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Saturday, September 1, 2012

`मोदी फोबिया` में जी रहे हैं नीतीश

`मोदी फोबिया` में जी रहे हैं नीतीश

`मोदी फोबिया` में जी रहे हैं नीतीश
लगता है बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार `मोदी फोबिया` (गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से भय) में जी रहे हैं। उठते-बैठते, सोते-जागते नीतीश कुमार इस बात से आक्रांत हैं कि कहीं भाजपा नरेंद्र मोदी को एनडीए में प्रधानमंत्री की कुर्सी का दावेदार न घोषित कर दे। सो एक बार फिर से नीतीश ने नरेंद्र मोदी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। उनका कहना है कि अगर भाजपा ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री की कुर्सी का दावेदार बनाया तो वह बिना किसी देरी के भाजपा का साथ छोड़ देंगे क्योंकि मोदी को तरजीह देने से कांग्रेस को संजीवनी मिल जाएगी। यहां गौर करने की बात ये है कि नीतीश कुमार नरेंद्र मोदी की मुखालफत तो करते हैं लेकिन अपनी तरफ से प्रधानमंत्री की कुर्सी के लिए किसी का नाम नहीं लेते। खुद के बारे में तो इस बार वह यहां तक बोल गए कि वह प्रधानमंत्री की कुर्सी के दावेदार नहीं हैं क्योंकि वह देवगौड़ा या गुजराल नहीं बनना चाहते। नीतीश का कहना है कि उनका इरादा राजनीति में 15 साल और रहने का है। इसके बाद वे राजनीति से संन्यास ले लेंगे। भाजपा से रिश्ते टूटने की हालत में वे क्या करेंगे तो बिहार के मुख्यमंत्री का जवाब था कि जब एक बार भाजपा से हमारा हनीमून पीरियड खत्म हो जाएगा तो मैं किसी भी फैसले के लिए स्वतंत्र हो जाऊंगा। इसके बाद मैं ऐसी किसी भी पार्टी के साथ जा सकता हूं जो मेरे सपनों को पूरा करने में मदद करे, जो बिहार को विकसित करने में मदद करे। अगर कांग्रेस मेरी मांगों को पूरा करे तो मैं उससे भी गठबंधन के लिए तैयार हूं। इतने से तो नीतीश की मंशा आप समझ ही गए होंगे।

हालांकि जितनी बातें नीतीश कुमार ने अंग्रेजी पत्रिका `वीक` को दिए इंटरव्यू में कही थी उससे वे अब पलट चुके हैं और पत्रिका प्रबंधन ने भी इस विवादित इंटरव्यू को प्रकाशित नहीं करने का फैसला किया है। दरअसल पत्रिका ने इस इंटरव्यू के कुछ अंशों को अपनी वेबसाइट पर डाला था लेकिन जब नीतीश ने जब यह कहा कि उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं कहा तो इंटरव्यू के हिस्से को वहां से हटा लिया गया। लेकिन कहते हैं न कि जब तीर कमान से निकल गई तो फिर कुछ हो नहीं सकता सिवा अफसोस करने के। एक-दूसरे को घेरने का नीतीश और मोदी का यह खेल दरअसल 2008 में शुरू हुआ था। यह बात अलग है कि इस दरम्यान दोनों नेता हाथ मिलाकर मीडिया में पोज भी देते रहे। 2008 में कोसी बाढ़ के बाद नरेंद्र मोदी ने बिहार को पांच करोड़ रुपए दिए थे। नीतीश ने यह रकम लौटा दी। नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार की दोस्ती का पोस्टर प्रचार हुआ तो नीतीश इतने गुस्से में आए कि उन्होंने भाजपा के केंद्रीय नेताओं के साथ पटना में आयोजित भोज तक रद्द कर दिया था। नीतीश ने बाद में भी मोदी फोबिया बनाए रखा। 2009 में लोकसभा और 2010 में विधानसभा चुनाव के दौरान नीतीश ने मोदी को बिहार में प्रचार के लिए आने से मना कर दिया। इस बीच मौका पाकर नरेंद्र मोदी भी नीतीश पर निशाना साधते रहे। 10 जून 2012 को मोदी ने गुजरात में भाजपा प्रदेश कार्यकारिणी की बैठक में कहा कि बिहार कभी शानदार राज्य हुआ करता था लेकिन वहां की जातिवादी राजनीति और जातीय नेताओं ने उसे पीछे धकेला है। इसके बाद नीतीश ने तुरंत मोदी का नाम लिए बगैर कहा कि लोगों को अपना घर देखना चाहिए। लेकिन जानकारों के मुताबिक इतना भर कह देने से मोदी को जवाब नहीं दिया जा सका था, इसलिए 15 जून को जब अपनी पार्टी के राज्य कार्यकारिणी की बैठक की बारी आई तो नीतीश ने दूसरा राग छेड़ मोदी को कुरेदा। बैठक में नीतीश ने कहा कि देश का प्रधानमंत्री धर्मनिरपेक्ष छवि का व्यक्ति होना चाहिए। इस बयान से देश में धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता पर बड़ी बहस छिड़ गई।

दरअसल नीतीश कुमार भाजपा से अलग होने के बाद की राजनीति का रोडमैप तैयार कर चुके हैं। बस उन्हें इंतजार है भाजपा से अलग होने के लिए एक मजबूत बहाने का। वीक को दिए इंटरव्यू में नीतीश ने इस बात के संकेत भी दे दिए कि अगर भाजपा से उनका गठबंधन टूटता है तो उनका सपना पूरा हो जाएगा। मानो वह उस वक्त का इंतजार कर रहे हों। भाजपा से अलग होकर नीतीश को कांग्रेस से गठबंधन करने में कोई ऐतराज नहीं है, बशर्ते कांग्रेस उनके `सपनों का बिहार` बनाने में सहयोग करे। वैकल्पिक राजनीति के तहत तीसरा मोर्चा पर भी नीतीश की पैनी नजर है और मौका मिला तो वह यूपीए और एनडीए से अलग थर्ड फ्रंट को खड़ा कर सकते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि भाजपा में पीएम पद के लिए संभावित दावेदारों में नरेंद्र मोदी से बेहतर और सशक्त नेता कोई और नहीं है। नरेंद्र मोदी एक ऐसे शख्स हैं जिन्हें राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का भी आशीर्वाद प्राप्त है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी भी चाहते हैं कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में लोकसभा चुनाव 2014 का चुनाव लड़ा जाए। नीतीश कुमार को भी इन सारी बातों जानकारी है इसीलिए बार-बार वह भाजपा को एक तरह से धमकी देते रहते हैं कि मोदी को बतौर पीएम प्रोजेक्ट किया गया तो वह एनडीए से नाता तोड़ लेंगे। नीतीश की छवि भी एनडीए ही नहीं, पूरी राष्ट्रीय राजनीति में काफी अच्छी मानी जाती है। नीतीश और मोदी की तुलना की जाए तो दोनों देश के कद्दावर नेता हैं, दोनों लोकसभा चुनाव-2014 के लिए प्रधानमंत्री पद के प्रबल दावेदार समझे जाते हैं, दोनों यूपीए के खिलाफ एनडीए के जहाज पर सवारी कर रहे हैं, दोनों नेता सुशासन और विकास को तरजीह देते हैं, दोनों नेता जब बोलते हैं तो लोग उन्हें ध्यान से सुनते हैं। इतनी समानता के बावजूद सिर्फ एक मुद्दा दोनों को दो ध्रुव पर ला खड़ा कर देता है और वो मुद्दा है धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता का। नीतीश धर्मनिरपेक्ष छवि के नेता माने जाते हैं तो नरेंद्र मोदी सांप्रदायिक छवि के।

इतिहास पर नजर दौराएं तो जबसे लोकतांत्रिक राजनीति की शुरुआत हुई है, तब से लेकर आज तक राजनीति और छवि को एक दूसरे के पूरक के तौर पर देखा गया है। आज यह तिलिस्म टूटता नजर आ रहा है। आम जनता ही नहीं, नेता लोग भी एक दूसरे की छवि पर अक्सर कीचड़ उछालते नजर आते हैं। भारतीय राजनीति का यह एक दुर्भाग्यपूण पहलू है। नीतीश और नरेंद्र मोदी को ही लें तो दोनों नेता एक नाव पर सवारी कर रहे हैं और दोनों एक दूसरे को कमजोर करने में काफी वक्त भी गंवा रहे हैं। सवाल है कि अगर नरेंद्र मोदी अपनी सांप्रदायिक छवि के बावजूद गुजरात को विकास के रास्ते पर लगातार आगे बढ़ा रहे हैं, सूबे की जनता उन्हें पसंद करती है और देश को विकास के रास्ते पर ले जाने के लिए उनके पास कोई एजेंडा है तो क्या फर्क पड़ता है वे धर्मनिरपेक्ष नहीं हैं। ये फैसला जनता पर छोड़ देने में क्या हर्ज है। नीतीश की अगर लोकतांत्रिक राजनीति में आस्था है तो फिर वह इस बात को कैसे तय कर सकते हैं कि वह खुद धर्मनिरपेक्ष हैं और नरेंद्र मोदी सांप्रदायिक हैं। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि नीतीश को कहीं न कहीं मोदी की छवि से डर लगता है। अगर देश में जनमत सर्वे कराया जाए तो निश्चित रूप से नीतीश के मुकाबले मोदी की छवि बेहतर आंकी जाएगी और इस बात का अंदाजा नीतीश को है। इसलिए नीतीश बार-बार एनडीए और भाजपा आलाकमान को नरेंद्र मोदी की सांप्रदायिक छवि से बचने की सलाह देते रहते हैं।

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