दम तोड़ती रही ज़िंदगी रात-भर
दम तोड़ती रही ज़िंदगी रात-भरबेपरवाह महफ़िलें सजीं रात-भर
दंगों में मरते रहे बच्चे – बूढ़े
इंसानियत शर्मशार रही रात-भर
थी आज़ादी की सालगिरह जश्न का माहौल भी
झोपड़ियों की मसालें जलीं रात-भर
मै घर भी जाता तो क्या लेकर
उम्मीदें तार-तार हुईं रात-भर
सबकी फ़िक्र लिए भटकते रहे हम
सबकुछ लूट गया हुई बेज़्ज़ती रात-भर
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