बांग्लादेशी घुसपैठ से जुडी है असम की सांप्रदायिक हिंसा
असम में पिछले एक सप्ताह से जारी सांप्रदायिक दंगों में दर्जनों लोग मारे जा चुके हैं और लाखों लोग घर-बार छोड़कर शरणार्थी शिविरों में रह रहे हैं | लेकिन राष्ट्रीय मीडिया और केन्द्र सरकार यह साबित करने में जुटी है कि असम में हिंसा का बाग्लादेश से अवैध रूप से आए नागरिकों की बहुलता से कोई लेना-देना नहीं। असम में बाग्लादेशी नागरिकों की बढ़ती संख्या राज्य के सामाजिक-आर्थिक ढाचे को बुरी तरह प्रभावित कर रही है। बाग्लादेश की सीमा से लगे असम के जिलों में आबादी की वृद्धि दर यह स्पष्ट करती है कि वहा अवैध घुसपैठ बेरोकटोक जारी है। विडंबना यह है कि वोट बैंक के लोभ में असम में राष्ट्रीय हितों की बलि दी जा रही है ! पढ़िए जागरण में प्रकाशित सम्पादकीय लेख :
असम में करीब दो लाख लोगों के बेघर-बार
होने से यह स्वत: स्पष्ट हो जाता है कि राज्य सरकार साप्रदायिक हिंसा पर
रोक लगाने में बुरी तरह नाकाम रही। राज्य सरकार की नाकामी में केंद्र सरकार
की भी हिस्सेदारी नजर आती है। यह विचित्र है कि एक सप्ताह तक साप्रदायिक हिंसा जारी रहने और 40 से
अधिक लोगों की मौतों के बाद केंद्र सरकार को दोनों पक्षों को चेतावनी देने
की याद आई। आखिर यह काम पहले-दूसरे ही दिन राज्य सरकार की ओर से क्यों
नहीं किया जा सका? राच्य और केंद्र सरकार की ओर से किए जा रहे इन दावों पर
यकीन करना कठिन है कि हालात तेजी से सुधर रहे हैं। आखिर जब करीब दो लाख लोग
शरणार्थियों की तरह रहने को विवश हों तब फिर यह दावा कैसे किया जा सकता है
कि स्थिति ठीक हो रही है? क्या राज्य अथवा केंद्र सरकार यह कहने-बताने की
स्थिति में हैं कि शरणार्थी शिविरों में रह रहे लोग अपने घरों को कब लौट
सकेंगे? आशका यह है कि इनमें से बहुत लोगों के घर अब सुरक्षित नहीं रह गए
होंगे। असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई जिस तरह हालात की गंभीरता को कम करके
बताने की कोशिश कर रहे हैं उससे यही स्पष्ट होता है कि या तो वह सच्चाई से
अवगत नहीं या फिर उसका सामना करने से बचना चाह रहे हैं। कुछ ऐसा ही रवैया
केंद्र सरकार का भी नजर आ रहा है।
केंद्र सरकार यह साबित करने की हरसंभव
चेष्टा कर रही है कि असम में हिंसा का बाग्लादेश से अवैध रूप से आए
नागरिकों की बहुलता से कोई लेना-देना नहीं। तथ्य यह है कि असम के हालात
इसीलिए बिगड़े, क्योंकि बोडो जनजातियों और बाग्लादेशी नागरिकों के बीच तनाव
बढ़ता चला जा रहा था। राच्य और केंद्र सरकार को दोनों पक्षों के बीच तनाव
बढ़ाने के कारणों से अवगत होना चाहिए था, लेकिन उन्होंने कुछ करने के बजाय
हाथ पर हाथ रखकर बैठना पसंद किया। समस्या यह है कि राज्य और केंद्र सरकार
एक लंबे अर्से से जानबूझकर इसकी अनदेखी कर रही हैं कि असम में बाग्लादेशी
नागरिकों की बढ़ती संख्या राज्य के सामाजिक-आर्थिक ढाचे को बुरी तरह
प्रभावित कर रही है। बाग्लादेश की सीमा से लगे असम के जिलों में आबादी की
वृद्धि दर यह स्पष्ट करती है कि वहा अवैध घुसपैठ बेरोकटोक जारी है। विडंबना
यह है कि संकीर्ण राजनीतिक कारणों से कभी भी उस पर रोक लगाने की कोशिश
नहीं की गई। सच तो यह है कि इस मुद्दे पर बाग्लादेश से कभी गंभीरता से
बातचीत भी नहीं की गई। वोट बैंक के लोभ में असम में किस तरह राष्ट्रीय
हितों की बलि दी जा रही है, इसका सबसे बड़ा प्रमाण है अवैध घुसपैठ के खिलाफ
एक ऐसा कानून बनाना जो घुसपैठियों के लिए मददगार साबित हो रहा था। हालाकि
सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून को खारिज कर दिया, लेकिन न तो राज्य सरकार की
आखें खुलीं और न ही केंद्र सरकार की। इसके आसार कम ही हैं कि मौजूदा
त्रासदी हमारे नीति-नियंताओं को चेताने का काम करेगी। इसकी सबसे बड़ी वजह
उनका वह रवैया है जिसके तहत समस्या के मूल कारणों की उपेक्षा की जा रही है।
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