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Saturday, December 8, 2012

बेकार - बदहाल --- बेअसर भारत की खुफिया एजंसियां

 बेकार - बदहाल --- बेअसर भारत की  खुफिया एजंसियां

कानून-व्यवस्था बनाए रखने और सुचारु शासन व्यवस्था के लिए खुफिया तंत्र का मजबूत होना बहुत जरूरी है। राजतंत्र के दौरान खुफिया ही शासकों के आंख-कान हुआ करते थे। आजादी मिलने के बाद भी खुफिया तंत्र अधिक सक्रिय था। इसके पीछे एक कारण यह भी हो सकता है कि देश के सामने कई चुनौतियां थीं। विभाजन के घाव हरे थे। देश विरोधी शक्तियां कभी भी सिर उठा सकती हैं, इसलिए ज्यादा सतर्कता रखी गई। कालांतर में सतर्कता में कमी आई है। हालांकि सांप्रदायिक दंगों, आतंकवाद और नक्सलवादी गतिविधियां इन दिनों बढ़ी हैं एवं हमारा खुफिया तंत्र ज्यादा सक्रिय व सतर्क होना चाहिए था। इसके विपरीत कुछ वर्षों से खुफिया तंत्र में कमजोरी साफ नजर आ रही है।


इंदिरा गांधी, राजीव गांधी के साथ हुई घटनाओं के बारे में खुफिया तंत्र अनभिज्ञ रहा। इसके बाद मुंबई दंगे, 26/11 और देश के विभिन्न स्थानों पर हुए विस्फोटों के मामले में हमें पहले से कोई जानकारी नहीं मिल पाई। देश का खुफिया विभाग समय-समय पर सतर्क रहने की सूचना जब भी देता है तब कोई घटना ही नहीं होती। दरअसल खुफिया विभाग की हालत हमारे मौसम विभाग जैसी हो गई है। मौसम विभाग की अधिकतर घोषणाएं सच नहीं होतीं। उसी तरह खुफिया सूचनाएं भी अक्सर गलत निकल जाती हैं। खुफिया एजेंसियों में तालमेल का अभाव, कर्मियों और विशेषज्ञ स्टाफ की कमी और लचर प्रशासनिक व्यवस्था भी एक बड़ा मुद्दा है।

हर कुछ समय बाद बेखौफ आतंकी हमें लहूलुहान कर रहे हैं। कभी मुंबई, वाराणसी, अहमदाबाद तो कभी जयपुर। हम क्यों नहीं रोक पा रहे इन हमलों को? कहां छूट रही है कमी? क्या हैं हमारी कमी और कमजोरी? खुफिया सूचनाओं की कमी। पिछली आतंकी घटनाओं की बेतरतीब जांच। जिम्मेदार अपराधियों के अनछुए सुराग। सुस्त जांच एजेंसियों को प्रति सरकारी उदासीनता। प्रशिक्षण, आधुनिक हथियारों और उपकरणों की कमी। यही चंद वजहें हैं कि देश में हर छह महीने बाद कहीं न कहीं आतंकी अपनी ताकत दिखा रहे हैं। पिछली घटनाओं से हम कोई सबक नहीं ले रहे। असम और म्यांमार में हुई हिंसा के विरोध में मुंबई में रैली के दौरान दंगा फैल सकता है, खुफिया विभाग इस बारे में सूंघ नहीं सका। असम में हुई हिंसा की भी पहले से जानकारी नहीं मिली। उत्तर प्रदेश में पिछले नौ महीने में हुए एक दर्जन सांप्रदायिक दंगों की हवा भी खुफिया तंत्र को नहीं लगी। इसका मतलब कहीं न कहीं सतर्कता में कमी है। बैंगलोर में मुंबई जैसी हिंसा की अफवाह के चलते एक ही रात में 6 हजार लोग पलायन कर गए मगर हमारे सूचना तंत्र को कानोंकान खबर नहीं लगी, जबकि ये अफवाहें फेसबुक और इंटरनेट के जरिए फैलाई जा रही थीं। यात्रियों की भीड़ के कारण रेल विभाग को स्पेशल ट्रेनें चलाना पड़ती हैं तब जाकर सरकार को खबर लगती है। सूचना तंत्र की कमजोरी के चलते जो हालात बैंगलोर या मुंबई में बने थे, ऐसे हालात आगे चलकर भारत के हर बड़े शहर में पैदा हो सकते हैं।

2008 में मुंबई पर हुए हमले के बाद इंस्टीट्यूट फॉर डिफेंस स्टडीज एंड एनालिसिस (आईडीएसए) टास्क फोर्स की रिपोर्ट में खुफिया तंत्र में सुधार की बात कही गयी थी। मुंबई पर हुए आतंकी हमले के बाद गहरी नींद में सो रही सरकार ने राष्ट्र विरोधी व आंतकवादी घटनाओं से जुड़े मामलों की जांच पड़ताल करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर नेश्नल इन्वेस्टीगेशन एजेंसी [एनआईए] का मजबूत किया है और देश के विभिन्न राज्यों में इसकी क्षेत्रीय इकाइया गठित की जा रही है। मुंबई पर हुए बड़े आतंकी हमले के बाद 2002 में गठित गठित गुप्तचर ब्योरों की एजेंसी ‘मेक’ (बहुएजेंसी केंद्र) की पहली बैठक 1 जनवरी 2009 को तत्तकालीन गृहमंत्री पी. चिदबरम की अध्यक्षता में हुई थी, जिसमें गुप्तचर ब्यूरो, केन्द्रीय अर्द्ध सुरक्षाबलों तथा गृह मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारी शामिल थे। तब चिदंबरम ने घोषणा की थी कि मेक तथा अन्य सभी सरकारी एजेंसियों के बीच खुफिया सूचनाओं का आदान-प्रदान कानूनन करना होगा। पिछले लगभग चार वर्षों में मेक के तत्त्वावधान में खुफिया एजेंसियों की एक हजार से अधिक बैठकें हो चुकी हैं और नतीजा ढाक के तीन पात ही है।
भारतीय खुफिया एजेंसियों के खराब प्रदर्शन का कारण उनकी आपसी खींचतान और रणनीतिक दृष्टि की कमी है। एक एजेंसी दूसरी एजेंसी को अपने अधिकार क्षेत्र में घुसने नहीं देती इसीलिए दोहरी मेहनत होती है। काडर राज्य से दूर रहने के लिए अधिकारी नागरिक खुफिया एजेंसियों में पड़े रहते हैं। वहीं खुफिया पर लगातार ध्यान देने की जरूरत को नकारा नहीं जा सकता है। ऐसा नहीं हो सकता कि जब कोई बड़ी घटना घटे तब इस तरफ ध्यान दिया जाए और फिर अगले ही पल आप इसे भूल जाएं। प्रतिस्पर्धा और नंबर बढ़ाने के खेल से समस्या पैदा होती है। संस्थाओं को समझना होगा कि समय अहम है न कि यह कि जानकारी कौन दे रहा है।

एक सच यह भी है कि सुधार अचानक नहीं हो सकते। इसमें समय लगेगा। विभागीय बंटवारे, द्वेष और दूरदृष्टि की कमी भी अड़चन का काम करेगी. इसीलिए विशेषज्ञों का मानना है कि विभिन्न एजेंसियों के बीच समन्वय ही समस्या का हल है। हमारे यहां आईबी गृह मंत्री को रिपोर्ट करती है, रिसर्च एंड अनालिसिस विंग(रॉ) प्रधानमंत्री को, ज्वाइंट इंटेलीजेंस कमेटी (जेआईसी), एविएशन रिसर्च ब्यूरो (एआरसी) और नेशनल टेक्निकल रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन (एनटीआरओ) जैसी एजेंसियां भी हैं जो राष्ट्रीय  सुरक्षा परिषद को रिपोर्ट करती हैं। सेना के पास अपनी खुफिया एजेंसियां हैं जो थल सेना, जल सेना और वायु सेना के लिए काम करती हैं, सभी के ऊपर नेशनल इंटेलीजेंस एजेंसी नाम की संस्था है। वित्तीय खुफिया जांच के लिए अन्य एजेंसियां हैं। इनमें आयकर, सीमा शुल्क और उत्पाद शुल्क के निदेशालय शामिल हैं। इसके अलावा राज्य स्तरीय खुफिया एजेंसियां और विशेष प्रकोष्ठ भी हैं जो खुफिया का ही काम करते हैं। पूर्व गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने 2009 में इंटेलीजेंस ब्यूरो के समारोह में भाषण देते हुए स्वीकार किया था कि महत्वपूर्ण खुफिया जानकारी के सभी डेटाबेस को एक साथ जोडऩे की जरूरत है। नागरिक और सैन्य खुफिया के बीच की दूरी भी बड़ा मसला है। परंपरागत रूप से रॉ का सचिव मौके और वक्त के हिसाब से प्रधानमंत्री को रिपोर्ट देता रहता है और आईबी का निदेशक गृह मंत्री को। इसमें सैन्य खुफिया यानी मिलिट्री इंटेलीजेंस (एमआई) के पास ऐसा कोई फोरम ही नहीं बचता जहां वह अपनी बात कह सके।

हर बड़े हादसे के बाद सूचना तंत्र की कमजोरी सामने आती है और कुछ दिनों हाय-तौबा करने के बाद इस गंभीर सवाल पर मिट्टी डाल दी जाती है। इससे सरकार की नीयत पर भी संदेह उठता है। क्या खुफिया तंत्र ठीक है। वह सही समय पर सूचनाएं सरकार तक पहुंचा रहा है और सरकार कानों में तेल डालकर बैठी है? क्या सरकार महंगाई या अन्य गंभीर मुद्दों से जनता का ध्यान हटाने के लिए हिंसक घटनाएं होने देना चाहती है। अगर नहीं तो ऐसे कदम उठाए जाना जरूरी हैं, जिनसे खुफिया तंत्र को मजबूत किया जा सके, ताकि सरकार को समय पर सूचनाएं मिलें और देश हिंसा की लपटों में घिरने से बच सके। महाराष्ट्र सरकार 50 हजार लोगों की रैली निकालने को मंजूरी दे देती है और इसमें शामिल लोगों के मंसूबों से कोई सरोकार नहीं रखती, यह बात हैरान करने वाली है।

स्टाफ की कमी बड़ी समस्या है। चिदंबरम ने इसी साल अप्रैल में लोकसभा को बताया कि प्रति 100,000 लोगों पर (पुलिस-जनसंख्या अनुपात) अनुमोदित और वास्तविक पुलिस बल क्रमश: 145.25 और 117.09 है। भारत में प्रति 100,000 लोगों पर 130 पुलिसकर्मी हैं जबकि संयुक्त राष्ट्र के मानकों में यह संख्या न्यूनतम 220 होनी चाहिए. इस मानक को माना जाए तो भारत में 600,000 पुलिसकर्मियों की कमी है यानी अनुमोदित संख्या बल से करीब 25 फीसदी कम। खुफिया एजेंसियों और राज्य स्तर पर खुफिया विभाग में कार्मिकों का बड़ा टोटा है। जिला स्तर पर इंटेलीजेंस ब्यूरो में चार-पांच लोग होते हैं। सिपाही से उम्मीद रखी जाती है कि वह अंतिम व्यक्ति तक पहुंचे और बिना किसी प्रतिक्रिया के जरूरी जानकारी जुटाता रहे। मगर, बंदोबस्त, चुनाव, राजनीतिक रैलियों और वीआईपी ड्यूटी के चक्कर में उसके काम पर बुरा असर पड़ता है। राज्य सरकारों के पास खुफिया जानकारी जुटाने के लिए विशेष शाखाएं हैं मगर क्या किसी ने कभी इस बात की परवाह की है कि वहां किस तरह के लोग रखे जाते हैं?

विशेषज्ञ और विश्लेषक मानते हैं कि अब खुफिया तंत्र में पूरी तरह बदलाव लाने का समय आ गया है और साथ ही इसकी मुनासिब निगरानी भी होनी चाहिए, चाहे विभिन्न संसदीय समितियों की तर्ज पर निगरानी समिति बनाई जाए या फिर रक्षा मंत्री, विदेश मंत्री, गृह मंत्री और वित्त मंत्री को शामिल करके प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली समिति बनाई जाए। जरूरी है कि विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों को शामिल किया जाए। सुरक्षा के लिए खुफिया तंत्र के  आधुनिकीकरण को जरूरी बताते हुए आईडीएसए ने प्रस्ताव रखा है कि भर्ती से लेकर प्रशिक्षण, वेतन और करियर में आगे बढऩे की प्रक्रिया में सुधार होना चाहिए ताकि प्रतिभावान लोग खुफिया तंत्र से जुडऩा पसंद करें।

अफसोस इस बात का है कि सुधारों को तब एजेंडा में रखा जाता है जब नुकसान हो चुका होता है। इसीलिए हम हमेशा पीछे भागते रहते हैं। यही वजह है कि हम आज तक ऐसा सिस्टम नहीं बना सके जो किसी उभरती हुई शक्ति के पास होना चाहिए। सुब्रामण्यम समिति की रिपोर्ट काफी समझ-बूझ के साथ तैयार की गई थी मगर लागू करने के मामले में हम कभी सफल नहीं हो सकते। बड़ी समस्या यह है कि जो एजेंसियां स्थापित हो चुकी हैं वही विरोध करती हैं ताकि उनकी जगह खतरे में न पड़े। ऊपर से हमारे यहां राजनीतिक दृढ़ता भी नहीं है। बदलते वैश्विक परिदृश्य, आंतकवाद की बढ़ती चुनौतियों और दिन ब दिन मजबूत होते नक्सलवाद, ड्रग माफियाओं और तस्करों पर प्रभावी रोक के लिए खुफिया तंत्र के पेंच कसने की जरूरत है। खुफिया तंत्र की नाकामी देश की आंतरिक और बाहरी सुरक्षा के लिए विस्फोटक स्थिति ओर हालात पैदा कर सकती है।

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