इन दिनों मैं एक दिलचस्प किताब पढ़ रहा हूं, जिसका नाम है-ह्वाई नेशन फेल। आप जैसे-जैसे इस किताब को पढ़ते जाएंगे, उतने ही इसके मुरीद होते जाएंगे कि अफगानिस्तान के मामले में हम कितने मूर्ख साबित हुए और हमें अपनी विदेशी सहायता रणनीति को बदलने की कितनी जरूरत है।
एमआईटी के अर्थशास्त्री डॉरेन एकमॉलू और हार्वर्ड के राजनीतिशास्त्री जेम्स ए रॉबिन्सन द्वारा लिखी गई यह किताब बताती है कि मुख्यतः संस्थाएं ही देशों के बीच फर्क पैदा करती हैं। राष्ट्र तभी फलते-फूलते हैं, जब वे समावेशी राजनीतिक और आर्थिक संस्थानों का विकास करते हैं, और वे तभी विफल होते हैं, जब वे संस्थाएं शोषक बन जाती हैं तथा सत्ता एवं अवसर चंद लोगों तक सिमटकर रह जाते हैं।
संपत्ति के अधिकार को लागू करने वाली समावेशी और राजनीतिक संस्थाएं सबके फल-फूल सकने का ढांचा तैयार करती हैं और नई तकनीकों और हुनर में निवेश को प्रोत्साहित करती हैं। ये उन शोषक आर्थिक संस्थानों की तुलना में आर्थिक वृद्धि में सहायक होती हैं, जिनकी संरचना चंद लोगों द्वारा कइयों से संसाधन छीनने के लिए होती है।
समावेशी आर्थिक और राजनीतिक संस्थाएं एक-दूसरे को सहयोग करती हैं, बहुलतावादी तरीके से राजनीतिक शक्तियों का व्यापक वितरण करती हैं और कानून-व्यवस्था बहाल कर, संपत्ति के अधिकार का ढांचा सुनिश्चित कर और समावेशी बाजार अर्थव्यवस्था स्थापित कर कुछ हद तक राजनीतिक केंद्रीकरण हासिल करने में सक्षम होती हैं। इसके विपरीत शोषक राजनीतिक संस्थाएं सत्ता पर पकड़ बनाए रखने के लिए कुछ सबल शोषक आर्थिक संस्थाओं के पास शक्तियां केंद्रित करती हैं।
एकमॉलू एक इंटरव्यू में बताते हैं कि राष्ट्र तभी फलते-फूलते हैं, जब वे हर नागरिक के नवोन्मेष, निवेश और विकास की पूरी शक्तियों को स्वतंत्र, सशक्त और संरक्षित करने वाली राजनीतिक एवं आर्थिक संस्थाओं का निर्माण करते हैं। जरा तुलना कीजिए कि साम्यवाद के पतन के बाद से सोवियत संघ का हिस्सा रहे जॉर्जिया या उजबेकिस्तान के साथ पूर्वी यूरोप के रिश्ते कैसे हुए या इस्राइल बनाम अरब देशों या कुर्दिस्तान बनाम बाकी इराक में क्या हुआ।
इन दोनों लेखकों के मुताबिक, इतिहास का सबक यह है कि अगर आपकी राजनीति सही नहीं होगी, तो आपकी अर्थव्यवस्था भी दुरुस्त नहीं होगी। इसीलिए वे इस धारणा का समर्थन नहीं करते कि चीन ने राजनीतिक नियंत्रण के जरिये आर्थिक विकास हासिल करने का कोई जादुई फॉरमूला ईजाद किया है। एकमॉलू कहते हैं, 'हमारा विश्लेषण यह है कि चीन ने कम्युनिस्ट पार्टी के तानाशाही नियंत्रण वाली शोषक संस्थाओं के जरिये विकास हासिल किया है। इसलिए यह विकास टिकाऊ नहीं है, क्योंकि यह उस 'रचनात्मक विघटन' को प्रोत्साहित नहीं करता, जो नवोन्मेष और उच्चतम आय के लिए बेहद अहम होता है।'
वे आगे लिखते हैं कि टिकाऊ आर्थिक विकास के लिए नवोन्मेष जरूरी है और नवोन्मेष को रचनात्मक विघटन से अलग नहीं किया जा सकता। नवोन्मेष आर्थिक क्षेत्र में पुराने की जगह नए को स्थापित करता है और राजनीतिक क्षेत्र में स्थापित सत्ता संबंधों को अस्थिर करता है। इसलिए जब तक चीन रचनात्मक विघटन पर आधारित अर्थव्यवस्था के लिए अपनी नीतियों में परिवर्तन नहीं करता, तब तक उसका विकास टिकाऊ नहीं होगा।
क्या आप इसकी कल्पना कर सकते हैं कि पढ़ाई छोड़ चुके एक 20 वर्षीय लड़के को एक कंपनी शुरू करने की इजाजत मिलती है, जो सरकारी बैंकों द्वारा वित्त पोषित चीनी कंपनियों के पूरे क्षेत्र के लिए चुनौती बनती है। एकमॉलू बताते हैं कि 9/11 के बाद उपजा विचार, कि अरब देशों और अफगानिस्तान में लोकतंत्र की कमी ही उसका रोग है, गलत नहीं था। लेकिन अमेरिका का यह सोचना गलत था कि हम वहां लोकतंत्र का निर्यात कर सकते हैं। टिकाऊ लोकतांत्रिक बदलाव कहीं बाहर से नहीं आ सकता, बल्कि वह स्थानीय तौर पर जमीनी आंदोलनों से ही उभरता है।
हालांकि इसका मतलब यह भी नहीं कि बाहरी लोग कुछ नहीं कर सकते। उदाहरण के लिए, हमें मिस्र जैसे देशों में सैन्य सहायता से हाथ खींचकर वहां के समाजों को व्यापक रूप से राजनीति से जोड़ना चाहिए। मिस्र, पाकिस्तान और अफगानिस्तान को दी जाने वाली अमेरिकी सहायता वास्तव में फिरौती है, जो वहां के शासक वर्ग को इसलिए दी जाती है, ताकि वे गलत काम न करें। हमें इसे प्रलोभन के रूप में बदलने की जरूरत है।
मसलन, काहिरा को और 1.3 अरब डॉलर की सैन्य सहायता देने के बजाय हमें इस बात पर जोर देना चाहिए कि मिस्र अपने समाज के सभी क्षेत्रों के प्रतिनिधियों की एक कमेटी बनाए, जो हमें बताएगा कि विदेशी सहायता से वे कौन-सी संस्थाएं, मसलन स्कूल, अस्पताल आदि बनाएंगे और उसके लिए उचित प्रस्ताव देगा। यदि हम उन्हें धन दे रहे हैं, तो उसका उपयोग संस्थाओं की मजबूती के लिए करना चाहिए।
हम केवल उनके लिए दबाव समूह ही हो सकते हैं। अगर आपके पास समावेशी संस्थानों के निर्माण के लिए जमीनी स्तर पर आंदोलन होगा, तो हम उसे केवल गति ही सकते हैं, लेकिन हम उसका निर्माण नहीं कर सकते या उसका विकल्प नहीं बन सकते। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि अफगानिस्तान और कई अरब देशों में हमारी नीतियां जमीनी स्तर के आंदोलनों को हतोत्साहित करती और हमारे लिए सुविधाजनक ताकतवरों की मदद करती हैं। इसलिए उन देशों में हमारे पास करने के लिए कुछ नहीं है।
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