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Sunday, July 29, 2012

असम की सांप्रदायिक हिंसा


बांग्लादेशी घुसपैठ से जुडी है असम की सांप्रदायिक हिंसा

असम में पिछले एक सप्ताह से जारी सांप्रदायिक दंगों में दर्जनों लोग मारे जा चुके हैं और लाखों लोग घर-बार छोड़कर शरणार्थी शिविरों में रह रहे हैं | लेकिन राष्ट्रीय मीडिया और केन्द्र सरकार यह साबित करने में जुटी है कि असम में हिंसा का बाग्लादेश से अवैध रूप से आए नागरिकों की बहुलता से कोई लेना-देना नहीं। असम में बाग्लादेशी नागरिकों की बढ़ती संख्या राज्य के सामाजिक-आर्थिक ढाचे को बुरी तरह प्रभावित कर रही है। बाग्लादेश की सीमा से लगे असम के जिलों में आबादी की वृद्धि दर यह स्पष्ट करती है कि वहा अवैध घुसपैठ बेरोकटोक जारी है। विडंबना यह है कि वोट बैंक के लोभ में असम में राष्ट्रीय हितों की बलि दी जा रही है !  पढ़िए जागरण में प्रकाशित सम्पादकीय लेख :
असम के दंगो में मारे गए
असम में करीब दो लाख लोगों के बेघर-बार होने से यह स्वत: स्पष्ट हो जाता है कि राज्य सरकार साप्रदायिक हिंसा पर रोक लगाने में बुरी तरह नाकाम रही। राज्य सरकार की नाकामी में केंद्र सरकार की भी हिस्सेदारी नजर आती है। यह विचित्र है कि एक सप्ताह तक साप्रदायिक हिंसा जारी रहने और 40 से अधिक लोगों की मौतों के बाद केंद्र सरकार को दोनों पक्षों को चेतावनी देने की याद आई। आखिर यह काम पहले-दूसरे ही दिन राज्य  सरकार की ओर से क्यों नहीं किया जा सका? राच्य और केंद्र सरकार की ओर से किए जा रहे इन दावों पर यकीन करना कठिन है कि हालात तेजी से सुधर रहे हैं। आखिर जब करीब दो लाख लोग शरणार्थियों की तरह रहने को विवश हों तब फिर यह दावा कैसे किया जा सकता है कि स्थिति ठीक हो रही है? क्या राज्य अथवा केंद्र सरकार यह कहने-बताने की स्थिति में हैं कि शरणार्थी शिविरों में रह रहे लोग अपने घरों को कब लौट सकेंगे? आशका यह है कि इनमें से बहुत लोगों के घर अब सुरक्षित नहीं रह गए होंगे। असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई जिस तरह हालात की गंभीरता को कम करके बताने की कोशिश कर रहे हैं उससे यही स्पष्ट होता है कि या तो वह सच्चाई से अवगत नहीं या फिर उसका सामना करने से बचना चाह रहे हैं। कुछ ऐसा ही रवैया केंद्र सरकार का भी नजर आ रहा है।
केंद्र सरकार यह साबित करने की हरसंभव चेष्टा कर रही है कि असम में हिंसा का बाग्लादेश से अवैध रूप से आए नागरिकों की बहुलता से कोई लेना-देना नहीं। तथ्य यह है कि असम के हालात इसीलिए बिगड़े, क्योंकि बोडो जनजातियों और बाग्लादेशी नागरिकों के बीच तनाव बढ़ता चला जा रहा था। राच्य और केंद्र सरकार को दोनों पक्षों के बीच तनाव बढ़ाने के कारणों से अवगत होना चाहिए था, लेकिन उन्होंने कुछ करने के बजाय हाथ पर हाथ रखकर बैठना पसंद किया। समस्या यह है कि राज्य और केंद्र सरकार एक लंबे अर्से से जानबूझकर इसकी अनदेखी कर रही हैं कि असम में बाग्लादेशी नागरिकों की बढ़ती संख्या राज्य के सामाजिक-आर्थिक ढाचे को बुरी तरह प्रभावित कर रही है। बाग्लादेश की सीमा से लगे असम के जिलों में आबादी की वृद्धि दर यह स्पष्ट करती है कि वहा अवैध घुसपैठ बेरोकटोक जारी है। विडंबना यह है कि संकीर्ण राजनीतिक कारणों से कभी भी उस पर रोक लगाने की कोशिश नहीं की गई। सच तो यह है कि इस मुद्दे पर बाग्लादेश से कभी गंभीरता से बातचीत भी नहीं की गई। वोट बैंक के लोभ में असम में किस तरह राष्ट्रीय हितों की बलि दी जा रही है, इसका सबसे बड़ा प्रमाण है अवैध घुसपैठ के खिलाफ एक ऐसा कानून बनाना जो घुसपैठियों के लिए मददगार साबित हो रहा था। हालाकि सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून को खारिज कर दिया, लेकिन न तो  राज्य  सरकार की आखें खुलीं और न ही केंद्र सरकार की। इसके आसार कम ही हैं कि मौजूदा त्रासदी हमारे नीति-नियंताओं को चेताने का काम करेगी। इसकी सबसे बड़ी वजह उनका वह रवैया है जिसके तहत समस्या के मूल कारणों की उपेक्षा की जा रही है।
घरों से भगाए गए लोग

बांग्लादेशी घुसपैठ से जुडी है असम की सांप्रदायिक हिंसा

असम में पिछले एक सप्ताह से जारी सांप्रदायिक दंगों में दर्जनों लोग मारे जा चुके हैं और लाखों लोग घर-बार छोड़कर शरणार्थी शिविरों में रह रहे हैं | लेकिन राष्ट्रीय मीडिया और केन्द्र सरकार यह साबित करने में जुटी है कि असम में हिंसा का बाग्लादेश से अवैध रूप से आए नागरिकों की बहुलता से कोई लेना-देना नहीं। असम में बाग्लादेशी नागरिकों की बढ़ती संख्या राज्य के सामाजिक-आर्थिक ढाचे को बुरी तरह प्रभावित कर रही है। बाग्लादेश की सीमा से लगे असम के जिलों में आबादी की वृद्धि दर यह स्पष्ट करती है कि वहा अवैध घुसपैठ बेरोकटोक जारी है। विडंबना यह है कि वोट बैंक के लोभ में असम में राष्ट्रीय हितों की बलि दी जा रही है !  पढ़िए जागरण में प्रकाशित सम्पादकीय लेख :
असम के दंगो में मारे गए
असम में करीब दो लाख लोगों के बेघर-बार होने से यह स्वत: स्पष्ट हो जाता है कि राज्य सरकार साप्रदायिक हिंसा पर रोक लगाने में बुरी तरह नाकाम रही। राज्य सरकार की नाकामी में केंद्र सरकार की भी हिस्सेदारी नजर आती है। यह विचित्र है कि एक सप्ताह तक साप्रदायिक हिंसा जारी रहने और 40 से अधिक लोगों की मौतों के बाद केंद्र सरकार को दोनों पक्षों को चेतावनी देने की याद आई। आखिर यह काम पहले-दूसरे ही दिन राज्य  सरकार की ओर से क्यों नहीं किया जा सका? राच्य और केंद्र सरकार की ओर से किए जा रहे इन दावों पर यकीन करना कठिन है कि हालात तेजी से सुधर रहे हैं। आखिर जब करीब दो लाख लोग शरणार्थियों की तरह रहने को विवश हों तब फिर यह दावा कैसे किया जा सकता है कि स्थिति ठीक हो रही है? क्या राज्य अथवा केंद्र सरकार यह कहने-बताने की स्थिति में हैं कि शरणार्थी शिविरों में रह रहे लोग अपने घरों को कब लौट सकेंगे? आशका यह है कि इनमें से बहुत लोगों के घर अब सुरक्षित नहीं रह गए होंगे। असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई जिस तरह हालात की गंभीरता को कम करके बताने की कोशिश कर रहे हैं उससे यही स्पष्ट होता है कि या तो वह सच्चाई से अवगत नहीं या फिर उसका सामना करने से बचना चाह रहे हैं। कुछ ऐसा ही रवैया केंद्र सरकार का भी नजर आ रहा है।
केंद्र सरकार यह साबित करने की हरसंभव चेष्टा कर रही है कि असम में हिंसा का बाग्लादेश से अवैध रूप से आए नागरिकों की बहुलता से कोई लेना-देना नहीं। तथ्य यह है कि असम के हालात इसीलिए बिगड़े, क्योंकि बोडो जनजातियों और बाग्लादेशी नागरिकों के बीच तनाव बढ़ता चला जा रहा था। राच्य और केंद्र सरकार को दोनों पक्षों के बीच तनाव बढ़ाने के कारणों से अवगत होना चाहिए था, लेकिन उन्होंने कुछ करने के बजाय हाथ पर हाथ रखकर बैठना पसंद किया। समस्या यह है कि राज्य और केंद्र सरकार एक लंबे अर्से से जानबूझकर इसकी अनदेखी कर रही हैं कि असम में बाग्लादेशी नागरिकों की बढ़ती संख्या राज्य के सामाजिक-आर्थिक ढाचे को बुरी तरह प्रभावित कर रही है। बाग्लादेश की सीमा से लगे असम के जिलों में आबादी की वृद्धि दर यह स्पष्ट करती है कि वहा अवैध घुसपैठ बेरोकटोक जारी है। विडंबना यह है कि संकीर्ण राजनीतिक कारणों से कभी भी उस पर रोक लगाने की कोशिश नहीं की गई। सच तो यह है कि इस मुद्दे पर बाग्लादेश से कभी गंभीरता से बातचीत भी नहीं की गई। वोट बैंक के लोभ में असम में किस तरह राष्ट्रीय हितों की बलि दी जा रही है, इसका सबसे बड़ा प्रमाण है अवैध घुसपैठ के खिलाफ एक ऐसा कानून बनाना जो घुसपैठियों के लिए मददगार साबित हो रहा था। हालाकि सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून को खारिज कर दिया, लेकिन न तो  राज्य  सरकार की आखें खुलीं और न ही केंद्र सरकार की। इसके आसार कम ही हैं कि मौजूदा त्रासदी हमारे नीति-नियंताओं को चेताने का काम करेगी। इसकी सबसे बड़ी वजह उनका वह रवैया है जिसके तहत समस्या के मूल कारणों की उपेक्षा की जा रही है।
घरों से भगाए गए लोग

समाज का खतरनाक विभाजन

समाज का खतरनाक विभाजन
गोपाल कृष्ण गांधी, पूर्व राज्यपाल
First Published:29-07-12 08:24 PM
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आपको सत्यजित राय की फिल्म पाथेर पांचाली  के दो पात्र दुर्गा और उसका छोटा भाई अप्पू याद होंगे। उस दिन दिल्ली के मैक्समूलर रोड पर मुझे उनकी याद आ गई। मैंने देखा एक छोटा-सा बच्चा फुटपाथ पर बैठा हुआ एक बदरंग से अमरूद को खाने की सोच रहा है। उसके पास उससे उम्र में थोड़ी बड़ी लड़की आ जाती है, शायद वह उसकी बहन होगी। दोनों के शरीर पर मैले-कुचैले कपड़े थे, उनके धूल भरे बाल रूखे-सूखे थे। ट्रैफिक के कारण मेरी टैक्सी रुक गई थी और मैं लगातार उन्हें देख रहा था। तभी मुझे सत्यजित राय की फिल्म के दोनों पात्र याद आ गए और इसीलिए मैं उन्हें दुर्गा और अप्पू कह रहा हूं। दुर्गा ने अमरूद को चखना चाहा, तो अप्पू ने पहले तो मना कर दिया और फिर उसे अपनी पीठ पीछे छिपा लिया। दुर्गा ने जब और मनुहार की, तो वह मान गया। मुझे लगा कि कहीं वह अमरूद लेकर भाग तो नहीं जाएगी। लेकिन नहीं, उसने अमरूद को चखा। ऐसा लगा, जैसे कह रही हो ‘मीठा है’। फिर शायद वे सोचने लगे कि इसे दोनों कैसे खाएं। न सिर्फ खाएं, बल्कि बराबर-बराबर खाएं। अप्पू प्लाइवुड का एक टुकड़ा ले आया, जिससे दुर्गा उस बदरंग अमरूद को दो टुकड़ों में काटने लगी। अमरूद शायद पूरा पका नहीं था, इसलिए प्लाइवुड आधे अमरूद में जाकर अटक गई। अप्पू ने एक पत्थर उठाया और प्लाइवुड को ठोका। अब अमरूद दो टुकड़ों में बंट गया। पता नहीं वह अमरूद किसी पेड़ से गिरा था या किसी दुकानदार ने उसे बेकार समझकर फेंक दिया था। जैसे ही दोनों ने इसकी पौष्टिकता और स्वाद को आपस में बांटा, मेरी टैक्सी भी चल पड़ी। टैक्सी की खिड़की से मैंने जो देखा, उसका इस्तेमाल मैं मिल-बांटकर खाने और एक-दूसरे का खयाल रखने की शिक्षा देने में नहीं करना चाहता। लेकिन इस अद्भुत दृश्य से मेरे दिमाग में कुछ बातें जरूर आईं। पहली बात तो दिमाग में यह आई कि दुर्गा और अप्पू ने जो किया, वह पूरी तरह भारतीय शैली है- किसी भी अवसर का अधिक से अधिक लाभ उठाओ। जापान की खासियत यह है कि वह किसी भी चीज को कलात्मक रूप दे सकता है। अगर अमेरिका और जर्मनी बेहतरीन कारें और म्यूजिक सिस्टम बना सकते हैं, तो जापान यह काम उनसे बेहतर कर सकता है। चीन किसी भी उत्पाद की बहुत अच्छी नकल तैयार कर सकता है, इतनी अच्छी कि मूल उत्पाद भी अपने जुड़वा को देखकर हैरत में पड़ जाए। इसके विपरीत भारत के लोगों की कला यह है कि वे किसी चीज में सुधार कर सकते हैं, उसके कई तरह के इस्तेमाल खोज सकते हैं। जो चीज किसी भी काम की नहीं है और बिल्कुल बेकार लग रही है, वे उसे भी महत्वपूर्ण बना सकते हैं। शायद इसी बात के लिए डॉ. राज कृष्णा ने ‘हिंदू रेट ऑफ ग्रोथ’ की बात कही थी। भारतीय तौर-तरीकों में चीजों को इस्तेमाल के लायक बना लेना, उनकी रिसाइकलिंग करना और उन्हें फिर से खड़े कर देना शामिल है। हम हमेशा से इस्तेमाल करो और फेंको वाला समाज रहे हैं। इसीलिए हमारे आसपास कूड़े के ढेर जमा होते रहते हैं। बुद्धिमान देश यह सोचते रहते हैं कि कूड़े को किस तरह ठिकाने लगाया जाए। हम अपने प्लास्टिक को इस्तेमाल करने के बाद बस बाहर फेंक देते हैं। इसका नतीजा आमतौर पर परेशानी पैदा करने वाला होता है। खासकर स्वास्थ्य पर इसका असर खतरनाक होता है। लेकिन इस कूड़े का बहुत-सा हिस्सा फिर से इस्तेमाल हो जाता है। उसे बीना जाता है, बेचा जाता है, फिर बेचा जाता है। इसे अंत तक इस्तेमाल करने की एक लंबी श्रृंखला है। क्या यही वह भारतीय निपुणता है, जो एक साथ वरदान भी है और अभिशाप भी? क्या यह भारत के अस्तित्व को वैसा नहीं बना देती, जिसके लिए ईएम फोस्र्टर ने कभी कहा था, ‘जीवन का एक निम्न स्तर, जो नष्ट नहीं हो सकता।’ दूसरी बात जो मेरे दिमाग में आई, वह थी कि भारत में निचले स्तर पर जीने वाले अपने अस्तित्व के लिए अलग तरह का बर्ताव करते हैं, जबकि उच्चस्तरीय लोग अलग तरह का। दिल्ली के अप्पू और दुर्गा जिस तरह से अपने अमरूद का बंटवारा कर रहे थे, उसके एकदम उलट मुझे कुछ दिन पहले चेन्नई से कोलंबो की एयर श्रीलंका की उड़ान में दिखाई दिया। उस उड़ान में सवार एक बहुत अमीर और बहुत ही भारी शरीर वाले सज्जन एक घंटे की इस पूरी यात्रा के दौरान खूब सारी बातें करते रहे और पूरी विनम्रता से परिचारकों से हर चीज थोड़ी मांगते रहे, खासकर शराब। ये वे लोग हैं, जो किसी भी अवसर का पूरा लाभ निचोड़ लेना चाहते हैं। लेकिन इस काम को वे सिर्फ अपने लालच या अपनी बोरियत की वजह से करते हैं। हाल ही में बीजिंग की एक फ्लाइट में भारत के एक कथित खिलाड़ी ने महिला परिचारिका और महिला यात्रियों के साथ जो किया, वह भी भूख ही है, बस यह भूख कुछ अलग तरह की है। तो क्या हमें यहां दो अलग तरह की संस्कृतियां दिख रही हैं? एक वह, जो गरीब और असहाय लोगों की है। उनके पास जितने भी संसाधन हैं, वे बराबरी के साथ आपस में उसका बंटवारा कर लेते हैं। दूसरी तरफ अमीर हैं, जिनमें एक अश्लील किस्म का लालच है। वे हर चीज को हासिल कर लेना चाहते हैं। उस चीज को भी, जिसके वे हकदार नहीं हैं। इसी सबसे जमीन दुर्लभ हो चुकी है, बिजली और पानी की आपूर्ति अनियमित रहती है। दूसरी तरफ मजदूरों को सम्मानजनक ढंग से पर्याप्त मजदूरी दी जाए, इसके लिए बने कानूनों के बावजूद मजदूरों का शोषण होता है। वे उद्योग जो सरकार से जमीन, सब्सिडी व टैक्स राहत हासिल करते हैं, वे भी लालच की श्रेणी में आते हैं। वे पूरा अमरूद अपनी जेब में रख लेते हैं।
पिछले दिनों मानेसर में मारुति सुजुकी के जीएम के साथ जो हुआ, वह त्रसद है। पूरे देश में तनाव बढ़ रहा है, हालांकि शहरों के बुद्धिजीवी इसे देखना नहीं चाहते। यह तनाव जमीन को लेकर है, जिसके बारे में आम धारणा है कि वह निजी मुनाफे को बढ़ाती है, राष्ट्र की तरक्की को नहीं। बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के खिलाफ जो प्रतिरोध हो रहा है, उसमें सरकार और निवेशक एक साथ आ खड़े हुए हैं। इसी मिलीभगत के चलते ये प्रतिरोध फौजदारी में तब्दील होने लगे हैं। यह विभाजन वाकई बहुत खतरनाक है। अमरूद पर इस तरह कब्जा नहीं हो सकता। इसका फल उन लोगों तक भी पहुंचना चाहिए, जो पेड़ को थामकर खड़े हैं। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

हिंसक माओवादियों से सहानुभूति

1/07/2011


न्यायपालिका के विरुद्ध जिहाद?

इस 24 दिसंबर को छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश बी.पी.शर्मा ने खचाखच भरी अदालत में डा.बिनायक सेन, नक्सली नेता नारायण सान्याल और कोलकाता के एक तेंदुपत्ता व्यापारी पीयूष गुहा को भारतीय दंड संहिता की धारा 124 (ए) एवं 120 (बी) के तहत देशद्रोह के आरोप में आजन्म कारावास की सजा सुना दी। सजा सुनाए जाने के साथ ही देश और विदेश में डा.बिनायक सेन के पक्ष में चीख-पुकार मचना शुरू हो गयी।
बिनायक सेन पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिबर्टीज (पी.यू.सी.एल.) के अखिल भारतीय उपाध्यक्ष हैं, इसलिए सब मानवाधिकारवादी संगठन और बुद्धिजीवी मैदान में उतर आए। दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश एवं पी.यू.सी.एल. के पूर्व अध्यक्ष राजेन्द्र सच्चर ने तो इस निर्णय को बेहूदा तक कह डाला। तीस्ता जावेद सीतलवाड़, जिसका एकसूत्री एजेंडा हिन्दू और भाजपा विरोध बन गया है और जो गुजरात में झूठे शपथ पत्र व गवाहियां तैयार करने के आरोपों से घिरी हुई है, ने इस निर्णय को भाजपा पर प्रहार करने का नया हथियार बना लिया, क्योंकि यह निर्णय भाजपा शासित राज्य में लिया गया था। माकपा, भाकपा और अन्य कम्युनिस्ट धड़े व उनके बुद्धिजीवियों ने निर्णय के विरोध में वक्तव्य जारी कर दिये, क्योंकि वे माओवादी हिंसा को हिंसा नहीं मानते अपितु राज्य की हिंसा के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति के रूप में देखते हैं। भारत के अनेक शहरों में वामपंथी और मानवाधिकारवादी प्रदर्शनकारी हाथों में फलक लेकर फोटो खिंचाने के लिए खड़े हो गये। विभिन्न दैनिक पत्रों में प्रकाशित चित्रों को आप देखें तो कहीं भी उनकी संख्या तीन या चार से अधिक नहीं है। किंतु मीडिया पर प्रभाव के कारण वे छपते हैं। इस निर्णय के विरोधियों में एक मुस्लिम संगठन मिल्ली काउंसिल का नाम पढ़कर शायद आपको आश्चर्य हुआ होगा कि उनकी हिंसक माओवादियों से सहानुभूति का क्या कारण हो सकता है। इसके निहितार्थ को खोजना आवश्यक है।
अन्तरराष्ट्रीय दबाव
देशी वामपंथियों,मानवाधिकारवादियों तथा भाजपा-विरोधियों की प्रतिक्रिया से अधिक महत्वपूर्ण है अन्तरराष्र्टीय प्रतिक्रिया। यह निर्णय सुनते ही एमनेस्टी इंटरनेशनल की प्रतिक्रिया तुरंत आ गयी। उसने इस निर्णय को मानवता-विरोधी घोषित करते हुए विरोध करने का निर्णय ले लिया। सन् 2007 में भी बिनायक सेन की गिरफ्तारी 14 मई को हुई और 16 मई को एमनेस्टी इंटरनेशनल ने छत्तीसगढ़ सरकार के नाम हुक्म जारी कर दिया कि बिनायक सेन को तुरंत रिहा कर दिया जाए। एमनेस्टी 2008 में उड़ीसा के कंधमाल जिले में स्व.लक्ष्मणानंद की हत्या से भड़के चर्च-विरोधी दंगों के समय भी तुरंत सक्रिय हो गयी थी और अपना जांच दल उड़ीसा भेजने पर उतारू थी। 2007 में बिनायक सेन की गिरफ्तारी के विरुद्ध लंदन, बोस्टन और न्यूयार्क में भी प्रदर्शन आयोजित किए गए थे। यूरोप के 22 नोबल पुरस्कार विजेताओं ने डा. बिनायक सेन के समर्थन में एक संयुक्त वक्तव्य जारी करने की आवश्यकता समझी थी।
सोनिया के प्रवक्ता
डा. बिनायक सेन का समर्थन करते हुए सोनिया गांधी की राष्ट्रीय परामर्शदाता समिति (एन.ए.सी.) के हर्ष मंदर, जीन डेज, रामप्रसाद मुंडा आदि कई महत्वपूर्ण सदस्यों ने न्यायालय के इस निर्णय का विरोध किया है। हम बहुत पहले से कहते और लिखते आ रहे हैं कि मैडम सोनिया के द्वारा निर्मित इस समानांतर तंत्र के लगभग सभी सदस्य चर्च द्वारा प्रेरित एवं पोषित एन.जी.ओ.ताने-बाने के अंग हैं और उनके माध्यम से सोनिया केन्द्र सरकार पर नियंत्रण की एक समानांतर प्रक्रिया चला रही हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि सोनिया पार्टी के अधिकृत प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी और शकील अहमद की इस निर्णय पर संतुलित प्रतिक्रिया आने के बाद उनसे अलग जाकर दिग्विजय सिंह ने बिनायक सेन के समर्थन में वक्तव्य जारी करना आवश्यक समझा। डा.सिंघवी ने ठीक ही कहा कि अभी एक निचली अदालत का निर्णय आया है, अत: न्यायिक प्रक्रिया के पूरा होने के पूर्व किसी निर्णय पर टीका-टिप्पणी करना जल्दबाजी होगी। लगभग यही बात दूसरे प्रवक्ता शकील अहमद ने भी कही। किंतु दिग्विजय सिंह को सोनिया के 10 जनपथ ने जिस मिशन पर लगाया हुआ है, वह ऐसे वक्तव्यों से पूरा नहीं होता। दिग्विजय का एकमात्र मिशन है भाजपा और हिन्दुत्व-विरोध का राग अलापकर मुस्लिम और ईसाई वोट बैंकों को सोनिया पार्टी के पीछे खड़ा करना। प्रत्येक कदम और कथन को इस दृष्टि से देखने पर कभी कोई मतिभ्रम पैदा नहीं होगा।
आपको स्मरण होगा कि जब छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा क्षेत्र में माओवादियों ने सी.आर.पी.एफ. के 36 जवानों की निर्मम हत्या कर दी थी, जिससे उद्वेलित होकर गृहमंत्री पी.चिदम्बरम् ने नक्सलविरोधी अभियान घोषित किया था। तब दिग्विजय ने गृहमंत्री की खुली आलोचना करते हुए छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार को बर्खास्त करने की मांग उठायी थी और पी.चिदम्बरम् को सलाह दी थी कि वे नक्सलवाद की बजाय हिन्दू आतंकवाद को बड़ा खतरा घोषित करें। यहां सवाल खड़ा होता है कि भारत सरकार के नक्सलवाद विरोधी अभियान को रोकना दिग्विजय सिंह को जरूरी क्यों लगा? क्या वे जानते हैं कि माओवाद का मुखौटा लगाकर चर्च अपना प्रभाव क्षेत्र तैयार कर रहा है? सुख सुविधाओं से लैस, कलमघिस्सू किताबी क्रांतिकारियों की बड़ी फौज मानवाधिकारों की रक्षा के नाम पर चर्च के इसी जाल में फंस जाती है। चर्च ने विदेशी आर्थिक सहायता के माध्यम से गैरसरकारी संगठनों (एन.जी.ओ.) का एक विशाल ताना-बाना देश में बिछा लिया है। उसके जाल में कागजी क्रांतिकारियों की इस विशाल फौज को सपेट लिया है। सोनिया की एन.ए.सी. इस फौज के साथ सम्पर्क पुल का काम करती है तो दिग्विजय सिंह सोनिया पार्टी के महासचिव पद का उपयोग उसे मान्यता देने के लिए करते हैं। उड़ीसा में स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या करवाकर अब गुजरात व मध्य प्रदेश में चर्च की आंखों की किरकिरी बने स्वामी असीमानंद को आतंकवाद की गतिविधियों में लपेट कर चर्च बड़ी योजना व कुशलता से अपने मार्ग की रुकावटों को हटाने में सफल हो रहा है।
कानूनी प्रक्रिया में हस्तक्षेप
बिनायक सेन और उनके दो साथियों के विरुद्ध न्याय प्रक्रिया पूरे दो साल चली। अभियोजन पक्ष ने 95 गवाह प्रस्तुत किये और बिनायक सेन के पक्ष ने 11। इस बीच न्याय प्रक्रिया को प्रभावित करने के लिए अनेक देशी-विदेशी प्रयास हुए। कुछ प्रयासों का उल्लेख हम ऊपर कर चुके हैं। निर्णय के लिए निर्धारित तिथि 24 दिसंबर के एक सप्ताह पहले टाइम्स आफ इंडिया और हिन्दू जैसे प्रभावशाली दैनिकों ने उनकी रिहाई का अभियान शुरू कर दिया। टाइम्स आफ इंडिया ने 19 दिसंबर को तीन चौथाई पृष्ठ बिनायक सेन के मुकदमे को समर्पित किया। जिसमें सबसे ऊपर "बिनायक सेन को रिहा करो" शीर्षक के साथ एक चित्र को सजा दिया। हिन्दू ने 16 दिसंबर को बिनायक सेन के समर्थन में एक समाचार के अतिरिक्त मुख्य सम्पादकीय भी लिख मारा। किंतु न्यायमूर्ति वर्मा ने अपने निर्णय में यह सिद्ध किया है कि बिनायक सेन और उनकी पत्नी इलिना सेन अपनी स्वयंसेवी संस्था "रूपांतर" के माध्यम से छत्तीसगढ़ के जनजाति समाज को सलवा जुड़ूम के विरुद्ध खड़ा कर रहे थे। वे नक्सली नेताओं के बीच सम्पर्क पुल की भूमिका निभा रहे थे। निर्णय के अनुसार बिनायक सेन ने 35 दिन में 33 बार जेल में बंद नारायण सान्याल से भेंट की। सान्याल के पत्रों को अन्य नक्सली नेताओं तक पहुंचाने का काम किया। ये आरोप सही हैं या गलत इसके निर्णय का दायित्व उच्च अदालतों पर छोड़ देना चाहिए।
मीडिया का दबाव
न्याय प्रक्रिया को प्रभावित करने का यह अभियान एक साथ कई मोर्चों पर सक्रिय हो गया है। मीडिया का तो पूरा इस्तेमाल किया ही जा रहा है। अंग्रेजी दैनिक इसमें मुख्य योगदान कर रहे हैं।  टाइम्स आफ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस, हिन्दुस्तान टाइम्स, हिन्दू .......
पुलिस सूत्रों के अनुसार बस्तर क्षेत्र के नक्सली हिंसा से आक्रांत पांच जिलों में माओवादी हिंसा बढ़ गयी है। माओवादियों ने दो मालगाड़ियों को पटरी से उतार दिया। माल लदे कई ट्रकों को फूंक दिया, सड़कों को खोद डाला, पेड़ों को काटकर गिरा दिया और पुलिस चौकियों पर गोलीबारी की। यह है माओवादी जनकांति का असली चेहरा। देश के गृहमंत्री चिदम्बरम् और वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी माओवादी हिंसा को देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बता रहे हैं तो सोनिया की एन.ए.सी.व दिग्विजय सिंह नामक भोंपू उनकी वकालत कर रहे हैं। भारतीय राजनीति की इससे बड़ी त्रासदी क्या हो सकती है?
दोहरे मापदण्ड की इस राजनीति पर वरिष्ठ पत्रकार वेद प्रताप वैदिक की यह टिप्पणी (भास्कर, 29 दिसम्बर) बहुत सार्थक है कि "बिनायक का झंडा उठाने वाले एक भी संगठन या व्यक्ति ने अभी तक माओवादी हिंसा के खिलाफ अपना मुंह तक नहीं खोला। क्या यह माना जाए कि माओवादियों द्वारा मारे जा रहे सैकड़ों निहत्थे और बेकसूर लोगों से उनका कोई लेना-देना नहीं है? क्या वे भोले-भाले वनवासी भारत के नागरिक नहीं हैं? उनकी हत्या क्या इसलिए उचित है कि वह माओवादी कर रहे हैं? माओवादियों द्वारा की जा रही लूटपाट क्या इसलिए उचित है कि आपकी नजर में वे किसी विचारधारा से प्रेरित होकर लड़ रहे हैं?


क्रांति के नाम पर एक महीने में 73 का कत्ल !


केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदम्बरम ने मंगलवार को कहा कि नक्सलियों ने नवम्बर में विभिन्न राज्यों में 62 नागरिकों और 11 सुरक्षाकर्मियों की हत्या की है।
इस महीने हुई नक्सली हिंसा की 135 वारदातों का जिक्र करते हुए चिदम्बरम ने कहा कि उनके मंत्रालय की नवम्बर की रिपोर्ट यहां एक संवाददाता सम्मेलन में जारी कर दी गई है।

उन्होंने कहा, "वाम चरमपंथियों (नक्सलियों) का राज्य के विरुद्ध युद्ध जारी है और इसमें कमी नहीं आ रही है।"

मंत्री ने कहा कि नक्सलियों ने पुलिस को निशाना बनाने की नई तरकीब अपना ली है।

उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ में पुलिसकर्मियों के परिवारों के सात सदस्यों की हत्या कर दी गई। इस्तीफा देने का दबाव बनाने के लिए पुलिसकर्मियों के रिश्तेदारों को अगवा करने की घटनाएं भी हुई हैं।

उन्होंने रिपोर्ट में कहा है कि इस महीने नक्सलियों ने पंचायत कार्यालयों एवं स्कूलों सहित 33 सरकारी सम्पत्तियों को क्षति पहुंचाई है।

चिदम्बरम ने कहा कि सरकार ने नक्सलियों की गिरफ्तारी और नक्सल प्रभावित इलाकों में विकासात्मक परियोजनाएं सुनिश्चित करने के लिए 'द्विआयामी रणनीति' बनाई है।

उन्होंने कहा कि नक्सल प्रभावित जिलों में विकास कार्यो के लिए हाल ही में 3,300 करोड़ रुपये स्वीकृत किए गए हैं, जिनका आवंटन अगले 16 महीनों में चरणबद्ध तरीके से किया जाएगा।

11/21/2010

वामपंथी आंदोलन की देन है माओवाद


भारत में हिंसा द्वारा परिवर्तन की बात इस्लामी जिहाद और कम्युनिस्ट विचारधारा की देन है। अहिंसक लोकतांत्रिक भारतीय पद्धति से बदलाव लाने में भारत ने विश्व में अप्रतिम उदाहरण प्रस्तुत किया है, गरीबी, अशिक्षा व सांप तथा सपेरों के देश वाली छवि से भारत मुक्त होकर दुनिया के सबसे अच्छे सॉफ्टवेयर इंजीनियर, वैज्ञानिक और अध्यापक देने वाले ऐसे देश के नाते प्रतिष्ठित हुआ है जहां के उद्योगपति अमरीका व यूरोप में अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियों का अधिग्रहण कर चुके हैं। इस मार्ग की अपनी समस्याएं हैं पर उनका समाधान देशभक्ति और लोकतंत्र में है, बन्दूक और विदेश निष्ठा में नहीं है। कम्युनिस्ट विचारधारा में अर्न्तनिहित हिंसा का तत्व वामपंथी विरासत का बोझ है। इजवेस्तिया के साप्ताहिक परिशिष्ट निदालय के अंक में प्रकाशित प्रो. आई. गॉक्स बेस्तुजहेव लाडा के एक लेख का सार प्रकाशित किया। वह स्टालिन के कार्यकाल के दौरान मारे गये लोगों की कुल संख्या 5 करोड़ बताते हैं जिसमें दूसरे विश्व युद्ध में मारे गये 2 करोड़ लोग शामिल नहीं थे। यही भयावह नियति पूर्वी यूरोपीय देशों की रही जो द्वितीय विश्व युद्ध के अंत में रूस की चपेट में आ गये थे। पूर्वी बर्लिन में सन् 1953 में 2 लाख मजदूर साम्यवादी तानाशाही के खिलाफ उठ खड़े हुए। पौलेंड में सन् 1956 में मजदूरों ने काम करना बंद कर दिया। हंगरी में सन् 1956 में छात्र-समुदाय द्वारा विशाल विरोध आंदोलन किया गया। सन् 1968 में चेकोस्लोवाकिया में साम्यवादी प्रभुत्व के खिलाफ जन आंदोलन को उसकी पूरी जनसंख्या का समर्थन हासिल था। परंतु रूस की प्रतिक्रिया वही थी, तोपें और बंदूकें। माओ-त्से-तुंग ने भी स्टालिन के पदचिन्हों पर चलते हुए अपने ही लाखों देशवासियों, खासकर किसानों को मरवा डाला। बाद में चीनी विशेषज्ञों ने प्रकट किया कि चीन में पड़े बदतरीन अकाल के दौरान भुखमरी, बीमारियों आदि से कीड़ों की तरह नष्ट होने वाले लाखों लोगों के अलावा अमानवीय क्रूरता का शिकार बनने वाले लोगों की संख्या 90 लाख थी! चीन के मामले में आरजे रमेल इस संख्या को लगभग 3,87,02,000 बताते हैं। कम्बोडिया में कम्युनिस्ट शासक पोलपोट ने अपने ही देश के 32 लाख नागरिकों की हत्याएं करवायीं थीं। अपनी खोजपरक पुस्तक ‘मार्टीरडम ऑफ स्वयंसेवक्स (स्वयंसेवकों का बलिदान) में एसवी शेषगिरी राव ने बताया है कि माओवादियों का धनाढ्यों के खिलाफ गरीबों के क्रांतिकारी संघर्ष से कोई लेना-देना नहीं है। केरल में मार्क्सवादियों द्वारा मारे गये लगभग 85 से 90 प्रतिशत आरएसएस स्वयंसेवक दैनिक या साप्ताहिक मजदूरी पर काम करने वाले गरीब लोग थे जैसे बीड़ी बनाने वाले, मछुआरे, स्टेट में काम करने वाले, फार्मों में मजदूरी करने वाले इत्यादि। जिन कम्युनिस्टों के नेतृत्व में चीन में चार करोड़ से अधिक निर्दोष निष्पाप नागरिक अत्याचार और बौद्धिक दमन का शिकार बनाकर मार डाले गये हों और जिनके नेता माओ को अपना नेता मानकर उसके नाम पर संगठन चलाने वाले नेपाल तथा भारत में हजारों नागरीको की हत्या के लिये जिम्मेदार आतंकवादी मुहीम को किसी क्रान्ति के नाम चला रहे हो, उनसे कैसे अपेक्षा की जा सकती है कि वे भारतीय जीवन पद्धति से निःसृत ज्ञान और करुणा से कोई तादात्म्य रखेगें? माओवादी एवं जिहादी हिंसा के पीछे विविधता को समाप्त कर एकरूपता लाने एवं भिन्न मत के अन्त की अभारतीय सोच रहती है। इसके समक्ष अदम्य राष्ट्र प्रेम और प्राचीन भारतीय सभ्यतामूलक विचार ही सफल हो सकता है जो सर्वाधिक के हित, विविधता में एकता और भिन्न मत के प्रति समझदारी पर टिका है। जिन कम्युनिस्ट आतंकवादियों ने नक्सलवाद या माओवाद का लिबास ओढ़कर केवल गत तीन वर्षों में 2600 भारतीयों की हत्या कर दी हो, उनके समर्थन में बोलने और लिखने वाले किस विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं? जो लोग माओवादी आतंकवादियों के कवच बनते और बनाते हैं, उन्हें हत्या के अपराध में शामिल क्यों नहीं माना जाना चाहिए? गृहमंत्री पी. चिदम्बरम माओवादी हिंसा के बारे में स्पष्ट हैं- उन्होंने हमसे एक सामूहिक बातचीत में कहा कि- ‘दीज आर कोल्ड ब्लडेड मर्डरर्स’- ये सिर्फ क्रूर हत्यारे हैं। चिदम्बरम ने पूछा- छोटे-छोटे 2 साल, चार साल तक के बच्चों को मारने के पीछे कौन सी क्रांतिकारी भावना है? स्कूल, अस्पताल, सड़कें न बनने देने या सार्वजनिक सेवा के भवन तोड़ने के पीछे कौन सा जनहित है? क्या जिन पुलिसकर्मियों की घात लगाकर माओवादी हत्याएं करते हैं, उनके परिवार, माता-पिता, पत्नी और बच्चे नहीं होते? माओवादियों की कंगारू अदालतें ग्रामीणों को पकड़कर उन पर पुलिस की मुखबिरी से लेकर सामान्य अपराधों के मामलों की सुनवाई करतीं हैं और ‘अपराधी’ का सर-धड़ दिया जाता है- उनका यह न्याय कौन से कोबाड गांधी या अरुन्धती राय उचित ठरा सकते हैं। एक समय था जब राजनीतिक कदाचार और प्रशासनिक भ्रष्टाचार के खिलाफ आंखों में लाल क्रांति का सपना तथा किताबों में सर्वहारा की तानाशाही के सिद्धांत लिए युवकों ने नक्सलवादी- लाल सलाम की गूंज उठायी थी। उनके नारे थे-चीन के चेयरमैन हमारे चेयरमैन। उन्हें विवेकानन्द, सुभाषचन्द्र बोस या ईश्वरचन्द्र विद्यासागर में अपने आदर्श नहीं दिखे-वे एक विदेशी विचारधारा और नायक के माध्यम से भारत में बदलाव की बात करते थे। उनके आदर्शों में चारु मजूमदार और राजू सान्याल के नेतृत्व में प्रारंभ ऑल इंडिया को आर्डिनेशन कमेटी ‘ऑफ कम्युनिस्ट रिवोल्यूशनरीज’ (कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की अभा समन्वय समिति) बाद में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) में तब्दील हुई जिसका हिस्सा छिटक कर माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (एमपीजी) के रूप में बिहार और उड़ीसा में सक्रिय हुआ। इसका भी बाद में आन्ध्र के पीपुल्स वारग्रुप में विलय हुआ और समन्वित इकाई भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) कही गयी। गृहमंत्रालय के सूत्रों के अनुसार माओवादी आईएसआई, उल्फा, लिट्टे तथा चीन से ही हथियार नहीं प्राप्त करते बल्कि इस्लामी तालिबानों के साथ भी उन्होंने गठबंधन किया है। भारत के 13 राज्यों में लगभग 20 हजार प्रशिक्षित और 50 हजार सामान्य माओवादी हिंसा के सूत्र बने हुए हैं जो सुरक्षा सैनिकों और सामान्य देशभक्त भारतीयों की अमानवीय हत्याएं कर रहे हैं। उनका सामना करने के लिए भारत की जनता का 7 हजार करोड़ से अधिक धन व्यय हो रहा है जो अन्यथा ग्रामीण क्षेत्र और शहरी आधुनिकीकरण में खर्च किया जाता। यह सत्य है कि माओवाद अंधाधुंध प्रत्याघात से समाप्त नहीं हो सकता-उसके लिए जनशक्ति और राजशक्ति का समन्वय एवं राजनेता और प्रशासक का ईमानदार होना भी जरूरी है। लेकिन समस्याओं के समाधान का हिंसक मार्ग हर हाल में निर्ममतार्पूवक समाप्त किया ही जाना चाहिए।
नक्सलवादी, माओवादी हिंसक आंदोलन बाह्य शक्तियों से ज्यादा खतरनाक और जटिल इसलिए हैं क्योंकि वे स्थानीय समाज में छिपकर रहते हैं, वहीं से बन्दूक की नोक पर कार्यकर्ता भर्ती करते हैं और समान्तर माफियाराज कायम करते हैं। माओवादी भारत की जनता के सबसे बड़े शत्रु इसलिए हैं क्योंकि बन्दूक के दम पर वे कहीं भी सत्ता में परिवर्तन और विकास नहीं ला पाये। अगर उन्हें अपने विचारधारा के प्रति निष्ठा है तो वे लोकतांत्रिक पद्धति अपनाने से क्यों डरते हैं?

11/11/2010

आँख से 'आंसू' नहीं शोले निकलने चाहिए


एक बार अपनी गाड़ी के नीचे एक गिलहरी के दब कर मर जाने के बाद नेहरू की प्रतिक्रिया थी कि इस जैसा फुर्तीला जानवर इसलिए मृत्यु को प्राप्त हुआ क्योंकि वह ऐन गाड़ी के सामने आ जाने पर तय ही नहीं कर पाया कि उसको आखिर जाना किधर है। छत्तीसगढ़ के दंतेवाडा जिले के मुकराना के घने जंगलों में केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल की 80 सदस्यीय 62 वीं बटालियन पर नक्सलियों द्वारा किये गए सबसे बड़े हमले में देश को अपने दर्जऩों जवानों से हाथ धोना पड़ा है। तो अपने जांबाजों की शहादत एवं सरकारों की भूमिका पर वही कहानी याद आ रही है। वास्तव में आज के लोकतंत्र के कर्णधार-गण ऐसी ही गिलहरी हो गए हैं जिनको पता ही नहीं है कि आखिर जाना किधर है। निश्चित ही यह अवसर किसी भी तरह के आरोप-प्रत्यारोप का नहीं है, ना ही मामला कांग्रेस और बीजेपी का है। मामला सीधे लोकतंत्र से जुड़ा हुआ है। सीधी सी बात ये है कि इस मामले में देश में कोई तीसरा विकल्प नहीं है। आप चाहें तो लोकतंत्र के पक्ष में दिखें या उसके खिलाफ। और उसके खिलाफ जाने वाले लोगों, संस्थाओं, नेपथ्य से संचालित हो रहे समूहों के साथ आखिर हमें कैसा सलुक करना चाहिए यह अगर हम एक बार तय कर लें तो ये कोई इतनी बड़ी लड़ाई नहीं है जिसमें विजय न पायी जा सके। बिना किसी भी तरह के पूर्वाग्रह रखते हुए भी आप सोचें। क्या आपको ऐसा लग रहा है कि नक्सलियों के खिलाफ सरकारों के पास किसी भी तरह की कोई स्पष्ट नीति है? इतनी बड़ी विभीषिका, देश के अंदर चलने वाले वाले इतनी बड़ी लड़ाई, संगठित गिरोहों द्वारा लोकतंत्र के समक्ष उत्पन्न कर दी गयी इतनी बड़ी चुनौती के बाद भी क्या हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें? मसले का हल बातचीत से हो, गोली से होगी, इलाके का विकास करने के बाद ही नक्सलियों का सफाया सम्भव है या नक्सलियों के सफाए के बाद हम विकास की बात सोचेंगे, इसमें सभी विकल्प या कोई एक विकल्प अपनाना ज़रूरी है? यह आतंकवाद है या विचार धारा की लड़ाई है, यह राज्य का मामला या केंद्र का, क़ानून व्यवस्था का है या राष्ट्रीय चुनौती इनमें से किसी भी बात पर अगर हम कोई सर्वसम्मत रुख नहीं अपना सकें तो फिर कैसे पार पा सकते हैं आप इस चुनौती से? सवाल केवल मज़बूत इच्छा शक्ति और बिना किसी भी तरह के राजनीतिक लाभ-हानि का विचार किये उस पर अमल का है। ऊपर जितने तरह के विरोधाभासों या दुविधा की चर्चा की गयी है, अगर आप केन्द्रीय गृह मंत्री मंत्री के नक्सल मामले में दिए गए आज तक के सभी बयानों पर गौर फरमायें तो लगेगा कि वास्तव में अलग-अलग मौके पर उनके ऐसे बयानों से हमारा सबका वास्ता पड़ता रहा है। तो बात इसी मौका परस्ती की है। अगर आप अपनी राजनीतिक स्थिति एवं सुविधाओं के अनुकूल ही चीज़ों को परिभाषित करने की बात करना चाहेंगे तो कैसे पार पा सकते हैं ऐसी विकराल समस्या से? चीजें आपकी सुविधा अनुसार तो बदलनी है नहीं। आप चिदंबरम जी के लालगढ़ में दिए बयान पर गौर कीजिये' वहाँ वो युद्ध के लिए तैयार नक्सलियों को बात-चीत के लिए ही आमंत्रित करने की कोशिश करते दिखे। जबकि इससे पहले किशन जी और उनके साथ फोन-फैक्स नंबर के आदान-प्रदान जैसा बचकाना मामला भी लोगों को देखने को मिला था। इसी तरह जहां मुख्यधारा के सभी विचारक-चिन्तक और राजनीतिक दल भी नक्सलियों को चोर-लुटेरों का गिरोह साबित करने में प्राण-पण से जुटे हो, यहाँ तक कि इस वाद के जन्मदाता कहे जाने वाले कानू सान्याल भी जिसको आतंकवाद कहने लगे थे। और हताश होकर जिन्होंने आत्महत्या तक कर ली हो वहाँ पर छत्तीसगढ़ का पुलिस अधिकारी किसी अन्य राज्य में जा कर नक्सलवाद को विचारधारा साबित करने पर तुल जाए, क्या अर्थ है इन बेतुकी बातों का? जिन-जिन लोगों को यह लगता हो कि आतंकवाद का खात्मा बन्दूक से नहीं हो सकता उनके लिए हालिया श्रीलंका का या उससे पहले पंजाब के उदाहरण पर गौर करना चाहिए। अगर लिट्टे के खिलाफ श्रीलंका की सरकार भी बात-चीत का राग ही अलापती रहती तो पीढिय़ों तक ऐसे ही असुरक्षित रहता वह देश भी। या अगर इंदिरा गांधी ने स्वर्ण-मंदिर में सेना न भेजी होती, पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री बेअंत सिंह अपनी जान की कीमत पर भी अगर आतंकियों को कुचलने हेतु दृढ़ प्रतिज्ञ नहीं होते तो शायद वह सरहदी राज्य आज भारत का हिस्सा ही नहीं रह गया होता। तो अब यह समय आ गया है कि देश नक्सल मामले को लोकतंत्र के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती के रूप में देखें। बिना किसी भी तरह के दवाव में आये इसको कुचलने और केवल कुचलने की नीति पर ही कायम रहें। प्रजातंत्र के इस महाभारत में शिखंडी की भूमिका निभाने वाले कुछ कलमकारों, विदेशी दलाल / दलालियों की जम कर उपेक्षा और अगर ज़रूरत हो तो उनके हाथ तोड़ देने से भी बाज़ ना आने की इच्छा शक्ति दिखलाये। ऐसे लोगों के लिए जन-सुरक्षा कानून का इस्तेमाल और बाकियों के लिए गोली, इस नीति पर चलें तो यह ऐसी बड़ी समस्या नहीं है जिससे पार ना पाया जा सके। अगर रणनीतिक तौर पर सोचा जाय तो इस मामले के लिए अनुकूलतम् स्थिति भी है। यह काफी सालों के बाद पहला मौका है जब नक्सलियों के मौसेरे भाई वाम-पंथियों की केंद्र में कोई हैसियत नहीं रह गयी है। साथ ही बचे खुचे कम्युनिस्ट खुद भी अब इन गिरोहों से मुक्ति चाहते हैं। तो इस मौके का इस्तेमाल कर लोकतंत्र की यमुना में नाग की तरह फन काढे इन लुटेरों को कुचलने में जी-जान से जुट जाए। निश्चित ही अपने जवानों की शहादत पर खून के आंसू रोने का दिल कर रहा है। किसी भी देशभक्त के लिए इस मौके पर चुप रहना संभव नहीं। लेकिन यह शहादत और गौरव की बात होती अगर हमारे 75 जवानों के बदले 750 राक्षसों का सर कलम करने में हमें सफलता मिली होती। आइये हम इसको नक्सलियों की कायराना हरकत नहीं कहें। उन्होंने तो अपने तरीके से बड़ी सफलता हासिल की है। बस इस शहादत का सबसे बड़ा सम्मान यही हो सकता है कि सभी सरकारें मिल-जुल कर यह घोषित करें कि नक्सल मामले में सभी कंधे से कंधे मिला कर चलेंगे। भविष्य में इनसे किसी भी तरह से बातचीत की बात करके अपने जवानों की शहादत को कलंकित नहीं करेंगे। जवानों से दस गुना संख्या में नक्सलियों का सर प्राप्त किये बिना चैन से नहीं बैठेंगे। लोकतंत्र के विरुद्ध दुष्प्रचार करने वाले हाथ को भी तोड़ कर दम लेंगे। इन गिरोहों को कभी 'अपने लोग' का संबोधन देने का पाप नहीं करेंगे। सीधे तौर पर नक्सलियों को अपना दुश्मन समझेंगे। अगर अमृतसर की तरह से सेना का भी इस्तेमाल करना पड़े तो भी पीछे नहीं हटेंगे। लोकतंत्र पर आये इस संकट का पूरे दमदारी से सामना करने को तैयार रहेंगे चाहे इंदिरा-राजीव गाँधी की तरह बम से उड़ जाना पड़े या मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की तरह चीथड़े उड़ जाए। शहीद जवानों की एक मात्र श्रद्धांजलि देश के चप्पे-चप्पे पर लोकतंत्र की वापसी करके ही दी जा सकती है। आजादी के दीवाने सेनानियों की तरह ही दंतेवाडा में शहीद हुए जांबाजों को सदियों तक देश याद रखेगा। अमर रहे ये सेनानी और कायम रहे उनका गुणगान करने को ये कायनात और लोकतंत्र।

बीसवीं सदी में भारत के इतिहास के 6 काले पन्ने (भाग 5)

चौथा काला पन्ना

भारतवासियों ने 1950 में संविधान की शपथ लेकर जन के तंत्र को स्वीकार किया। हमने कहा कि देश की संचालक आम जनता रहेगी। वह जनप्रतिनिधि चुनेगी और उनसे देश की सरकार चलवायेगी। अगर चलाने वालों ने अयोग्यता या भ्रष्ट आचरण का प्रदर्शन किया तो उन्हे बदल देगी। पूरें देश के संचालन के लिए एक व्यवस्था बनी, जो विधानसभा और लोकसभा के नाम से जानी जाने लगी।
वैसे भारत में गणराज्यों की व्यवस्था का पुराना इतिहास है। मालव, शूद्रक, वैशाली जैसे गणराज्यों का वर्णन भारतीय इतिहास में स्थान-स्थान पर मिलता है। हम भारत के लोग स्वभाव से ही प्रजातांत्रिक है। अधिनायकवाद हमें क्षणभर के लिए भी स्वीकार्य नहीं है। तानाशाही चाहे तामसिक, राजसिक या सात्विक आवरण ओढ़कर भी आये तो वह भारतीयो को स्वीकार्य नहीं। अतिवाद और आतंकवाद से भारतीयों को घृणा है। इस देश ने कठमुल्लेपन को कभी महिमामण्डित नहीं किया, धर्मान्धता हमारे रक्त में नहीं है। ऐसे भारत के गणतंत्र में भी काला पन्ना लिखा गया।

                      प्रजातंत्र की इस मातृभूमि में 25 जून 1975 की मध्य रात्रि में सत्ता के चाटुकारों और दलालों द्वारा जनतंत्र से बलात्कार किया गया। रात के अंधेरे में सोते हुए भारत के गणतंत्र पर जो हिटलरी हमला हुआ, वह गत शताब्दी का चौथा काला पन्ना है। इसे लगाने वालों को भूलना स्वयं में सबसे बड़ा पाप है।
आपातकाल लगाने की पूर्व बेला में भारत के मूर्धन्य पत्रकार, प्रसिद्ध लेखक व संपादक श्री राजेन्द्र माथुर द्वारा लिखे गए एक संपादकीय के शब्दों को दोहराना यहां सामयिक रहेगा। अपने लेख में वे लिखते है - ''देश में आज का दिन चाटुकारों और जी-हजुरी करने वालों का बलि चढ़ गया, सही दिशा देने के बजाय वे चरण भक्त इंदिरा गांधी का स्तुतिगान करते रहे। पार्टी के नेता कहते रहे आप जैसा कोई नहीं है मैडम! आप तो आप है। हाईकोर्ट के निर्णय से क्या फर्क पड़ता है! हम सुप्रीम कोर्ट चले जायेगें, आप प्रधानमंत्री पद मत छोड़िये, आपके बगैर देश डूब जायेगा।''
हद तो तब हो गई कि कांग्रेस के राष्ट्रीय नेता देवकांत बरूआ ''इन्दिरा इज इण्डिया एंड इण्डिया इज इंदिरा'' जैसे नारे लगाने लगे और साठ करोड़ दिलो की धड़कन एक नई पहचान बन गई। इंदिरा हिन्दुस्तान बन गई, इंदिरा हिन्दुस्तान बन गई जैसी कविताएं रची जाने लगी। वैसे चापलूसी कांग्रेस का मूल चरित्र रही है। चाटुकारिता का काम वे पल दो पल नहीं, 24 घण्टे,365 दिन और पूरा जीवन बड़ी सहजता से करते है।25 जून 1975 के बाद कुछ ही दिनों में लाखों लोग जेलों में ठूंस दिए गए। उन्हे अमानवीय यातनाएं दी गई। बोलने और लिखने की आजादी देश और देशवासियों से छीन ली गई। हिटलर और मुसोलीनी की अधिनायकवादिता को अनुशासन पर्व पर रैपर चढ़ा दिया गया। जेलों में बंद सामाजिक कार्यकर्ताओं के हाथ, पैरों के नाखून टेबल और कुर्सियों के पायों से दबा-दबाकर निकाले गए। उनके गुप्तांगों पर मरणांतक प्रहार किए गए। कई लोग अनाम मौत का शिकार हो गए। देश नारकीय कष्टों से गुजरा। एक क्षण के लिए लगा, क्या देश ऐसी सुरंग में चला गया है जिसका कभी अंत नहीं होगा। रह-रहकर शंका होने लगी कि अब हमारा अर्थात भारत का अंत निश्चित है!

                             अधिनायकवादी और अलोकतांत्रिक होना कांग्रेस का सहज स्वभाव है। वह धर्म के आधार पर भारत को बांटते समय भी दिखता है, त्रिपुरी सम्मेलन के घटनाक्रमों में भी नजर आता है, चीन की पराजय पर दिए गए जबाबों में भी साफ झलकता है। कांग्रेस का यह स्वभाव दोष कल भी था, आज भी है और आगे भी रहेगा। जैसे हिंसक प्राणी हिंसा से नहीं चूकता, वैसे ही कांग्रेस का नेतृत्व अधिनायकवादिता से नहीं चूकता। आपातकाल का अंत भी आपातकाल लगाने वालों के कारण नहीं हुआ था। वह दो प्रमुख कारणों से हुआ था।
एक - आपातकाल लगाने वाले कांग्रेस नेता इस गलतफहमी में थे कि हम चुनाव करवा कर फिर से शासन में आ जायेगें। उन्होने सोचा कि पड़ोसी देशों में जनतंत्र के नाम पर जिस प्रकार से चुनाव होते है, वैसे ही खानापूर्ति के लिए भारत में भी चुनाव करवाकर हम फिर पांच सालों के लिए सत्ता हथिया लेगें। लेकिन उनका यह अनुमान गलत निकला।
दूसरा - भारत इस प्रकार कर आततायी वृत्तियों से सदियों से लड़ता चला आया है। चूंकि भारतवासी प्रकृति से प्रजातांत्रिक, स्वभाव से सहिष्णु व हमला होने या करने पर अजेय योद्धा जैसा आचरण करते है इसलिए हम सही समय का इंतजार करते है, अपनी चेतना को कभी मरने नहीं देते। हम भारतीयों पर ज्यादा दबाब दो तो चुप हो जाते है, मजबूरी हो तो झुक भी जाते है। हमारे झुकने को कोई मिटना समझे और चुप रहने को कायरता मान बैठे तो यह प्रतिद्वंदी की सबसे बड़ी भूल होती है। भारत को गिरकर खड़ा होना बहुत अच्छी प्रकार से आता है। धर्म केन्द्रित हमारी इस सांस्कृतिक चेतना के कारण हमने कांग्रेस द्वारा थोपे गए आपातकाल को उखाड़ फेंका। कही आरएसएस ने नेतृत्व किया तो जनसंघ, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, समाजवादी व अन्य जन संगठनों ने। वस्तुतः आपातकाल का हटना ना तो कांग्रेस की हार थी न जनता पार्टी के लिए जीत। वह तो करोड़ों भारतीयों के द्वारा विश्व को दिया हुआ एक संदेश था, उन्होने गरजकर घोषणा की थी

हम आततायियों के आक्रमण से नहीं डरते, अत्याचारियों के दबाब के सामने नहीं झुकते, हम स्वभाव से प्रजातांत्रिक है और चेतना से स्वतंत्र है। कभी-कभी दूसरों को लग सकता है कि हम दब गए है या लड़खड़ा रहे है लेकिन उठकर, संभलकर किया हुआ हमारा पलटवार प्रतिद्वंदी के लिए प्राणांतक होता है। सच तो यह है कि हमारे प्रहार क्षेत्र में आया हुआ दुश्मन प्रहार के बाद पानी तक नहीं मांगता। हम अधिनायकवाद को जड़ मूल से उखाड़ फेंकते है, हमारा विरोध कभी किसी व्यक्ति से नहीं रहा, हमारा विरोध सदैव वृत्ति से रहा है। भारत के हर छोटे-बड़े, अपने-अपने स्थान पर नेतृत्व कर रहे या नेतृत्व करने की चाह रखने वाले नायको को यह एक मंत्र कंठस्थ कर लेना होगा। चाहे फिर वह नेतृत्व सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक या अन्य किसी क्षेत्र में हो। कोई बताने पर समझता है, कोई ठोकर खाकर समझता है, तो कोई सब कुछ खोकर समझता है। कांग्रेस की अधिनायकवादी नेतृत्व की वृत्ति कब और कैसे समझती है। वह 1977 में ठोकर खाकर तो नहीं समझती शायद सबकुछ खोकर समझ जाये। आपातकाल लगाकर कांग्रेस ने देश की गत शताब्दी का चौथा बड़ा पाप किया। आपातकाल लगाना व जनता को उसे भोगना भारतीय गणतंत्र के इतिहास में 2000 साल बाद भी शिक्षा व बोध कथाओं का हिस्सा बना रहेगा। बच्चों को पढ़ाया जाता रहेगा कि सन् 1975 में हमारे देश में एक ऐसा घृणित कार्य हुआ था। कांग्रेस नाम का एक राजनैतिक दल था, उसकी नेता इंदिरा गांधी नाम की महिला थी, उसने वा उसके साथियों ने देश में प्रजातंत्र की हत्या करने का प्रयास किया किंतु तत्कालीन भारतीय जनता ने उसे सिरे से नकार दिया।

हे देश के भावी कर्णधारों! तुम्हारे समय में भी कभी ऐसा हो तो तुम भी वैसे ही लड़ना जैसे 1975 से 1977 तक हमारे देश के लोग जनतंत्र के लिए लड़े थे।
(आपको यह लेखमाला कैसी लगी? कृपया अपने विचारों से अवगत अवश्य करावें )

इतिहास के 6 काले पन्ने (भाग 4)

बीसवीं सदी में भारत के इतिहास के 6 काले पन्ने (भाग 4)

तीसरा काला पन्ना

भारत की सेना अजेय है। समय आने पर इसके सैनिक अधिकारी सैन्य विशेषज्ञों के गणित को नकारते हुए विजयश्री का वरण करते है। कारगिल की लड़ाई में जब दुनिया कह रही थी कि यह कई महीनों की लड़ाई है, बत भारतीय सेना ने कुछ ही दिनों में पाकिस्तानियों का हर चोटी से सफाया करके युद्ध जीत लिया। लेकिन क्या कारण है कि 1962 के युद्ध में भारत ने चीन के हाथों से करारी हार देखी!
भारत के सैनिक मोर्चो से पीछे हटते हिमालय की वादियों में नंगे पैर, बिना भोजन और दवा के कई-कई किमी. भटकते रहे। दिशाहीन और बदहवास भटकते हजारों सैनिक मौत की नींद सो गए! 15 साल की आजादी देख रहा देश जिन बंदुकों से लड़ रहा था, उसका बैरल 25-50 राउंड फायर करने के बाद इतना गरम हो जाता था कि उसे चलाना तो क्या पकड़ना भी संभव नहीं होता था। बर्फ से आच्छादित हिमालय में पहनने के जूते नहीं, गरम कपड़े नही और र्प्याप्त प्रशिक्षण भी नही!
युद्ध शुरू होने के लम्बे समय बाद हिन्दी-चीनी भाई-भाई जैसे नारों के जन्मदाता व प्रवर्तक तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, नारा छोड़कर देश के लिए लड़ों-मरो के भाषण देने लगे। ऐसे खोखले भाषणों से कभी कोई सेना लड़ी है क्या! अपने आपको विश्व की महान हस्ती बनाने की कूटनीतिक गलतियां करते चले गए। कबूतरों को उड़ाकर देश की वायु सीमाओं को सुरक्षित समझते रहे। गुलाब का प्रयोग उन्हे दुश्मन देशों को परास्त करने में गोना-बारूद नजर आता रहा। 1950 में भारत से दूर कोरिया पर चीन ने आक्रमण किया तो नेहरू विश्व में घूम-घूम कर उस पर चिन्ता व्यक्त करते रहे। ठीक इसी वर्ष 1950 में चीन ने तिब्बत पर भी हमला किया, जो सामरिक दृष्टि से भारत के लिए अत्यंत खतरनाक था। लेकिन इस सम्बंध में न तो नेहरू बोले, न कृष्ण मेनन, न सरकार का कोई अधिकारी। सब चुप रहे!!

1950 से 1960 के 10 सालों में चीन ने तिब्बत से हिमालय की अग्रिम चौकियों तक सड़क मार्ग बना डाले। यातायात के अच्छे संसाधन खड़े कर लिए। हिमालय की सीमा तक वह सेना के साथ बढ़ता चला आया। नेहरू आंखे बंद कर खामोश रहे। प्रायोजित भीड़ के बीच हाथ हिला-हिलाकर हिन्दी चीनी भाई-भाई का नारा लगाते रहे। दिल्ली की राजनीतिक पार्टियों में चीनीयों के साथ सामूहिक फोटो खिंचाकर पंचशील का मंत्र जपा जाता रहा। चीन के राजनेता और कूटनीतिज्ञ खुश थे- नेहरू और उसके साथियों के इस आत्मघाती, आत्ममुग्ध व्यवहार पर। हिमालय की सुरक्षा के सम्बंध में हमारी क्या रणनीति है, यह आज जितनी कमजोर है, उससे 45 साल पूर्व की कल्पना पाठक सहज ही कर सकते है। चीन अधिकृत हिमालय में उसकी सीमा के अंदर अंतिम छोर पर चीन ने पक्की सड़के बना ली है। भारी गोला बारूद और रसद ले जाने के लिए उनके पास अग्रिम मोर्चे तक पक्की सड़के है। दूसरी ओर भारत की ओर से सीमा पर पंहुचने के जो मार्ग है, उनमें कई स्थानों पर पक्की सड़क के अंतिम बिंदु से सीमा चौकियों तक पंहुचने का माध्यम तब भी खच्चर था और आज भी खच्चर है। आज भी बेस कैम्प से अग्रिम सीमा चौकी तक जाने में कहीं-कहीं तीन से चार दिन का समय लगता है। आज भी भारतीय सेना और आईटीबीपी अपने शस्त्र व रसद खच्चरों पर ढ़ोकर सीमा पर ले जाती है। सोचिये, 1962 में जब चीन ने हमला किया था तब क्या स्थिति रही होगी। पराजय की भीषणता का केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। इस पूरी पराजय, दुरावस्था और अपमान के लिए अगर कोई एक व्यक्ति जिम्मेदार है तो वे है तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू। 1962 की शर्मनाक पराजय के बाद अपने मंत्री से त्यागपत्र मांगने की बजाय नेहरू स्वयं इस्तीफा देते तो सरहद पर शहीद हुए सैनिक तो नहीं लौट सकते थे, पराजय विजय में तो नहीं बदल सकती थी, लेकिन गलती पर थोड़ा प्श्चाताप जनमानस के अवसाद और दर्द को तो कम कर ही सकता था। लेकिन हमारे नेहरूजी...... लता मंगेशकर के एक गीत पर चंद आंसू बहाकर सैनिकों को श्रद्धांजलि दे फिर से प्रधानमंत्री बने रहने में व्यस्त हो गए। चीन के हाथों हुई हमारी हार और चीन के कब्जे वाला भारत का वह भू-भाग भारत के मुहं पर एक ऐसा तमाचा है, जिसे कम से कम आने वाली एक सदी तक तो नहीं भूला जा सकता। यहां फिर प्रश्न पैदा होता है कि सुभाषचन्द्र बोस को कांग्रेस अध्यक्ष पद पर से बलात् न हटाया गया होता, वे विदेश ना जाते, देश में रहकर अंग्रेजों से लड़ते रहते तो स्वतंत्र भारत में वे क्या होते! अपनी श्रेष्ठता के कारण वे निश्चित ही भारत के प्रधानमंत्री होते। वे होते तो भारत की कूटनीति और विदेश नीति फूलों और पक्षियों से नहीं समझाते, बल्कि ''तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे विजयश्री दूंगा'' जैसे नारों से जनता को बताते। सुभाष के रहते चीन के हाथों भारत की पराजय सपने में भी संभव नहीं थी। तब चीन ने भारत पर हमला तो दूर तिब्बत पर भी हमला करने से पूर्व हजारों बार सोचना था, लेकिन अफसोस ऐसा नहीं हुआ। यहां फिर सवाल नेहरू का नहीं सवाल है सुभाष। उनके ठीक स्थान पर ठीक समय नहीं होने का है। हमें समझ लेना होगा कि मक्खन को छोड़ छाछ उबालने से घी नहीं बनता।

गोधरा रेल अग्निकांड की जाँच शुरू

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बुधवार, 15 सितंबर, 2004 को 11:40 GMT तक के समाचार

गोधरा रेल अग्निकांड की जाँच शुरू

फ़रवरी 2002 में हुए गोधरा रेल अग्निकांड की जाँच करने वाले आयोग ने बुधवार को काम शुरू कर दिया.
ग़ौरतलब है कि गुजरात में 27 फ़रवरी 2002 को गोधरा स्टेशन के पास साबरमती रेलगाड़ी के एक डिब्बे को आग लगा दी गई थी जिसके बाद राज्य में बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे थे.
इस अग्निकांड में 59 लोग मारे गए थे.
रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव ने इस घटना की नए सिरे से जाँच कराने के आदेश दिए थे और उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश यूसी बनर्जी की अध्यक्षता में छह सदस्यों की एक समिति गठित की थी.
इस समिति ने बुधवार को गोधरा जाकर जाँच शुरू कर दी है. इस जाँच दल में एक रेलवे बोर्ड का सदस्य, दो पूर्व सदस्य, एक सेवानिवृत्त दमकल अधिकारी और एक सचिव शामिल हैं.
समिति के सदस्य पहले वड़ोदरा पहुँचे और वहाँ से उन्हें गोधरा ले जाया गया.
वड़ोदरा के मंडल रेल प्रबंधक जीएन अस्थाना ने कहा कि समिति के सदस्यों ने साबरमती रेलगाड़ी की जली हुई बोगी नंबर छह की जाँच-पड़ताल की जिसे रेलवे यार्ड में रखा हुआ है.
सदस्यों ने रेलवे अधिकारियों से विचार विमर्श भी किया.
समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक़ समिति के अध्यक्ष यूसी बनर्जी ने संवाददाताओं को बताया कि समिति दरअसल इस घटना को समझने की कोशिश करेगी कि 27 फ़रवरी 2002 को बोगी नंबर छह के अंदर क्या हुआ था.
समिति तीन महीने के अंदर सरकार को अपनी जाँच रिपोर्ट सौंप देगी.
बिलकीस मुक़दमा
इस बीच बिलक़ीस बलात्कार मामले की सुनवाई 29 सितंबर के लिए स्थगित कर दी गई है.
इस मामले की सुनवाई कर रही मुंबई की एक विशेष अदालत ने बुधवार को केंद्रीय जाँच ब्यूरो को आदेश दिया कि उच्चतम न्यायालय के आदेश की प्रतियाँ अभियुक्तों को भी मुहैया कराई जाएँ.
इस बीच न्यायालय ने सभी अभियुक्तों को अगली सुनवाई तक न्यायिक हिरासत में भेज दिया है.
इस मामले की एक प्रमुख अभियुक्त डॉक्टर संगीता प्रसाद को बुधवार को भारी सुरक्षा के बीच अदालत में पेश किया गया, अलबत्ता अन्य अभियुक्तों को पर्याप्त सुरक्षा नहीं मिलने की वजह से अदालत में पेश नहीं किया गया.
ग़ौरतलब है कि गोधरा कांड के बाद भड़के सांप्रदायिक दंगों में छह महीने की गर्भवती बिलक़ीस कथित रूप से सामूहिक बलात्कार का शिकार हुई थी.
सुप्रीम कोर्ट ने यह मामला सुनवाई के लिए महाराष्ट्र स्थानांतरित किया था.
एक अन्य मामले बेस्ट बेकरी अग्निकाँड की सुनवाई भी मुंबई की एक विशेष अदालत में हो रही है.

तीन बरस बाद भी ज़िंदा गोधरा

http://www.bbcchindi.com
रविवार, 27 फ़रवरी, 2005 को 10:47 GMT तक के समाचार
राजीव खन्ना
बीबीसी संवाददाता, अहमदाबाद

तीन बरस बाद भी ज़िंदा गोधरा के सवाल

गोधरा काँड और उसके बाद के गुजरात दंगों को तीन वर्ष हो चुके हैं मगर गुजरात आज भी दंगों की छाया में जी रहा है और अभी उसे उबरने में कितना वक़्त लगेगा ये कह पाना मुश्किल है.
गोधरा काँड की तफ़्तीश सियासत और आयोगों में उलझी हुई है.
मामले की सुनवाई पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा रखी है क्योंकि कुछ अभियुक्तों और समाज सेवकों ने एक अर्ज़ी दी थी कि मामले की सुनवाई गुजरात से बाहर करवाई जाए और मामले की तहकीकात केंद्रीय जाँच ब्यूरो या सीबीआई के हवाले कर दी जाए.
पिछले वर्ष इस मामले में कई नए मोड़ आए जिसमें प्रमुख था केंद्र में नई सरकार के आते ही मामले की तकनीकी जाँच के लिए न्यायाधीश यू सी बनर्जी कमेटी का गठन.
इस कमेटी ने अपनी अंतरिम रिपोर्ट में ये कहा है कि साबरमती एक्सप्रेस के एस-6 डिब्बे में आग अकस्मात लग गई थी और इसके पीछे कोई साज़िश नहीं थी.
मगर दूसरी ओर सरकार का ये दावा है कि गोधरा में 59 हिंदू रेल मुसाफ़िरों की मौत एक साज़िश के तहत ही हुई थी.
मामला अब सबूतों की सियासत में उलझा हुआ है.
मतभेद
दंगा पीड़ित लोगों के वकील मुकुल सिन्हा कहते हैं,"जस्टिस बनर्जी कमेटी की रिपोर्ट से पहली बार आधिकारिक रूप से ये बाहर आया है कि इसमें कोई साज़िश नहीं थी. अगर यही चीज़ अंतिम रिपोर्ट में बाहर आती है तो आज तक जो कुछ गोधरा काँड के बारे में बताया गया और जान-बूझकर बताया गया वो झूठा साबित होगा और ये ज़रूरी भी है".
मगर रेलवे ट्राइब्यूनल से मृत लोगों के परिवारजन को मुआवज़ा दिलवाने के बारे में विश्व हिंदू परिषद के क़ानूनी मामलों के प्रकोष्ठ के अध्यक्ष दीपक शुक्ला कहते हैं कि मुआवज़ा देते वक़्त रेल प्राधिकरण ने माना कि ये एक हिंसक घटना थी ना कि एक हादसा.
गुजरात उच्च न्यायालय में न्यायाधीश रह चुके जस्टिस एस एम सोनी कहते हैं,"जिस तरह जस्टिस बनर्जी कमेटी का उपयोग किया गया इससे न्यायपालिका की छवि बिगड़ती है".
भय
सामाजिक परिवेश की बात कहें तो गुजरात का समाज आज भी बँटा हुआ है.
इस खाई का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि नरौदा पटिया से बेघर हुई रेहाना बानो का बेटा आज भी रोज़गार के लिए एक हिंदू नाम रख कर जाता है.
रेहाना का कहना है,"वो हीरे का काम करता है. वो लोग मुसलमानों को काम पर नहीं रखते हैं. कहते हैं मुसलमान के कारखाने में काम करो पर मुसलमान का तो हीरे का काम है ही नहीं".
मुकुल सिन्हा का मानना है कि आतंकवाद निरोधक क़ानून पोटा का एकतरफ़ा इस्तेमाल इस खाई को क़ायम रखने के लिए बहुत हद तक ज़िम्मेदार है.
उनका कहना है,"पोटा के एकतरफ़ा इस्तेमाल का मक़सद ही सामाजिक विभाजन करना था. अल्पसंख्यकों पर पोटा लगाया गया तो वो डरे हुए हैं और जब इन अल्पसंख्यकों को चरमपंथी बताया जा रहा है और अख़बारों में ये छप रहा है तो बहुसंख्यक डरे हुए हैं".
इस बारे में जस्टिस सोनी मीडिया की 'अतिसक्रियता' को ज़िम्मेदार बताते हैं.
उनका कहना है कि 1969 का दंगा कहीं ज़्यादा पैमाने पर हुआ था मगर उस समय ऐसा 'अतिसक्रिय' मीडिया नहीं था.
उनका कहना है कि चीज़ों को बार-बार दिखाने से दंगे भड़क रहे थे.
उम्मीद
मुकुल सिन्हा को इस बात की बहुत कम आशा है कि दंगा पीड़ित लोगों को कभी न्याय मिलेगा.
वे कहते हैं,"ये एक मृगतृष्णा है कि उन्हें कभी भी न्याय मिलेगा क्योंकि ये पूरी व्यवस्था ही न्याय को तहस-नहस कर चुकी है. वक़्त शायद घाव भरे यदि जिन लोगों ने घाव किए थे वे उसे भूलने दें तो शायद घाव भर जाएगा".
उनका कहना है कि ज़मीनी स्तर पर सद्भावना का माहौल बनाने की ज़रूरत है और अगर लोग एक दूसरे को माफ़ी देना चाहते हैं तो दे देना चाहिए.
सद्भावना के लिए कुछ प्रयास किए जा रहे हैं पर ये ज़रूरत से बहुत कम हैं.
प्रयास
ऐसा एक प्रयास है अहमदा के दानिलिम्डा इलाक़े से चल रही पास्ती योजना.
इस योजना के तहत हिंदू दलित और मुस्लिम युवा एक साथ जाकर लोगों से पुरानी अख़बारें और रद्दी इकट्ठा करते हैं और इसे बेच कर दंगा पीड़ित बच्चों के स्कूल की फ़ीस भरी जाती है.
ये योजना चला रही मीरा रफ़ी बताती हैं,"परेशानी ये है कि युवकों को रद्दी लेने नए अहमदाबाद के मध्यम और उच्च मध्यम वर्ग के पास जाना पड़ता है जो ना केवल मज़हब के नाम पर बल्कि जाति के नाम पर भई भेदभाव करते हैं".
इस परियोजना में काम कर रहीं परवीन शेख का कहना है,"कई बार हमें झूठ बोलना पड़ता है. कभी किसी मुस्लिम को, जो दलित के ख़िलाफ़ है, कहना पड़ता है कि रद्दी केवल मुस्लिम बच्चों की पढ़ाई के लिए ली जा रही है".
इसी प्रकार कभी किसी दलित या अन्य हिंदू, जो मुसलमानों के ख़िलाफ़ है, उसे कहना पड़ता है कि ये काम दलितों के लिए कर रहे हैं.
कुछ लोग जो मुस्लिम और दलित दोनों के ख़िलाफ़ हैं उन्हें ये कहना पड़ता है कि ये रद्दी ग़रीब बच्चों के लिए इकट्ठी की जा रही है.
पर इस योजना के तहत दानिलिमडा जहाँ पर दंगे हुए थे वहाँ के दलित और मुस्लिम करीब आए हैं और मिलकर इसे चला रहे हैं.
तीन वर्ष बाद गुजरात के लोग आज भी उस मरहम की तलाश और उम्मीद में हैं जो उनके घाव भर सके.
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रविवार, 27 फ़रवरी, 2005 को 10:47 GMT तक के समाचार
राजीव खन्ना
बीबीसी संवाददाता, अहमदाबाद

तीन बरस बाद भी ज़िंदा गोधरा के सवाल

गोधरा काँड और उसके बाद के गुजरात दंगों को तीन वर्ष हो चुके हैं मगर गुजरात आज भी दंगों की छाया में जी रहा है और अभी उसे उबरने में कितना वक़्त लगेगा ये कह पाना मुश्किल है.
गोधरा काँड की तफ़्तीश सियासत और आयोगों में उलझी हुई है.
मामले की सुनवाई पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा रखी है क्योंकि कुछ अभियुक्तों और समाज सेवकों ने एक अर्ज़ी दी थी कि मामले की सुनवाई गुजरात से बाहर करवाई जाए और मामले की तहकीकात केंद्रीय जाँच ब्यूरो या सीबीआई के हवाले कर दी जाए.
पिछले वर्ष इस मामले में कई नए मोड़ आए जिसमें प्रमुख था केंद्र में नई सरकार के आते ही मामले की तकनीकी जाँच के लिए न्यायाधीश यू सी बनर्जी कमेटी का गठन.
इस कमेटी ने अपनी अंतरिम रिपोर्ट में ये कहा है कि साबरमती एक्सप्रेस के एस-6 डिब्बे में आग अकस्मात लग गई थी और इसके पीछे कोई साज़िश नहीं थी.
मगर दूसरी ओर सरकार का ये दावा है कि गोधरा में 59 हिंदू रेल मुसाफ़िरों की मौत एक साज़िश के तहत ही हुई थी.
मामला अब सबूतों की सियासत में उलझा हुआ है.
मतभेद
दंगा पीड़ित लोगों के वकील मुकुल सिन्हा कहते हैं,"जस्टिस बनर्जी कमेटी की रिपोर्ट से पहली बार आधिकारिक रूप से ये बाहर आया है कि इसमें कोई साज़िश नहीं थी. अगर यही चीज़ अंतिम रिपोर्ट में बाहर आती है तो आज तक जो कुछ गोधरा काँड के बारे में बताया गया और जान-बूझकर बताया गया वो झूठा साबित होगा और ये ज़रूरी भी है".
मगर रेलवे ट्राइब्यूनल से मृत लोगों के परिवारजन को मुआवज़ा दिलवाने के बारे में विश्व हिंदू परिषद के क़ानूनी मामलों के प्रकोष्ठ के अध्यक्ष दीपक शुक्ला कहते हैं कि मुआवज़ा देते वक़्त रेल प्राधिकरण ने माना कि ये एक हिंसक घटना थी ना कि एक हादसा.
गुजरात उच्च न्यायालय में न्यायाधीश रह चुके जस्टिस एस एम सोनी कहते हैं,"जिस तरह जस्टिस बनर्जी कमेटी का उपयोग किया गया इससे न्यायपालिका की छवि बिगड़ती है".
भय
सामाजिक परिवेश की बात कहें तो गुजरात का समाज आज भी बँटा हुआ है.
इस खाई का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि नरौदा पटिया से बेघर हुई रेहाना बानो का बेटा आज भी रोज़गार के लिए एक हिंदू नाम रख कर जाता है.
रेहाना का कहना है,"वो हीरे का काम करता है. वो लोग मुसलमानों को काम पर नहीं रखते हैं. कहते हैं मुसलमान के कारखाने में काम करो पर मुसलमान का तो हीरे का काम है ही नहीं".
मुकुल सिन्हा का मानना है कि आतंकवाद निरोधक क़ानून पोटा का एकतरफ़ा इस्तेमाल इस खाई को क़ायम रखने के लिए बहुत हद तक ज़िम्मेदार है.
उनका कहना है,"पोटा के एकतरफ़ा इस्तेमाल का मक़सद ही सामाजिक विभाजन करना था. अल्पसंख्यकों पर पोटा लगाया गया तो वो डरे हुए हैं और जब इन अल्पसंख्यकों को चरमपंथी बताया जा रहा है और अख़बारों में ये छप रहा है तो बहुसंख्यक डरे हुए हैं".
इस बारे में जस्टिस सोनी मीडिया की 'अतिसक्रियता' को ज़िम्मेदार बताते हैं.
उनका कहना है कि 1969 का दंगा कहीं ज़्यादा पैमाने पर हुआ था मगर उस समय ऐसा 'अतिसक्रिय' मीडिया नहीं था.
उनका कहना है कि चीज़ों को बार-बार दिखाने से दंगे भड़क रहे थे.
उम्मीद
मुकुल सिन्हा को इस बात की बहुत कम आशा है कि दंगा पीड़ित लोगों को कभी न्याय मिलेगा.
वे कहते हैं,"ये एक मृगतृष्णा है कि उन्हें कभी भी न्याय मिलेगा क्योंकि ये पूरी व्यवस्था ही न्याय को तहस-नहस कर चुकी है. वक़्त शायद घाव भरे यदि जिन लोगों ने घाव किए थे वे उसे भूलने दें तो शायद घाव भर जाएगा".
उनका कहना है कि ज़मीनी स्तर पर सद्भावना का माहौल बनाने की ज़रूरत है और अगर लोग एक दूसरे को माफ़ी देना चाहते हैं तो दे देना चाहिए.
सद्भावना के लिए कुछ प्रयास किए जा रहे हैं पर ये ज़रूरत से बहुत कम हैं.
प्रयास
ऐसा एक प्रयास है अहमदा के दानिलिम्डा इलाक़े से चल रही पास्ती योजना.
इस योजना के तहत हिंदू दलित और मुस्लिम युवा एक साथ जाकर लोगों से पुरानी अख़बारें और रद्दी इकट्ठा करते हैं और इसे बेच कर दंगा पीड़ित बच्चों के स्कूल की फ़ीस भरी जाती है.
ये योजना चला रही मीरा रफ़ी बताती हैं,"परेशानी ये है कि युवकों को रद्दी लेने नए अहमदाबाद के मध्यम और उच्च मध्यम वर्ग के पास जाना पड़ता है जो ना केवल मज़हब के नाम पर बल्कि जाति के नाम पर भई भेदभाव करते हैं".
इस परियोजना में काम कर रहीं परवीन शेख का कहना है,"कई बार हमें झूठ बोलना पड़ता है. कभी किसी मुस्लिम को, जो दलित के ख़िलाफ़ है, कहना पड़ता है कि रद्दी केवल मुस्लिम बच्चों की पढ़ाई के लिए ली जा रही है".
इसी प्रकार कभी किसी दलित या अन्य हिंदू, जो मुसलमानों के ख़िलाफ़ है, उसे कहना पड़ता है कि ये काम दलितों के लिए कर रहे हैं.
कुछ लोग जो मुस्लिम और दलित दोनों के ख़िलाफ़ हैं उन्हें ये कहना पड़ता है कि ये रद्दी ग़रीब बच्चों के लिए इकट्ठी की जा रही है.
पर इस योजना के तहत दानिलिमडा जहाँ पर दंगे हुए थे वहाँ के दलित और मुस्लिम करीब आए हैं और मिलकर इसे चला रहे हैं.
तीन वर्ष बाद गुजरात के लोग आज भी उस मरहम की तलाश और उम्मीद में हैं जो उनके घाव भर सके.

तीस्ता जावेद सीतलवाड़ के विरुद्ध

कांग्रेसी राज में गुजरात दंगों का सच !!!

आखिर, पायनियर (20 अप्रैल) के दस दिन बाद टाइम्स आफ इंडिया (30 अप्रैल) ने तीस्ता जावेद सीतलवाड़ के विरुद्ध झूठी गवाही तैयार कराने का यास्मीन बानो शेख का आरोप छाप ही दिया। उसे और छिपाना संभव भी नहीं था, क्योंकि यास्मीन ने मुम्बई उच्च न्यायालय में उसे पेश कर दिया है। फिर भी हिन्दुस्तान टाइम्स, इंडियन एक्सप्रेस, हिन्दू जैसे बड़े अंग्रेजी अखबार अभी तक चुप्पी साधे हुए हैं। हां, नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध उनका प्रचार जारी है। स्थिति यहां तक पहुंच गयी है कि इंडियन एक्सप्रेस ने 1 मई को गुजरात सरकार द्वारा स्वर्णिम गुजरात महोत्सव के अवसर पर दिए तीन पृष्ठ के विज्ञापन तो छापे, किन्तु उस अवसर पर अमदाबाद के सरदार पटेल स्टेडियम में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के उस महत्वपूर्ण भाषण को नहीं छापा, जिसमें उन्होंने अपने विरुद्ध चलाये जा रहे अपप्रचार का तथ्यपूर्ण एवं तर्कपूर्ण उत्तर दिया था। मोदी के विरुद्ध इतनी पक्षपातपूर्ण-द्वेषी पत्रकारिता भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी बन सकती है।
मोदी के विरुद्ध दुष्प्रचार
नरेन्द्र मोदी पर मुस्लिम विरोधी छवि लादने के पीछे सोनिया मंडली की रणनीति तो इन्हीं खबरों से स्पष्ट हो जाती है जिनमें एक ओर तो मोदी को भावी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवारों की सूची से काटने का प्रचार है तो दूसरी ओर 10, जनपथ के प्रवक्ता संजीव भट्ट का समाचार आते ही वे नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में गुजरात की सर्वतोमुखी प्रगति के प्रशंसकों को यह चेतावनी देने के लिए दौड़ पड़ते हैं कि संजीव भट्ट के इस रहस्योद्घाटन के बाद वे मोदी की प्रशंसा करना बंद करें। संजीव भट्ट के शपथपत्र का इससे अधिक क्या महत्व है कि उसमें नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध इस प्रचार को ही दोहराया गया है कि मोदी ने 2002 के साम्प्रदायिक दंगों में मुसलमानों का व्कत्लेआमव् कराया। 2002 से अब तक के समस्त चुनाव परिणामों और मौलाना वस्तानवी के व्टाइम्स आफ इंडियाव् को दिये गये साक्षात्कार से भी यह स्पष्ट है कि गुजरात के मुसलमानों पर इस दुष्प्रचार का कोई असर नहीं हो रहा है, क्योंकि वे मोदी के मुख्यमंत्रित्व काल में गुजरात की विकास यात्रा में बराबर का हिस्सा पा रहे हैं और अपने साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव महसूस नहीं कर रहे हैं। गुजरात के बाहर के मुसलमानों को वे इस एकपक्षीय झूठे प्रचार से कब तक गुमराह करते रहेंगे, यह कहना कठिन है। बिहार में लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान, उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की मोदी-विरोधी नाव पहले ही डूब चुकी है। सोनिया पार्टी की भी मोदी-विरोधी प्रचार की पतंग न तो बिहार में उड़ पायी और न ही उत्तर प्रदेश में। यदि सोनिया पार्टी के रणनीतिकार यह आशा करते हैं कि गुजरात के विकास को 2002 के दंगों में मुस्लिम नरमेध के झूठे प्रचार की आंधी उड़ाकर जन दृष्टि से छिपाया जा सकता है, यह दुष्प्रचार दस वर्ष बाद भी मुस्लिम वोट बैंक को रिझाने में सहायक हो सकता है, तो भाजपा के प्रचार तंत्र को भी सन् 1969 में कांग्रेस के शासनकाल में हुए अमदाबाद के दंगे में मुसलमानों के नरमेध के काले पन्ने को देश के सामने अवश्य लाना चाहिए। इसी दृष्टि से हम यहां उस दंगे से जुड़े कुछ तथ्य प्रस्तुत कर रहे हैं।
अमदाबाद (1969) का साम्प्रदायिक दंगा
असगर अली इंजीनियर मुस्लिम बौद्धिकों में जाना-माना नाम है। उनके द्वारा संपादित एक पुस्तक का शीर्षक है कम्युनल राइट्स इन पोस्ट इंडिपेंडेंस इंडिया (स्वातंत्र्योत्तर भारत में साम्प्रदायिक दंगे)। इस पुस्तक का प्रथम संस्करण 1984 में और दूसरा संस्करण 1991 प्रकाशित हुआ था। अतरू इसे भारतीय जनसंघ, भाजपा और नरेन्द्र मोदी के प्रभाव से सर्वथा मुक्त कहा जा सकता है। वैसे भी असगर अली इंजीनियर भाजपा और हिन्दुत्व के कटु आलोचक रहे हैं, प्रशंसक नहीं। इस पुस्तक में अमदाबाद में 1969 के दंगे पर एक 34 पृष्ठ लम्बा लेख छपा है (पृ.175-208), जिसके लेखक हैं डा.घनश्याम शाह, जो जाने-माने वामपंथी बौद्धिक हैं, लम्बे समय तक सूरत (गुजरात) स्थित सामाजिक अध्ययन संस्थान के निदेशक रहे हैं और पिछले कई वर्षों से जेएनयू में प्रोफेसर हैं। इस लेख को पढ़ने पर भी उनका कम्युनिस्ट समर्थक आवेश स्पष्ट हो जाता है। हिन्दुत्ववादी और भाजपा समर्थक होने का आरोप तो उन पर लगाया ही नहीं जा सकता। इस लेख में उन्होंने 18 से 21 सितम्बर, 1969 को चार दिनों तक के अमदाबाद से प्रारंभ हुए साम्प्रदायिक दंगों के स्वरूप और कारणों की मीमांसा प्रस्तुत की है। उनका यह वर्णन व्यक्तिगत सर्वेक्षण, दंगों पर प्रकाशित न्यायमूर्ति जगमोहन रेड्डी आयोग की रपट एवं समकालीन दैनिक पत्रों में प्रकाशित समाचारों व अन्य साहित्य पर आधारित है। लेख के अंत में एक लम्बी संदर्भ सूची भी उन्होंने दी है।
जब यह दंगा हुआ उस समय गुजरात में कांग्रेस का शासन था। हितेन्द्र देसाई वहां के मुख्यमंत्री थे और केन्द्र में इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं। इसलिए इस दंगे की पूरी जिम्मेदारी उस कांग्रेस की ही है जिसका उत्तराधिकारी होने का दावा आजकल सोनिया और राहुल कर रहे हैं। इन दंगों में कांग्रेस पार्टी और सरकार की भूमिका का वर्णन करने से पूर्व उसमें हुई जान-माल की हानि का लेखा-जोखा प्रस्तुत करना भी आवश्यक है। घनश्याम शाह लिखते हैं कि चार दिन तक चले इस दंगे में 1000 से अधिक लोग मारे गये और इससे कई गुना अधिक संख्या में घायल हुए। लगभग 4000 (ठीक संख्या 3,969) घरों व दुकानों को आग लगाकर भस्म कर दिया गया, 2,317 घरों-दुकानों को ढहा दिया गया। 6000 परिवार बेघर हो गये, 15000 से अधिक लोग शरणार्थी शिविरों में पहुंच गये। दंगों के कारण लगभग 34 करोड़ रुपए की दैनिक आमदनी की हानि हुई। जगमोहन रेड्डी रपट में कहा गया है कि व्मुसलमानों और मुस्लिम सम्पत्ति पर हमले पूर्णतया सुनियोजित थे। दंगाइयों और शस्त्रों को ले जाने के लिए वाहन उपलब्ध कराये गये थे। समाज का प्रत्येक वर्ग इन दंगों में सम्मिलित था, बड़ी संख्या में श्रमिक वर्ग भी हिस्सा ले रहा था। रपट कहती है कि इक्के-दुक्के कार्यकर्त्ता को छोड़ दें तो पार्टी के नाते जनसंघ का इन दंगों में कोई हाथ नहीं था।व् (पृष्ठ 192)
मुस्लिमों का नरमेध और कांग्रेस की भूमिका
घनश्याम शाह लिखते हैं कि 20 सितम्बर की शाम दंगे की लपटों ने पूरे अमदाबाद शहर को घेर लिया था। पूरा हिन्दू समाज इन दंगों में सम्मिलित था। शिक्षित मध्यम वर्ग से लेकर कपड़ा मिलों के मेहनतकश श्रमिक और सफाई कर्मचारी- सब एकजुट थे। फरसों, कुल्हाड़ी, चाकुओं और भालों का लोगों को मारने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा था। औरतों के साथ बलात्कार हुआ, उनके कपड़े उतारकर उन्हें नग्न कर सड़क पर घुमाया गया। बच्चों को पत्थरों पर पटककर मार दिया गया या उनके पैरों से चीर दिया गया। शवों के अंग काट दिये गये। इस उन्माद से अमदाबाद के लोगों पर पशुभाव हावी हो गया था। (पृष्ठ 190) व्दंगे अमदाबाद से राज्य के विभिन्न हिस्सों में फैल गये। 20 सितम्बर की रात को जब हजारों मुसलमान अमदाबाद छोड़कर भाग रहे थे तब चार ट्रेनों को रोककर सत्रह यात्रियों को मार दिया गया। 23 सितम्बर को जब सरकार ने तीन घंटों के लिए कर्फ्यू हटाया तो 40 लोगों ने अपनी जान गंवाई। (पृष्ठ 191)
जब अमदाबाद शहर और गुजरात दंगे की आग में जल रहा था तब मुख्यमंत्री हितेन्द्र देसाई और उनकी कांग्रेस पार्टी क्या कर रही थी? घनश्याम शाह लिखते हैं, व्कोई कांग्रेसजन दंगों को रोकने के लिए सामने नहीं आया। कांग्रेस भवन ने अपने कार्यकर्ताओं को बड़ी संख्या में कफ्र्यू पास जारी कर दिये पर उन्हें कोई स्पष्ट दिशा-निर्देश नहीं दिए। कुछ बूढ़े, पुराने गांधीवादी चिंतित अवश्य थे, किन्तु बुढ़ापे के कारण वे कुछ करने में अक्षम थे और केवल प्रार्थना कर रहे थे। प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष ने बताया कि अधिकांश कांग्रेसी साम्प्रदायिक दृष्टिकोण रखते हैं। वडोदरा की जिला कांग्रेस कमेटी ने दंगों की भर्त्सना करने से भी मना कर दिया। उसने प्रस्ताव पारित किया कि कुछ मुसलमानों के पाकिस्तान समर्थक रुख के कारण राज्य में तनाव की स्थिति पैदा हुई है। कांग्रेस कार्यकर्त्ताओं की लगभग सभी बैठकों में यही स्वर उठा। जिम्मेदार कांग्रेसजनों ने मुसलमानों के साम्प्रदायिक दृष्टिकोण की निंदा की और कहा कि उन्हें पाकिस्तान चले जाना चाहिए। गुजरात के एक उच्चपदस्थ कांग्रेसी नेता ने एक जनसभा में भाषण दिया, हमारे देश में पाकिस्तान के प्रति निष्ठा रखने वाले राष्ट्रविरोधी तत्व सक्रिय हैं। पुलिस अपनी सीमाओं के कारण उनका पता नहीं लगा पायी। इसलिए आप लोगों का फर्ज है कि आप उनका पता लगाएं। उनके घरों में घुसकर उन्हें पकड़ना चाहिए और तब आप उनके साथ जैसा चाहे वैसा व्यवहार करें। (पृष्ठ 198)
राज्य सरकार की नीयत
घनश्याम शाह लिखते हैं, कांग्रेसजनों ने दंगों में प्रत्यक्ष और परोक्ष- दोनों ढंग से भाग लिया। उन्होंने प्रशासन को गुमराह किया। वडोदरा में तैनात एस.आर.पी. दल को 20 सितम्बर को यह कहकर अमदाबाद भिजवा दिया कि यहां अशांति का कोई खतरा नहीं है। इस प्रकार दंगाइयों को लूटमार और मस्जिदों को ढहाने का मौका दे दिया। ऐसे समय में कांग्रेसी मुख्यमंत्री हितेन्द्र देसाई और उनकी सरकार क्या कर रही थी? घनश्याम शाह के अनुसार, व्मुख्यमंत्री हितेन्द्र देसाई दंगाग्रस्त क्षेत्रों में गये ही नहीं। वे पूरे समय अपने बंगले में अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगियों और सुरक्षाकर्मियों से घिरे बैठे रहे। राज्य सरकार ने राज्य में साम्प्रदायिक तनाव की स्थिति पैदा होने के बारे में केन्द्र सरकार की चेतावनी को अनसुना कर दिया। 18 सितम्बर को दंगा शुरू हो जाने पर भी कोई निर्णयात्मक कदम नहीं उठाया। 19 सितम्बर को कुछ ही क्षेत्रों में कर्फ्यू लगाया गया। एस.आर.पी. और सी.आर.पी. को 20 सितम्बर की प्रातः बुलाया गया, पर वे दंगों पर काबू पाने में असफल रहे। एक कैबिनेट मंत्री के त्यागपत्र देने की धमकी के बाद ही सेना को दो दिन बाद 21 सितम्बर की प्रातरू बुलाया गया। पूरे दिन मंत्रिमंडल में बहस होती रही कि सेना को पूरा नगर सौंप दें या कुछ मोहल्लों तक सीमित रखें। राज्य सरकार सेना का उपयोग करने में झिझक कर रही थी, क्योंकि इसकी हिन्दू मन पर प्रतिकूल प्रतिक्रिया से उसे 1972 के चुनाव में जनसंघ के सत्ता में आने का भय सता रहा था। अंततरू 21 की शाम को सेना को व्देखते ही गोली मारने का आदेश दिया गया।
घनश्याम शाह के अनुसार, पुलिस ने अपना कर्तव्य नहीं निभाया। उनकी आंखों के सामने लूटमार और हत्या होती रही, पर वे निष्क्रिय रहे। कई जगह वे दंगाइयों के लिए मैदान खुला छोड़कर वहां से भाग निकले। सी.आर.पी. और एस.आर.पी. के जवानों ने हिन्दुओं से कहा कि मुसलमानों को ऐसा ही सबक मिलना चाहिए। (पृष्ठ 204) एक कांग्रेसी नेता ने भी कहा कि हिन्दू पहली बार मुसलमानों को सबक सिखा पाये हैं। (पृष्ठ 205) पुलिस वाले मन ही मन खिन्न थे क्योंकि उनसे कई बार मुसलमानों से सार्वजनिक माफी मंगवायी गयी थी। ...कर्फ्यू को कड़ाई से लागू नहीं किया गया। अकेले कांग्रेस भवन ने 5,000 कर्फ्यू पास जारी कर दिये। इसके अलावा अन्य अनेक संस्थाओंध्व्यक्तियों को कर्फ्यू पास जारी करने का अधिकार दे दिया गया। इस कारण कर्फ्यू की घोषणा बेमानी हो गयी।व् घनश्याम शाह को ऐसे लोग भी मिले जिन्होंने जेब में कर्फ्यू पास रखकर दंगों में भाग लिया। घनश्याम शाह लिखते हैं, जब वडोदरा शहर दंगाइयों के कब्जे में था तब वहां सरकारी अधिकारी और राजनेता आपस में गाली-गलौज कर रहे थे। वडोदरा की कर्तव्यनिष्ठ प्रशासक (जिलाधिकारी) अमदाबाद में गृहसचिव से तीन दिन तक सम्पर्क नहीं कर पायीं, क्योंकि गृहसचिव मुख्यमंत्री के पास थे।
दंगे की पृष्ठभूमि
अब हम इन दंगों के तात्कालिक कारणों और हिन्दू-मुस्लिम संबंधों की पृष्ठभूमि पर आते हैं। घनश्याम शाह का माक्र्सवादी मस्तिष्क आर्थिक कारणों को खोजना चाहता है, पर वे मिल नहीं पाये। उन्हें मानना पड़ा है कि अमदाबाद ट्रेड यूनियन आंदोलन के पचास वर्ष बीत जाने पर भी वर्ग चेतना विकसित नहीं हो पायी और पूरा श्रमिक वर्ग हिन्दू-मुस्लिम आधार पर विभाजित हो गया। ट्रेड यूनियनें एवं राजनीतिक दल पूरी तरह निष्प्रभावी सिद्ध हुए। इन दंगों में हिन्दू समाज के प्रत्येक वर्ग ने भाग लिया, पूरा समाज एकजुट हो गया। उन्होंने यह भी माना कि हिन्दू-मुस्लिम तनाव शताब्दियों से चला आ रहा था। 1969 के दंगे से पहले 27-28 नवम्बर, 1968 को वेरावल में दंगा हुआ था, जिसमें 100 मुसलमान मारे गये थे। 2 करोड़ रुपये के माल की हानि हुई थी। 1969 के दंगों की पृष्ठभूमि 1965 के भारत- पाकिस्तान युद्ध से बननी शु डिग्री हो गयी थी। उस दौरान गुजरात के मुख्यमंत्री बलवंत राय मेहता के विमान को कच्छ सीमा पर पाकिस्तान की सेना ने निशाना बनाया, जिसमें उनकी मृत्यु हो गयी थी। इससे गुजरातवासियों की भावनाएं बुरी तरह आहत हुईं और उनके मन में मुस्लिमविरोध का भाव अंकुरित हुआ। जनवरी, 1960 में भावनगर में आयोजित अ.भा.कांग्रेस कमेटी के 66 वें अधिवेशन में मुसलमानों ने एक प्रतिवेदन प्रस्तुत किया जिसमें सुधार विरोधी और पृथकतावाद की गंध आती थी। 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय सावधानी के तौर पर भारत सुरक्षा कानून के तहत कई मुसलमान नेताओं को नजरबंद किया गया था। इस कारण 1967 के आम चुनाव के समय मजलिसे मुशवरात ने कांग्रेस को हराने का फतवा जारी कर दिया। 2 जून, 1968 को अमदाबाद में जमीयत उल उलेमा ने एक सभा बुलायी जिसमें 16 प्रस्ताव पारित किये गए। ये सभी प्रस्ताव मुसलमानों की पृथकतावादी साम्प्रदायिक मांगों पर केन्द्रित थे। इसकी गुजरात के पंथनिरपेक्षतावादियों पर बहुत प्रतिकूल प्रतिक्रिया हुई। उन्हें लगा कि मुसलमान समाज राष्ट्रीय धारा में आने की बजाय अपने संगठित वोट बैंक का दबाव पृथकतावाद के पक्ष में बना रहा है। 18 सितम्बर, 1969 को अमदाबाद का दंगा शु डिग्री होने के केवल 15 दिन पहले अमदाबाद और अन्य सब शहरोंध्कस्बों में मुसलमानों के विशाल जुलूस अल अक्सा मस्जिद पर इस्रायली हमले के विरोध में निकले, जिनमें नारे लगे- जो इस्लाम से टकराएगा, दुनिया से मिट जाएगा, मुस्लिम एकता जिंदाबाद, पाकिस्तान जिंदाबाद् आदि। इसकी हिन्दू मन पर बहुत तीव्र प्रतिक्रिया हुई। कई दैनिक पत्रों ने लिखा कि व्हजारों मील दूर स्थित अल अक्सा मस्जिद की तुम्हें इतनी फिक्र है तो भारत में औरंगजेब द्वारा ध्वस्त ज्ञानवापी मंदिर, सिद्धपुर में रुद्रामल शिव मंदिर को क्यों नहीं हिन्दुओं को वापस करते।
मुस्लिम आक्रामकता ही जिम्मेदार
मार्च, 1969 में नगर पालिका चुनाव के समय एक पुलिस अधिकारी से धक्का-मुक्की के समय एक ठेले पर रखी कुरान शरीफ जमीन पर गिर गयी, जिससे क्रोधित होकर मुसलमानों ने थाने पर हमला बोलकर कई पुलिसकर्मियों को घायल कर दिया और नारे लगाये, इससे तो पाकिस्तान ही अच्छा है। कांग्रेस सरकार ने मुसलमानों के दबाव में आकर उस पुलिस अधिकारी को सार्वजनिक माफी मांगने को कहा। एक मुस्लिम पुलिस अधिकारी ने 12 बजे रात के बाद रामलीला को बंद कराने की कोशिश में रामायण को पैर से ठोकर मारी। एक के बाद एक हुईं इन सब घटनाओं ने हिन्दू मन को इतना अधिक आहत किया कि रामायण के अपमान के दो दिन बाद ही हिन्दू धर्म रक्षा समिति का गठन हो गया। साधु-संत उपवास पर बैठ गये। रामायण अपमान कांड की जांच की मांग की गई। अंततः उस मुस्लिम पुलिस अधिकारी को देर से ही क्यों न हो, निलंबित किया गया। 18 सितम्बर, 1969 को दंगा शु डिग्री होने का तात्कालिक कारण मुस्लिमबहुल जमालपुर मोहल्ले से सटे जगन्नाथ मंदिर के साधुओं का अपमान व मंदिर पर मुस्लिम भीड़ का आक्रमण बना। उर्स के लिए एकत्र मुस्लिमों की भीड़ ने मंदिर पर हमला बोल दिया, वहां रखी देव-प्रतिमाओं को क्षति पहुंचाई जिससे व्यथित होकर जगन्नाथ मंदिर के मुख्य साधु अनशन पर बैठ गये। उनके प्रति पूरे हिन्दू समाज में अगाध श्रद्धा थी। इस घटना के विरोध में हिन्दू धर्म रक्षा समिति ने जनसभा का आह्वान किया और फिर दंगे की चिंगारी सुलग उठी।
घनश्याम शाह का लेख ध्वनित करता है कि मुस्लिम आक्रामकता ही दंगे के लिए जिम्मेदार थी। उनके अनुसार बुद्धिजीवी पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता वर्ग भी मुस्लिम समाज की सुधार विरोधी एवं पृथकतावादी मानसिकता से क्षुब्ध था। उनकी यह धारणा बन गयी थी कि मुसलमानों का आधुनिकीकरण असंभव है। या तो उन्हें हिन्दू हो जाना चाहिए या पाकिस्तान अथवा किसी अन्य मुस्लिम देश में चले जाना चाहिए। कुछ सुधारवादी तो यह भी कहने लगे थे कि मुसलमानों को मताधिकार से वंचित कर द्वितीय श्रेणी का नागरिक बना देना चाहिए। (पृष्ठ 206) यदि प्रगतिशील बौद्धिक वर्ग इस भाषा में सोचने को विवश हो जाए तो गुजरात की पीड़ा कितनी गहरी है, इसका अनुमान लगाया जा सकता है।द
( साभार पांचजन्य)

Friday, July 27, 2012

25 मार्च 1971 को पूर्वी पाकिस्तान

शेख़ मुजीबुर्रहमान
सात मार्च 1971 को जब बांग्लादेश के राष्ट्रपिता शेख़ मुजीबुर्रहमान ढाका के मैदान में पाकिस्तानी शासन को ललकार रहे थे, तो उन्होंने क्या किसी ने भी यह कल्पना नहीं की थी कि ठीक नौ महीने और नौ दिन बाद बांग्लादेश एक वास्तविकता होगा.
पाकिस्तान के सैनिक तानाशाह याहिया ख़ाँ ने जब 25 मार्च 1971 को पूर्वी पाकिस्तान की जन भावनाओं को सैनिक ताकत से कुचलने का आदेश दे दिया और शेख़ मुजीब गिरफ़्तार कर लिए गए, वहाँ से शरणार्थियों के भारत आने का सिलसिला शुरू हो गया.
जैसे-जैसे पाकिस्तानी सेना के दुर्व्यवहार की ख़बरें फैलने लगीं, भारत पर दबाव पड़ने लगा कि वह वहाँ पर सैनिक हस्तक्षेप करे.
इंदिरा चाहती थीं कि अप्रैल में हमला हो
इंदिरा गांधी ने इस बारे में थलसेनाअध्यक्ष जनरल मानेकशॉ की राय माँगी.
उस समय पूर्वी कमान के स्टाफ़ ऑफ़िसर लेफ़्टिनेंट जनरल जेएफ़आर जैकब याद करते हैं, "जनरल मानेकशॉ ने एक अप्रैल को मुझे फ़ोन कर कहा कि पूर्वी कमान को बांग्लादेश की आज़ादी के लिए तुरंत कार्रवाई करनी है. मैंने उनसे कहा कि ऐसा तुरंत संभव नहीं है क्योंकि हमारे पास सिर्फ़ एक पर्वतीय डिवीजन है जिसके पास पुल बनाने की क्षमता नहीं है. कुछ नदियाँ पाँच पाँच मील चौड़ी हैं. हमारे पास युद्ध के लिए साज़ोसामान भी नहीं है और तुर्रा यह कि मॉनसून शुरू होने वाला है. अगर हम इस समय पूर्वी पाकिस्तान में घुसते हैं तो वहीं फँस कर रह जाएंगे."
मानेकशॉ राजनीतिक दबाव में नहीं झुके और उन्होंने इंदिरा गांधी से साफ़ कहा कि वह पूरी तैयारी के साथ ही लड़ाई में उतरना चाहेंगे.
"जनरल मानेकशॉ ने एक अप्रैल को मुझे फ़ोन कर कहा कि पूर्वी कमान को बांग्लादेश की आज़ादी के लिए तुरंत कार्रवाई करनी है. मैंने उनसे कहा कि ऐसा तुरंत संभव नहीं है क्योंकि हमारे पास सिर्फ़ एक पर्वतीय डिवीजन है जिसके पास पुल बनाने की क्षमता नहीं है. कुछ नदियाँ पाँच पाँच मील चौड़ी हैं. हमारे पास युद्ध के लिए साज़ोसामान भी नहीं है और तुर्रा यह कि मॉनसून शुरू होने वाला है. अगर हम इस समय पूर्वी पाकिस्तान में घुसते हैं तो वहीं फँस कर रह जाएंगे"
जनरल जैकब
तीन दिसंबर 1971...इंदिरा गांधी कलकत्ता में एक जनसभा को संबोधित कर रही थीं. शाम के धुँधलके में ठीक पाँच बजकर चालीस मिनट पर पाकिस्तानी वायुसेना के सैबर जेट्स और स्टार फ़ाइटर्स विमानों ने भारतीय वायु सीमा पार कर पठानकोट, श्रीनगर, अमृतसर, जोधपुर और आगरा के सैनिक हवाई अड्डों पर बम गिराने शुरू कर दिए.
इंदिरा गांधी ने उसी समय दिल्ली लौटने का फ़ैसला किया. दिल्ली में ब्लैक आउट होने के कारण पहले उनके विमान को लखनऊ मोड़ा गया. ग्यारह बजे के आसपास वह दिल्ली पहुँचीं. मंत्रिमंडल की आपात बैठक के बाद लगभग काँपती हुई आवाज़ में अटक-अटक कर उन्होंने देश को संबोधित किया.
पूर्व में तेज़ी से आगे बढ़ते हुए भारतीय सेनाओं ने जेसोर और खुलना पर कब्ज़ा कर लिया. भारतीय सेना की रणनीति थी महत्वपूर्ण ठिकानों को बाई पास करते हुए आगे बढ़ते रहना.
ढाका पर कब्ज़ा भारतीय सेना का लक्ष्य नहीं
आश्चर्य की बात है कि पूरे युद्ध में मानेकशॉ खुलना और चटगाँव पर ही कब्ज़ा करने पर ज़ोर देते रहे और ढ़ाका पर कब्ज़ा करने का लक्ष्य भारतीय सेना के सामने रखा ही नहीं गया.
इसकी पुष्टि करते हुए जनरल जैकब कहते हैं, "वास्तव में 13 दिसंबर को जब हमारे सैनिक ढाका के बाहर थे, हमारे पास कमान मुख्यालय पर संदेश आया कि अमुक-अमुक समय तक पहले वह उन सभी नगरों पर कब्ज़ा करे जिन्हें वह बाईपास कर आए थे. अभी भी ढाका का कोई ज़िक्र नहीं था. यह आदेश हमें उस समय मिला जब हमें ढाका की इमारतें साफ़ नज़र आ रही थीं."
शेख़ हसीना के पिता शेख़ मुजीबुर्रहमान

पाकिस्तानी टैंक पर बैठे भारतीय सैनिक
पूरे युद्ध के दौरान इंदिरा गांधी को कभी विचलित नहीं देखा गया. वह पौ फटने तक काम करतीं और जब दूसरे दिन दफ़्तर पहुँचतीं, तो कह नहीं सकता था कि वह सिर्फ़ दो घंटे की नींद लेकर आ रही हैं.
जाने-माने पत्रकार इंदर मल्होत्रा याद करते हैं, "आधी रात के समय जब रेडियो पर उन्होंने देश को संबोधित किया था तो उस समय उनकी आवाज़ में तनाव था और ऐसा लगा कि वह थोड़ी सी परेशान सी हैं. लेकिन उसके अगले रोज़ जब मैं उनसे मिलने गया तो ऐसा लगा कि उन्हें दुनिया में कोई फ़िक्र है ही नहीं. जब मैंने जंग के बारे में पूछा तो बोलीं अच्छी चल रही है. लेकिन यह देखो मैं नार्थ ईस्ट से यह बेड कवर लाई हूँ जिसे मैंने अपने सिटिंग रूम की सेटी पर बिछाया है. कैसा लग रहा है? मैंने कहा बहुत ही ख़ूबसूरत है. ऐसा लगा कि उनके दिमाग़ में कोई चिंता है ही नहीं."
गवर्नमेंट हाउस पर बमबारी
14 दिसंबर को भारतीय सेना ने एक गुप्त संदेश को पकड़ा कि दोपहर ग्यारह बजे ढाका के गवर्नमेंट हाउस में एक महत्वपूर्ण बैठक होने वाली है, जिसमें पाकिस्तानी प्रशासन के चोटी के अधिकारी भाग लेने वाले हैं.
भारतीय सेना ने तय किया कि इसी समय उस भवन पर बम गिराए जाएं. बैठक के दौरान ही मिग 21 विमानों ने भवन पर बम गिरा कर मुख्य हॉल की छत उड़ा दी. गवर्नर मलिक ने एयर रेड शेल्टर में शरण ली और नमाज़ पढ़ने लगे. वहीं पर काँपते हाथों से उन्होंने अपना इस्तीफ़ा लिखा.
"प्रिय अब्दुल्लाह, मैं यहीँ पर हूँ. खेल ख़त्म हो चुका है. मैं सलाह देता हूँ कि तुम मुझे अपने आप को सौंप दो और मैं तुम्हारा ख़्याल रखूँगा"
मेजर जनरल गंधर्व नागरा
दो दिन बाद ढाका के बाहर मीरपुर ब्रिज पर मेजर जनरल गंधर्व नागरा ने अपनी जोंगा के बोनेट पर अपने स्टाफ़ ऑफ़िसर के नोट पैड पर पूर्वी पाकिस्तानी सेना के प्रमुख जनरल नियाज़ी के लिए एक नोट लिखा- प्रिय अब्दुल्लाह, मैं यहीँ पर हूँ. खेल ख़त्म हो चुका है. मैं सलाह देता हूँ कि तुम मुझे अपने आप को सौंप दो और मैं तुम्हारा ख़्याल रखूँगा.
मेजर जनरल गंधर्व नागरा अब इस दुनिया में नहीं हैं. कुछ वर्ष पहले उन्होंने बीबीसी को बताया था, "जब यह संदेश लेकर मेरे एडीसी कैप्टेन हरतोश मेहता नियाज़ी के पास गए तो उन्होंने उनके साथ जनरल जमशेद को भेजा, जो ढाका गैरिसन के जीओसी थे. मैंने जनरल जमशेद की गाड़ी में बैठ कर उनका झंडा उतारा और 2-माउंटेन डिव का झंडा लगा दिया. जब मैं नियाज़ी के पास पहुँचा तो उन्होंने बहुत तपाक से मुझे रिसीव किया."
16 दिसंबर की सुबह सवा नौ बजे जनरल जैकब को मानेकशॉ का संदेश मिला कि आत्मसमर्पण की तैयारी के लिए तुरंत ढाका पहुँचें. नियाज़ी ने जैकब को रिसीव करने के लिए एक कार ढाका हवाई अड्डे पर भेजी हुई थी.
जैकब कार से छोड़ी दूर ही आगे बढ़े थे कि मुक्ति बाहिनी के लोगों ने उन पर फ़ायरिंग शुरू कर दी. जैकब दोनों हाथ ऊपर उठा कर कार से नीचे कूदे और उन्हें बताया कि वह भारतीय सेना से हैं. बाहिनी के लोगों ने उन्हें आगे जाने दिया.
आँसू और चुटकुले
जब जैकब पाकिस्तानी सेना के मुख्यालय पहुँचें. तो उन्होंने देखा जनरल नागरा नियाज़ी के गले में बाँहें डाले हुए एक सोफ़े पर बैठे हुए हैं और पंजाबी में उन्हें चुटकुले सुना रहे हैं.
जैकब ने नियाज़ी को आत्मसमर्पण की शर्तें पढ़ कर सुनाई. नियाज़ी की आँखों से आँसू बह निकले. उन्होंने कहा, "कौन कह रहा है कि मैं हथियार डाल रहा हूँ."
जनरल राव फ़रमान अली ने इस बात पर ऐतराज़ किया कि पाकिस्तानी सेनाएं भारत और बांग्लादेश की संयुक्त कमान के सामने आत्मसमर्पण करें.
समय बीतता जा रहा था. जैकब नियाज़ी को कोने में ले गए. उन्होंने उनसे कहा कि अगर उन्होंने हथियार नहीं डाले तो वह उनके परिवारों की सुरक्षा की गारंटी नहीं ले सकते. लेकिन अगर वह समर्पण कर देते हैं, तो उनकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी उनकी होगी.
जैकब ने कहा- मैं आपको फ़ैसला लेने के लिए तीस मिनट का समय देता हूँ. अगर आप समर्पण नहीं करते तो मैं ढाका पर बमबारी दोबारा शुरू करने का आदेश दे दूँगा.

ढाका के बाहरी इलाक़े में खड़े मेजर जनरल नागरा और ब्रिगेडियर क्लेर
अंदर ही अंदर जैकब की हालत ख़राब हो रही थी. नियाज़ी के पास ढाका में 26400 सैनिक थे जबकि भारत के पास सिर्फ़ 3000 सैनिक और वह भी ढाका से तीस किलोमीटर दूर !
अरोड़ा अपने दलबदल समेत एक दो घंटे में ढाका लैंड करने वाले थे और युद्ध विराम भी जल्द ख़त्म होने वाला था. जैकब के हाथ में कुछ भी नहीं था.
30 मिनट बाद जैकब जब नियाज़ी के कमरे में घुसे तो वहाँ सन्नाटा छाया हुआ था. आत्म समर्पण का दस्तावेज़ मेज़ पर रखा हुआ था.
जैकब ने नियाज़ी से पूछा क्या वह समर्पण स्वीकार करते हैं? नियाज़ी ने कोई जवाब नहीं दिया. उन्होंने यह सवाल तीन बार दोहराया. नियाज़ी फिर भी चुप रहे. जैकब ने दस्तावेज़ को उठाया और हवा में हिला कर कहा, ‘आई टेक इट एज़ एक्सेप्टेड.’
नियाज़ी फिर रोने लगे. जैकब नियाज़ी को फिर कोने में ले गए और उन्हें बताया कि समर्पण रेस कोर्स मैदान में होगा. नियाज़ी ने इसका सख़्त विरोध किया. इस बात पर भी असमंजस था कि नियाज़ी समर्पण किस चीज़ का करेंगे.
मेजर जनरल गंधर्व नागरा ने बताया था, "जैकब मुझसे कहने लगे कि इसको मनाओ कि यह कुछ तो सरेंडर करें. तो फिर मैंने नियाज़ी को एक साइड में ले जा कर कहा कि अब्दुल्ला तुम एक तलवार सरेंडर करो, तो वह कहने लगे पाकिस्तानी सेना में तलवार रखने का रिवाज नहीं है. तो फिर मैंने कहा कि तुम सरेंडर क्या करोगे? तुम्हारे पास तो कुछ भी नहीं है. लगता है तुम्हारी पेटी उतारनी पड़ेगी... या टोपी उतारनी पड़ेगी, जो ठीक नहीं लगेगा. फिर मैंने ही सलाह दी कि तुम एक पिस्टल लगाओ ओर पिस्टल उतार कर सरेंडर कर देना."
सरेंडर लंच
"जब यह संदेश लेकर मेरे एडीसी कैप्टेन हरतोश मेहता नियाज़ी के पास गए तो उन्होंने उनके साथ जनरल जमशेद को भेजा, जो ढाका गैरिसन के जीओसी थे. मैंने जनरल जमशेद की गाड़ी में बैठ कर उनका झंडा उतारा और 2-माउंटेन डिव का झंडा लगा दिया. जब मैं नियाज़ी के पास पहुँचा तो उन्होंने बहुत तपाक से मुझे रिसीव किया"
मेजर जनरल गंधर्व नागरा
इसके बाद सब लोग खाने के लिए मेस की तरफ़ बढ़े. ऑब्ज़र्वर अख़बार के गाविन यंग बाहर खड़े हुए थे. उन्होंने जैकब से अनुरोध किया क्या वह भी खाना खा सकते हैं. जैकब ने उन्हें अंदर बुला लिया.
वहाँ पर करीने से टेबुल लगी हुई थी... काँटे और छुरी और पूरे ताम-झाम के साथ. जैकब का कुछ भी खाने का मन नहीं हुआ. वह मेज़ के एक कोने में अपने एडीसी के साथ खड़े हो गए. बाद में गाविन ने अपने अख़बार ऑब्ज़र्वर के लिए दो पन्ने का लेख लिखा ’सरेंडर लंच.’
चार बजे नियाज़ी और जैकब जनरल अरोड़ा को लेने ढाका हवाई अड्डे पहुँचे. रास्ते में जैकब को दो भारतीय पैराट्रूपर दिखाई दिए. उन्होंने कार रोक कर उन्हें अपने पीछे आने के लिए कहा.
जैतूनी हरे रंग की मेजर जनरल की वर्दी पहने हुए एक व्यक्ति उनका तरफ़ बढ़ा. जैकब समझ गए कि वह मुक्ति बाहिनी के टाइगर सिद्दीकी हैं. उन्हें कुछ ख़तरे की बू आई. उन्होंने वहाँ मौजूद पेराट्रूपर्स से कहा कि वह नियाज़ी को कवर करें और सिद्दीकी की तरफ़ अपनी राइफ़लें तान दें.
जैकब ने विनम्रता पूर्वक सिद्दीकी से कहा कि वह हवाई अड्डे से चले जाएं. टाइगर टस से मस नहीं हुए. जैकब ने अपना अनुरोध दोहराया. टाइगर ने तब भी कोई जवाब नहीं दिया. जैकब ने तब चिल्ला कर कहा कि वह फ़ौरन अपने समर्थकों के साथ हवाई अड्डा छोड़ कर चले जाएं. इस बार जैकब की डाँट का असर हुआ.
"मैं आपको फ़ैसला लेने के लिए तीस मिनट का समय देता हूँ. अगर आप समर्पण नहीं करते तो मैं ढाका पर बमबारी दोबारा शुरू करने का आदेश दे दूँगा"
जनरल जैकब
साढ़े चार बजे अरोड़ा अपने दल बल के साथ पाँच एम क्यू हेलिकॉप्टर्स से ढाका हवाई अड्डे पर उतरे. रेसकोर्स मैदान पर पहले अरोड़ा ने गार्ड ऑफ़ ऑनर का निरीक्षण किया.
अरोडा और नियाज़ी एक मेज़ के सामने बैठे और दोनों ने आत्म समर्पण के दस्तवेज़ पर हस्ताक्षर किए. नियाज़ी ने अपने बिल्ले उतारे और अपना रिवॉल्वर जनरल अरोड़ा के हवाले कर दिया. नियाज़ी की आँखें एक बार फिर नम हो आईं.
अँधेरा हो रहा था. वहाँ पर मौजूद भीड़ चिल्लाने लगी. वह लोग नियाज़ी के ख़ून के प्यासे हो रहे थे. भारतीय सेना के वरिष्ठ अफ़सरों ने नियाज़ी के चारों तरफ़ घेरा बना दिया और उनको एक जीप में बैठा कर एक सुरक्षित जगह ले गए.
ढाका स्वतंत्र देश की स्वतंत्र राजधानी है
ठीक उसी समय इंदिरा गांधी संसद भवन के अपने दफ़्तर में स्वीडिश टेलीविज़न को एक इंटरव्यू दे रही थीं. तभी उनकी मेज़ पर रखा लाल टेलीफ़ोन बजा. रिसीवर पर उन्होंने सिर्फ़ चार शब्द कहे....यस...यस और थैंक यू. दूसरे छोर पर जनरल मानेक शॉ थे जो उन्हें बांग्लादेश में जीत की ख़बर दे रहे थे.
श्रीमती गांधी ने टेलीविज़न प्रोड्यूसर से माफ़ी माँगी और तेज़ क़दमों से लोक सभा की तरफ़ बढ़ीं. अभूतपूर्व शोर शराबे के बीच उन्होंने ऐलान किया- ढाका अब एक स्वतंत्र देश की स्वतंत्र राजधानी है. बाक़ी का उनका वक्तव्य तालियों की गड़गड़ाहट और नारेबाज़ी में डूब कर रह गया.
http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2011/12/111216_bangladesh_liberation_rf.shtml,,,,,,,