इजरायल नामक एक नया देश
अंग्रेज जब दक्षिण एशिया छोड़कर गए तो भारत और पाकिस्तान को विभाजित कर ऐसा नासूर छोड़ गए जो आज तक हमारे लिए परेशानी का कारण बना हुआ है। उसके अगले साल उन्होंने पश्चिम एशिया में अकारण यहूदियों के रहने के लिए जहां फलस्तीन बसा हुआ था वहां इजरायल नामक एक नया देश पैदा कर दिया। यहूदियों ने अरबों को वहां से खदेड़ कर उनकी संख्या 1948 की लगभग आधी कर दी है और दुनिया के अन्य हिस्सों से यहूदियों को वहां आने का आह्वान कर अपनी संख्या उनके बराबर कर ली है। अंग्रेजों ने विवाद का ऐसा बीज बोया है जो आने वाले कई सालों और पीढि़यों तक अरबों और यहूदियों, दोनों के लिए परेशानी का कारण बना रहेगा।
इजरायल ने फलस्तीन को दो इलाकों- गाजा और वेस्ट बैंक में सीमित कर दिया है। अपने ही घर में फलस्तीनी बंधकों की तरह रहने को मजबूर हैं। फलस्तीनियों ने इजरायल का कभी कम कभी ज्यादा, लगातार 64 सालों से हमला झेला है। एक पूरी पीढ़ी को मालूम ही नहीं कि सामान्य जिंदगी क्या होती है। प्रत्येक फलस्तीनी घर में, यहां तक कि उनके शीर्ष नेताओं के घरों में भी, दीवारों पर शहीदों की तस्वीरें लगी दिखाई पड़ेंगी। हजारों फलस्तीनी इजरायल की जेलों में बंद हैं। फलस्तीन ने इजरायल के खिलाफ पहले शांतिपूर्ण संघर्ष किया। यासर अराफात के नेतृत्व में चले आंदोलन को पूरी दुनिया के अमन और न्यायपसंद लोगों का समर्थन प्राप्त था। वह भारत में भी उतने ही लोकप्रिय थे जितने कि शायद अपने लोगों के बीच में। अमेरिकियों ने उनके और इजरायली नेतृत्व के बीच शांति वार्ता में मध्यस्थता की। कई बार समझौते भी हुए, लेकिन इजरायल ने किसी भी समझौते का सम्मान नहीं किया, बल्कि इस वजह से यासर अराफात की अपने लोगों में विश्वसनीयता घटी।
यासर अराफात के बाद जो फलस्तीनी नेतृत्व उभरा वह कट्टरपंथी इस्लामिक विचारधारा से प्रेरित था। दुनिया को यासर अराफात के जाने के बाद उनके जैसे एक नेता की काफी कमी महसूस हुई। वर्तमान में हमास और अल-फतह दो फलस्तीन संगठनों को अधिकांश जनता का समर्थन प्राप्त है। पिछले चुनाव में हमास की जीत होने के बावजूद उसे पूरे फलस्तीन में सरकार नहीं बनाने दी गई। हमास का नियंत्रण गाजा पर है तो उसके पूर्व सरकार चला चुके फतह का नियंत्रण वेस्ट बैंक पर। इन दोनों गुटों में खूनी प्रतिस्पर्धा के दौर भी रहे हैं, लेकिन पिछले वर्ष दोनों में एकता की बात ने जोर पकड़ा।
गाजा पर गत 14 नवंबर को इजरायल ने बिना किसी चेतावनी के हमला कर हमास के सेनापति अहमद जबारी की हत्या कर दी। विडंबना यह है कि अहमद जबारी को कुछ घंटों पहले ही इजरायल के साथ स्थायी शांति हेतु एक दस्तावेज प्राप्त हुआ था, जिसमें हमले तेज हो जाने की स्थिति में शांति कैसे बहाल करें, इसके सुझाव दिए गए थे। जवाब में जब हमास ने भी कुछ प्रक्षेपास्त्र छोड़े जिसमें तीन इजरायली नागरिकों की जानें गई तो इजरायल को हमले अचानक तेज करने का बहाना मिल गया। इस ताजा दौर में, जैसा कि हमेशा होता आया है, अब तक यहूदियों से कई गुना ज्यादा फिलीस्तीनी नागरिक मारे जा चुके हैं और उससे भी कई गुना ज्यादा अस्पताल पहुंच चुके हैं। दोनों तरफ मारे जाने वालों में महिलाएं व बच्चे शामिल हैं, जो इस त्रासदी का सबसे दुखद पहलू है। इजरायल में जनवरी में चुनाव हैं। इजरायली प्रधान मंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने दक्षिणपंथी वोटों के ध्रुवीकरण की दृष्टि से यह हमला किया है। पूरी दुनिया को यह बताया जा रहा है कि इजरायल अपनी सुरक्षा के लिए ऐसा कर रहा है, जबकि हकीकत कुछ और ही है। इजरायल की समस्या का स्थायी हल निकालने में रुचि नहीं है। यह दुनिया का अकेला मुल्क है, जिसने अपनी सीमाओं की घोषणा नहीं की है। इतिहास में देखा जाए तो फलस्तीन पर कब्जा करने के साथ-साथ उसे जब मौका मिला उसने कभी मिस्न तो कभी सीरिया, कभी लेबनान तो कभी जॉर्डन के इलाकों पर अवैध कब्जा करने की कोशिश की है। यदि इजरायल वास्तव में हल चाहता तो अभी तक क्षेत्र का स्पष्ट रूप से बंटवारा कर दो अलग मुल्क बनाकर फलस्तीन के साथ सह-अस्तित्व की भावना से रह सकता था। एक ही मुल्क में बराबर की नागरिकता प्रदान कर यहूदी, मुसलमानों और ईसाइयों, के साथ भी रह सकते थे, किंतु वे मुस्लिम व ईसाइयों को बिल्कुल भी बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है। यहूदियों के साथ हिटलर ने जो किया वह निश्चित रूप से अमानवीय था, लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं हो सकता कि यहूदियों द्वारा किसी और पर किए जा रहे अत्याचार को जायज ठहराया जाए।
अमेरिका हमेशा इजरायल के पक्ष में खड़ा दिखाई पड़ता है, क्योंकि अमेरिका में यहूदियों का सरकार पर काफी दबाव रहता है। वे अमेरिका के सबसे धनी व प्रभावशाली समुदायों में से है। इसलिए अमेरिका, जिसने दुनिया में घूम-घूम कर लोकतंत्र कायम करने का ठेका ले रखा है, इजरायल द्वारा फलस्तीनियों के उत्पीड़न पर कोई सवाल नहीं खड़ा करता। संयुक्त राष्ट्र में फलस्तीन के पक्ष में कई प्रस्ताव पारित हो चुके हैं, लेकिन अमेरिका फलस्तीन को संयुक्त राष्ट्र का सदस्य ही नहीं बनने दे रहा। गनीमत है कि भारत ने अमेरिकी दबाव को नजरअंदाज करते हुए फलस्तीन के पक्ष में मत दिया। भारत ने हमेशा से फलस्तीन का समर्थन किया है, लेकिन जब से देश ने उदारीकरण, निजीकरण व वैश्वीकरण वाली आर्थिक नीतियां अपनाईं हैं, हम इजरायल के भी अच्छे दोस्त बन गए हैं। इतने अच्छे कि इजरायल के आधे हथियार अब हम ही खरीदते हैं और हमारा 30 प्रतिशत हथियारों का आयात इजरायल से होता है। इजरायल के सैनिक हमारी सेना को प्रशिक्षण भी दे रहे हैं। भारत ने अभी तक इजरायल द्वारा फलस्तीन पर ताजा हमले की कोई निंदा भी नहीं की है।
[लेखक संदीप पांडेय, जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता हैं]
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