रविवार, 27 फ़रवरी, 2005 को 10:47 GMT तक के समाचार
राजीव खन्ना
बीबीसी संवाददाता, अहमदाबाद
बीबीसी संवाददाता, अहमदाबाद
तीन बरस बाद भी ज़िंदा गोधरा के सवाल
गोधरा
काँड और उसके बाद के गुजरात दंगों को तीन वर्ष हो चुके हैं मगर गुजरात आज
भी दंगों की छाया में जी रहा है और अभी उसे उबरने में कितना वक़्त लगेगा ये
कह पाना मुश्किल है.
गोधरा काँड की तफ़्तीश सियासत और आयोगों में उलझी हुई है.
मामले
की सुनवाई पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा रखी है क्योंकि कुछ अभियुक्तों और
समाज सेवकों ने एक अर्ज़ी दी थी कि मामले की सुनवाई गुजरात से बाहर करवाई
जाए और मामले की तहकीकात केंद्रीय जाँच ब्यूरो या सीबीआई के हवाले कर दी
जाए.
पिछले वर्ष इस मामले में कई नए मोड़ आए
जिसमें प्रमुख था केंद्र में नई सरकार के आते ही मामले की तकनीकी जाँच के
लिए न्यायाधीश यू सी बनर्जी कमेटी का गठन.
इस
कमेटी ने अपनी अंतरिम रिपोर्ट में ये कहा है कि साबरमती एक्सप्रेस के एस-6
डिब्बे में आग अकस्मात लग गई थी और इसके पीछे कोई साज़िश नहीं थी.
मगर दूसरी ओर सरकार का ये दावा है कि गोधरा में 59 हिंदू रेल मुसाफ़िरों की मौत एक साज़िश के तहत ही हुई थी.
मामला अब सबूतों की सियासत में उलझा हुआ है.
मतभेद
दंगा
पीड़ित लोगों के वकील मुकुल सिन्हा कहते हैं,"जस्टिस बनर्जी कमेटी की
रिपोर्ट से पहली बार आधिकारिक रूप से ये बाहर आया है कि इसमें कोई साज़िश
नहीं थी. अगर यही चीज़ अंतिम रिपोर्ट में बाहर आती है तो आज तक जो कुछ
गोधरा काँड के बारे में बताया गया और जान-बूझकर बताया गया वो झूठा साबित
होगा और ये ज़रूरी भी है".
मगर रेलवे ट्राइब्यूनल
से मृत लोगों के परिवारजन को मुआवज़ा दिलवाने के बारे में विश्व हिंदू
परिषद के क़ानूनी मामलों के प्रकोष्ठ के अध्यक्ष दीपक शुक्ला कहते हैं कि
मुआवज़ा देते वक़्त रेल प्राधिकरण ने माना कि ये एक हिंसक घटना थी ना कि एक
हादसा.
गुजरात उच्च न्यायालय में न्यायाधीश रह
चुके जस्टिस एस एम सोनी कहते हैं,"जिस तरह जस्टिस बनर्जी कमेटी का उपयोग
किया गया इससे न्यायपालिका की छवि बिगड़ती है".
भय
सामाजिक परिवेश की बात कहें तो गुजरात का समाज आज भी बँटा हुआ है.
इस
खाई का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि नरौदा पटिया से बेघर हुई
रेहाना बानो का बेटा आज भी रोज़गार के लिए एक हिंदू नाम रख कर जाता है.
रेहाना
का कहना है,"वो हीरे का काम करता है. वो लोग मुसलमानों को काम पर नहीं
रखते हैं. कहते हैं मुसलमान के कारखाने में काम करो पर मुसलमान का तो हीरे
का काम है ही नहीं".
मुकुल सिन्हा का मानना है कि आतंकवाद निरोधक क़ानून पोटा का एकतरफ़ा इस्तेमाल इस खाई को क़ायम रखने के लिए बहुत हद तक ज़िम्मेदार है.
उनका
कहना है,"पोटा के एकतरफ़ा इस्तेमाल का मक़सद ही सामाजिक विभाजन करना था.
अल्पसंख्यकों पर पोटा लगाया गया तो वो डरे हुए हैं और जब इन अल्पसंख्यकों
को चरमपंथी बताया जा रहा है और अख़बारों में ये छप रहा है तो बहुसंख्यक डरे
हुए हैं".
इस बारे में जस्टिस सोनी मीडिया की 'अतिसक्रियता' को ज़िम्मेदार बताते हैं.
उनका कहना है कि 1969 का दंगा कहीं ज़्यादा पैमाने पर हुआ था मगर उस समय ऐसा 'अतिसक्रिय' मीडिया नहीं था.
उनका कहना है कि चीज़ों को बार-बार दिखाने से दंगे भड़क रहे थे.
उम्मीद
मुकुल सिन्हा को इस बात की बहुत कम आशा है कि दंगा पीड़ित लोगों को कभी न्याय मिलेगा.
वे
कहते हैं,"ये एक मृगतृष्णा है कि उन्हें कभी भी न्याय मिलेगा क्योंकि ये
पूरी व्यवस्था ही न्याय को तहस-नहस कर चुकी है. वक़्त शायद घाव भरे यदि जिन
लोगों ने घाव किए थे वे उसे भूलने दें तो शायद घाव भर जाएगा".
उनका
कहना है कि ज़मीनी स्तर पर सद्भावना का माहौल बनाने की ज़रूरत है और अगर
लोग एक दूसरे को माफ़ी देना चाहते हैं तो दे देना चाहिए.
सद्भावना के लिए कुछ प्रयास किए जा रहे हैं पर ये ज़रूरत से बहुत कम हैं.
प्रयास
ऐसा एक प्रयास है अहमदा के दानिलिम्डा इलाक़े से चल रही पास्ती योजना.
इस
योजना के तहत हिंदू दलित और मुस्लिम युवा एक साथ जाकर लोगों से पुरानी
अख़बारें और रद्दी इकट्ठा करते हैं और इसे बेच कर दंगा पीड़ित बच्चों के
स्कूल की फ़ीस भरी जाती है.
ये योजना चला रही मीरा
रफ़ी बताती हैं,"परेशानी ये है कि युवकों को रद्दी लेने नए अहमदाबाद के
मध्यम और उच्च मध्यम वर्ग के पास जाना पड़ता है जो ना केवल मज़हब के नाम पर
बल्कि जाति के नाम पर भई भेदभाव करते हैं".
इस
परियोजना में काम कर रहीं परवीन शेख का कहना है,"कई बार हमें झूठ बोलना
पड़ता है. कभी किसी मुस्लिम को, जो दलित के ख़िलाफ़ है, कहना पड़ता है कि
रद्दी केवल मुस्लिम बच्चों की पढ़ाई के लिए ली जा रही है".
इसी प्रकार कभी किसी दलित या अन्य हिंदू, जो मुसलमानों के ख़िलाफ़ है, उसे कहना पड़ता है कि ये काम दलितों के लिए कर रहे हैं.
कुछ लोग जो मुस्लिम और दलित दोनों के ख़िलाफ़ हैं उन्हें ये कहना पड़ता है कि ये रद्दी ग़रीब बच्चों के लिए इकट्ठी की जा रही है.
पर इस योजना के तहत दानिलिमडा जहाँ पर दंगे हुए थे वहाँ के दलित और मुस्लिम करीब आए हैं और मिलकर इसे चला रहे हैं.
तीन वर्ष बाद गुजरात के लोग आज भी उस मरहम की तलाश और उम्मीद में हैं जो उनके घाव भर सके.
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