मीर अपनी रियासत के भारत में विलय के लिए पूरी तरह पक्ष में हो गए थे।
पं. नेहरू की भयंकर भूलें
जब षड्यंत्रों से बात नहीं बनी तो पाकिस्तान ने बल प्रयोग द्वारा कश्मीर को हथियाने की कोशिश की तथा 22 अक्तूबर, 1947 को सेना के साथ कबाइलियों ने मुजफ्फराबाद की ओर कूच किया। लेकिन कश्मीर के नए प्रधानमंत्री मेहरचन्द्र महाजन के बार-बार सहायता के अनुरोध पर भी भारत सरकार उदासीन रही। भारत सरकार के गुप्तचर विभाग ने भी इस सन्दर्भ में कोई पूर्व जानकारी नहीं दी। कश्मीर के ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह ने बिना वर्दी के 250 जवानों के साथ पाकिस्तान की सेना को रोकने की कोशिश की तथा वे सभी वीरगति को प्राप्त हुए। आखिर 24 अक्तूबर को माउन्टबेटन ने "सुरक्षा कमेटी" की बैठक की। परन्तु बैठक में महाराजा को किसी भी प्रकार की सहायता देने का निर्णय नहीं किया गया। 26 अक्तूबर को पुन: कमेटी की बैठक हुई। अध्यक्ष माउन्टबेटन अब भी महाराजा के हस्ताक्षर सहित विलय प्राप्त न होने तक किसी सहायता के पक्ष में नहीं थे। आखिरकार 26 अक्तूबर को सरदार पटेल ने अपने सचिव वी.पी. मेनन को महाराजा के हस्ताक्षर युक्त विलय दस्तावेज लाने को कहा। सरदार पटेल स्वयं वापसी में वी.पी. मेनन से मिलने हवाई अड्डे पहुंचे। विलय पत्र मिलने के बाद 27 अक्तूबर को हवाई जहाज द्वारा श्रीनगर में भारतीय सेना भेजी गई।
दूसरे, जब भारत की विजय-वाहिनी सेनाएं कबाइलियों को खदेड़ रही थीं। सात नवम्बर को बारहमूला कबाइलियों से खाली करा लिया गया था परन्तु पं. नेहरू ने शेख अब्दुल्ला की सलाह पर तुरन्त युद्ध विराम कर दिया। परिणामस्वरूप कश्मीर का एक तिहाई भाग जिसमें मुजफ्फराबाद, पुंछ, मीरपुर, गिलागित आदि क्षेत्र आते हैं, पाकिस्तान के पास रह गए, जो आज भी "आजाद कश्मीर" के नाम से पुकारे जाते हैं।
तीसरे, माउन्टबेटन की सलाह पर पं. नेहरू एक जनवरी, 1948 को कश्मीर का मामला संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् में ले गए। सम्भवत: इसके द्वारा वे विश्व के सामने अपनी ईमानदारी छवि का प्रदर्शन करना चाहते थे तथा विश्वव्यापी प्रतिष्ठा प्राप्त करना चाहते थे। पर यह प्रश्न विश्व पंचायत में युद्ध का मुद्दा बन गया।
चौथी भयंकर भूल पं. नेहरू ने तब की जबकि देश के अनेक नेताओं के विरोध के बाद भी, शेख अब्दुल्ला की सलाह पर भारतीय संविधान में धारा 370 जुड़ गई। न्यायाधीश डी.डी. बसु ने इस धारा को असंवैधानिक तथा राजनीति से प्रेरित बतलाया। डा. भीमराव अम्बेडकर ने इसका विरोध किया तथा स्वयं इस धारा को जोड़ने से मना कर दिया। इस पर प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने रियासत राज्यमंत्री गोपाल स्वामी आयंगर द्वारा 17 अक्तूबर, 1949 को यह प्रस्ताव रखवाया। इसमें कश्मीर के लिए अलग संविधान को स्वीकृति दी गई जिसमें भारत का कोई भी कानून यहां की विधानसभा द्वारा पारित होने तक लागू नहीं होगा। दूसरे शब्दों में दो संविधान, दो प्रधान तथा दो निशान को मान्यता दी गई। कश्मीर जाने के लिए परमिट की अनिवार्यता की गई। शेख अब्दुल्ला कश्मीर के प्रधानमंत्री बने। वस्तुत: इस धारा के जोड़ने से बढ़कर दूसरी कोई भयंकर गलती हो नहीं सकती थी।
पांचवीं भयंकर भूल शेख अब्दुल्ला को कश्मीर का "प्रधानमंत्री" बनाकर की। उसी काल में देश के महान राजनेता डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने दो विधान,, दो प्रधान, दो निशान के विरुद्ध देशव्यापी आन्दोलन किया। वे परमिट व्यवस्था को तोड़कर श्रीनगर गए जहां जेल में उनकी हत्या कर दी गई। पं. नेहरू को अपनी गलती का अहसास हुआ, पर बहुत देर से। शेख अब्दुल्ला को कारागार में डाल दिया गया लेकिन पं. नेहरू ने अपनी मृत्यु से पूर्व अप्रैल, 1964 में उन्हें पुन: रिहा कर दिया। पं. नेहरू की इन पांच ऐतिहासिक भूलों का मूल्य तो भारत की वर्तमान पीढ़ी को चुकाना पड़ ही रहा है, अब नेहरू परिवार द्वारा की जा रही भयंकर भूलों का मूल्य भावी पीढ़ी चुकाएगी।

ब्रिटिश सरकार ने भारत की सत्ता कांग्रेस को क्यों सौंपी?

यह भारतीय इतिहास का एक विवादित प्रश्न, एक अनबूझ पहेली तथा विचारणीय विषय है- कि अंग्रेजों ने 15 अगस्त, 1947 को भारतीय राजनीतिक सत्ता का हस्तांतरण कांग्रेस को ही क्यों किया? यह सर्वविदित कि 1946 के चुनाव में केवल 11 प्रतिशत लोगों को ही मतदान का अधिकार था तथा उससे चुनकर आए सदस्य अपने-अपने क्षेत्रों से कुल मतों की तुलना में बहुत कम मतों से जीते थे। उस समय वयस्क मताधिकार न था, जबकि पाकिस्तान का निर्माण मुस्लिम जनमत संग्रह से हुआ था जिसमें 96.5 प्रतिशत मुसलमानों ने पाकिस्तान के निर्माण को सहमति दी थी तथा वहां मुस्लिम लीग की सरकार स्थापित हुई थी। इसके विपरीत भारत के कुछ दलों द्वारा बहुसंख्यक समुदाय के जनमत संग्रह की मांग बार-बार की गई, परन्तु ब्रिटिश सरकार ने इसे स्वीकार नहीं किया। प्रश्न यह भी है कि क्या ब्रिटिश सरकार के पास हिन्दुस्थान के लिए कोई विकल्प न था या अंग्रेज सरकार किसी अन्य विकल्प को चाहती ही नहीं थी? क्या वह पूर्ण हस्तांतरण चाहती थी या सीमित सीमा तक सत्ता सौंपना चाहती थी।
यदि हम द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात भारत के राजनीतिक परिदृश्य का विचार करें तो स्थिति स्पष्ट हो सकती है। ब्रिटिश सरकार की नीति तथा कांग्रेस के विभिन्न कार्यक्रमों में भारत का बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय सर्वथा उपेक्षित रहा। कांग्रेस ने हिन्दू समाज को विविध मतों तथा सम्प्रदायों के रूप में देखा। उसने हिन्दुओं की सम्पूर्णता, एकत्व तथा समग्रता का कभी विचार नहीं किया।
हिन्दुओं की अनदेखी
ब्रिटिश सरकार ने भी प्रारंभ से ही भारतीय समाज को मुख्यतरू मुस्लिम तथा गैरमुस्लिम के रूप में देखा। ब्रिटिश चुनाव प्रक्रिया में चुनाव क्षेत्रों अथवा मतदाताओं को मुस्लिम, सिख तथा सामान्य की श्रेणी में बांटा। कहीं भी हिन्दू के रूप में उसके प्रतिनिधित्व के लिए विशिष्ट शब्दावली का प्रयोग नहीं किया। अत: व्यावहारिक रूप से राजनीति में हिन्दू के स्वरूप को पूर्णतरू अप्रासंगिक करने में जहां कांग्रेस ने सहयोग दिया वहीं ब्रिटिश सरकार ने जान बूझकर कूटनीति ढंग से अलग किया। अर्थात 85 प्रतिशत हिन्दुओं का अपना प्रतिनिधित्व कहीं न था। न ही उनका कोई संगठित प्रयास था। हिन्दुओं के नाम पर केवल हिन्दू महासभा थी, जिसके प्रयास तथा क्षेत्र एक हद तक सीमित थे। हिन्दू महासभा का जन्म 1915 में हुआ था। पं. मदनमोहन मालवीय, लाल लाजपतराय, वीर सावरकर, डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने इसे सुदृढ़ वैचारिक आधार प्रदान किया। उनके चिंतन में संस्कृति, हिन्दुत्व व भारतीयता की भावना थी। 1933 में इसके अध्यक्ष भाई परमानन्द ने ब्रिटिश सरकार का विरोध करते हुए हिन्दुओं को भारत का मुख्य समुदाय मानने को कहा था। डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 1946 में अर्थात स्वतंत्रता से पूर्व साम्प्रदायिकता के आधार पर राज्यों का गठन, हिन्दुओं तथा मुसलमानों में बराबरी तथा पाकिस्तान निर्माण का विरोध किया था। उन्होंने लार्ड बेवल की योजना को भी अस्वीकार किया। प्रसिद्ध विद्वान प्रोफेसर कूपलैण्ड ने लिखा कि इसी कारण बेवल ने शिमला कांफ्रेंस में हिन्दू महासभा को नहीं बुलाया था। हिन्दू महासभा के बिलासपुर अधिवेशन में वीर सावरकर ने अखण्ड भारत के साथ एक व्यक्ति एक वोट तथा समान नागरिकता की बात कही थी। 16 जून, 1946 को हिन्दू महासभा ने अपने प्रस्ताव में एक मजबूत केन्द्रीय शासन तथा जनसंख्या के आधार पर अन्तरिम सरकार की स्थापना की बात कही थी।
यह उल्लेखनीय है कि जब माउन्टबेटन मई, 1947 में एक-एक करके भारतीय नेताओं से बातचीत कर भारत के विभाजन का वातावरण बना रहे थे तब हिन्दू महासभा के महासचिव वी.जी. देशपांडे ने 21 मई, 1947 को विभाजन की योजना को विनाशकारी बतलाया था तथा कांग्रेस के नेताओं से अनुरोध किया था कि वे भारत का भविष्य बिना भारत के बहुसंख्यक समाज का जनमत संग्रह कराए, स्वीकार न करें। हिन्दू महासभा के अध्यक्ष एल.बी. भोपटकर ने 3 जून, 1947 के प्रस्ताव, जिसे कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग ने स्वीकृति दी थी, को राष्ट्र के साथ विश्वासघात कहा था। उन्होंने समूचे देश में 3 जून को काला दिवस मनाने का आह्वान किया था। डा. गोकुल चन्द नारंग ने इस बात की कटु आलोचना की थी कि जो कांग्रेस 1946 के चुनावों में भारत की एकता की बढ़-चढक़र बातें करती थी, अब वह कहां है? दयाल सिंह बेदी ने कहा कि यह विचित्र संयोग है कि मोतीलाल नेहरू ने बम्बई को सिन्ध से अलग किया, अब उनका पुत्र सिन्ध को शेष भारत से अलग कर रहा है। इसी भांति 15 अगस्त को शोक दिवस मनाने को कहा। वीर सावरकर ने पुन: आलोचना करते हुए कहा था कि कांग्रेस कहती है कि हमने विभाजन स्वीकार कर देश को रक्तपात से बचाया, सही यह है कि जब तक पाकिस्तान रहेगा, पुन: रक्तपात का खतरा बना रहेगा। संक्षेप में हिन्दू महासभा स्वतंत्रता से पूर्व अखण्ड भारत, पाकिस्तान निर्माण का विरोध तथा विभाजन से पूर्व हिन्दुओं के जनमत संग्रह की मांग कर रही थी।
हिन्दू महासभा की भांति भारत के समाजवादी नेता 1946 में किसी भी प्रकार के विभाजन को अस्वीकार कर रहे थे। इनमें प्रमुख रूप से जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन, डा. राम मनोहर लोहिया तथा अरुणा आसफ अली थे। उन्होंने राष्ट्रवाद का आधार किसी भी प्रकार के तत्वों से, जो विदेशी प्रभुत्व के बीच आते होंप्ते, से पूर्ण मुक्ति, भारत की राजनीतिक तथा आर्थिक एकता, सभी नागरिकों के लिए एक समान संहिता को आवश्यक बताया था। उन्होंने पूर्ण स्वतंत्रता का अर्थ प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश प्रभुत्व की समाप्ति पर बल दिया, जिसमें भारतीय संविधान के निर्माण से पूर्व ब्रिटिश सेना की वापसी, ब्रिटिश पूंजीवादी हितों की समाप्ति को भी आवश्यक बताया था। साथ ही राष्ट्रीय एकता तथा प्रजातंत्र के लिए किसी भी प्रकार के समझौते को अस्वीकार किया था। उल्लेखनीय है कि समाजवादी दल ने कैबिनेट मिशन योजना के अन्तर्गत चुने गये सदस्यों को अस्वीकार करके संविधान सभा के लिए सीधे चुनाव की मांग की थी, इसके लिए उन्होंने वयस्क मताधिकार के आधार की भी मांग की थी। 3 जून, 1947 के भारत विभाजन के प्रस्ताव को अस्वीकृत किया था।
कम्युनिस्टों की मानसिकता
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की भारत विभाजन के सन्दर्भ में कोई सक्रिय भूमिका का प्रश्न ही नहीं था। यद्यपि 1942 के आन्दोलन में कम्युनिस्टों ने अंग्रेजों का पूरी तरह साथ दिया था परन्तु न उसके पीछे भारतीय जन समर्थन था और न ही अंग्रेजों का विश्वास। उन्होंने भारत को दो नहीं बल्कि 17 पृथक पूर्ण राज्यों में बांटने की योजना रखी, जो मानी जाती तो महाविनाशकारी होती।
सिख समुदाय ने भी 9 व 10 जून, 1946 को भारत के भविष्य का गहन चिन्तन किया था जिसमें सिख विचार के अनेक प्रमुख व्यक्ति सम्मिलित हुए थे। मास्टर तारा सिंह ने इसमें आह्वान किया था कि या तो ब्रिटिश राज्य को समाप्त करो अन्यथा स्वयं खत्म हो जाओ। उन्होंने सिख एकता पर बल दिया था। उन्होंने भी कैबिनेट मिशन योजना की कटु आलोचना की थी तथा 3 जून 1947 के विभाजन की आलोचना की थी। प्रसिद्ध क्रांतिकारी सरदार अजीत सिंह ने विभाजन की स्वीकृति को महान भूल कहा। बाबा खडग़ सिंह ने भी इसका तीव्र विरोध किया था। महाराजा फरीदकोट ने इसे अपवित्र बतलाया।
कुल मिलाकर भारत के राजनीतिक परिवेश में ब्रिटिश सरकार द्वारा कांग्रेस को सत्ता हस्तांतरण करने के चार प्रमुख कारण थे। प्रथम, कांग्रेस के अलावा भारत के सभी प्रमुख दल भारत विभाजन का प्रत्यक्ष रूप से विरोध कर रहे थे तथा उन्हें विभाजन अस्वीकार था। दूसरे, कांग्रेस सही अर्थों में ष्ब्रिाटिश कामनवैल्थष् के अधीन, डोमिनियन स्टेटस से ही सन्तुष्ट थी, जबकि शेष दल अंग्रेजों के प्रभाव से पूर्णतरू मुक्त शासन चाहते थे। तीसरे, कांग्रेस को छोडक़र सभी दल भारतीय संविधान सभा के निर्माण के लिए देशव्यापी चुनाव के पक्ष में थे। हिन्दू महासभा हिन्दुओं का जनमत संग्रह कराना चाहती थी तथा समाजवादी दल वयस्क मताधिकार के आधार पर निर्णय। चौथे, भारत में हिन्दू शक्ति का प्रभाव बढ़ रहा था, जो न कांग्रेस के लिए हितकारी था और न ब्रिटिश सरकार के। अत: ब्रिटिश सरकार ने अपने वर्तमान तथा भविष्य का ध्यान रखते हुए भारत शासन की सत्ता कांग्रेस को ही सौंपी।

गांधी जी का कांग्रेस नेताओं से टकराव

केम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अनिल सील ने 1968 ई. में भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के सन्दर्भ में निष्कर्ष देते हुए, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा संचालित आन्दोलन को एक वैचारिक शून्य तथा जानवरों की लड़ाई बताया है। निश्चय ही उसका यह कथन तर्कहीन तथा अतिशयोक्तिपूर्ण है। परन्तु यह भी कटु सत्य है कि कांग्रेस का इतिहास इसके नेताओं में परस्पर ईष्या, द्वेष तथा टकराव से भरपूर रहा है तथा इसका बार-बार विभाजन होता रहा है। यह स्वतंत्रता से पूर्व 1907, 1923 तथा 1930 में सूरत की फूट, स्वराज्यवादी तथा गांधीवादी, दक्षिणपंथी कांग्रेस तथा वामपंथी (कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी) कांग्रेस के रूप में प्रसिद्ध है। स्वतंत्रता के पश्चात भी कभी कांग्रेस संगठन तथा कांग्रेस इन्दिरा तथा कभी असली कांग्रेस तथा राष्ट्रवादी कांग्रेस में बंटी रही। अलगाव का प्रमुख कारण व्यक्तिगत ईष्या तथा राजनीतिक महत्वकांक्षा ही रहा। यह भी सर्वमान्य है कि ए.ओ. ह्रूम की प्रेरणा तथा भारत के वायसराय लार्ड डफरिन के आशार्वाद से स्थापित कांग्रेस का प्रारम्भ में उद्देश्य अंग्रेजी राज्य की सुरक्षा तथा अंग्रेजी साम्रााज्य के अर्न्तगत भारतीयों को कुछ सुविधाएं प्राप्त करना मात्र था। इसकी कार्यवाही वर्ष में केवल तीन दिनों तक होती थी। अतः इसे वार्षिक मेला, एक तमाशा, तीन दिन की पिकनिक, एक मंच आदि के नामों से पुकारा गया। एक विद्वान ने कांग्रेस को एक गैरवफादार लेकिन कम खतरनाक तथा इसकी कार्यवाही को बेहूदा बतलाया। 1901 ई. में गांधी जी ने प्रथम बार कलकत्ता अधिवेशन में भाग लिया था तथा इसके अध्यक्ष फिरोजशाह मेहता के साथ एक ही रेलगाड़ी में (पर अलग-अलग डिब्बों में) बम्बई से कलकत्ता गए थे। वे मेहता के राजसी ठाट-बाट तथा उनके सैलून को देखकर दंग थे तथा अधिवेशन में अनुशासनहीनता तथा बेहद गंदगी से परेशान। इतना ही नहीं, 1912 में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने पहली बार बांकीपुर (पटना) में कांग्रेस अधिवेशन में भाग लिया तो उन्हें भी मोर्निंग कोट व सुन्दर प्रेस किए हुए ट्राउजर पहने प्रतिनिधियों को देखकर लगा कि अधिवेशन मानो कोई सामाजिक एकत्रीकरण हो, जिनमें कोई राजनीतिक उत्साह या तनाव नहीं है।
1915 में गांधी जी का भारत में वापस आगमन हुआ। आते ही उनका गुजराती सभा द्वारा बम्बई में स्वागत हुआ। पहली ही सभा में उनका मोहम्मद अली जिन्ना से टकराव हो गया। गांधी जी गुजराती में बोले जबकि जिन्ना, जो अध्यक्षता कर रहे थे, अग्रेजी में। गांधी जी ने अंग्रेजी में बोलने पर उनको फटकार लगाई। सम्भवतः तभी से दोनों में अलगाव का बीजारोपण हो गया था।
भारत आते ही गांधी जी भारतीय राजनीति में आना चाहते थे, परन्तु उनके राजनीतिक गुरू श्री गोपाल कृष्ण गोखले ने उन्हें आगामी दो वर्षों तक देश को समझने, घूमने तथा राजनीति को समझने के लिए कहा। साथ ही उन्होंने गांधी जी की आखें खुली रखने तथा मुंह को बन्द रखने को कहा। इस दो-तीन वर्ष के काल को गांधी जी भारतीय राजनीति में अपना प्रोबेशन पीरियड कहते थे।
गांधी जी का प्रथम मिलन तथा टकराव पं. मोतीलाल नेहरू से हुआ। 1919 ई. का वर्ष भारतीय राजनीति में चहल-पहल का वर्ष था। इस वर्ष गांधी जी ने इतिहास की सर्वाधिक चमत्कारी राजनीतिक विजय प्राप्त की। गांधी द्वारा जीता गया सबसे पहला और निर्णायक क्षेत्र-इलाहाबाद का आनन्द भवन था। वस्तुतः नेहरू परिवार को अभी तक राजनीति से कोई लगाव न था। इतिहासकार बी.आर. नन्दा के अनुसार राजनीति उनके लिए सप्ताहांत में खाने की मेज पर रोज की जिंदगी से एक बदलाव के रूप में थी। दोनों एक-दूसरे से प्रभावित हुए।
मोतीलाल आयु में गांधी जी से आठ साल बड़े थे। इलाहाबाद के एक सम्पन्न तथा प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। गांधी जी उनके पुत्र जवाहरलाल नेहरू को राजनीति में लेना चाहते थे। मोतीलाल नेहरू गांधी जी के ष्रोलेट एक्टष् सम्बंधी विरोध तथा सत्याग्रह से प्रभावित थे। परन्तु मोतीलाल नेहरू का गांधी जी से पहला आग्रह था कि वे उनके पुत्र जवाहरलाल नेहरू को सत्याग्रह में भाग लेने से रोकें तथा समझाएं। गांधी जी मान गए तथा मोतीलाल का पुत्र भी। दोनों की मित्रता गहरी होती गई। जलियांवाला बाग काण्ड के पश्चात कांग्रेस ने एक जांच समिति बनाई तथा इसमें मोतीलाल को मुख्यतः जिम्मेदारी दी गई। पुरस्कार स्वरूप मोतीलाल को 1922 में अमृतसर कांग्रेस 1919 ई. का अध्यक्ष बना दिया गया। मोतीलाल ने अपने अध्यक्षीय भाषण में गांधी जी को इस समय का सर्वाधिक आदरणीय भारतीय भारतीय कहा, परन्तु शीघ्र ही दोनों में टकराव हो गया। मोतीलाल को अहिंसा तथा असहयोग आंदोलन का स्वरूप नहीं जंचा। पर जब गांधी जी ने फरवरी, 1922 ई. में चौरा-चौरा की अचानक घटना से आन्दोलन स्थगित कर दिया तो वे आग बबूला हो गए। गांधी ने इसे शून्य की अवस्था में पहुंचाने वाली दवा की खुराक कहा। टकराव इतना बढ़ा कि गया अधिवेशन की समाप्ति के अगले दिन मोतीलाल व सी.आर.दास ने स्वराज्य पार्टी जनवरी, 1923 ई. में बनाई और असहयोग के विपरीत काउंसिंलों में प्रवेश तथा सहकारी कार्य में अड़ेंगे की नीति अपनाई। गांधी जी को इस अडग़ेबाजी में हिंसा की जबरदस्त गन्ध आई। कांग्रेस की सदस्यता के प्रश्न पर भी टकराव हुआ। अभी तक प्रचलित चार आने (वर्तमान 25 पैसे) देकर कांग्रेस की सदस्यता के स्थान पर 2000 गज सूत कातने की शर्त लगा दी गई। अत: 1924 के अन्त तक परस्पर टकराव चरम सीमा तक पहुंच गया। गांधी जी के मित्र सी.एफ. एन्डलज ने लिखा कि मई-जून 1924 ई. में दोनों के मस्तिष्क में एक-दूसरे के प्रति इतनी भिन्नता थी कि यह लगता था कि वे अब कभी साथ न रहेंगे। दोनों की अलग-अलग बयानबाजी चल रही थी। आखिर गांधी जी ने समझौते द्वारा बीच का मार्ग अपनाया तथा उन्हें काउंसिल प्रवेश की स्वीकृति मिल गई तथा सदस्यता के लिए अब सूत दान को मान्यता मिली। इसके बाद सामान्यतः दोनों के सम्बंध अच्छे रहे।
जवाहर लाल नेहरू के वामपंथ के प्रति झुकाव से मोतीलाल व गांधी जी-दोनों परेशान थे। मोतीलाल के आग्रह पर गांधी जी-ने उसे कुछ बनाने की सोची। गांधी जी को लगता था कि यदि उसे कांग्रेस में सक्रिय न किया गया तो वह लाल हो जाएगा या बिगड़ जाएगा। अतरू 1929 में कांग्रेस अध्यक्ष के पद के लिए निम्नतम वोट मिलने पर भी गांधी जी ने उसे अध्यक्ष बनाया। इसी भांति उन्हें कई बार बिना चुनाव आगे भी अध्यक्ष बनाया गया। परन्तु गांधी जी तथा पंडित जवाहरलाल नेहरू में भी शीघ्र कटुता बढ़ी। क्रोधित स्वभाव के कारण पं. नेहरू फरवरी, 1922 में असहयोग आंदोलन स्थगित किए जाने पर क्रोधित होने की भांति, सविनय अवज्ञा आन्दोलन के रोकने पर अत्यधिक नाराज हो गए। पं. नेहरू ने स्वयं लिखा, कोई बापू के साथ कैसे कार्य सकता है, अगर वह इस ढंग से काम करते है जिसमें व्यक्तियों को आपत्ति में छोड़ दिया जाए। संविधान सभा के निर्माण में तथा उसके तात्विक विवेचन में गांधी जी का हिन्द स्वराज्य, रामराज्य या ग्रामीण आधारित योजना काल्पनिक बन गई थी। गांधी जी चाहते थे कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का उद्देश्य पूरा हो गया है। इसे समाप्त कर दिया जाए, परन्तु उनका राष्ट्र चिंतन सत्ता की दौड़ में पिछड़ गया था।
इसी भांति विपिन चन्द्र पाल ने तो गांधी जी के असहयोग आन्दोलन से ही नहीं बल्कि कांग्रेस से ही सम्बंध अलग कर लिया। असहयोग आन्दोलन में उन्हें न कोई चमत्कार लगता और न ही कोई तर्क। अंग्रेजों की निगाह में खतरनाक बागी लाजपतराय से भी गांधी जी के सम्बंध प्रायः कटु रहे। यद्यपि गांधी जी से उनकी पहली भेंट 24 फरवरी, 1920 को हुई थी। उन्होंने गांधी जी के असहयोग आन्दोलन का समर्थन किया था परन्तु वह आंदोलन में एक साथ सभी प्रकार के बहिष्कार के पक्ष में न थे और न ही इस क्षेत्र में बिना व्यवस्था के सरकारी स्कूलों तथा कालेजों को छोडऩे के। बाद में उन्होंने असहयोग आंदोलन को महानतम गलती कहा था। उनका विचार कि गांधी जी की असहयोग आन्दोलन में मुस्लिम समर्थन पर निर्भरता तथा एक वर्ष में स्वराज्य का कथन गलत था। 1926 में उन्होंने मदन मोहन मालवीय से मिलकर एक इंडिपेंडेंट नेशनल पार्टी गठित की, तथा केन्द्रीय असेम्बली के लिए दो स्थानों से खड़े हुए तथा जीते।
अतः संक्षेप में गांधी जी जैसा चमत्कारिक व्यक्तित्व तथा प्रभावी नेतृत्व भी तत्कालीन कांग्रेस के प्रमुख नेताओं में सामूहिकता का बोध, समरसता तथा सहयोग की भावना स्थापित न कर सका। सम्भवतः नेहरू परिवार तथा उग्र कांग्रेसी नेता कांग्रेस के बदलते हुए लक्ष्य, ब्रिटिश सरकार के प्रति नीति तथा मार्ग को स्पष्ट दिशा न दे सके। साथ ही नेताओं का अहम् तथा महत्वाकांक्षा भी राजनीतिक पथ को अवरुद्ध करती रही।

व्रत-महोत्सव-मेलों ने किया था राष्ट्रीय चेतना का जागरण

पर्वों, उत्सवों तथा मेलों की राष्ट्रीय जागरण में भी अहम भूमिका रही है। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के आह्वान पर महाराष्ट्र में 1893 ई. में गणपति महोत्सव को व्यापक रूप दिया गया था। पुणे, नासिक तथा अन्य नगरों में जब गणपति बप्पा मोरया, पुढच्या वर्षी लवकरया (अर्थात् हे गणेश बाबा, आप जल्दी ही अगले वर्ष फिर से आइये!) के उद्घोष कर जब गणेशजी की मूर्तियों की शोभायात्रा निकाली जाती तो युवा शक्ति में राष्ट्रीय भावनाओं का संचार होने लगता था।
लंदन के टाइम्स पत्र में तब प्रकाशित सर वेलन्टाइन चिरोल नामक गई संवाददाता की रपट में आशंका व्यक्त की गई थी कि तिलक जी ने धार्मिक समारोह की आड़ में अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध विद्रोह की अग्नि भडक़ाने के लिए यह नया अभियान शुरू किया है।
सन् 1896 में रायगढ़ दुर्ग में शिवाजी महोत्सव के नाम से विख्यात हिन्दू संगम मेले का आयोजन किया गया। अंग्रेजों ने शिवाजी महोत्सव को राष्ट्रद्रोह बताकर उसका विरोध शुरू किया। कुछ भारतीयों ने भी इस आयोजन से हिन्दू-मुस्लिम के बीच विद्वेष पैदा होने की शंका व्यक्त की। पं. मदनमोहन मालवीय तथा सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने रायगढ़ के ऐतिहासिक दुर्ग को भव्य रूप दिये जाने की मांग की। दुर्ग में लगे चार दिनों के इस भव्य व विशाल मेले में भाग लेकर लाखों लोगों में राष्ट्रीय चेतना का संचार हुआ।
22 जून 1897 को पुणे में रानी विक्टोरिया के राजतिलक समारोह से लौटते समय चाफेकर बन्धुओं ने रैण्ड तथा लेफ्टिनेंट आयर्स्ट की हत्या कर दी। इन हत्याओं का दोष तिलक जी पर लगाकर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। रपट में लिखा गया कि गणेशोत्सव व शिवाजी महोत्सव की आड़ में युवकों में हिंसा की भावना पनपाई गई थी।
तब 17 वर्षीय विनायक दामोदर सावरकर ने चाफेकर और रानडे जैसे क्रांतिकारियों के बलिदान से प्रेरित होकर 1 जनवरी सन् 1900 को नासिक में मित्र मेला नामक संस्था की स्थापना की थी। राष्ट्रभक्त समूह के अनेक तेजस्वी युवक इस समारोह में शामिल हुए थे। मित्र मेला के मंच से सावरकर जी ने घोषणा की कि स्वदेश की सर्वांगीण उन्नति के लिए हम प्राणोत्सर्ग करने में भी नहीं हिचकिचाएंगे। मित्र मेला के तत्वावधान में ही नासिक में मेले के रूप में शिवाजी उत्सव का आयोजन कर आह्वान किया गया-
परतंत्र मातृभूमि को शिवाजी के दिखाए रास्ते से स्वतंत्र कराने के लिए हम सबको संघर्षरत रहना होगा। सावरकर जी के इस आह्वान से नासिक के अंग्रेज अधिकारी एक बार तो कांप उठे थे। मित्र मेला के तत्वावधान में विशाल मेले के रूप में गणेश महोत्सव मनाया गया।
इंग्लैंड की रानी विक्टोरिया की 1902 में मृत्यु हुई तो अंग्रेजों और उनके चाटुकारों की तरफ से पूरे हिन्दुस्थान में शोक सभाओं का आयोजन किया गया। साथियों ने सावरकर जी को सुझाव दिया कि मृत्यु के बाद शत्रुता का भाव त्यागकर मित्र मेला की ओर से भी एक शोकसभा की जानी चाहिए। सावरकर जी ने निर्भीकता से कहा, वह अंग्रेजों की अर्थात हमारे शत्रु की रानी थीं। हमारे राष्ट्र को लूटने वाले डकैतों की सरदार (मुखिया) थीं। इसके लिए हम शोक प्रकट कर राजनिष्ठा का ढोंग क्यों करें। सावरकर द्वारा स्थापित मित्र मेला की गतिविधियों ने ब्रिटिश शासन को एकबार तो हिला डाला था।
रक्षा बंधन महोत्सव का चमत्कार महाराष्ट्र के बाद बंगाल में भी व्रत-महोत्सवों व गंगा मेलों का राष्ट्रीय जागरण के लिए उपयोग किया गया। बंगाल में सन् 1906 में काली माता की प्रेरणा से दुर्गा महोत्सव शुरू किया गया। युगांतर पत्र ने लिखा- काली के उपासको, तुम्हारे धर्म, संस्कृति तथा राष्ट्र का अस्तित्व खतरे में है। अहिंसा एवं शांति की मृग मरीचिका में न फंसकर इस बार अरिमुंडों से माता का अभिषेक करने का संकल्प लो। इस लेख के छपते ही कोहराम मच गया था। कोलकाता में व्रती समिति तथा वंदेमारतम् सम्प्रदाय का गठन कर राष्ट्रीय भाव जगाया गया।
बंगाल में हिन्दू मेला की स्थापना की गई। श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर के आह्वान पर 26 अक्तूबर 1905 को बंग-भंग के विरोध में रक्षाबंधन महोत्सव मनाया गया। राष्ट्रभक्तों की टोलियां गंगातट पर लगने वाले विशाल मेले में पहुंचीं तथा मेले को वंदेमातरम् के उद्घोषों से गुंजा दिया। गंगा स्नान के बाद केसरिया धागों की राखियां बांधकर विदेशी-विधर्मी अंग्रेजों की सत्ता को उखाड़ फेंकने के संकल्प के महोत्सव ने पूरे बंगाल में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का वातावरण बनाने में सफलता पाई। जगह-जगह विदेशी वस्त्रों की होली जली। बंगाल में कई स्थानों पर तो चर्मकार बंधुओं ने अंग्रेजी जूतों की मरम्मत करने से इनकार कर दिया, रसोइयों ने मांस न पकाने का संकल्प लिया, धोबियों ने विदेशी वस्त्र-धोने से इनकार कर दिया। इस प्रकार व्रत-महोत्सवों व मेलों का राष्ट्रीय जागरण में अनूठा योगदान रहा है।

11/22/2010

इतिहास भी खामोश है जिनके बारें में : गाडोलिया लुहार

राजस्थान की वीरप्रसूता भूमि का कण-कण शूरवीरों, योद्धाओं, भक्तों, त्यागियों और दानियों की अनगिन गाथाओं से भरा हुआ है। इतिहास बताता है कि राजस्थान की धरती और यहां के निवासियों ने अपनी स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए सर्वाधिक विदेशी आक्रांताओं से लोहा लिया। मुगलों के शासनकाल में मेवाड़ रियासत का दिल्ली के बादशाह अकबर से किया गया युद्ध भारत के इतिहास का एक स्वर्णिम पृष्ठ तो है ही साथ ही भारतवासी स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए किस प्रकार से आत्मोत्सर्ग कर सकते है उसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है।
 इतिहास के पन्ने उलटने से पता चलता है कि जब पूरे राजपूताने के अधिकांश राजाओं- महाराजाओं ने अधीनता स्वीकार कर ली थी तो उस समय मात्र राणा प्रताप ही ऐसे थे जिन्होने विदेशी और विधर्मी सत्ता के आगे समर्पण करने या मुगल राजा के साथ रोटी-बेटी का नाता करने तथा किसी भी प्रकार का सम्बंध रखने से इंकार करते हुए अपने देश की आजादी, सार्वभौमिकता, एकता व अखण्डता को अक्षुण्ण रखने का संकल्प लिया था।
 जिस समय चित्तौड. पर मुगल आक्रांताओं द्वारा आक्रमण किया गया, बड.े पैमाने पर पूजा स्थल ध्वस्त किए गए, बाल- वृद्ध, नारी सभी का बड.ी बेरहमी से कत्ल किया गया तो एक प्रकार से पूरा चित्तौड. सूना सा हो गया। चारों ओर जहां देखों मरघट सा सन्नाटा दिखाई देता था, स्थान - स्थान पर पड.े लाशों के ढ़ेर मुसलमानों की क्रूरता की कहानी बयान कर रहे थे उस समय चित्तौड़ की बची-खुची जनता जान बचाने के लिए जंगलों की ओर भाग गई। भूतपूर्व अंग्रेज सेन्सश सुपरिटेडेन्ट विटस ने अपनी पुस्तक राजपमताना में से दस साल में लिखा है कि जंगलों में छिपे लोगो को जब चित्तौड़ में हुए व्यापक और लोमहर्षक नरसंहार का पता चला तो उनका खून खौल उठा। उन्होने चित्तौड़ आकर देखा कि चारों ओर आग की लपटे उठ रही है। इन लोगो का जोश जागा और अपनी मातृभूमि के लिए कुछ करने की ललक उनमें उठी। ये लोग कोई राजनैतिक इच्दा वाले लोग नहीं थे और न ही कोई साधन सम्पन्न जमींदार। किंतु मेवाड़ के लिए कुछ करना है ऐसा प्रण लेकर वो ऐसा चले कि आज तक अपना कोई स्थायी ठिकाना नहीं बना पाये। जी हां हम बात कर रहे है महाराणा प्रताप के उन विश्वस्त सहयोगियों और भारत माता के सपूतो की जिनको सारा देश आज गाडोलिया लुहार के नाम से जानता है।
 अंग्रेज सेन्सश सुपरिटेडेन्ट विटस के अनुसार, ये लोग मूलतः चित्तौड़ के निकट लुहारूगढ़ के निवासी थे और इनके पूर्वज भी चित्तौड़ राजघरानों के लिए हथियार बनाने का कार्य करते थे। जब महाराणा प्रताप को चित्तौड़ छोड़कर अन्यंत्र जाना पड़ा तो उन्होने उस समय प्रतिज्ञा की थी कि जब तक मैं चित्तौड़ को विधर्मियों से आजाद नहीं करा लूंगा तक तक भूमि पर शयान करूगां, घास-फूस की रोटी खाकर भी जीवन निर्वाह करूंगा। इतिहास बताता है कि महाराणा के साथियों जिनमें बड़ी संख्या में ये गोडोलिया लुहार शामिल थे ने भी ऐसा ही संकल्प लिया था कि जब तक उनकी मातृभूमि पर उनका अधिकार नहीं होगा तब तक वे घुमक्कड़ रूप् में ही जीवन यापन करेगे अर्थात एक स्थान पर स्थायी ठिकाना बनाकर नहीं रहेगे। उस समय की परिस्थितियों के अनुसार यह एक अनुकूल निर्णय था किंतु तब से लेकर आज तक ये गोडोलिया लुहार दर-दर की ठोकरे खाते दिखाई देते है। एक सामान्य सी बनी लकड़ी की बैलगाड़ी, चन्द टूटे-फूटे बरतन और सीमित संसाधनों के बल पर ये लोग आज भी पूरे देश में घूमते देखे जा सकते है।
 यद्यपि भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने इनकी सौंगंध पूरी करवाने के लिए प्रतीक रूप में चित्तौड़ विजय करवा कर इनकी भीष्म प्रतिज्ञा पूरी करवाई। आज विभिन्न सरकारों द्वारा इनके पुनर्वास के लिए कई प्रकार की योजनाये संचालित हो रही है किंतु निरक्षरता और पिछड़ेपन के कारण इनको उन सरकारी योजनाओं का कोई भी लाभ नहीं मिल पा रहा है।
सारी बाते अपने स्थान पर है किंतु भारत के इतिहास में इन वीर योद्धाओं की आज भी कही उल्लेख नहीं है।

11/21/2010

बारदौली का किसान संघर्ष

30जून,1927 को ब्रितानिया हुकूमत की गुलामी में जकडी़ भारतमाता के कर्मयोगी सपूतों-अन्नदाता किसानों पर बम्बई प्रदेश की सरकार ने बारदौली जनपद,सूरत ताल्लुक का लगान 20-25 प्रतिशत तक बढ़ा दिया था।यह वही समय था जब ब्रिटेन की तीनों प्रमुख पार्टियों:कंजरवेटिव,लिबरल और लेबर के प्रतिनिधि साइमन कमीशन के नाम से भारत में तत्कालीन शासन व्यवस्था के काम करने के तरीके का पता लगाने,शिक्षा की दशा,प्रातिनिधिक संस्थाओं के विकास की स्थिति आदि का पता करने घूम रही थी।इस कमीशन का पूरे भारत में जोरदार तरीके से विरोध किया गया था।
लगान में वृद्धि के विरोध में बारदौली के किसानों ने अपना संगठित स्वरूप खड़ा किया।बढ़े हुए लगान का प्रतिरोध करने के लिए आन्दोलन स्वयं किसानों ने खडा किया।किसानों को जागृत किया,एकत्र किया,बड़ी विशाल किसान सभा का तत्काल आयोजन हुआ।किसानों का एक प्रतिनिधि-मण्डल लगान में अनुचित वृद्धि को वापस लेने की मांग को लेकर सरकार के राजस्व अधिकारी से मिला,ज्ञापन दिया।होना क्या था?किसानों को दर्द देने वाले हाथ दवा देने से रहे।किसान अपनी ताकत बढ़ाने में जुट गये।16सितम्बर,1927 को दूसरी किसान सभा का आयोजन किया गया।बम्बई की लेजिस्लेटिव कौसिंल बढ़े हुए लगान को वापस लेने व वसूली रोकने का प्रस्ताव भेज चुकी थी परन्तु सरकार सहमत न हुई।इस दूसरी सभा में तमाम कंाग्रेसी नेता और कौंसिल के सदस्य शामिल हुए थे।निर्णय ले लिया गया-बढ़ा हुआ लगान नहीं देंगे।
सरकार खामोश रही,किसान सुलगते रहे।4फरवरी,1928 को किसानों ने फिर सभा करके अपना निर्णय लगान नही देंगे को दोहराया तथा वल्लभ भाई पटेल को अपना नेतृत्व करने के लिए आमंत्रित किया।निमंत्रण मिलते ही पटेल महात्मा गाँधी से मिले।महात्मा गाँधी से इजाजत लेकर,उनसे गहन विचार-विमर्श करने के पश्चात् पटेल ने बारदौली के किसानों का आन्दोलन अपने हाथों में लिया। गाँधी का ब्रह्मास्त्र सत्याग्रह लेकर उनके विश्वस्त पटेल ने किसानों की फौज के सेनापति का दायित्व उठाया।
12फरवरी,1928 को किसानों का सम्मेलन हुआ।फैसला हुआ-जब तक सरकार लगान की दरें संशोधित करने के लिए वचनबद्ध नहीं होगी,तब तक किसान सरकार को लगान नहीं देंगे।बारदौली के गाँव में एक-एक पुराने कांग्रेसी को जिम्मेदारी देकर किसानों को आंदोलन की रूपरेखा बताने में लगा दिया पटेल ने।लगानबंदी के साथ-साथ असहयोग भी प्रारम्भ हो गया।सरकारी महकमें के लोगों से बोलना,बैलगाड़ी देना,सामान बेचना सब बन्द कर दिया किसानों ने।क्या यह सब शान्तिपूर्वक हो रहा था?सरकार दमन पर उतर आई।मवेशियों की कुड़की प्रारम्भ हुई,किसानों ने शान्ति बनाये रखी।फिर सामूहिक कुड़की का दौर चला।पुलिस और उनके पठान किसानों के घरों में घुसते,मारते-पीटते और घर की चीजों और जानवरों को लेते जाते।इन कार्यों के विरोध में केन्द्रीय विधानसभा के अध्यक्ष विठ्ठल भाई पटेल ने वाइसराय को पत्र लिखकर अपने पद से इस्तीफा देने की धमकी दी।
किसानों पर हो रहे इस दमन चक्र की आग पूरे देश में फैल रही थी।हर तरफ से लगान कम करने की मांग उठने लगी।बारदौली के किसानों के समर्थन में देश में चारों तरफ सभाओं का आयोजन हुआ।बम्बई और संयुक्त प्रान्त में भी किसानों ने लगानबंदी का अनुसरण करने का ऐलान किया।आन्दोलन को व्यापकता देने के लिए गाँधी जी ने पूरे देश में एक साथ बारदौली दिवस मनाने की अपील की।तारीख तय हुई-12जून,1928।बारदौली दिवस पर आयोजित एक सभा में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष डा० अंसारी ने कहाः-बारदौली के लोग जमाने से चली आई दासता से हमारे गुलाम मुल्क की मुक्ति के पलटन के हरावल हैं।
किसानों की जनशक्ति को देख,अन्नदाता के विराट संगठित रूप को देख,भारतीयों की भीष्म प्रतिज्ञा को देखकर बंबई के गवर्नर ने पटेल को धमकी भी दी।पर गांधी के सैनिक और किसानों सेनापति पटेल ने लौह पुरूष की दृढ़ता दिखाई।वह टस से मस न हुआ।फलतःबारदौली के किसानों की विजय हुई,पुराना लगान लागू हो गया।गुलामी की जंजीर की एक कड़ी लौह पुरूष पटेल के नेतृत्व में अन्नदाता किसान के विराट रूप ने तोड़ दी।सरकार ने वायदा किया कि सभी गिरफतार लोगों को छोड़ दिया जायेगा तथा कुड़की की सारी सम्पत्ति वापस होगी।इस वायदे के आधार पर जुलाई 1928 को आंदोलन समाप्त कर दिया गया।11-12अगस्त,1928 को सारे गुजरात में बारदौली विजय का उत्सव मनाया गया। यहाँ पर ही किसान शक्ति ने पटेल को सरदार की उपाधि से विभूषित किया था।हर तरफ महात्मा गाँधी की जय और सरदार पटेल की जय गुंजायमान हो रही थी।लेकिन अफसोस बाद में बारदौली के किसानों से किया गया वायदा निभाया न गया।किसानों को जेल से रिहा न किया गया।जब्त सम्पत्तियां भी वापस न की।वाइसराय ने अपने वायदों की कोई कीमत न रखी।गाँधी जी ने वायसराय को इस वायदाखिलाफी के विषय में कई पत्र लिखे,परन्तु कोई असर न हुआ।बहरहाल,एक सत्य यह भी है कि यही बारदौली का सत्याग्रह है जिसने कांग्रेस , गाँधी जी और उनके अनुयायियों की जनप्रियता सारे देश में बहुत बढ़ाई परन्तु किसानों के साथ हुई वायदाखिलाफी पर ये लोग कुछ न कर सकें।बारदौली सत्याग्रह ने गाँधी जी के लिए राजनीति में पुनःप्रवेश और कांग्रेस की बागडोर फिर से अपने हाथ में लेने का मार्ग प्रशस्त किया।
आज आजादी के 63 वर्षों बाद भी किसानों का शोषण-उत्पीड़न बन्द नहीं हुआ है।विभिन्न सरकारी योजनाओं के लिए मनमाने तरीके से किसानों की उर्वरा भूमि का अधिग्रहण जन विरोधी कृत्य है। अपने अथक परिश्रम से जिस भूमि पर अपना खून पसीना बहा कर,तपती दोपहरी में,भयानक सर्द मौसम में और भीषण बरसात में सपरिवार दिलो-जान लगा कर,अपना,अपने परिवार एवं समाज के उदर पोषण हेतु अन्न उपजाता है,वही भूमि,विकास के नाम पर अधिग्रहीत कर के,कंक्रीट के जंगलों में बदल दी जा रही है।सम्पूर्ण देश में भूमि अधिग्रहण के मामलों ने किसानों से उनका हक छीन लिया है।विभिन्न सरकारी आवासीय योजनाओं के लिए कृषि योग्य भूमि का अधिग्रहण तो बदस्तूर जारी ही है,प्रापर्टी डीलरों ने भी किसानों की जमीनों की खरीद-फरोख्त कर के मोटा पैसा कमाने के साथ ही साथ भारत की कृषि आधारित व्यवस्था को बरबाद करने में और किसानों को बर्बादी,शराब खोरी तथा बेरोजगारी की तरफ ढकेलने जैसा कार्य किया है। भूमाफियाओं के काले कारनामें अखबारों की सुर्खियां बनते रहते हैं।विभिन्न अदालतों में भी भूमि सम्बन्धित मामले लम्बित पड़े हैं।धार्मिक स्थल,कब्रिस्तान की जमीनें भी जमीन के इन दलालों ने नहीं छोड़ी हैं।रही-सही कसर किसानों की बेशकीमती उर्वरा भूमि पर शासन-प्रशासन की दृष्टि ने पूरी कर दी है।ग्राम समाज,बंजर,नजूल आदि जमीनों के रहते हुए कृषि योग्य उर्वरा भूमि का अधिग्रहण,ब्रितानिया जुल्मों सितम् की याद दिलाता है।किसानों का कोई पुरसा हाल नहीं है,आम जन मॅंहगाई के बोझ तले कराह रहा है।भारत के वर्तमान कृषि मंत्री सत्ता मद में चूर हो कर,बार-बार कालाबाजारियों को शह देने वाले गैरजिम्मेदाराना वक्तव्य देकर हिन्दुस्तान की रियाया का मजाक उड़ा रहें हैं।किसानों के हितों,आम जनता के हितों के बजाए कृषि मंत्री मिल मालिकों व जमाखोरों को प्रोत्साहन देने का जन विरोधी कार्य करने में मशगूल हैं।आज किसान बेबस होकर,अपनी शक्ति से आन्दोलन की राह पर खड़ा है।भूमि अधिग्रहण,चकबन्दी,नहर कटान,बाढ़ की विभिषिका,नकली खाद,बीजों की कमी,कृषि लागत में वृद्धि,शैक्षिक स्थिति,स्वास्थ्य-परक समस्याओं से जूझ रहा किसान आज ठगा जा रहा है।दुर्भाग्य वश किसानों का नेतृत्व भी किसानों की शक्ति के बल पर,इनको संगठित करके,अपनी राजनैतिक हैसियत,आर्थिक मजबूती बनाने में लगा रहता है।अधिकारों की बहाली व प्राप्ति के संघर्ष के स्थान पर समझौतों की परिपाटी डाल रखी है,किसानों के इन रहनुमाओं ने।किसान वर्षों से अपनी समस्याओं से जूझ रहा है और राजनीति व नौकरशाही के गठजोड़ में किसानों का शोषण अनवरत् जारी है।
कृषि आधरित भारत की संरचना,महात्मा गाँधी के ग्राम्य स्वराज्य की अवधारणा,आज हमारे हुक्मरानों की अनियंत्रित और जनविरोधी विकास की भेंट चढ़ रहीं हैं।आज किसानों के द्वारा ‘‘सरदार’’ की उपाधि से विभूषित वल्लभ भाई पटेल को अपना आदर्श मानने वालों को किसानों के हित की लड़ाई में अपना सर्वस्व दांव पर लगा देना चाहिए। सरदार वल्लभ भाई पटेल को सच्ची श्रद्धाजंली होगी-किसानों की कृषि योग्य भूमि के अधिग्रहण का बन्द होना।युग दृष्टा सरदार भगत सिंह ने कहा था,-‘‘वास्तविक क्रांतिकारी सेनायें तो गाँव और कारखानों में हैं।
आज भी अन्नदाता किसान बेहाल है,किसान हित का दावा करने वाले सभी लोगों को एकजुट होकर बुनियादी जरूरतों के लिए लड़ना चाहिए यही सच्ची श्रद्धाजंलि होगी सरदार वल्लभ भाई पटेल को।
(साभार जनोक्ति)

चित्तौडग़ढ़ में हुआ था विश्व का सबसे पहला कत्ले-आम - PART -2

घमासान युद्ध आरंभ हो चुका था। दो रात और एक दिन तो युद्ध के कारण दोनों पक्षों के सैनिक खाना-सोना तक भूल गए थे। किले के नागरिकों से राजपूतों को भरपूर सहायता मिल रही थी। वे अपने घरों से ज्वलनशील सामग्री ला लाकर मोर्चों पर पहुँचा रहे थे। शस्त्रों का अनवरत निर्माण कर रहे थे। प्राचीरों पर पत्थरों का ढेर लगा था, यदा कदा स्वयं भी शाही सेना पर पथराव के द्वारा प्रत्यक्ष युद्ध में भाग ले रहे । राजपूताने के इतिहास में यह प्रथम अवसर था जब युद्ध विधा से अपरिचत नागरिकों, स्त्रियों और बालकों तक ने मातृभूमि की रक्षा के लिये युद्ध में भाग लिया था। चारों ओर रण मद छाया था। अपनी कमज़ोर स्थिति के बावज़ूद उनका उत्साह भंग नहीं हो रहा था। नागरिकों का मनोबल देख सैनिकों व सरदारों का हौसला भी दुगुना हुआ जाता था। यह देख रनिवासों की राजपूतानियाँ भी घूँघट उलट युद्ध में आ कूदीं। उनका मनोबल देख कर किसी भी सरदार को उन्हें रोकने का साहस नहीं हुआ। जयमल्ल द्वारा उन्हें महलों में रह कर ही युद्ध का परिणाम देखने की बात सुनते ही पत्ता चूंडावत की माँ सज्जन बाई सोनगरी बिफर उठी। सिंहनी की गर्जना के साथ उन्होंने पूछाग् क्या यह हमारी मातृभूमि नहीं है? क्या इसकी रक्षा की जिम्मेदारी हमारी नहीं है? क्या इससे पूर्व इसी किले में जवाहर बाई के नेतृत्व में राजपूत स्त्रियों ने युद्ध नहीं लडा.? यदि यह सच है तो हमें युद्ध में भाग लेने से कैसे रोका जा सकता है? इसके बाद किसीने उन्हें रोकने का साहस नहीं किया। युद्ध में अकबर चकिया  नामक हाथी पर सवार हो कर न केवल सभी मोर्चों को सँभालता था, अपितु सैनिकों के साथ खड़ा हो बंदूकें भी चलाने लगता था। लाखोटा दरवाजे के पास मोर्चे के निरीक्षण के समय किले से आई गोली उसके कान के पास से निकल गई। अकबर ने फुर्ती से दीवार की आड़ ले अपनी जान बचाई। फिर उसने बन्दूक लेकर तरकश की तरफ गोली चलाईग, जिससे किले के बन्दूकचियों का सरदार इस्माईल खाँ मारा गया. कालपी से लाए एक हजार बक्सरिया मुसलमानों की सेना इस्माईल खाँ के नेतृत्व में राजपूतों की ओर से लड़ रही थी। इस सेना के कुशल बन्दूकचियों ने शाही सेना के सैंकड़ों सैनिकों को मारा था। घमासान युद्ध के दौरान अकबर को एक तीरकश से हजारमेखी सिलह पहने एक सरदार दिखाई दिया। उसे महत्वपूर्ण सरदार जान अकबर ने अपनी संग्राम नामक बंदूक से गोली चला दी। गोली जयमल्ल के घुटने में लगी। पैर टूट जाने पर उसने सभी सरदारों को एकत्र कर मंत्रणा की। किले की दीवारें कई जगह से टूट-फूट जाने के अतिरिक्त भारी संख्या में सैनिक मारे जा चुके थे। उधर कड़ी घेराबंदी के कारण किले में खाद्य सामग्री का भी अभाव हो चला था। ऐसे में रनिवासों में शेष रही राजपूत स्त्रियों, कन्याओं और बालकों को जौहर की प्रचण्ड ज्वालाओं में भस्म करने के बाद, शेष राजपूतों को केसरिया बाना धारण कर शत्रुओं पर टूट पडऩे का अंतिम निर्णय ले लिया गया। 25 फरवरी 1568 को अर्धरात्रि में हज़ारों राजपूत वीरांगनाओं ने भीमलत कुण्ड में स्नान कर सौभाग्य चिन्ह धारण किये। हर हर महा देव के अनवरत जयघोषों और ढोल-नगाड़ों की ध्वनियों के बीच समिधेश्वर महादेव के दर्शन कर वे जौहर स्थल पर एकत्रित हो गईं। इनका नेतृत्व जयमल्ल राठौड़ और पत्ता चूण्डावत की पत्नियाँ कर रही थीं। समिधेश्वर महादेव  और भीमलत के बीच विशाल मैदान में लकडिय़ों का विशाल ढेर एकत्रित था। ब्रह्म मुहूर्त में वेद मंत्र ध्वनियों के साथ अग्नि प्रज्वलित की गई । केसरिया वस्त्र पहने राजपूत रक्तिम नेत्रों से अपनी पत्नियों, बालक पुत्रों तथा पुत्रियों को अन्तिम विदा दे रहे थे। विकराल अग्नि शिखाएं आकाश स्पर्श की स्पर्धा में लपलपाने लगीं। मातृभूमि को अन्तिम प्रणाम कर पत्ता की बड़ी रानी जीवाबाई सोलंकी ने पति की ओर देखा, आँखों से ही पति को अन्तिम प्रणाम कर, हर हर महादेव के गगनभेदी जयघोषों के बीच वह अग्निकुण्ड में कूद गई। इसके साथ ही पत्ता की अन्य रानियाँ मदालसा बाई कछवाही, भगवती बाई चहुवान, पद्मावती झाली, रतन बाई राठौड, बालेसा बाई चहुवान, आसाबाई बागड़ेची अपने दो पुत्रों तथा पाँच पुत्रियों के साथ लपलपाती ज्वाला में समा गई। कुछ वर्ष पूर्व गुजरात के बादशाह बहादुर शाह के चित्तौड़ आक्रमण में अपने पति को न्यौछावर करने वाली पत्ता की माँ सज्जन बाई सोनगरी ने पुत्र को केसरिया तिलक लगा कर जौहर किया। विजयी मुगलों से अपना सतीत्व और बच्चों को मुसलमान बनाने से बचाने के लिये हज़ारों राजपूत वीरांगनाओं ने पत्ता, साहिब खान, ईसरदास की हवेलियों के पास धधक रही चिताओं में अग्निस्नान कर दूसरे लोक में प्रस्थान किया। अंधकार में धधकती ज्वालाएं मीलों दूर तक दिखाई दे रही थी। आशंकित अकबर को आम्बेर के राजा भगवान दास ने बताया कि अपने स्त्री-बच्चों को अग्नि की भेंट कर महाकाल बने राजपूतों का अन्तिम ओर प्रचण्ड आक्रमण होने वाला है। केसरिया बाना  धारण करने के बाद राजपूत स्वयं महाकाल बन जाता है। सुन कर अकबर ने समय नष्ट नहीं किया और फौरन सेना की व्यूह रचना सुदृढ़ कर, राजपूती आक्रमण की प्रतीक्षा करने लगा।
भोर की प्रथम किरण के साथ किले के द्वार खुल गए। हर हर महादेव के जयघोषों के साथ रण बांकुरे राजपूत मुगल सेना पर टूट पड़े। अकबर की गोली से घुटना टूट जाने के कारण जयमल्ल को घोड़े पर बैठने में असमर्थ देख उसके भाई कल्ला राठौड़ ने अपने कन्धें पर बिठा लिया। दोनों भाई तलवार चलाते हुए शाही सेना में घुस गए। महाकाल बने दोनों भाई दो घड़ी घण्टे तक युद्ध करने के बाद हनुमान पोल और  भैरव पोल के बीच मारे गए। उधर डोडिया सांडा भी गम्भीरी नदी के पश्चिम में घमासान युद्ध करते हुए मारा गया। राजपूतों के प्रचण्ड आक्रमण का सामना करने के लिये अकबर ने पचास प्रशिक्षित हाथियों की सूंडों में दुधारे खांडे पकड़ा कर आगे बढ़ाया। इनके पीछे तीन सौ हाथियों की एक और रक्षा पंक्ति सूंडों में दुधारे खांडे पकड़ आगे बढ़ी। इनमें मधुकर, जांगिया, सबदलिया, कदीरा आदि कई विख्यात और कई युद्धों में आजमाये गजराज भी शामिल थे। अकबर स्वयं मधुकर पर सवार होकर युद्ध संचालन कर रहा था। इनके मुकाबले राजपूत सरदार घोड़ों पर शेष सब पैदल थे। लेकिन शौर्य साधनों का मोहताज नहीं होता। एक राजपूत ने उछल कर वार किया तो अजमत खां के हाथी की सूंड कट कर दूर जा गिरी। घबराया हाथी अपनी ही सेना को कुचलता हुआ भागा। भागते हाथी से गिर कर अजमत खां ने भी दम तोड़ दिया। इसी प्रकार सबदलिया हाथी ने भी सूंड कट जाने पर अपनी ही सेना के पचासों सैनिकों को कुचल डाला। राजपूतों के कड़े प्रतिरोध के बाद भी शाही सेना हाथियों और बंदूकों के बल पर धीरे-धीरे किले में प्रवेश करती जा रही थी। यह देख राजपूतों की ओर से लड़ रहे बक्सरिया मुसलमानों की बन्दूक सेना ने भाग निकलने में ही कुशल समझी। वे अपनी स्त्रियों और बच्चों को कैदियों की तरह घेर कर शाही सेना के बीच से निकले। उन्हें अपना सैनिक समझ शाही सेना ने रोक-टोक नहीं की। सूरजपोल पर रावत साईं दास बहादुरी के साथ लड़ते हुए मारा गया। उसकी मदद को पहुँचे राजराणा जैता सज्जावत और राजराणा सुल्तान आसावत भी वहीं काम आ गए। समिधेश्वर महादेव मन्दिर के पास और रामपोल पर पत्ता चूंडावत के नेतृत्व में युद्ध हो रहा था। रणबांकुरा पत्ता चपलता के पूर्वक घोड़ा दौड़ाता हुआ हाथियों की सूंडे काट रहा था। रक्त के धारे बहाते ये शुण्ड विहीन गजराज अपनी ही सेना को कुचलते हुए भाग रहे थे। एक गजराज की सूंड में पकड़े खांडे से घोड़े का पैर कट जाने पर पत्ता जमीन पर कूद पड़ा और पैदल ही मारकाट करता हुआ गम्भीर रूप से घायल हो गया। महावत उसे महत्वपूर्ण सरदार समझ जिन्दा गिरफ्तार करने के लिये हाथी की सूंड में लपेट अकबर की ओर चला। पत्ता की वीरता से प्रभावित बादशाह द्वारा प्राण बचाने के प्रयास करने से पूर्व ही उसने दम तोड़ दिया। किले के चप्पे-चप्पे पर हुए घमासान युद्ध में रणबांकुरे राजपूत तिल-तिल कट मरे। एक ओर जौहर की चिताएं अब भी धधक रही थीं, दूसरी ओर रामपोल से समिधेश्वर तक की जमीन लाशों से ढँक गई थी। किले पर शाही झंडा फहराने के बाद अकबर के चेहरे पर विजय का उल्लास अभी ठीक से फैल भी न सका था कि एक अप्रत्याशित दृश्य ने स्तंभित कर दिया, वह समझ नहीं पा रहा था कि यह दृश्य वास्तव में हकीकत है या फिर कोई सपना देख रहा है। ऐसा दृश्य किसी युद्ध में देखना तो दूर सुना तक न था। युद्ध में आम नागरिक सेना की सहायता तो करते हैं किन्तु स्वयं मैदान में नहीं उतरते। लेकिन यहाँ तो अघट ही घट रहा था। किले की घेराबंदी से पूर्व आस-पास के गाँवों से किले में आ गए ग्रामीणों ने किले के निवासियों के साथ मिल कर शाही सेना पर हल्ला बोल दिया था। इनके पास न शस्त्र थे और न ही लडऩे का कौशल। जिसके हाथ जो आया उसी से सैनिकों को मारने लगा। ब्राह्मणों ने वेदपाठ छोड़ लाठियाँ उठा लीं। वैश्य-वणिकों ने तौलने के बांटों से ही कइयों के सर फोड़ डाले। भील, लोहार, धोबी, रंगरेज, जुलाहे, मोची, राज मिस्त्री कोई भी तो पीछे न रहा। लाठी, डंडा, गोफन, पत्थर आदि ही उनके अस्त्र थे। यह विश्व का अनूठा युद्ध था। जहाँ प्रशिक्षित अस्त्र-शस्त्र से सज्जित सेना से शस्त्रविहीन देहाती भिड़ रहे थे। मुश्किल से हासिल विजय में खलल पड़ता देख तैमूर के वंशज अकबर की आँखों में खून उतर आया। मातृभूमि के प्रति प्रेम से उत्पन्न इस छोटे से प्रतिरोध को बिना खून-खराबे के शान्त करना आसान था किन्तु अकबर ने नृशंस निर्णय लिया। शाही सेना पर हमले के अपराध में उसने कत्ल-ए-आम का आदेश दे दिया। विजय के नशे में चूर मुगल निहत्थे नागरिकों पर टूट पड़े। चारों ओर कोहराम मच गया। खूंखार सैनिकों के सामने जो पड़ा, नृशंसता पूर्वक कत्ल कर दिया गया। स्त्रियों और बच्चों तक को नहीं बख्शा गया। चित्तौड़ की आवासीय गलियाँ लाशों से भर गईं। मध्यान्ह से तीसरे प्रहर तक चला कत्ल-ए-आम अन्तिम व्यक्ति को भी तलवार की भेंट चढाने के बाद ही बन्द हुआ। विश्व के इस सबसे बड़े हत्याकाण्ड में चालीस हज़ार से अधिक नागरिक स्त्री, पुरूष, बालक मारे गए किन्तु इस युद्ध में मारे गए राजपूतों और जौहर की स्त्रियों को भी शामिल करने पर यह संख्या सत्तर हज़ार से अधिक हो जाती है। जबकि 12 मार्च 1739 को नादिरशाह द्वारा दिल्ली में किये कत्ल-ए-आम् में लगभग तीस हज़ार लोग दरिन्दगी की भेंट चढ़े थे। यह महान कहे जाने वाले अकबर की नृसंसता का घृणित प्रदर्शन ही था कि अपनी सफलता का आकलन करने के लिये उसने मारे गए लोंगों के यज्ञोपवीतों को तुलवायाउनका वजन 7411 निकला। उन दिनों मेवाड़ी मन चार सेर का होता था। इससे है हत्या की भयावहता का अनुमान हो जाता है। कार्थाज़ वालों ने भी केना के युद्ध में मारे गए रोमनों की अगूठियाँ तुलवा कर अपनी सफलता का परिणाम आंका था। चित्तौड़ दुर्ग के निवासियों ने ही नहीं वहाँ के भवनों, मन्दिरों, महलों ने भी अकबरी प्रकोप झेला था। अनेकों भवनों, मन्दिरों, महलों को नष्ट कर ख्वाजा अब्दुल मजीद आसिफ खाँ को किले का शासन सौंप कर अकबर आगरा लौटा था। जयमल और पत्ता की वीरता से प्रभावित होकर उसने आगरा के किले में इनकी पत्थर की मूर्तियाँ लगवा कर इनके शौर्य का सम्मान अवश्य किया था।

चित्तौडग़ढ़ में हुआ था विश्व का सबसे पहला कत्ले-आम - PART -1

मेवाड़ राज्य की राजधानी चित्तौडग़ढ़ का राजप्रासाद।
 मेड़तिया राठौड़ जयमल्ल वीरमदेवोत,चूंडावत सरदार रावत साईदास, बल्लू सोलंकी, ईसरदास चहुवान, राज राणा सुलतान सहित दुर्ग के सभी प्रमुख रण बांकुरे सरदारों के तेजस्वी वेहरों पर चिन्ताभरी उत्सुकता दिखाई दे रही थी। सभी की निगाहें बादशाह अकबर के पास समझौता प्रस्ताव लेकर गए रावत साहिब खान चहुवान और डोडिया ठाकुर सांडा पर टिकी थी। अकबर के शिविर से लौटे दोनों ठाकुरों का मौन अच्छी खबर का परिचायक न होने के बावज़ूद भी वे युद्ध टलने की आशा न छोड़ पा रहे थे। वातावरण की निस्तब्धता भंग की जयमल्ल ने। उसने पूछा- ''क्या बात है सरदारों आपके चेहरों पर खिन्नता क्यों है? क्या बादशाह ने हमारी समझौते की पेशकश ठुकरा दी? अथवा उसमें कोई असंभव सी शर्त लगाई है?''
डोडिया ठाकुर ने मातृभूमि के लिये सर कटाने को तैयार बैठे जुझारू सरदारों की ओर देखा ''आप ठीक समझे। बादशाह चित्तौड़ विजय के साथ महाराणा उदयसिंह का समर्पण भी चाहता है। उसने कहा है कि महाराणा के हाजिर हुए बगैर किसी भी तरह संधि संभव नहीं है। बादशाह के अमीरों और सलाहकारों ने भी उसे समझौता कर लेने की राय दी थी। लेकिन वह तो राणा के समर्पण के बगैर बात करने को भी तैयार नहीं है। शायद उन्हें कुँवर शक्तिसिंह का बिना आज्ञा शिविर से चले आना अपमान जनक लगा है।  खैर बादशाह के मन में चाहे जो टीस हो। लेकिन महाराणा के समर्पण का तो प्रश्न ही नहीं उठता। वे मेवाड़ी सम्मान, आन-बान के प्रतीक हैं। हमारे रहते मेवाड़ी आन पर आंच नहीं आ सकती। हम रहें या न रहें, लेकिन महाराणा के सुरक्षित रहने पर वे कभी न कभी हमलावरों को मेवाड़ से खदेडऩे में सफल हो जाएंगे। महाराणा के समर्पण के बाद तो शेष क्या रह जाएगा?'' रावत पत्ता सारंगदेवोत ने कहा। युद्ध के प्रश्न पर सभी सरदार एकमत थे। अपनी निश्चत पराजय से भिज्ञ होने पर भी लड़े बगैर, प्राण रहते मेवाड़ी गौरव चित्तौडग़ढ़ बादशाह को सौंप देने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था। प्राण रहते युद्ध करने के संकल्प के साथ सरदारों की मंत्रणा समाप्त हुई। सन् 1567 में मेवाड़ की राजधानी चित्तौडग़ढ़ पर हुए मुगलिया हमले का वास्तविक कारण अकबर की सम्पूर्ण भारत पर प्रभुत्व पाने की लालसा थी। किन्तु प्रत्यक्ष कारण एक छोटी सी घटना थी। मेवाड़ के महाराणा उदयसिंह का छोटा पुत्र शक्तिसिंह पिता से नाराज़ हो कर अकबर के पास चला गया था। 31 अगस्त 1567 को मालवा पर फौजकशी के लिये आगरा से रवाना हुए अकबर का पहला पड़ाव धौलपुर के पास लगा।  दरबार में शक्तिसिंह को देख कर अकबर को दिल्लगी सूझी। उसने कहा, शक्ति सिंह हिन्दुस्तान के बड़े-बड़े राजा हमारे दरबार में आकर हाजिर हुए। लेकिन राणा उदयसिंह अभी तक नहीं आया। इसलिये हम उस पर चढ़ाई करना चाहते हैं। इस हमले में तुम भी हमारी मदद करना। अकबर के कथन की परीक्षा किये बिना ही वह इसे सच समझ बैठा। पिता के प्रति नाराजग़ी होने पर भी उनके विरूद्ध सैनिक अभियान में भाग लेने की वह कल्पना भी नहीं कर सकता था। पिता को समय रहते बादशाही इरादे से अवगत कराने के लिये उसने अपने साथियों के साथ बिना अनुमति लिये बादशाही शिविर छोड़, चित्तौड़ की ओर प्रस्थान कर दिया। शक्तिसिंह की इस हरकत से बादशाह को बहुत क्रोध आया और उसने मेवाड़ पर चढ़ाई का पक्का इरादा बना कर कूच कर दिया। रणथम्भौर के जिले का शिवपुर किला बिना लड़े हाथ आ जाने को अच्छा शगुन मान कर वह कूच करता हुआ कोटा जा पहुँचा। वहाँ के किले और प्रदेश को शाह मुहम्मद कंधारी के सिपुर्द करग् उसने गागरोन को जा घेरा। अकबर ने शाह बदाग खाँ, मुराद खाँ और हाजी मोहम्मद खाँ को माँडलगढ़ विजय के लिये रवाना कर स्वयं चित्तौड़ की ओर कूच किया। उधर शक्तिसिंह ने चित्तौड़ पहुँच कर महाराणा उदयसिंह को अकबर के इरादों की सूचना दी। महाराणा ने मेड़ता के राव वीरम देव के पुत्र जयमल्ल राठौड़, रावत साईंदास चूंडावत, राजराणा सुल्तान, ईसरदास चहुवान, पत्ता चूंडावत, राव बल्लू सोलंखी और डोडीया सांडा के अतिरिक्त महाराज कुमार और प्रतापसिंह और राजकुमार शक्तिसिंह आदि के साथ युद्ध मंत्रणा के दौरान सरदारों ने कहा कि गुजराती बादशाहों के साथ हुए युद्धों के कारण राज्य की सैन्य और आर्थिक स्थिति काफी कम हो गई है, इस कमज़ोर स्थिति में बादशाह अकबर से मुकाबला करने में पराजय निश्चित है। ऐसे में यही उचित होगा कि महाराणा राजकुमारों और रनिवास सहित पहाड़ों में सुरक्षित चले जाएं और हम सभी सरदार यहाँ रह कर मुगलों से मुकाबला करें। थोड़े से बहस, दबाव के बाद महाराणा अपनी 18 रानियों और 24 राजकुमारों के परिवार और कुछ सामंतों के साथ अरावली की दुर्गम श्रृंखलाओं में चले गए। वहाँ से गुजरात की ओर रेवा कांठा पर गोडिल राजपूतों की राजधानी राज पीपलां पहुँच गए जहाँ राजा भैरव सिंह ने उनकी बड़ी खातिरदारी की। महाराणा वहाँ चार माह तक रहे। 23 अक्टूबर 1567 को अकबर ने चित्तौड़ से तीन कोस उत्तर में पांडोली, काबरा और नगरी गाँवों के बीच विशाल मैदान में अपना सैन्य शिविर लगाया। पैमायश वालों से किले की लम्बाई-चौड़ाई नपवा कर, अनेक बाधाओं के बावज़ूद उसने मोर्चाबन्दी पूरी कर डाली। किले के उत्तरी लाखोटा दरवाजे पर अकबर ने स्वयं मोर्चा संभाला । यहाँ किले के अन्दर मेड़तिया राठौड़ जयमल मुकाबले के लिये तैयार खड़ा था। पूर्वी सूरजपोल दरवाजे पर उसने राजा टोडरमल, शुजात खां और कासिम खां को तैनात किया, जिनका मुकाबला चूंडावतों के मुख्य सरदार रावत सांईदास से था। दक्षिण दिशा में चित्तौड़ी बुर्ज के सामने मोर्चे का इन्तजाम आसिफ खां और वज़ीर खां को सौंपा गया, जहाँ किले के अन्दर बल्लू सोलंखी आदि की चौकी थी। इसी प्रकार किले के अंदर पश्चिम में राम पोल, जोड़ला पोल, गणेश पोल, हनुमान पोल और भैरव पोल पर तैनात डोडिया ठाकुर सांडा, चहुवान ईसर दास, रावत साहिब खान और राजराणा सुल्तान आदि से मुकाबला करने के लिये अकबर ने अपनी सेना के अनेक बहादुर सेनानायकों को नियुक्त किया था। दुर्ग में युद्धरत राजपूतों को बाहरी सैनिक सहायता समाप्त करने के लिये अकबर ने आसिफ खाँ को रामपुरा की ओर रवाना किया। रामपुरा के अच्छे योद्धा तो चित्तौड़ दुर्ग में आ गए, जबकि राव दुर्गभाण महाराणा के साथ चला गया था। रामपुरा की रक्षा के लिये छोड़े गए मुठ्ठी भर राजपूत अपने प्राण देकर भी निश्चित पराजय को रोकने में सफल नहीं हो सके। रामपुरा विजय के के बाद थोड़ी सी सेना छोडक़र आसिफ खाँ चित्तौड़ लौट आया। इसी प्रकार उदयपुर और कुंभलगढ़ पहाड़ों की और भेजा गया हुसैन कुली खाँ भी इस क्षेत्र में लूटपाट करता हुआ चित्तौड़ आ गया। दुर्गम पर्वत श्रृंखलाओं, सघन वनों और सुदृढ़ प्राचीरों से घिरे दस वर्ग मील क्षेत्रफल वाले विशाल चित्तौडग़ढ़ पर आक्रमण यद्यपि आसान न था लेकिन अकबर की एक लाख सेना दुर्ग की घेराबंदी करने में सक्षम थी। बाहर के सभी रास्ते बन्द हो जाने से राजपूत जैसे चूहेदानी में फँस कर रह गए थे। लेकिन एक लाख शाही सेना के मुकाबले में खड़े आठ हजार राजपूतों के हौसलों में कोई कमी नहीं थी। संख्या के अनुपात का विषम अन्तर साधनों के मामले में तो तुलना करने जैसा ही नहीं था। अकबर की तोपों बंदूकों के मुकाबले में उनके पास तीर और पत्थर फेंकने वाली गोफनें ही थीं। तलवार, भाले, ढाल, कटार आदि परम्परागत अस्त्र तो आमने-सामने के युद्ध में ही काम आ सकते थे। फिर भी साधनविहीन जुझारू राजपूतों के जवाबी हमलों से शाही सेना को हर बार भारी नुकसान उठाना पड़ता था। किले से होने वाली बक्सरिया मुसलमानों के एक हजार बन्दूकचियों की अचूक निशानेबाजी शाही सेना के नुकसान को और बढ़ा कर राजपूतों की हौसला अफजाई करती। किले की उँचाई और विशालता के कारण शाही तोपखाना भी बेअसर सिद्ध हो रहा था।
दो माह गुजऱ जाने पर भी शाही सेना के भारी जानमाल के नुकसान के कारण चित्तौड़ विजय असंभव प्रतीत होने लगी थी। किन्तु युवा अकबर का मनोबल काफी ऊँचा था। उसने बारूदी सुरंगों के द्वारा किले की दीवारें तोडऩे का निर्णय लिया। किले से आने वाले तीरों, पत्थरों और गोलियों की बौछारों के बीच दक्षिण में चित्तौड़ी की बुर्ज के नीचे सुरंगे खोदने का काम आरंभ हुआ। शाही सेना किले से होने वाले हमले का जवाब देती थी, जबकि गोलियों और तीरों की बौछारों के नीचे मजदूर सुरंगें खोदते थे। एक के मर जाने पर दूसरा स्थान लेता था। मजदूरी भी स्वर्ण मुद्राओं में दी जा रही थी। अन्ततः सुरंगें तैयार हुईं। एक में 120 मन और दूसरी में 80 मन बारूद भरा गया. बारूद विस्फोट से दीवार उड़ते ही शाही सेना को जबरदस्त हमले का आदेश था। 17 दिसम्बर 1967 को एक सुरंग में किये विस्फोट से किले का बुर्ज, उस पर तैनात 90 सैनिकों के साथ उड़ गया। उसके पत्थर कई मील दूर जा गिरे। विस्फोट की आवाज पाँच कोस तक सुनी गई थी। बुर्ज उड़ते ही शाही सेना ने हमला कर दिया। किन्तु उनके किले की दीवार के पास पहुँचते ही दूसरी सुरंग में विस्फोट हो गयाग् किले की प्राचीर को जो क्षति पहुँची सो पहुँची लेकिन आक्रमण के लिये आगे बढ़ी शाही सेना के सैंकड़ों सैनिक इस विस्फोट की भेंट चढ़ गए। इनमें बरार के सैयद अहमद का पुत्र जमालुद्दीन, मीर खाँ का बेटा मीरक बहादुर, मुहम्मद सालिह हयात, सुलतान शाह अली एशक आगा, याजदां कुली, मिर्जा बिल्लोच, जान बेग, यार बेग सहित अकबर के बीस महत्वपूर्ण सरदार मारे गए थे। उनके अंग कई मील दूर जा गिरे। विस्फोट में मारे गए सैनिकों की संख्या अकबर नामा में दो सौ बताई गई है और तबकात अकबरी में पाँच सौ बताई है। इस भारी नुकसान से शाही सेना के हौसले पस्त हो गए और वह दुबारा हमला करने का साहस नहीं कर सकी। दूसरी ओर राजपूतों ने रातों रात मरम्मत करके किले को पुनः अजेय बना दिया। इस जबरदस्त दुर्घटना के बावजूद अकबर का मनोबल नहीं टूटा। किले के अन्दर तक तोपों की मार करने के लिये पहाड़ी जैसे किसी ऊंचे स्थान की आवश्यकता थी। किले के आसपास कोई उपयुक्त स्थान न देख उसने कृत्रिम पहाड़ी बनाने का निर्णय लिया। किले के पश्चिमी ओर मजदूरों से मिट्टी डलवाने का काम शुरू हुआ। तीरों और गोलियों की बौछारें मिट्टी डालने वालों को भी मिट्टी में मिला रही थी। प्राणों का डर होने से मजदूर न मिलने पर अकबर ने मिट्टी की टोकरी की मजदूरी एक रूपया कर दी और बाद में तो उसने एक सोने की मोहर प्रति टोकरी भी दी। लालच में आकर सैंकड़ों मजदूर मारे गए। लेकिन अंत में पहाड़ी बन कर तैयार हो गई। मोहरों में मजदूरी दिये जाने के कारण इसका नाम मोहरमगरी पड़ा। इस पहाड़ी पर तोपें चढ़ाने का सिलसिला आरम्भ हुआ। एक तोप के लुढक़ जाने से बीस सैनिक मारे गए। अन्ततः पहाड़ी पर तोपें चढ़ा कर किले में गोले बरसाए गए। शाही सेना के कुशल गोलन्दाज़ों ने अचूक निशाने लगा कर किले की दीवार को कई स्थानों से तोड़ दिया। इन टूटे स्थानों से हल्ला मचाती प्रवेश करने बढ़ती शाही सेना को राजपूत तीरों गोलियों के अतिरिक्त गरम तेल और जलते हुए रूई और कपड़ों के गोले फेंक कर रोक रहे थे।                                                            ( CONTD.)

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