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Sunday, July 29, 2012

समाज का खतरनाक विभाजन

समाज का खतरनाक विभाजन
गोपाल कृष्ण गांधी, पूर्व राज्यपाल
First Published:29-07-12 08:24 PM
 ई-मेल Image Loadingप्रिंट  टिप्पणियॉ: (0) अ+ अ-
आपको सत्यजित राय की फिल्म पाथेर पांचाली  के दो पात्र दुर्गा और उसका छोटा भाई अप्पू याद होंगे। उस दिन दिल्ली के मैक्समूलर रोड पर मुझे उनकी याद आ गई। मैंने देखा एक छोटा-सा बच्चा फुटपाथ पर बैठा हुआ एक बदरंग से अमरूद को खाने की सोच रहा है। उसके पास उससे उम्र में थोड़ी बड़ी लड़की आ जाती है, शायद वह उसकी बहन होगी। दोनों के शरीर पर मैले-कुचैले कपड़े थे, उनके धूल भरे बाल रूखे-सूखे थे। ट्रैफिक के कारण मेरी टैक्सी रुक गई थी और मैं लगातार उन्हें देख रहा था। तभी मुझे सत्यजित राय की फिल्म के दोनों पात्र याद आ गए और इसीलिए मैं उन्हें दुर्गा और अप्पू कह रहा हूं। दुर्गा ने अमरूद को चखना चाहा, तो अप्पू ने पहले तो मना कर दिया और फिर उसे अपनी पीठ पीछे छिपा लिया। दुर्गा ने जब और मनुहार की, तो वह मान गया। मुझे लगा कि कहीं वह अमरूद लेकर भाग तो नहीं जाएगी। लेकिन नहीं, उसने अमरूद को चखा। ऐसा लगा, जैसे कह रही हो ‘मीठा है’। फिर शायद वे सोचने लगे कि इसे दोनों कैसे खाएं। न सिर्फ खाएं, बल्कि बराबर-बराबर खाएं। अप्पू प्लाइवुड का एक टुकड़ा ले आया, जिससे दुर्गा उस बदरंग अमरूद को दो टुकड़ों में काटने लगी। अमरूद शायद पूरा पका नहीं था, इसलिए प्लाइवुड आधे अमरूद में जाकर अटक गई। अप्पू ने एक पत्थर उठाया और प्लाइवुड को ठोका। अब अमरूद दो टुकड़ों में बंट गया। पता नहीं वह अमरूद किसी पेड़ से गिरा था या किसी दुकानदार ने उसे बेकार समझकर फेंक दिया था। जैसे ही दोनों ने इसकी पौष्टिकता और स्वाद को आपस में बांटा, मेरी टैक्सी भी चल पड़ी। टैक्सी की खिड़की से मैंने जो देखा, उसका इस्तेमाल मैं मिल-बांटकर खाने और एक-दूसरे का खयाल रखने की शिक्षा देने में नहीं करना चाहता। लेकिन इस अद्भुत दृश्य से मेरे दिमाग में कुछ बातें जरूर आईं। पहली बात तो दिमाग में यह आई कि दुर्गा और अप्पू ने जो किया, वह पूरी तरह भारतीय शैली है- किसी भी अवसर का अधिक से अधिक लाभ उठाओ। जापान की खासियत यह है कि वह किसी भी चीज को कलात्मक रूप दे सकता है। अगर अमेरिका और जर्मनी बेहतरीन कारें और म्यूजिक सिस्टम बना सकते हैं, तो जापान यह काम उनसे बेहतर कर सकता है। चीन किसी भी उत्पाद की बहुत अच्छी नकल तैयार कर सकता है, इतनी अच्छी कि मूल उत्पाद भी अपने जुड़वा को देखकर हैरत में पड़ जाए। इसके विपरीत भारत के लोगों की कला यह है कि वे किसी चीज में सुधार कर सकते हैं, उसके कई तरह के इस्तेमाल खोज सकते हैं। जो चीज किसी भी काम की नहीं है और बिल्कुल बेकार लग रही है, वे उसे भी महत्वपूर्ण बना सकते हैं। शायद इसी बात के लिए डॉ. राज कृष्णा ने ‘हिंदू रेट ऑफ ग्रोथ’ की बात कही थी। भारतीय तौर-तरीकों में चीजों को इस्तेमाल के लायक बना लेना, उनकी रिसाइकलिंग करना और उन्हें फिर से खड़े कर देना शामिल है। हम हमेशा से इस्तेमाल करो और फेंको वाला समाज रहे हैं। इसीलिए हमारे आसपास कूड़े के ढेर जमा होते रहते हैं। बुद्धिमान देश यह सोचते रहते हैं कि कूड़े को किस तरह ठिकाने लगाया जाए। हम अपने प्लास्टिक को इस्तेमाल करने के बाद बस बाहर फेंक देते हैं। इसका नतीजा आमतौर पर परेशानी पैदा करने वाला होता है। खासकर स्वास्थ्य पर इसका असर खतरनाक होता है। लेकिन इस कूड़े का बहुत-सा हिस्सा फिर से इस्तेमाल हो जाता है। उसे बीना जाता है, बेचा जाता है, फिर बेचा जाता है। इसे अंत तक इस्तेमाल करने की एक लंबी श्रृंखला है। क्या यही वह भारतीय निपुणता है, जो एक साथ वरदान भी है और अभिशाप भी? क्या यह भारत के अस्तित्व को वैसा नहीं बना देती, जिसके लिए ईएम फोस्र्टर ने कभी कहा था, ‘जीवन का एक निम्न स्तर, जो नष्ट नहीं हो सकता।’ दूसरी बात जो मेरे दिमाग में आई, वह थी कि भारत में निचले स्तर पर जीने वाले अपने अस्तित्व के लिए अलग तरह का बर्ताव करते हैं, जबकि उच्चस्तरीय लोग अलग तरह का। दिल्ली के अप्पू और दुर्गा जिस तरह से अपने अमरूद का बंटवारा कर रहे थे, उसके एकदम उलट मुझे कुछ दिन पहले चेन्नई से कोलंबो की एयर श्रीलंका की उड़ान में दिखाई दिया। उस उड़ान में सवार एक बहुत अमीर और बहुत ही भारी शरीर वाले सज्जन एक घंटे की इस पूरी यात्रा के दौरान खूब सारी बातें करते रहे और पूरी विनम्रता से परिचारकों से हर चीज थोड़ी मांगते रहे, खासकर शराब। ये वे लोग हैं, जो किसी भी अवसर का पूरा लाभ निचोड़ लेना चाहते हैं। लेकिन इस काम को वे सिर्फ अपने लालच या अपनी बोरियत की वजह से करते हैं। हाल ही में बीजिंग की एक फ्लाइट में भारत के एक कथित खिलाड़ी ने महिला परिचारिका और महिला यात्रियों के साथ जो किया, वह भी भूख ही है, बस यह भूख कुछ अलग तरह की है। तो क्या हमें यहां दो अलग तरह की संस्कृतियां दिख रही हैं? एक वह, जो गरीब और असहाय लोगों की है। उनके पास जितने भी संसाधन हैं, वे बराबरी के साथ आपस में उसका बंटवारा कर लेते हैं। दूसरी तरफ अमीर हैं, जिनमें एक अश्लील किस्म का लालच है। वे हर चीज को हासिल कर लेना चाहते हैं। उस चीज को भी, जिसके वे हकदार नहीं हैं। इसी सबसे जमीन दुर्लभ हो चुकी है, बिजली और पानी की आपूर्ति अनियमित रहती है। दूसरी तरफ मजदूरों को सम्मानजनक ढंग से पर्याप्त मजदूरी दी जाए, इसके लिए बने कानूनों के बावजूद मजदूरों का शोषण होता है। वे उद्योग जो सरकार से जमीन, सब्सिडी व टैक्स राहत हासिल करते हैं, वे भी लालच की श्रेणी में आते हैं। वे पूरा अमरूद अपनी जेब में रख लेते हैं।
पिछले दिनों मानेसर में मारुति सुजुकी के जीएम के साथ जो हुआ, वह त्रसद है। पूरे देश में तनाव बढ़ रहा है, हालांकि शहरों के बुद्धिजीवी इसे देखना नहीं चाहते। यह तनाव जमीन को लेकर है, जिसके बारे में आम धारणा है कि वह निजी मुनाफे को बढ़ाती है, राष्ट्र की तरक्की को नहीं। बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के खिलाफ जो प्रतिरोध हो रहा है, उसमें सरकार और निवेशक एक साथ आ खड़े हुए हैं। इसी मिलीभगत के चलते ये प्रतिरोध फौजदारी में तब्दील होने लगे हैं। यह विभाजन वाकई बहुत खतरनाक है। अमरूद पर इस तरह कब्जा नहीं हो सकता। इसका फल उन लोगों तक भी पहुंचना चाहिए, जो पेड़ को थामकर खड़े हैं। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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