इस्लाम का विरोध: क्या कहते हैं विशेषज्ञ
मैलिस रूथवन, लेखक, ‘इस्लाम इन द वर्ल्ड एंड फंडामेन्टलिज़म – ए शॉर्ट इन्ट्रोडक्शन’ ---
फिल्म के विरोध में हुई हिंसा के पीछे कुछ हद तक तो राजनीतिक अवसरवादिता थी, लेकिन इस तथ्य को भी नहीं नकारा जा सकता कि करीब 14 सदियों से मुसलमानों के ज़हन में बनी पैगंबर मोहम्मद की प्रतिष्ठा की रक्षा करने के प्रयासों को जनसमर्थन मिलेगा.
लेकिन ये समझना ज़रूरी है कि इस छवि का सार्वजनिक तौर पर अपमान करने और आधुनिक काल में विद्वानों द्वारा उसपर सवाल उठाने में फर्क है.
इतिहासकार टॉम हॉलैंड ने अपनी किताब और टेलिविज़न पर प्रसारित कार्यक्रम में पैगंबर से जुड़े कुछ तथ्यों पर सवाल उठाया तो इस्लामी विद्वानों ने उसका विरोध ज़रूर किया लेकिन बेनगाज़ी से काबुल तक दंगे नहीं भड़के.
इससे साफ होता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मुद्दे पर दो अलग रास्ते अपनाने की ज़रूरत है.
एड हुसैन, संयुक्त राष्ट्र की विदेश मामलों की परिषद में मध्य पूर्व अध्ययन के सीनियर फेलो, और ‘द इस्लामिस्ट’ पुस्तक के लेखक ---
मैं एक मुसलमान हूं और पश्चिम में रहता हूं लेकिन मुझे इन दोनों में कोई अंतर्विरोध नहीं दिखता.
लिखने-बोलने पर कैथोलिक चर्च के नियंत्रण को खत्म कर ही हम इस स्थिति में पहुंचे हैं जब आपको अभिव्यक्ति की आज़ादी है.
एक ऐसा समाज जहां पहली बार बड़ी संख्या में मुसलमानों और यहूदियों का प्रवेश हुआ और उन्हें पूरी धार्मिक आजादी मिली.
खुद पर सेंसरशिप लगाना इन्हीं उपलब्धियों को बदलने जैसा है.
जिस तरह से पश्चिमी देशों में मुसलमान स्वतंत्र हैं, उसी तरह से पूर्वी देशों में ईसाइयों और दूसरे धर्मावलंबियों को भी आजादी होनी चाहिए.
जेन किनिनमॉन्ट, सीनियर रिसर्च फेलो, चैथम हाउस --‘इनोसेंस ऑफ मुस्लिम्स’ फिल्म को लेकर इस्लामी देशों में हो रहे प्रदर्शन सिर्फ आंशिक हैं. इन प्रदर्शनों ने दर्शाया है कि लाखों लोग, बिना ये जाने कि यू ट्यूब पर पोस्ट किए एक खराब वीडियो का किसी देश की सरकार से संबंध है भी या नहीं, पश्चिमी देशों की सरकारों पर इस्लाम विरोधी एजेंडा चलाने का इलज़ाम लगाने को तत्पर हैं.पश्चिमी देशों की सरकारों और वहां के राजनयिकों को इस सामग्री के अन्य लोगों को ठेस पहुंचाने वाला होने की ओर सजग होना चाहिए.लेकिन इंटरनेट पर धार्मिक, नस्ली या दूसरे विवादास्पद मुद्दों पर डाली जा रही अपमानजनक सामग्री के लिए उन्हें ज़िम्मेदार नहीं माना जा सकता.ये सिर्फ बोलने की आजादी भर नहीं है बल्कि तकनीक की वास्तविकता भी है.
जिलियन यॉर्क, निदेशक, अभिव्यक्ति की अंतरराष्ट्रीय आज़ादी, इलेक्ट्रॉनिक फ्रंटियर फाउंडेशन ---जब कोई विचार रखे जाने पर हिंसा भड़क उठती है, तो उस वक्त आत्म-संयंम बरतने के विचार को बल मिलता है.हम अब एक ऐसी दुनिया में रहते हैं जहां न्यू यॉर्क में कही बात कायरो में भी देखी-सुनी जाती है, ऐसे में अल्पसंख्यकों के विचारों को ध्यान में रखते हुए अपनी बात को ज़्यादा संवेदनशीलता से कहने का दबाव बढ़ता है.
लेकिन पैगंबर मोहम्मद के लिए आज दिया जा रहा ये तर्क कल किसी तानाशाह के लिए भी दिया जा सकता है.
यूरोप के कई हिस्सों में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान किए गए यहूदियों के नरसंहार के विपरीत कुछ कहना जुर्म माना जाता है, जिसके चलते अन्य समुदाय भी ऐसी पाबंदी की मांग करते रहे हैं.वहीं अमरीका में नफरत को हवा देने वाले भाषण या अन्य अभिव्यक्ति को गैर-कानूनी नहीं माना जाता.
मेरे ख्याल से ऐसे भाषणों का जवाब दरअसल और भाषण तथा चर्चा ही हैं.एल्मर ब्रोक, यूरोपीय संसद के जर्मन सदस्य, अंतरराष्ट्रीय मामलों की समिति के अध्यक्ष
पैगंबर मोहम्मद का अपमान करनेवाली फिल्म ग़लत ही नहीं घृणास्पद है.
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वहीं खत्म हो जाती है जहां उसकी आड़ में लोग देशों और समुदायों के बीच नफरत पैदा करने की कोशिश करते हैं.
वहीं मैं फिल्म के बाद हुई हिंसा और खूनखराबे को भी गलत मानता हूं.
यूरोप को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की नीति अपनाने पर गर्व है, लेकिन वो सब करना ज़रूरी नहीं होता जिसकी आज़ादी दी जाती है.
हम ये भी समझते हैं कि इंटरनेट के दौर में जानकारी को रोकना मुनासिब नहीं है.
इसलिए रास्ता है धार्मिक पूर्वाग्रहों और द्वेष को कम करना, ये कोशिश दोनों तरफ होनी चाहिए
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