कांग्रेसी राज में गुजरात दंगों का सच !!!
आखिर,
पायनियर (20 अप्रैल) के दस दिन बाद टाइम्स आफ इंडिया (30 अप्रैल) ने
तीस्ता जावेद सीतलवाड़ के विरुद्ध झूठी गवाही तैयार कराने का यास्मीन बानो
शेख का आरोप छाप ही दिया। उसे और छिपाना संभव भी नहीं था, क्योंकि यास्मीन
ने मुम्बई उच्च न्यायालय में उसे पेश कर दिया है। फिर भी हिन्दुस्तान
टाइम्स, इंडियन एक्सप्रेस, हिन्दू जैसे बड़े अंग्रेजी अखबार अभी तक चुप्पी
साधे हुए हैं। हां, नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध उनका प्रचार जारी है। स्थिति
यहां तक पहुंच गयी है कि इंडियन एक्सप्रेस ने 1 मई को गुजरात सरकार द्वारा
स्वर्णिम गुजरात महोत्सव के अवसर पर दिए तीन पृष्ठ के विज्ञापन तो छापे,
किन्तु उस अवसर पर अमदाबाद के सरदार पटेल स्टेडियम में गुजरात के
मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के उस महत्वपूर्ण भाषण को नहीं छापा, जिसमें
उन्होंने अपने विरुद्ध चलाये जा रहे अपप्रचार का तथ्यपूर्ण एवं तर्कपूर्ण
उत्तर दिया था। मोदी के विरुद्ध इतनी पक्षपातपूर्ण-द्वेषी पत्रकारिता
भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी बन सकती है।
मोदी के विरुद्ध दुष्प्रचार
नरेन्द्र
मोदी पर मुस्लिम विरोधी छवि लादने के पीछे सोनिया मंडली की रणनीति तो
इन्हीं खबरों से स्पष्ट हो जाती है जिनमें एक ओर तो मोदी को भावी
प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवारों की सूची से काटने का प्रचार है तो दूसरी ओर
10, जनपथ के प्रवक्ता संजीव भट्ट का समाचार आते ही वे नरेन्द्र मोदी के
नेतृत्व में गुजरात की सर्वतोमुखी प्रगति के प्रशंसकों को यह चेतावनी देने
के लिए दौड़ पड़ते हैं कि संजीव भट्ट के इस रहस्योद्घाटन के बाद वे मोदी की
प्रशंसा करना बंद करें। संजीव भट्ट के शपथपत्र का इससे अधिक क्या महत्व है
कि उसमें नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध इस प्रचार को ही दोहराया गया है कि मोदी
ने 2002 के साम्प्रदायिक दंगों में मुसलमानों का व्कत्लेआमव् कराया। 2002
से अब तक के समस्त चुनाव परिणामों और मौलाना वस्तानवी के व्टाइम्स आफ
इंडियाव् को दिये गये साक्षात्कार से भी यह स्पष्ट है कि गुजरात के
मुसलमानों पर इस दुष्प्रचार का कोई असर नहीं हो रहा है, क्योंकि वे मोदी के
मुख्यमंत्रित्व काल में गुजरात की विकास यात्रा में बराबर का हिस्सा पा
रहे हैं और अपने साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव महसूस नहीं कर रहे हैं।
गुजरात के बाहर के मुसलमानों को वे इस एकपक्षीय झूठे प्रचार से कब तक
गुमराह करते रहेंगे, यह कहना कठिन है। बिहार में लालू प्रसाद यादव और
रामविलास पासवान, उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की मोदी-विरोधी नाव
पहले ही डूब चुकी है। सोनिया पार्टी की भी मोदी-विरोधी प्रचार की पतंग न तो
बिहार में उड़ पायी और न ही उत्तर प्रदेश में। यदि सोनिया पार्टी के
रणनीतिकार यह आशा करते हैं कि गुजरात के विकास को 2002 के दंगों में
मुस्लिम नरमेध के झूठे प्रचार की आंधी उड़ाकर जन दृष्टि से छिपाया जा सकता
है, यह दुष्प्रचार दस वर्ष बाद भी मुस्लिम वोट बैंक को रिझाने में सहायक हो
सकता है, तो भाजपा के प्रचार तंत्र को भी सन् 1969 में कांग्रेस के
शासनकाल में हुए अमदाबाद के दंगे में मुसलमानों के नरमेध के काले पन्ने को
देश के सामने अवश्य लाना चाहिए। इसी दृष्टि से हम यहां उस दंगे से जुड़े कुछ
तथ्य प्रस्तुत कर रहे हैं।
अमदाबाद (1969) का साम्प्रदायिक दंगा
असगर
अली इंजीनियर मुस्लिम बौद्धिकों में जाना-माना नाम है। उनके द्वारा
संपादित एक पुस्तक का शीर्षक है कम्युनल राइट्स इन पोस्ट इंडिपेंडेंस
इंडिया (स्वातंत्र्योत्तर भारत में साम्प्रदायिक दंगे)। इस पुस्तक का प्रथम
संस्करण 1984 में और दूसरा संस्करण 1991 प्रकाशित हुआ था। अतरू इसे भारतीय
जनसंघ, भाजपा और नरेन्द्र मोदी के प्रभाव से सर्वथा मुक्त कहा जा सकता है।
वैसे भी असगर अली इंजीनियर भाजपा और हिन्दुत्व के कटु आलोचक रहे हैं,
प्रशंसक नहीं। इस पुस्तक में अमदाबाद में 1969 के दंगे पर एक 34 पृष्ठ
लम्बा लेख छपा है (पृ.175-208), जिसके लेखक हैं डा.घनश्याम शाह, जो
जाने-माने वामपंथी बौद्धिक हैं, लम्बे समय तक सूरत (गुजरात) स्थित सामाजिक
अध्ययन संस्थान के निदेशक रहे हैं और पिछले कई वर्षों से जेएनयू में
प्रोफेसर हैं। इस लेख को पढ़ने पर भी उनका कम्युनिस्ट समर्थक आवेश स्पष्ट हो
जाता है। हिन्दुत्ववादी और भाजपा समर्थक होने का आरोप तो उन पर लगाया ही
नहीं जा सकता। इस लेख में उन्होंने 18 से 21 सितम्बर, 1969 को चार दिनों तक
के अमदाबाद से प्रारंभ हुए साम्प्रदायिक दंगों के स्वरूप और कारणों की
मीमांसा प्रस्तुत की है। उनका यह वर्णन व्यक्तिगत सर्वेक्षण, दंगों पर
प्रकाशित न्यायमूर्ति जगमोहन रेड्डी आयोग की रपट एवं समकालीन दैनिक पत्रों
में प्रकाशित समाचारों व अन्य साहित्य पर आधारित है। लेख के अंत में एक
लम्बी संदर्भ सूची भी उन्होंने दी है।
जब
यह दंगा हुआ उस समय गुजरात में कांग्रेस का शासन था। हितेन्द्र देसाई वहां
के मुख्यमंत्री थे और केन्द्र में इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं। इसलिए
इस दंगे की पूरी जिम्मेदारी उस कांग्रेस की ही है जिसका उत्तराधिकारी होने
का दावा आजकल सोनिया और राहुल कर रहे हैं। इन दंगों में कांग्रेस पार्टी और
सरकार की भूमिका का वर्णन करने से पूर्व उसमें हुई जान-माल की हानि का
लेखा-जोखा प्रस्तुत करना भी आवश्यक है। घनश्याम शाह लिखते हैं कि चार दिन
तक चले इस दंगे में 1000 से अधिक लोग मारे गये और इससे कई गुना अधिक संख्या
में घायल हुए। लगभग 4000 (ठीक संख्या 3,969) घरों व दुकानों को आग लगाकर
भस्म कर दिया गया, 2,317 घरों-दुकानों को ढहा दिया गया। 6000 परिवार बेघर
हो गये, 15000 से अधिक लोग शरणार्थी शिविरों में पहुंच गये। दंगों के कारण
लगभग 34 करोड़ रुपए की दैनिक आमदनी की हानि हुई। जगमोहन रेड्डी रपट में कहा
गया है कि व्मुसलमानों और मुस्लिम सम्पत्ति पर हमले पूर्णतया सुनियोजित थे।
दंगाइयों और शस्त्रों को ले जाने के लिए वाहन उपलब्ध कराये गये थे। समाज
का प्रत्येक वर्ग इन दंगों में सम्मिलित था, बड़ी संख्या में श्रमिक वर्ग भी
हिस्सा ले रहा था। रपट कहती है कि इक्के-दुक्के कार्यकर्त्ता को छोड़ दें
तो पार्टी के नाते जनसंघ का इन दंगों में कोई हाथ नहीं था।व् (पृष्ठ 192)
मुस्लिमों का नरमेध और कांग्रेस की भूमिका
घनश्याम
शाह लिखते हैं कि 20 सितम्बर की शाम दंगे की लपटों ने पूरे अमदाबाद शहर को
घेर लिया था। पूरा हिन्दू समाज इन दंगों में सम्मिलित था। शिक्षित मध्यम
वर्ग से लेकर कपड़ा मिलों के मेहनतकश श्रमिक और सफाई कर्मचारी- सब एकजुट थे।
फरसों, कुल्हाड़ी, चाकुओं और भालों का लोगों को मारने के लिए इस्तेमाल किया
जा रहा था। औरतों के साथ बलात्कार हुआ, उनके कपड़े उतारकर उन्हें नग्न कर
सड़क पर घुमाया गया। बच्चों को पत्थरों पर पटककर मार दिया गया या उनके पैरों
से चीर दिया गया। शवों के अंग काट दिये गये। इस उन्माद से अमदाबाद के
लोगों पर पशुभाव हावी हो गया था। (पृष्ठ 190) व्दंगे अमदाबाद से राज्य के
विभिन्न हिस्सों में फैल गये। 20 सितम्बर की रात को जब हजारों मुसलमान
अमदाबाद छोड़कर भाग रहे थे तब चार ट्रेनों को रोककर सत्रह यात्रियों को मार
दिया गया। 23 सितम्बर को जब सरकार ने तीन घंटों के लिए कर्फ्यू हटाया तो 40
लोगों ने अपनी जान गंवाई। (पृष्ठ 191)
जब
अमदाबाद शहर और गुजरात दंगे की आग में जल रहा था तब मुख्यमंत्री हितेन्द्र
देसाई और उनकी कांग्रेस पार्टी क्या कर रही थी? घनश्याम शाह लिखते हैं,
व्कोई कांग्रेसजन दंगों को रोकने के लिए सामने नहीं आया। कांग्रेस भवन ने
अपने कार्यकर्ताओं को बड़ी संख्या में कफ्र्यू पास जारी कर दिये पर उन्हें
कोई स्पष्ट दिशा-निर्देश नहीं दिए। कुछ बूढ़े, पुराने गांधीवादी चिंतित
अवश्य थे, किन्तु बुढ़ापे के कारण वे कुछ करने में अक्षम थे और केवल
प्रार्थना कर रहे थे। प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष ने बताया कि
अधिकांश कांग्रेसी साम्प्रदायिक दृष्टिकोण रखते हैं। वडोदरा की जिला
कांग्रेस कमेटी ने दंगों की भर्त्सना करने से भी मना कर दिया। उसने
प्रस्ताव पारित किया कि कुछ मुसलमानों के पाकिस्तान समर्थक रुख के कारण
राज्य में तनाव की स्थिति पैदा हुई है। कांग्रेस कार्यकर्त्ताओं की लगभग
सभी बैठकों में यही स्वर उठा। जिम्मेदार कांग्रेसजनों ने मुसलमानों के
साम्प्रदायिक दृष्टिकोण की निंदा की और कहा कि उन्हें पाकिस्तान चले जाना
चाहिए। गुजरात के एक उच्चपदस्थ कांग्रेसी नेता ने एक जनसभा में भाषण दिया,
हमारे देश में पाकिस्तान के प्रति निष्ठा रखने वाले राष्ट्रविरोधी तत्व
सक्रिय हैं। पुलिस अपनी सीमाओं के कारण उनका पता नहीं लगा पायी। इसलिए आप
लोगों का फर्ज है कि आप उनका पता लगाएं। उनके घरों में घुसकर उन्हें पकड़ना
चाहिए और तब आप उनके साथ जैसा चाहे वैसा व्यवहार करें। (पृष्ठ 198)
राज्य सरकार की नीयत
घनश्याम
शाह लिखते हैं, कांग्रेसजनों ने दंगों में प्रत्यक्ष और परोक्ष- दोनों ढंग
से भाग लिया। उन्होंने प्रशासन को गुमराह किया। वडोदरा में तैनात
एस.आर.पी. दल को 20 सितम्बर को यह कहकर अमदाबाद भिजवा दिया कि यहां अशांति
का कोई खतरा नहीं है। इस प्रकार दंगाइयों को लूटमार और मस्जिदों को ढहाने
का मौका दे दिया। ऐसे समय में कांग्रेसी मुख्यमंत्री हितेन्द्र देसाई और
उनकी सरकार क्या कर रही थी? घनश्याम शाह के अनुसार, व्मुख्यमंत्री
हितेन्द्र देसाई दंगाग्रस्त क्षेत्रों में गये ही नहीं। वे पूरे समय अपने
बंगले में अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगियों और सुरक्षाकर्मियों से घिरे बैठे
रहे। राज्य सरकार ने राज्य में साम्प्रदायिक तनाव की स्थिति पैदा होने के
बारे में केन्द्र सरकार की चेतावनी को अनसुना कर दिया। 18 सितम्बर को दंगा
शुरू हो जाने पर भी कोई निर्णयात्मक कदम नहीं उठाया। 19 सितम्बर को कुछ ही
क्षेत्रों में कर्फ्यू लगाया गया। एस.आर.पी. और सी.आर.पी. को 20 सितम्बर की
प्रातः बुलाया गया, पर वे दंगों पर काबू पाने में असफल रहे। एक कैबिनेट
मंत्री के त्यागपत्र देने की धमकी के बाद ही सेना को दो दिन बाद 21 सितम्बर
की प्रातरू बुलाया गया। पूरे दिन मंत्रिमंडल में बहस होती रही कि सेना को
पूरा नगर सौंप दें या कुछ मोहल्लों तक सीमित रखें। राज्य सरकार सेना का
उपयोग करने में झिझक कर रही थी, क्योंकि इसकी हिन्दू मन पर प्रतिकूल
प्रतिक्रिया से उसे 1972 के चुनाव में जनसंघ के सत्ता में आने का भय सता
रहा था। अंततरू 21 की शाम को सेना को व्देखते ही गोली मारने का आदेश दिया
गया।
घनश्याम शाह के अनुसार, पुलिस
ने अपना कर्तव्य नहीं निभाया। उनकी आंखों के सामने लूटमार और हत्या होती
रही, पर वे निष्क्रिय रहे। कई जगह वे दंगाइयों के लिए मैदान खुला छोड़कर
वहां से भाग निकले। सी.आर.पी. और एस.आर.पी. के जवानों ने हिन्दुओं से कहा
कि मुसलमानों को ऐसा ही सबक मिलना चाहिए। (पृष्ठ 204) एक कांग्रेसी नेता ने
भी कहा कि हिन्दू पहली बार मुसलमानों को सबक सिखा पाये हैं। (पृष्ठ 205)
पुलिस वाले मन ही मन खिन्न थे क्योंकि उनसे कई बार मुसलमानों से सार्वजनिक
माफी मंगवायी गयी थी। ...कर्फ्यू को कड़ाई से लागू नहीं किया गया। अकेले
कांग्रेस भवन ने 5,000 कर्फ्यू पास जारी कर दिये। इसके अलावा अन्य अनेक
संस्थाओंध्व्यक्तियों को कर्फ्यू पास जारी करने का अधिकार दे दिया गया। इस
कारण कर्फ्यू की घोषणा बेमानी हो गयी।व् घनश्याम शाह को ऐसे लोग भी मिले
जिन्होंने जेब में कर्फ्यू पास रखकर दंगों में भाग लिया। घनश्याम शाह लिखते
हैं, जब वडोदरा शहर दंगाइयों के कब्जे में था तब वहां सरकारी अधिकारी और
राजनेता आपस में गाली-गलौज कर रहे थे। वडोदरा की कर्तव्यनिष्ठ प्रशासक
(जिलाधिकारी) अमदाबाद में गृहसचिव से तीन दिन तक सम्पर्क नहीं कर पायीं,
क्योंकि गृहसचिव मुख्यमंत्री के पास थे।
दंगे की पृष्ठभूमि
अब
हम इन दंगों के तात्कालिक कारणों और हिन्दू-मुस्लिम संबंधों की पृष्ठभूमि
पर आते हैं। घनश्याम शाह का माक्र्सवादी मस्तिष्क आर्थिक कारणों को खोजना
चाहता है, पर वे मिल नहीं पाये। उन्हें मानना पड़ा है कि अमदाबाद ट्रेड
यूनियन आंदोलन के पचास वर्ष बीत जाने पर भी वर्ग चेतना विकसित नहीं हो पायी
और पूरा श्रमिक वर्ग हिन्दू-मुस्लिम आधार पर विभाजित हो गया। ट्रेड
यूनियनें एवं राजनीतिक दल पूरी तरह निष्प्रभावी सिद्ध हुए। इन दंगों में
हिन्दू समाज के प्रत्येक वर्ग ने भाग लिया, पूरा समाज एकजुट हो गया।
उन्होंने यह भी माना कि हिन्दू-मुस्लिम तनाव शताब्दियों से चला आ रहा था।
1969 के दंगे से पहले 27-28 नवम्बर, 1968 को वेरावल में दंगा हुआ था,
जिसमें 100 मुसलमान मारे गये थे। 2 करोड़ रुपये के माल की हानि हुई थी। 1969
के दंगों की पृष्ठभूमि 1965 के भारत- पाकिस्तान युद्ध से बननी शु डिग्री
हो गयी थी। उस दौरान गुजरात के मुख्यमंत्री बलवंत राय मेहता के विमान को
कच्छ सीमा पर पाकिस्तान की सेना ने निशाना बनाया, जिसमें उनकी मृत्यु हो
गयी थी। इससे गुजरातवासियों की भावनाएं बुरी तरह आहत हुईं और उनके मन में
मुस्लिमविरोध का भाव अंकुरित हुआ। जनवरी, 1960 में भावनगर में आयोजित
अ.भा.कांग्रेस कमेटी के 66 वें अधिवेशन में मुसलमानों ने एक प्रतिवेदन
प्रस्तुत किया जिसमें सुधार विरोधी और पृथकतावाद की गंध आती थी। 1965 के
भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय सावधानी के तौर पर भारत सुरक्षा कानून के तहत
कई मुसलमान नेताओं को नजरबंद किया गया था। इस कारण 1967 के आम चुनाव के समय
मजलिसे मुशवरात ने कांग्रेस को हराने का फतवा जारी कर दिया। 2 जून, 1968
को अमदाबाद में जमीयत उल उलेमा ने एक सभा बुलायी जिसमें 16 प्रस्ताव पारित
किये गए। ये सभी प्रस्ताव मुसलमानों की पृथकतावादी साम्प्रदायिक मांगों पर
केन्द्रित थे। इसकी गुजरात के पंथनिरपेक्षतावादियों पर बहुत प्रतिकूल
प्रतिक्रिया हुई। उन्हें लगा कि मुसलमान समाज राष्ट्रीय धारा में आने की
बजाय अपने संगठित वोट बैंक का दबाव पृथकतावाद के पक्ष में बना रहा है। 18
सितम्बर, 1969 को अमदाबाद का दंगा शु डिग्री होने के केवल 15 दिन पहले
अमदाबाद और अन्य सब शहरोंध्कस्बों में मुसलमानों के विशाल जुलूस अल अक्सा
मस्जिद पर इस्रायली हमले के विरोध में निकले, जिनमें नारे लगे- जो इस्लाम
से टकराएगा, दुनिया से मिट जाएगा, मुस्लिम एकता जिंदाबाद, पाकिस्तान
जिंदाबाद् आदि। इसकी हिन्दू मन पर बहुत तीव्र प्रतिक्रिया हुई। कई दैनिक
पत्रों ने लिखा कि व्हजारों मील दूर स्थित अल अक्सा मस्जिद की तुम्हें इतनी
फिक्र है तो भारत में औरंगजेब द्वारा ध्वस्त ज्ञानवापी मंदिर, सिद्धपुर
में रुद्रामल शिव मंदिर को क्यों नहीं हिन्दुओं को वापस करते।
मुस्लिम आक्रामकता ही जिम्मेदार
मार्च,
1969 में नगर पालिका चुनाव के समय एक पुलिस अधिकारी से धक्का-मुक्की के
समय एक ठेले पर रखी कुरान शरीफ जमीन पर गिर गयी, जिससे क्रोधित होकर
मुसलमानों ने थाने पर हमला बोलकर कई पुलिसकर्मियों को घायल कर दिया और नारे
लगाये, इससे तो पाकिस्तान ही अच्छा है। कांग्रेस सरकार ने मुसलमानों के
दबाव में आकर उस पुलिस अधिकारी को सार्वजनिक माफी मांगने को कहा। एक
मुस्लिम पुलिस अधिकारी ने 12 बजे रात के बाद रामलीला को बंद कराने की कोशिश
में रामायण को पैर से ठोकर मारी। एक के बाद एक हुईं इन सब घटनाओं ने
हिन्दू मन को इतना अधिक आहत किया कि रामायण के अपमान के दो दिन बाद ही
हिन्दू धर्म रक्षा समिति का गठन हो गया। साधु-संत उपवास पर बैठ गये। रामायण
अपमान कांड की जांच की मांग की गई। अंततः उस मुस्लिम पुलिस अधिकारी को देर
से ही क्यों न हो, निलंबित किया गया। 18 सितम्बर, 1969 को दंगा शु डिग्री
होने का तात्कालिक कारण मुस्लिमबहुल जमालपुर मोहल्ले से सटे जगन्नाथ मंदिर
के साधुओं का अपमान व मंदिर पर मुस्लिम भीड़ का आक्रमण बना। उर्स के लिए
एकत्र मुस्लिमों की भीड़ ने मंदिर पर हमला बोल दिया, वहां रखी देव-प्रतिमाओं
को क्षति पहुंचाई जिससे व्यथित होकर जगन्नाथ मंदिर के मुख्य साधु अनशन पर
बैठ गये। उनके प्रति पूरे हिन्दू समाज में अगाध श्रद्धा थी। इस घटना के
विरोध में हिन्दू धर्म रक्षा समिति ने जनसभा का आह्वान किया और फिर दंगे की
चिंगारी सुलग उठी।
घनश्याम शाह
का लेख ध्वनित करता है कि मुस्लिम आक्रामकता ही दंगे के लिए जिम्मेदार थी।
उनके अनुसार बुद्धिजीवी पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता वर्ग भी मुस्लिम
समाज की सुधार विरोधी एवं पृथकतावादी मानसिकता से क्षुब्ध था। उनकी यह
धारणा बन गयी थी कि मुसलमानों का आधुनिकीकरण असंभव है। या तो उन्हें हिन्दू
हो जाना चाहिए या पाकिस्तान अथवा किसी अन्य मुस्लिम देश में चले जाना
चाहिए। कुछ सुधारवादी तो यह भी कहने लगे थे कि मुसलमानों को मताधिकार से
वंचित कर द्वितीय श्रेणी का नागरिक बना देना चाहिए। (पृष्ठ 206) यदि
प्रगतिशील बौद्धिक वर्ग इस भाषा में सोचने को विवश हो जाए तो गुजरात की
पीड़ा कितनी गहरी है, इसका अनुमान लगाया जा सकता है।द
( साभार पांचजन्य)
( साभार पांचजन्य)
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