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Sunday, July 29, 2012

हिंसक माओवादियों से सहानुभूति

1/07/2011


न्यायपालिका के विरुद्ध जिहाद?

इस 24 दिसंबर को छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश बी.पी.शर्मा ने खचाखच भरी अदालत में डा.बिनायक सेन, नक्सली नेता नारायण सान्याल और कोलकाता के एक तेंदुपत्ता व्यापारी पीयूष गुहा को भारतीय दंड संहिता की धारा 124 (ए) एवं 120 (बी) के तहत देशद्रोह के आरोप में आजन्म कारावास की सजा सुना दी। सजा सुनाए जाने के साथ ही देश और विदेश में डा.बिनायक सेन के पक्ष में चीख-पुकार मचना शुरू हो गयी।
बिनायक सेन पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिबर्टीज (पी.यू.सी.एल.) के अखिल भारतीय उपाध्यक्ष हैं, इसलिए सब मानवाधिकारवादी संगठन और बुद्धिजीवी मैदान में उतर आए। दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश एवं पी.यू.सी.एल. के पूर्व अध्यक्ष राजेन्द्र सच्चर ने तो इस निर्णय को बेहूदा तक कह डाला। तीस्ता जावेद सीतलवाड़, जिसका एकसूत्री एजेंडा हिन्दू और भाजपा विरोध बन गया है और जो गुजरात में झूठे शपथ पत्र व गवाहियां तैयार करने के आरोपों से घिरी हुई है, ने इस निर्णय को भाजपा पर प्रहार करने का नया हथियार बना लिया, क्योंकि यह निर्णय भाजपा शासित राज्य में लिया गया था। माकपा, भाकपा और अन्य कम्युनिस्ट धड़े व उनके बुद्धिजीवियों ने निर्णय के विरोध में वक्तव्य जारी कर दिये, क्योंकि वे माओवादी हिंसा को हिंसा नहीं मानते अपितु राज्य की हिंसा के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति के रूप में देखते हैं। भारत के अनेक शहरों में वामपंथी और मानवाधिकारवादी प्रदर्शनकारी हाथों में फलक लेकर फोटो खिंचाने के लिए खड़े हो गये। विभिन्न दैनिक पत्रों में प्रकाशित चित्रों को आप देखें तो कहीं भी उनकी संख्या तीन या चार से अधिक नहीं है। किंतु मीडिया पर प्रभाव के कारण वे छपते हैं। इस निर्णय के विरोधियों में एक मुस्लिम संगठन मिल्ली काउंसिल का नाम पढ़कर शायद आपको आश्चर्य हुआ होगा कि उनकी हिंसक माओवादियों से सहानुभूति का क्या कारण हो सकता है। इसके निहितार्थ को खोजना आवश्यक है।
अन्तरराष्ट्रीय दबाव
देशी वामपंथियों,मानवाधिकारवादियों तथा भाजपा-विरोधियों की प्रतिक्रिया से अधिक महत्वपूर्ण है अन्तरराष्र्टीय प्रतिक्रिया। यह निर्णय सुनते ही एमनेस्टी इंटरनेशनल की प्रतिक्रिया तुरंत आ गयी। उसने इस निर्णय को मानवता-विरोधी घोषित करते हुए विरोध करने का निर्णय ले लिया। सन् 2007 में भी बिनायक सेन की गिरफ्तारी 14 मई को हुई और 16 मई को एमनेस्टी इंटरनेशनल ने छत्तीसगढ़ सरकार के नाम हुक्म जारी कर दिया कि बिनायक सेन को तुरंत रिहा कर दिया जाए। एमनेस्टी 2008 में उड़ीसा के कंधमाल जिले में स्व.लक्ष्मणानंद की हत्या से भड़के चर्च-विरोधी दंगों के समय भी तुरंत सक्रिय हो गयी थी और अपना जांच दल उड़ीसा भेजने पर उतारू थी। 2007 में बिनायक सेन की गिरफ्तारी के विरुद्ध लंदन, बोस्टन और न्यूयार्क में भी प्रदर्शन आयोजित किए गए थे। यूरोप के 22 नोबल पुरस्कार विजेताओं ने डा. बिनायक सेन के समर्थन में एक संयुक्त वक्तव्य जारी करने की आवश्यकता समझी थी।
सोनिया के प्रवक्ता
डा. बिनायक सेन का समर्थन करते हुए सोनिया गांधी की राष्ट्रीय परामर्शदाता समिति (एन.ए.सी.) के हर्ष मंदर, जीन डेज, रामप्रसाद मुंडा आदि कई महत्वपूर्ण सदस्यों ने न्यायालय के इस निर्णय का विरोध किया है। हम बहुत पहले से कहते और लिखते आ रहे हैं कि मैडम सोनिया के द्वारा निर्मित इस समानांतर तंत्र के लगभग सभी सदस्य चर्च द्वारा प्रेरित एवं पोषित एन.जी.ओ.ताने-बाने के अंग हैं और उनके माध्यम से सोनिया केन्द्र सरकार पर नियंत्रण की एक समानांतर प्रक्रिया चला रही हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि सोनिया पार्टी के अधिकृत प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी और शकील अहमद की इस निर्णय पर संतुलित प्रतिक्रिया आने के बाद उनसे अलग जाकर दिग्विजय सिंह ने बिनायक सेन के समर्थन में वक्तव्य जारी करना आवश्यक समझा। डा.सिंघवी ने ठीक ही कहा कि अभी एक निचली अदालत का निर्णय आया है, अत: न्यायिक प्रक्रिया के पूरा होने के पूर्व किसी निर्णय पर टीका-टिप्पणी करना जल्दबाजी होगी। लगभग यही बात दूसरे प्रवक्ता शकील अहमद ने भी कही। किंतु दिग्विजय सिंह को सोनिया के 10 जनपथ ने जिस मिशन पर लगाया हुआ है, वह ऐसे वक्तव्यों से पूरा नहीं होता। दिग्विजय का एकमात्र मिशन है भाजपा और हिन्दुत्व-विरोध का राग अलापकर मुस्लिम और ईसाई वोट बैंकों को सोनिया पार्टी के पीछे खड़ा करना। प्रत्येक कदम और कथन को इस दृष्टि से देखने पर कभी कोई मतिभ्रम पैदा नहीं होगा।
आपको स्मरण होगा कि जब छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा क्षेत्र में माओवादियों ने सी.आर.पी.एफ. के 36 जवानों की निर्मम हत्या कर दी थी, जिससे उद्वेलित होकर गृहमंत्री पी.चिदम्बरम् ने नक्सलविरोधी अभियान घोषित किया था। तब दिग्विजय ने गृहमंत्री की खुली आलोचना करते हुए छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार को बर्खास्त करने की मांग उठायी थी और पी.चिदम्बरम् को सलाह दी थी कि वे नक्सलवाद की बजाय हिन्दू आतंकवाद को बड़ा खतरा घोषित करें। यहां सवाल खड़ा होता है कि भारत सरकार के नक्सलवाद विरोधी अभियान को रोकना दिग्विजय सिंह को जरूरी क्यों लगा? क्या वे जानते हैं कि माओवाद का मुखौटा लगाकर चर्च अपना प्रभाव क्षेत्र तैयार कर रहा है? सुख सुविधाओं से लैस, कलमघिस्सू किताबी क्रांतिकारियों की बड़ी फौज मानवाधिकारों की रक्षा के नाम पर चर्च के इसी जाल में फंस जाती है। चर्च ने विदेशी आर्थिक सहायता के माध्यम से गैरसरकारी संगठनों (एन.जी.ओ.) का एक विशाल ताना-बाना देश में बिछा लिया है। उसके जाल में कागजी क्रांतिकारियों की इस विशाल फौज को सपेट लिया है। सोनिया की एन.ए.सी. इस फौज के साथ सम्पर्क पुल का काम करती है तो दिग्विजय सिंह सोनिया पार्टी के महासचिव पद का उपयोग उसे मान्यता देने के लिए करते हैं। उड़ीसा में स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या करवाकर अब गुजरात व मध्य प्रदेश में चर्च की आंखों की किरकिरी बने स्वामी असीमानंद को आतंकवाद की गतिविधियों में लपेट कर चर्च बड़ी योजना व कुशलता से अपने मार्ग की रुकावटों को हटाने में सफल हो रहा है।
कानूनी प्रक्रिया में हस्तक्षेप
बिनायक सेन और उनके दो साथियों के विरुद्ध न्याय प्रक्रिया पूरे दो साल चली। अभियोजन पक्ष ने 95 गवाह प्रस्तुत किये और बिनायक सेन के पक्ष ने 11। इस बीच न्याय प्रक्रिया को प्रभावित करने के लिए अनेक देशी-विदेशी प्रयास हुए। कुछ प्रयासों का उल्लेख हम ऊपर कर चुके हैं। निर्णय के लिए निर्धारित तिथि 24 दिसंबर के एक सप्ताह पहले टाइम्स आफ इंडिया और हिन्दू जैसे प्रभावशाली दैनिकों ने उनकी रिहाई का अभियान शुरू कर दिया। टाइम्स आफ इंडिया ने 19 दिसंबर को तीन चौथाई पृष्ठ बिनायक सेन के मुकदमे को समर्पित किया। जिसमें सबसे ऊपर "बिनायक सेन को रिहा करो" शीर्षक के साथ एक चित्र को सजा दिया। हिन्दू ने 16 दिसंबर को बिनायक सेन के समर्थन में एक समाचार के अतिरिक्त मुख्य सम्पादकीय भी लिख मारा। किंतु न्यायमूर्ति वर्मा ने अपने निर्णय में यह सिद्ध किया है कि बिनायक सेन और उनकी पत्नी इलिना सेन अपनी स्वयंसेवी संस्था "रूपांतर" के माध्यम से छत्तीसगढ़ के जनजाति समाज को सलवा जुड़ूम के विरुद्ध खड़ा कर रहे थे। वे नक्सली नेताओं के बीच सम्पर्क पुल की भूमिका निभा रहे थे। निर्णय के अनुसार बिनायक सेन ने 35 दिन में 33 बार जेल में बंद नारायण सान्याल से भेंट की। सान्याल के पत्रों को अन्य नक्सली नेताओं तक पहुंचाने का काम किया। ये आरोप सही हैं या गलत इसके निर्णय का दायित्व उच्च अदालतों पर छोड़ देना चाहिए।
मीडिया का दबाव
न्याय प्रक्रिया को प्रभावित करने का यह अभियान एक साथ कई मोर्चों पर सक्रिय हो गया है। मीडिया का तो पूरा इस्तेमाल किया ही जा रहा है। अंग्रेजी दैनिक इसमें मुख्य योगदान कर रहे हैं।  टाइम्स आफ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस, हिन्दुस्तान टाइम्स, हिन्दू .......
पुलिस सूत्रों के अनुसार बस्तर क्षेत्र के नक्सली हिंसा से आक्रांत पांच जिलों में माओवादी हिंसा बढ़ गयी है। माओवादियों ने दो मालगाड़ियों को पटरी से उतार दिया। माल लदे कई ट्रकों को फूंक दिया, सड़कों को खोद डाला, पेड़ों को काटकर गिरा दिया और पुलिस चौकियों पर गोलीबारी की। यह है माओवादी जनकांति का असली चेहरा। देश के गृहमंत्री चिदम्बरम् और वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी माओवादी हिंसा को देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बता रहे हैं तो सोनिया की एन.ए.सी.व दिग्विजय सिंह नामक भोंपू उनकी वकालत कर रहे हैं। भारतीय राजनीति की इससे बड़ी त्रासदी क्या हो सकती है?
दोहरे मापदण्ड की इस राजनीति पर वरिष्ठ पत्रकार वेद प्रताप वैदिक की यह टिप्पणी (भास्कर, 29 दिसम्बर) बहुत सार्थक है कि "बिनायक का झंडा उठाने वाले एक भी संगठन या व्यक्ति ने अभी तक माओवादी हिंसा के खिलाफ अपना मुंह तक नहीं खोला। क्या यह माना जाए कि माओवादियों द्वारा मारे जा रहे सैकड़ों निहत्थे और बेकसूर लोगों से उनका कोई लेना-देना नहीं है? क्या वे भोले-भाले वनवासी भारत के नागरिक नहीं हैं? उनकी हत्या क्या इसलिए उचित है कि वह माओवादी कर रहे हैं? माओवादियों द्वारा की जा रही लूटपाट क्या इसलिए उचित है कि आपकी नजर में वे किसी विचारधारा से प्रेरित होकर लड़ रहे हैं?


क्रांति के नाम पर एक महीने में 73 का कत्ल !


केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदम्बरम ने मंगलवार को कहा कि नक्सलियों ने नवम्बर में विभिन्न राज्यों में 62 नागरिकों और 11 सुरक्षाकर्मियों की हत्या की है।
इस महीने हुई नक्सली हिंसा की 135 वारदातों का जिक्र करते हुए चिदम्बरम ने कहा कि उनके मंत्रालय की नवम्बर की रिपोर्ट यहां एक संवाददाता सम्मेलन में जारी कर दी गई है।

उन्होंने कहा, "वाम चरमपंथियों (नक्सलियों) का राज्य के विरुद्ध युद्ध जारी है और इसमें कमी नहीं आ रही है।"

मंत्री ने कहा कि नक्सलियों ने पुलिस को निशाना बनाने की नई तरकीब अपना ली है।

उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ में पुलिसकर्मियों के परिवारों के सात सदस्यों की हत्या कर दी गई। इस्तीफा देने का दबाव बनाने के लिए पुलिसकर्मियों के रिश्तेदारों को अगवा करने की घटनाएं भी हुई हैं।

उन्होंने रिपोर्ट में कहा है कि इस महीने नक्सलियों ने पंचायत कार्यालयों एवं स्कूलों सहित 33 सरकारी सम्पत्तियों को क्षति पहुंचाई है।

चिदम्बरम ने कहा कि सरकार ने नक्सलियों की गिरफ्तारी और नक्सल प्रभावित इलाकों में विकासात्मक परियोजनाएं सुनिश्चित करने के लिए 'द्विआयामी रणनीति' बनाई है।

उन्होंने कहा कि नक्सल प्रभावित जिलों में विकास कार्यो के लिए हाल ही में 3,300 करोड़ रुपये स्वीकृत किए गए हैं, जिनका आवंटन अगले 16 महीनों में चरणबद्ध तरीके से किया जाएगा।

11/21/2010

वामपंथी आंदोलन की देन है माओवाद


भारत में हिंसा द्वारा परिवर्तन की बात इस्लामी जिहाद और कम्युनिस्ट विचारधारा की देन है। अहिंसक लोकतांत्रिक भारतीय पद्धति से बदलाव लाने में भारत ने विश्व में अप्रतिम उदाहरण प्रस्तुत किया है, गरीबी, अशिक्षा व सांप तथा सपेरों के देश वाली छवि से भारत मुक्त होकर दुनिया के सबसे अच्छे सॉफ्टवेयर इंजीनियर, वैज्ञानिक और अध्यापक देने वाले ऐसे देश के नाते प्रतिष्ठित हुआ है जहां के उद्योगपति अमरीका व यूरोप में अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियों का अधिग्रहण कर चुके हैं। इस मार्ग की अपनी समस्याएं हैं पर उनका समाधान देशभक्ति और लोकतंत्र में है, बन्दूक और विदेश निष्ठा में नहीं है। कम्युनिस्ट विचारधारा में अर्न्तनिहित हिंसा का तत्व वामपंथी विरासत का बोझ है। इजवेस्तिया के साप्ताहिक परिशिष्ट निदालय के अंक में प्रकाशित प्रो. आई. गॉक्स बेस्तुजहेव लाडा के एक लेख का सार प्रकाशित किया। वह स्टालिन के कार्यकाल के दौरान मारे गये लोगों की कुल संख्या 5 करोड़ बताते हैं जिसमें दूसरे विश्व युद्ध में मारे गये 2 करोड़ लोग शामिल नहीं थे। यही भयावह नियति पूर्वी यूरोपीय देशों की रही जो द्वितीय विश्व युद्ध के अंत में रूस की चपेट में आ गये थे। पूर्वी बर्लिन में सन् 1953 में 2 लाख मजदूर साम्यवादी तानाशाही के खिलाफ उठ खड़े हुए। पौलेंड में सन् 1956 में मजदूरों ने काम करना बंद कर दिया। हंगरी में सन् 1956 में छात्र-समुदाय द्वारा विशाल विरोध आंदोलन किया गया। सन् 1968 में चेकोस्लोवाकिया में साम्यवादी प्रभुत्व के खिलाफ जन आंदोलन को उसकी पूरी जनसंख्या का समर्थन हासिल था। परंतु रूस की प्रतिक्रिया वही थी, तोपें और बंदूकें। माओ-त्से-तुंग ने भी स्टालिन के पदचिन्हों पर चलते हुए अपने ही लाखों देशवासियों, खासकर किसानों को मरवा डाला। बाद में चीनी विशेषज्ञों ने प्रकट किया कि चीन में पड़े बदतरीन अकाल के दौरान भुखमरी, बीमारियों आदि से कीड़ों की तरह नष्ट होने वाले लाखों लोगों के अलावा अमानवीय क्रूरता का शिकार बनने वाले लोगों की संख्या 90 लाख थी! चीन के मामले में आरजे रमेल इस संख्या को लगभग 3,87,02,000 बताते हैं। कम्बोडिया में कम्युनिस्ट शासक पोलपोट ने अपने ही देश के 32 लाख नागरिकों की हत्याएं करवायीं थीं। अपनी खोजपरक पुस्तक ‘मार्टीरडम ऑफ स्वयंसेवक्स (स्वयंसेवकों का बलिदान) में एसवी शेषगिरी राव ने बताया है कि माओवादियों का धनाढ्यों के खिलाफ गरीबों के क्रांतिकारी संघर्ष से कोई लेना-देना नहीं है। केरल में मार्क्सवादियों द्वारा मारे गये लगभग 85 से 90 प्रतिशत आरएसएस स्वयंसेवक दैनिक या साप्ताहिक मजदूरी पर काम करने वाले गरीब लोग थे जैसे बीड़ी बनाने वाले, मछुआरे, स्टेट में काम करने वाले, फार्मों में मजदूरी करने वाले इत्यादि। जिन कम्युनिस्टों के नेतृत्व में चीन में चार करोड़ से अधिक निर्दोष निष्पाप नागरिक अत्याचार और बौद्धिक दमन का शिकार बनाकर मार डाले गये हों और जिनके नेता माओ को अपना नेता मानकर उसके नाम पर संगठन चलाने वाले नेपाल तथा भारत में हजारों नागरीको की हत्या के लिये जिम्मेदार आतंकवादी मुहीम को किसी क्रान्ति के नाम चला रहे हो, उनसे कैसे अपेक्षा की जा सकती है कि वे भारतीय जीवन पद्धति से निःसृत ज्ञान और करुणा से कोई तादात्म्य रखेगें? माओवादी एवं जिहादी हिंसा के पीछे विविधता को समाप्त कर एकरूपता लाने एवं भिन्न मत के अन्त की अभारतीय सोच रहती है। इसके समक्ष अदम्य राष्ट्र प्रेम और प्राचीन भारतीय सभ्यतामूलक विचार ही सफल हो सकता है जो सर्वाधिक के हित, विविधता में एकता और भिन्न मत के प्रति समझदारी पर टिका है। जिन कम्युनिस्ट आतंकवादियों ने नक्सलवाद या माओवाद का लिबास ओढ़कर केवल गत तीन वर्षों में 2600 भारतीयों की हत्या कर दी हो, उनके समर्थन में बोलने और लिखने वाले किस विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं? जो लोग माओवादी आतंकवादियों के कवच बनते और बनाते हैं, उन्हें हत्या के अपराध में शामिल क्यों नहीं माना जाना चाहिए? गृहमंत्री पी. चिदम्बरम माओवादी हिंसा के बारे में स्पष्ट हैं- उन्होंने हमसे एक सामूहिक बातचीत में कहा कि- ‘दीज आर कोल्ड ब्लडेड मर्डरर्स’- ये सिर्फ क्रूर हत्यारे हैं। चिदम्बरम ने पूछा- छोटे-छोटे 2 साल, चार साल तक के बच्चों को मारने के पीछे कौन सी क्रांतिकारी भावना है? स्कूल, अस्पताल, सड़कें न बनने देने या सार्वजनिक सेवा के भवन तोड़ने के पीछे कौन सा जनहित है? क्या जिन पुलिसकर्मियों की घात लगाकर माओवादी हत्याएं करते हैं, उनके परिवार, माता-पिता, पत्नी और बच्चे नहीं होते? माओवादियों की कंगारू अदालतें ग्रामीणों को पकड़कर उन पर पुलिस की मुखबिरी से लेकर सामान्य अपराधों के मामलों की सुनवाई करतीं हैं और ‘अपराधी’ का सर-धड़ दिया जाता है- उनका यह न्याय कौन से कोबाड गांधी या अरुन्धती राय उचित ठरा सकते हैं। एक समय था जब राजनीतिक कदाचार और प्रशासनिक भ्रष्टाचार के खिलाफ आंखों में लाल क्रांति का सपना तथा किताबों में सर्वहारा की तानाशाही के सिद्धांत लिए युवकों ने नक्सलवादी- लाल सलाम की गूंज उठायी थी। उनके नारे थे-चीन के चेयरमैन हमारे चेयरमैन। उन्हें विवेकानन्द, सुभाषचन्द्र बोस या ईश्वरचन्द्र विद्यासागर में अपने आदर्श नहीं दिखे-वे एक विदेशी विचारधारा और नायक के माध्यम से भारत में बदलाव की बात करते थे। उनके आदर्शों में चारु मजूमदार और राजू सान्याल के नेतृत्व में प्रारंभ ऑल इंडिया को आर्डिनेशन कमेटी ‘ऑफ कम्युनिस्ट रिवोल्यूशनरीज’ (कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की अभा समन्वय समिति) बाद में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) में तब्दील हुई जिसका हिस्सा छिटक कर माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (एमपीजी) के रूप में बिहार और उड़ीसा में सक्रिय हुआ। इसका भी बाद में आन्ध्र के पीपुल्स वारग्रुप में विलय हुआ और समन्वित इकाई भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) कही गयी। गृहमंत्रालय के सूत्रों के अनुसार माओवादी आईएसआई, उल्फा, लिट्टे तथा चीन से ही हथियार नहीं प्राप्त करते बल्कि इस्लामी तालिबानों के साथ भी उन्होंने गठबंधन किया है। भारत के 13 राज्यों में लगभग 20 हजार प्रशिक्षित और 50 हजार सामान्य माओवादी हिंसा के सूत्र बने हुए हैं जो सुरक्षा सैनिकों और सामान्य देशभक्त भारतीयों की अमानवीय हत्याएं कर रहे हैं। उनका सामना करने के लिए भारत की जनता का 7 हजार करोड़ से अधिक धन व्यय हो रहा है जो अन्यथा ग्रामीण क्षेत्र और शहरी आधुनिकीकरण में खर्च किया जाता। यह सत्य है कि माओवाद अंधाधुंध प्रत्याघात से समाप्त नहीं हो सकता-उसके लिए जनशक्ति और राजशक्ति का समन्वय एवं राजनेता और प्रशासक का ईमानदार होना भी जरूरी है। लेकिन समस्याओं के समाधान का हिंसक मार्ग हर हाल में निर्ममतार्पूवक समाप्त किया ही जाना चाहिए।
नक्सलवादी, माओवादी हिंसक आंदोलन बाह्य शक्तियों से ज्यादा खतरनाक और जटिल इसलिए हैं क्योंकि वे स्थानीय समाज में छिपकर रहते हैं, वहीं से बन्दूक की नोक पर कार्यकर्ता भर्ती करते हैं और समान्तर माफियाराज कायम करते हैं। माओवादी भारत की जनता के सबसे बड़े शत्रु इसलिए हैं क्योंकि बन्दूक के दम पर वे कहीं भी सत्ता में परिवर्तन और विकास नहीं ला पाये। अगर उन्हें अपने विचारधारा के प्रति निष्ठा है तो वे लोकतांत्रिक पद्धति अपनाने से क्यों डरते हैं?

11/11/2010

आँख से 'आंसू' नहीं शोले निकलने चाहिए


एक बार अपनी गाड़ी के नीचे एक गिलहरी के दब कर मर जाने के बाद नेहरू की प्रतिक्रिया थी कि इस जैसा फुर्तीला जानवर इसलिए मृत्यु को प्राप्त हुआ क्योंकि वह ऐन गाड़ी के सामने आ जाने पर तय ही नहीं कर पाया कि उसको आखिर जाना किधर है। छत्तीसगढ़ के दंतेवाडा जिले के मुकराना के घने जंगलों में केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल की 80 सदस्यीय 62 वीं बटालियन पर नक्सलियों द्वारा किये गए सबसे बड़े हमले में देश को अपने दर्जऩों जवानों से हाथ धोना पड़ा है। तो अपने जांबाजों की शहादत एवं सरकारों की भूमिका पर वही कहानी याद आ रही है। वास्तव में आज के लोकतंत्र के कर्णधार-गण ऐसी ही गिलहरी हो गए हैं जिनको पता ही नहीं है कि आखिर जाना किधर है। निश्चित ही यह अवसर किसी भी तरह के आरोप-प्रत्यारोप का नहीं है, ना ही मामला कांग्रेस और बीजेपी का है। मामला सीधे लोकतंत्र से जुड़ा हुआ है। सीधी सी बात ये है कि इस मामले में देश में कोई तीसरा विकल्प नहीं है। आप चाहें तो लोकतंत्र के पक्ष में दिखें या उसके खिलाफ। और उसके खिलाफ जाने वाले लोगों, संस्थाओं, नेपथ्य से संचालित हो रहे समूहों के साथ आखिर हमें कैसा सलुक करना चाहिए यह अगर हम एक बार तय कर लें तो ये कोई इतनी बड़ी लड़ाई नहीं है जिसमें विजय न पायी जा सके। बिना किसी भी तरह के पूर्वाग्रह रखते हुए भी आप सोचें। क्या आपको ऐसा लग रहा है कि नक्सलियों के खिलाफ सरकारों के पास किसी भी तरह की कोई स्पष्ट नीति है? इतनी बड़ी विभीषिका, देश के अंदर चलने वाले वाले इतनी बड़ी लड़ाई, संगठित गिरोहों द्वारा लोकतंत्र के समक्ष उत्पन्न कर दी गयी इतनी बड़ी चुनौती के बाद भी क्या हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें? मसले का हल बातचीत से हो, गोली से होगी, इलाके का विकास करने के बाद ही नक्सलियों का सफाया सम्भव है या नक्सलियों के सफाए के बाद हम विकास की बात सोचेंगे, इसमें सभी विकल्प या कोई एक विकल्प अपनाना ज़रूरी है? यह आतंकवाद है या विचार धारा की लड़ाई है, यह राज्य का मामला या केंद्र का, क़ानून व्यवस्था का है या राष्ट्रीय चुनौती इनमें से किसी भी बात पर अगर हम कोई सर्वसम्मत रुख नहीं अपना सकें तो फिर कैसे पार पा सकते हैं आप इस चुनौती से? सवाल केवल मज़बूत इच्छा शक्ति और बिना किसी भी तरह के राजनीतिक लाभ-हानि का विचार किये उस पर अमल का है। ऊपर जितने तरह के विरोधाभासों या दुविधा की चर्चा की गयी है, अगर आप केन्द्रीय गृह मंत्री मंत्री के नक्सल मामले में दिए गए आज तक के सभी बयानों पर गौर फरमायें तो लगेगा कि वास्तव में अलग-अलग मौके पर उनके ऐसे बयानों से हमारा सबका वास्ता पड़ता रहा है। तो बात इसी मौका परस्ती की है। अगर आप अपनी राजनीतिक स्थिति एवं सुविधाओं के अनुकूल ही चीज़ों को परिभाषित करने की बात करना चाहेंगे तो कैसे पार पा सकते हैं ऐसी विकराल समस्या से? चीजें आपकी सुविधा अनुसार तो बदलनी है नहीं। आप चिदंबरम जी के लालगढ़ में दिए बयान पर गौर कीजिये' वहाँ वो युद्ध के लिए तैयार नक्सलियों को बात-चीत के लिए ही आमंत्रित करने की कोशिश करते दिखे। जबकि इससे पहले किशन जी और उनके साथ फोन-फैक्स नंबर के आदान-प्रदान जैसा बचकाना मामला भी लोगों को देखने को मिला था। इसी तरह जहां मुख्यधारा के सभी विचारक-चिन्तक और राजनीतिक दल भी नक्सलियों को चोर-लुटेरों का गिरोह साबित करने में प्राण-पण से जुटे हो, यहाँ तक कि इस वाद के जन्मदाता कहे जाने वाले कानू सान्याल भी जिसको आतंकवाद कहने लगे थे। और हताश होकर जिन्होंने आत्महत्या तक कर ली हो वहाँ पर छत्तीसगढ़ का पुलिस अधिकारी किसी अन्य राज्य में जा कर नक्सलवाद को विचारधारा साबित करने पर तुल जाए, क्या अर्थ है इन बेतुकी बातों का? जिन-जिन लोगों को यह लगता हो कि आतंकवाद का खात्मा बन्दूक से नहीं हो सकता उनके लिए हालिया श्रीलंका का या उससे पहले पंजाब के उदाहरण पर गौर करना चाहिए। अगर लिट्टे के खिलाफ श्रीलंका की सरकार भी बात-चीत का राग ही अलापती रहती तो पीढिय़ों तक ऐसे ही असुरक्षित रहता वह देश भी। या अगर इंदिरा गांधी ने स्वर्ण-मंदिर में सेना न भेजी होती, पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री बेअंत सिंह अपनी जान की कीमत पर भी अगर आतंकियों को कुचलने हेतु दृढ़ प्रतिज्ञ नहीं होते तो शायद वह सरहदी राज्य आज भारत का हिस्सा ही नहीं रह गया होता। तो अब यह समय आ गया है कि देश नक्सल मामले को लोकतंत्र के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती के रूप में देखें। बिना किसी भी तरह के दवाव में आये इसको कुचलने और केवल कुचलने की नीति पर ही कायम रहें। प्रजातंत्र के इस महाभारत में शिखंडी की भूमिका निभाने वाले कुछ कलमकारों, विदेशी दलाल / दलालियों की जम कर उपेक्षा और अगर ज़रूरत हो तो उनके हाथ तोड़ देने से भी बाज़ ना आने की इच्छा शक्ति दिखलाये। ऐसे लोगों के लिए जन-सुरक्षा कानून का इस्तेमाल और बाकियों के लिए गोली, इस नीति पर चलें तो यह ऐसी बड़ी समस्या नहीं है जिससे पार ना पाया जा सके। अगर रणनीतिक तौर पर सोचा जाय तो इस मामले के लिए अनुकूलतम् स्थिति भी है। यह काफी सालों के बाद पहला मौका है जब नक्सलियों के मौसेरे भाई वाम-पंथियों की केंद्र में कोई हैसियत नहीं रह गयी है। साथ ही बचे खुचे कम्युनिस्ट खुद भी अब इन गिरोहों से मुक्ति चाहते हैं। तो इस मौके का इस्तेमाल कर लोकतंत्र की यमुना में नाग की तरह फन काढे इन लुटेरों को कुचलने में जी-जान से जुट जाए। निश्चित ही अपने जवानों की शहादत पर खून के आंसू रोने का दिल कर रहा है। किसी भी देशभक्त के लिए इस मौके पर चुप रहना संभव नहीं। लेकिन यह शहादत और गौरव की बात होती अगर हमारे 75 जवानों के बदले 750 राक्षसों का सर कलम करने में हमें सफलता मिली होती। आइये हम इसको नक्सलियों की कायराना हरकत नहीं कहें। उन्होंने तो अपने तरीके से बड़ी सफलता हासिल की है। बस इस शहादत का सबसे बड़ा सम्मान यही हो सकता है कि सभी सरकारें मिल-जुल कर यह घोषित करें कि नक्सल मामले में सभी कंधे से कंधे मिला कर चलेंगे। भविष्य में इनसे किसी भी तरह से बातचीत की बात करके अपने जवानों की शहादत को कलंकित नहीं करेंगे। जवानों से दस गुना संख्या में नक्सलियों का सर प्राप्त किये बिना चैन से नहीं बैठेंगे। लोकतंत्र के विरुद्ध दुष्प्रचार करने वाले हाथ को भी तोड़ कर दम लेंगे। इन गिरोहों को कभी 'अपने लोग' का संबोधन देने का पाप नहीं करेंगे। सीधे तौर पर नक्सलियों को अपना दुश्मन समझेंगे। अगर अमृतसर की तरह से सेना का भी इस्तेमाल करना पड़े तो भी पीछे नहीं हटेंगे। लोकतंत्र पर आये इस संकट का पूरे दमदारी से सामना करने को तैयार रहेंगे चाहे इंदिरा-राजीव गाँधी की तरह बम से उड़ जाना पड़े या मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की तरह चीथड़े उड़ जाए। शहीद जवानों की एक मात्र श्रद्धांजलि देश के चप्पे-चप्पे पर लोकतंत्र की वापसी करके ही दी जा सकती है। आजादी के दीवाने सेनानियों की तरह ही दंतेवाडा में शहीद हुए जांबाजों को सदियों तक देश याद रखेगा। अमर रहे ये सेनानी और कायम रहे उनका गुणगान करने को ये कायनात और लोकतंत्र।

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