बीसवीं सदी में भारतीय इतिहास के छः काले पन्ने भाग -2
अब
प्रश्न खड़ा होता है कि उस दिन कांग्रेस की सभा में सुभाषचन्द्र बोस ने
इस्तीफा नहीं दिया होता तो 15 अगस्त 1947 को लाल किले की प्राचीर पर झण्डा
कौन फहरा रहा होता?
नेताजी बलुचिस्तान, अफगानिस्तान, जर्मनी फिर जापान, रंगुन होते हुए अनन्त की यात्रा पर चले गए। वे कब गए? कहां गए? यह रहस्य का विषय है लेकिन वे क्यों गए? यह प्रश्न आज की पीढ़ी दीवारों पर लगे हुए उन चित्रों से पूछना चाहती है। हमें जबाब दो नायको, इस देश के लाल को विदेश क्यों जाना पड़ा। देश माउंटबैटन और एडविना की मुस्कुराहट पर क्यों चला। जिस महानायक को इंग्लैण्ड ने समझा, जर्मनी ने पहचाना, जापान ने परखा, देश के छोटे-छोटे लोगो ने जाना। महिलाओं ने हंसते-हंसते उन्हे अपने सोने के जेवर व बच्चों ने पाई-पाई कर बचाई गई गुल्लके दे दी मगर उन्हे नहीं समझा तो कांग्रेस के कर्णधारों ने। कभी कल्पना करता हूं कि 15 अगस्त 1947 को लाल किले की प्राचीर से अगर सुभाष बाबू बोल रहे होते तो कैसे लगते? देश उन्हे कैसे सुनता? देश की व्यवस्था उनके संकेत पर कैसे चलती? रक्षा सेनाओं का पुनर्गठन वे कैसे करते? जिसके पास सेना के नाम पर कोलकत्ता में देसी तमंचा भी नहीं था, उसने आजाद हिन्द फौज खड़ी कर दी! स्वतंत्र भारत की सैन्य शक्ति उन्हे मिल जाती तो वे उसे विश्व की महान शक्तिशाली सेना बना देते। देश के दुश्मन दुम दबाए घूमते नजर आते। लेकिन अफसोस! यह नहीं हो सका। कांग्रेस के तात्कालीन कर्णधारों की हठधर्मिता और विद्याता के इस क्रूर मजाक की भारत ने बहुत बढ़ी कीमत चुकाई हैएक सपना सच होता तो भारत कैसा होता..........। (क्रमशः)
- सुभाषचन्द्र बोस जैसा ऊर्जावान व्यक्ति अगर भारत का प्रथम प्रधानमंत्री होता तो भारत की विदेश नीति क्या होती? पड़ोसी देशों से सम्बंध कैसे होते? देश की आतंरिक व बाहरी सुरक्षा व्यवस्था कैसी होती? क्या पाकिस्तानी कबीलाई कश्मीर में घुसकर कश्मीर का एक तिहाई हिस्सा दबोच सकते थे? क्या चीन भारत को तो छोड़िए तिब्बत पर भी आक्रमण करने का साहस कर सकता था? 60 सालों से भी अधिक समय से बदहाली झेल रहा यह भारत अगर विकास के क्षेत्र में पिछड़ गया है तो उसका मूल कारण है सुभाष बाबू का वह त्याग पत्र!
- असमय भारतीय समाज जीवन से उनकी अनुपस्थिति। उस दिन पण्डाल से केवल सुभाष बाबू ही बाहर नहीं गए, शक्तिशाली भारत का भविष्य भी बाहर चला गया। उन्होने कोलकाता शहर को नहीं छोड़ा, अकेले भारत की सीमा के बाहर नहीं गए, उनके साथ भारत का भाग्य भी कुछ समय के लिए सीमा पार गया।
- पार्टी की संवैधानिक व्यवस्था असंवैधानिक प्रयत्नों के सामने हार गई, अनन्त ऊर्जा जो भारत का निर्माण कर सकती थी व्यक्ति निष्ठा की बलि चढ़ गई।
- स्वर्णिम भारत का भविष्य भी 25-30 सालों के लिए आगे चला गया। शासन का कोई पद खाली नहीं रहता, कोई भी लड़का या लड़की उम्र भर कुंवारा नहीं रहता। हर पद भर जाता है और हर बच्चे की शादी हो जाती है। मूल बात यह है कि योग्यता के अनुसार जिसे जहां होना चाहिए था, वह वहां था अथवा है क्या।
- अब घर में प्रज्ञा अपराध होता है तो उसका परिणाम पूरा कुनबा भुगतता है। देश के शक्ति केन्द्र पर जब यह अपराध होता है तो उसे पूरा देश भुगतता है। देश की एक दो नहीं कई पीढ़ियां उस दंश और शूल को भुगतती है। प्रजातंत्र की बाते करने वालों को यह समझ लेना होगा कि असहमति विरोध नहीं है। अयोग्य और नपुंसक को बेटी देकर कोई बाप सुखी नहीं हो सकता है। प्रत्येक कार्य को योग्य कार्यकर्ता और योग्य कार्यकर्ता को उपयुक्त कार्य देना योजनाकारों का काम है जब योजनाकार अपने पट्ठों को नवाजे और अपने से असहमति करने वालों को दुत्कारे तो समझो कि घी नाली में ही बह रहा है।सुभाष चन्द्र बोस एक घनीभूत ऊर्जा थे, ऊजा्र मार्ग मांगती है, अगर उसे मार्ग ना दिया जाये तो वह विस्फोट करते हुए अपनी दिशा स्वयं तय करती है। परदे के पीछे से राजनीति को संचालित करने वाले हमेशा अपने आस-पास कमजोर लोगो को पसंद करते है। व्यक्तियों की पसंद-नापसंद के उनके अपने मानक होते है। क्षमतावान जनाधार वाले व्यक्ति सामान्यतः इस प्रकार के लोगो की पंसद नहीं होते। वे उनके आत्मविश्वास को दंभ और योग्यता को लीक से हटकर व्यक्तिगत छवि के लिए काम करने वाले व्यक्ति के रूप में देखते है। वे औसत क्षमता को प्रतिभा और असाधारण गुणों को अयोग्यता मानते है। सच तो यह है कि शक्ति को पचाने के लिए शिव लगता है, राम के राज्याभिषेक को वशिष्ठ लगता है, राम जैसे कपड़े पहन, सज-धज कर घूमने से रामलीला का राम तो बना जा सकता है किंतु मर्यादा पुरूषोत्तम राम नहीं। चाणक्य की भांति चलने और अभिनय करने से बहरूपिया तो बना जा सकता है, चाणक्य नहीं। दुर्भाग्य से देश जिस अवस्था में गत शताब्दी से चला आ रहा है वह तिलक, सावरकर, सुभाष व वल्लभ भाई पटेल जैसे व्यक्तित्वों की ऊंचाई घटाने या मिटाने का कार्य ही कर रही है। इन महापुरूषों के समकालीन समय में उनके घुटनों तक जिनकी ऊंचाई नहीं आती थी, ऐसे लोगो द्वारा उन्हे हटते और मिटते हम इतिहास में देखते है।
नेताजी बलुचिस्तान, अफगानिस्तान, जर्मनी फिर जापान, रंगुन होते हुए अनन्त की यात्रा पर चले गए। वे कब गए? कहां गए? यह रहस्य का विषय है लेकिन वे क्यों गए? यह प्रश्न आज की पीढ़ी दीवारों पर लगे हुए उन चित्रों से पूछना चाहती है। हमें जबाब दो नायको, इस देश के लाल को विदेश क्यों जाना पड़ा। देश माउंटबैटन और एडविना की मुस्कुराहट पर क्यों चला। जिस महानायक को इंग्लैण्ड ने समझा, जर्मनी ने पहचाना, जापान ने परखा, देश के छोटे-छोटे लोगो ने जाना। महिलाओं ने हंसते-हंसते उन्हे अपने सोने के जेवर व बच्चों ने पाई-पाई कर बचाई गई गुल्लके दे दी मगर उन्हे नहीं समझा तो कांग्रेस के कर्णधारों ने। कभी कल्पना करता हूं कि 15 अगस्त 1947 को लाल किले की प्राचीर से अगर सुभाष बाबू बोल रहे होते तो कैसे लगते? देश उन्हे कैसे सुनता? देश की व्यवस्था उनके संकेत पर कैसे चलती? रक्षा सेनाओं का पुनर्गठन वे कैसे करते? जिसके पास सेना के नाम पर कोलकत्ता में देसी तमंचा भी नहीं था, उसने आजाद हिन्द फौज खड़ी कर दी! स्वतंत्र भारत की सैन्य शक्ति उन्हे मिल जाती तो वे उसे विश्व की महान शक्तिशाली सेना बना देते। देश के दुश्मन दुम दबाए घूमते नजर आते। लेकिन अफसोस! यह नहीं हो सका। कांग्रेस के तात्कालीन कर्णधारों की हठधर्मिता और विद्याता के इस क्रूर मजाक की भारत ने बहुत बढ़ी कीमत चुकाई हैएक सपना सच होता तो भारत कैसा होता..........। (क्रमशः)
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